अरविंद गुप्ते

पंक्षियों, जंतुओं का प्रवास वैज्ञानिकों के लिए हमेशा से उत्सुकता का विषय रहा है। आखिर साल के एक खास हिस्से और खास मौसम में वे कहां जाते हैं? जाने के लिए कौन-सा रास्ता चुनते हैं?. . .  आदि-आद; और भी ढेरों सवाल। जंतुओं की ऐसी ही दुनिया की खोज-खबर।

जब गर्मी का मौसम अपने पूरे शबाब पर होता है तब हम सोचते हैं, “कितना अच्छा होता यदि किसी ठंडे स्थान पर हमें दो-तीन महीन रहने के लिए मिल जाता।” लेकिन आज आम आदमी के लिए तो यह एक सपना भर है।

आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि कई पक्षी हर वर्ष हज़ारों किलोमीटर की यात्रा करते हुए गर्मी के दिनों में ठंडे स्थानों पर और ठंड में गरम स्थानों पर पहुंचते हैं। पूरी दुनिया में इस प्रकार के प्रवासी पक्षी पाए जाते हैं। भारत के मैदानी इलाकों में भी ठंड के दिनों में दर्ज़नों ऐसी प्रजातियों के पक्षी दिखाई पड़ते हैं जो फरवरी-मार्च में गायब हो जाते हैं यानी वे ठंडे स्थानों के लिए रवाना हो जाते हैं। सितम्बर-अक्टूबर में ये पक्षी फिर दिखाई देने लगते हैं।

भारत के उत्तर में दुनिया की सबसे बड़ी पर्वत श्रृंखला (हिमालय) है जहां भारत में आने वाले अधिकांश प्रवासी पक्षी गर्मी का मौसम बिताते हैं। कुछ प्रवासी पक्षी हिमालय में न रुकते हुए और उत्तर की ओर उड़ते-उड़ते यूरोप पहुंच जाते हैं तो कुछ अन्य इससे भी आगे बढ़ते हुए साइबेरिया के बर्फीले मैदानों तक उड़ाने भरते हैं। भरतपुर के पक्षी अभयारण्य में प्रति वर्ष पहुंचने वाले साइबेरियाई सारसों के बारे में आपने सुना ही होगा। प्रवासी पक्षी ठंडे प्रदेशों में ही प्रजनन करते हैं।

खंजन की महिमा

भारत में आने वाले प्रवासी पक्षियों में शायद सबसे परिचित खंजन (जोबिन) है। सफेद या हल्के स्लेटी रंग के ये छोटे पक्षी शरदा ऋतु में आ कर पूरे देश में फैल जाते हैं। कवि ने ठीक ही कहा है:

जानि शरद ऋतु खंजन आए
पाई समय जिमि सुकृत सुहाए।

पूंछ को लगातार ऊपर-नीचे करते हुए ये पक्षी ज़मीन पर दौड़-दौड़ कर अपना भोजन ढूंढते रहते हैं। खंजन, गर्मी की ऋतु काश्मीर और पश्चिमी पाकिस्तान के पहाड़ों में बिताते हैं।

थिरथिरा एक अन्य प्रवासी पखी है जिसे आसानी से पहचाना जा सकता है। गौरैया के आकार के इस पक्षी का सिर और शरीर के ऊपर का भाग काला होता है जबकि पैर और वक्ष भगवे रंग के होते हैं। इससे शरीर का पिछला भाग रह-रहकर थरथराता है जिसके कारण ही इसे थिरथिरा कहते हैं। यह पक्षी गर्मी के मौसम में हिमालय के पूर्वी भाग में चला जाता है।

कहां जाते हैं सुरखाब
भारतीय प्रवासी पक्षियों में एक और उदाहरण यहां पर्याप्त होगा। जाड़े की रातों में तालाबों और नदियों से आने वाली कांकों-कांकों की आवाज़ से तो आप परिचित होंगे ही। यह आवाज़ एक सुंदर बत्तख की है जिसे सुरखाब या चकवा-चकवी कहते हैं। गर्मी के दिनों में सुरखाब तिब्बत और लद्दाख में स्थित झीलों में पहुंचते हैं और इन्हीं के किनारों पर प्रजनन करते हैं।

प्रवासी पक्षियों की एक विशेषता यह भी हैं जहां प्रजनन करते हैं, वे यही कोशिश करते हैं कि ठीक उसी स्थान पर घोंसला बनाएं जहां पिछले साल बनाया था। बम्बई के एक मकान के अहाते में स्थित लॉन (जो कि एक कमरे से कुछ ही बड़ा था) पर एक ही खंजन लगातार 5 वर्ष तक ठंड के मौसम में पहुंचा। आश्चर्य की बात यह है कि यह पक्षी काश्मीर से लगभग दो हज़ार किलोमीटर की यात्रा करके प्रति वर्ष सितम्बर माह की एक निश्चित तारीख को ही बम्बई पहुंचता था।

पैरों में छल्ला: पक्षियों की प्रवास की आदतों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने के लिए पक्षी विज्ञानी तरह-तरह के तरीके इस्तेमाल में लाते हैं, जैसे कि पैरों में छल्ला पहनाना। इस छल्ले पर इसके पकड़े जाने का स्थान और तारीख खुदी होती है। यदि यह पक्षी दुबारा कहीं पकड़ा जाता है तो संबंधित पक्षी विज्ञानी को तुरंत खबर की जाती है। इस तरह पक्षी के प्रवास स्थल तक पहुंचने के रास्ते को खोज पाना संभव हो जाता है।

. . पैरों में छल्ला और . . .
भारत में जाड़ें का मौसम बिताने वाले जो प्रवासी पक्षी यूरोप, साइबेरिया तथा चीन से आते हैं उन्हें हिमालय पर्वत श्रृंखला तो लांघनी ही पड़ती है। इनमें से कुछ पश्चिम में सिंधु नदी के दर्रे से, कुछ पूर्व में ब्राह्रपुत्र के दर्रे से ओर कुछ अन्य दर्रों से आते हैं। कुछ प्रवासी पक्षी इस प्रकार का लम्बा चक्कर काटने के बजाए बहुत अधिक ऊंचाई पर उड़ते हुए हिमालय की बर्फीली चोटियों पर से उड़ कर आ जाते हैं।

सवाल यह उठता है कि यह कैसे पता चलता है कि वही पक्षी हर वर्ष उसी स्थान पर पहुंचता है या कौन-सी प्रजाति के पक्षी गर्मी के मौसम में किस देश में पहुंचते हैं?

प्रवासी पक्षियों को जाल में पकड़ कर उनके पैरों में प्लास्टिक या एल्युमीनियम के हल्के छल्ले डाल दिए जाते हैं। इन छल्लों पर कोई संख्या या उस व्यक्ति का पता लिखा होता है जो छल्ला डालता है। जब ये पक्षी किसी अन्य स्थान पर पकड़े जाते हैं तो उस स्थान का नाम और पकड़े जाने के दिनांक की सूचना छल्ला पहनाने वाले व्यक्ति को दी जाती है।

बम्बई पहुंचने वाले जिस खंजन के बारे में ऊपर लिखा गया है उसके पैर में पहनाए गए छल्ले की वजह से ही उसे पहचाना जा सका था।

आर्कटिक टर्न की यात्रा
प्रवासी पक्षियों में प्रति वर्ष सबसे अधिक लंबी यात्रा करने वाले पक्षी का नाम आÐक्टक टर्न है। कैनेडा के उत्तर भाग, ग्रीनलैंड और नॉर्वे में पाया जाने वाला यह पक्षी जाड़े में दक्षिण की ओर उड़ कर 20,000 किलोमीटर दूर अंटाÐक्टका महाद्वीप पहुंचता है। इसका मतलब यह हुआ कि यह पक्षी प्रति वर्श 40,000 किलोमीटर की यात्रा करता है। कुछ पक्षी पनी वार्षिक यात्रा के दौरान निश्चित पड़ावों पर कुछ दिनों के लिए रुकते हैं, भोजन करते हैं और थकान मिटने पर फिर अपनी यात्रा पर चल पड़ते हैं। कुछ अन्य पक्षी अपनी यात्रा कहीं भी रुके बिना तय करते हैं। बिना रुके एक ही उड़ान में मंज़िल तक पहुंचने वाले पक्षियों में प्रमुख गोल्डन प्लवर नामक पक्षी हैं जो अमेरिका महाद्वीप के उत्तरी छोर पर स्थित अलास्का प्रदेश से लगभग 8,500 किलोमीटर दूर प्रशांत महासागर में स्थित मारक्वेराज़ द्वीप पहुंचते हैं। चूंकि ये पूरा सफर समुद्र के ऊपर उड़ते हुए तय करते हैं और इन दो स्थानों के बीज आज तक कोई गोल्डन प्लवर नहीं पाया गया है, यह माना जा सकता है कि ये पक्षी इस दूरी को प्रति वर्ष दो बार बिना रुके उड़ते हुए तय करते हैं।

आर्कटिक टर्न की यात्रा पथ: कैनेडा, ग्रीनलैंड और नॉर्वे में मिलने वाला यह पक्षी जाड़े में प्रवास के लिए अंटार्कटिका पहुंचता है। इसका यह यात्रा पथ, आने-जाने का मिलाकर करीब 40 हज़ार किलोमीटर का होता है। नक्शें में इसका यात्रा पथ दिखाया गया है; इससे समझ में आता है कि किस तरह ये समुद्र तट के किनारे-किनारे उड़ते हुए इतनी लंबी यात्रा करता है।

B प्रजनन के स्थान
M प्रवास की जानकारी रखने वाले केन्द्र
R पक्षियों के प्रवास का रास्ता जानने के लिए उन्हें यहां पकड़ा जाता है
W जाड़ा

अब तक यह तो स्पष्ट हो चुका होगा कि अधिकांश पक्षी इस प्रकार की लंबी यात्राएं नहीं करते। कौआ, गौरैया, कबूतर, मैना, आदि पक्षी एक ही स्थान पर रहते हुए ज़िंदगी गुज़ार देते हैं। हां, कुछ पक्षी ज़रूर थोड़ी दूर तक प्रवास करते हैं जो कि अधिक से अधिक कुछ सौ किलोमीटर तक हो  सकता है। इस प्रकार के प्रवास को स्थानीय प्रवास कहते हैं। नीलकंठ, दूधराज, हुदहुद और पीलक ऐसे परिचित पक्षी हैं जो स्थानीय प्रवास करते हैं।

ईल और समुद्र की छानबीन
प्रवासी पक्षियों के आवागमन का पता लगाना तुलनात्मक दृष्टि से आसान है, किन्तु अन्य जंतुओं के प्रवासों के बारे में पता लगाना काफी कठिन काम है। फिर भी वैज्ञानिकों द्वारा अन्य जंतुओं के प्रवास के बारे में किए गए अध्ययन भी कम आश्चर्यजनक नहीं हैं। इनमें सबसे अधिक हैरतअंगेज़ उदाहरण ईल नामक मछली का है।

दो से चार फीट लंबी और सांप के समान दिखाई पड़ने वाली ईल यूरोप और अमेरिका महाद्वीपों की नदियों, झीलों और तालाबों में पाई जाती है। सदियों से यूरोप और अमेरिका के निवासी देखते आए हैं कि प्रति वर्ष लाखें की संख्या में ईल मछलियां नदियों में तैरती हुई अटलांटिक समुद्र की ओर जाती हैं और सांप के बच्चों के समान छोटी-छोटी मछलिया प्रति वर्ष समुद्र से आकर नदियों तलाबों में आती हैं।

किन्तु क्या इनका आपस में कोई संबंध है? ईल मछलियां कहां जाती हैं और क्यों जाती हैं? छोटी मछलियां कहां से आती हैं? इन प्रश्नों के उत्तर किसी के पास नहीं थे। लगभग 75 वर्ष पूर्व इटली के दो वैज्ञानिकों, ग्रासी और कैलेन्ड्रथियो ने ईल का रहस्य सुलझाने का बीड़ा उठाया। उन्होंने एक जहाज़ लेकर उससे अटलांटिक महासागर के यूरोप और अमेरिका के बीच के भाग का चस्पा-चस्पा छान मारा। इस प्रवास के फलस्वरूप ईल के प्रवास के बारे में जो जानकारी मिली वह किसी परी-कथा से कम नहीं है।

अपने पूरे जीवनकाल में ईल मछलियां बड़ी पेटू होती हैं। मृत या जीवित किसी भी जंतु को ये नहीं छोड़ती। यहां तक कि छिपकलियां और मेंढकों की तलाश में पानी से निकल कर ज़मीन पर भी रेंगने लगती हैं।

ईल का अंतिम सफर: अमेरिका और यूरापे में मिलने वाली ईल मछलियां जब परिपक्व हो जातीं है तो भोजन लेना छोड़ देती हैं और अटलांटिक महासागर स्थित सरगासो समुद्र की ओर चल पड़ती हैं। वहां पहुंचकर ये प्रजनन करती हैं और अंडे देती हैं। तुरंत बाद नर और मादा दम तोड़ देते हैं।
अंडों से निकलने वाले लार्वा जो करीब छह मि.मी. लंबे और चपटे होते हैं, लहरों पर उतराते उस स्थान की ओर चल पड़ते हैं जहां से उनके माता-पिता आए थे।
ऊपर: नक्शे में: सरगासो समुद्र और ईल का यात्रा पथ दिखाया गया है।
नीचे: ईल का लार्वा और ईल।

10 से 20 वर्ष की आयु में इनके प्रजनन के अंग परिपक्व हो जाते हैं। ऐसा होने पर नर-मादा ईल भोजन लेना बंद कर देती हैं और अपने जीवन की अंतिम यात्रा पर निकल पड़ती हैं। झीलों, नदी-नालों से लाखों ईल एक ही धुन ले कर अटलांटिक महासागर में पहुंचती हैं। फिर ये बिना भोजन लिए पश्चिम की ओर तैरते हुए अटलांटिक महासागर के उस भाग में पहुंचती है जिसे ‘सरगासो समुद्र’ कहा जाता है। इस यात्रा में इन्हें एक वर्ष लग जाता है। ‘सरगासो समुद्र’ में पहुंच कर नर और मादा ईल प्रजनन करती हैं और फिर थकान के कारण दोनों वही दम तोड़ देती हैं। इनके अंडों से निकलने वाले बच्चे पूर्व की ओर स्थिर यूरोप के किनारे की ओर चल पड़ते हैं - उस मंज़िल की तलाश में जहां से उनके माता पिता आए थे, लेकिन जिसे उन्होंने स्वयं की कभी नहीं देखा। पारदर्शी पत्तों के समान दिखने वाले ये चपटे आकार के बच्चों लहरों पर उछालते-कूदते हुए अपना सफर तय करते हैं। इस यात्रा के दौरान करोड़ों ईल बच्चे-खुचे बच्चे भी लाखों की संख्या में होते हैं और ये तीन वर्ष में वह दूरी तय करते हैं जिसे इनके माता-पिता ने एक वर्ष में तय किया था। यूरोप के किनारे पहुंचते पहुंचते इन बच्चों का आकार चपटे से गोल हो जाता है और फिर ये बड़ी नदियों में होते हुए छोटे से नदी-नालों और तालाबों में पहुंचते हैं। मीठे पानी में 10-20 वर्ष बिताने के बाद इनके भी जीवन का अंत ‘सरगासो समुद्र’ में ही होता है जहां ये पैदा हुए थे। ईल मछली की इस आश्चर्यजनक दास्तान में एक अध्याय और जुड जाता है जब हम अमेरिकी ईल मछलियों के प्रवास को देखते हैं। अमेरिका महाद्वीप के तालाबों और नदी-नालों में पाए जाने वाले ईल भी, प्रजनन के लिए ‘सरगासो समुद्र’ में ही आती हैं। किन्तु यह स्थान अमेरिका के अधिक पास होने के कारण उन्हें इस यात्रा में लगभग चार माह लगते हैं और इनके बच्चों को समुद्र से मीठे पानी की यात्रा में लगभग एक साल। इसलिए जहां यूरोप की ईल मछलियों के बच्चे अपनी चपटी अवस्था से गोल आकार में आने के लिए तीन साल लेते हैं, वही अमेरिका की ईल मछलियों के बच्चों में यह परिवर्तन एक साल में ही हो जाता है। मजेदार बात यह है कि एक ही स्थान पर विपरीत दिशा से लेकर प्रजनन करने के बाद अपनी इहलीला समाप्त कर देने वाली ईल मछलियों के बच्चे कभी राह नहीं भूलते। आज तक न तो अमरीकी ईल का कोई बच्चा यूरोप में पाया गया है और न यूरोप की ईल का बच्चा अमेरिका में।

सॅमन की कुदान
अन्य कुछ मछलियां भी प्रवास करती हैं, चाहे वे इतनी लंबी दूरियां न तय करती हों जितनी ईल करती हैं।

अमेरिका के तट पर पाई जाने वाली सॅमन (द्मठ्ठथ्थ्र्दृद) मछली इनमें प्रमुख है। किन्तु इसका जीवन चक्र, ईल के जीवनचक्र से ठीक उलटा है। जहां ईल मीठे पानी में अपना जीवन गुज़ार कर प्रजनन के लिए समुद्र में आती है, वहां सॅमन अपना जीवन समुद्र में गुज़ारती है। प्रजनन अंगों के परिपक्व होने पर ईल की तरह नर और मादा सॅमन पर भी मानों एक जुनून सवार हो जाता है  और वे भोजन लेना बंद कर देती है। समुद्र में मिलने वाली बड़ी नदियों से होती हुई ये मछलियां प्रवाह की विपरीत दिशा में तैरती हुई, छोटी नदियों में और नालों में पहुंचती और अंत में उथले पानी वाले उन स्थानों पर पहुंचती है जहां इन नदी-नालों का उद्गम स्थान होता है। इस जी तोड़ मेहनत के बाद जब वे अपनी मंज़िल पर पहुंचती हैं तब इतनी थक चुकी होती हैं कि प्रजनन करने के बाद या तो वे वहीं दम तोड़ देती हैं या फिर बेबस होकर पानी के प्रवाह के साथ बहती चली जाती हैं। इनके बच्चे कुछ दिन अपने जम्म स्थान पर बिताने के बाद जब पर्याप्त रूप से बड़े हो जाते हैं तो समुद्र की ओर चल पड़ते हैं, जहां वे अपना शेष जीवन बिताते हैं। छल्ले पहनाने के प्रयोगों से पता चला है कि जब ये बच्चे बड़े होकर प्रजनन के लिए मीठे पानी में आते हैं तब ठीक स्थान पर पहुंचने की कोशिश करते हैं जहां उनका जन्म हुआ था।

अमेरिका की छोटी-बड़ी नदियों पर बने बांधों पर से गिर रहे पानी में प्रजनन के मौसम में अनगिनत सॅमन मछलियां कूद-कूद कर बांध को लांघने की कोशिश करती हुई दिखाई देती हैं। कई बांधों के पास मत्स्य पालन विभाग ने सीढ़ीनुमा कुंड बनाए हैं जिनकी सहायता से ये मछलियां आसानी से बांध को पार कर जाती हैं।

भारत के समुद्रतट पर भी बंगाल की खाड़ी में पाई जाने वाली हिलसा मछलियां प्रजनन के लिए गंगा नदी में आती हैं। एक समय ये मछलियां इलाहाबाद तक बड़ी संख्या में आ जाती थीं किन्तु अब गंगा पर बने बांधों और बढ़ते प्रदूषण के कारण ये अपने इच्छित स्थान पर प्रजनन के लिए नहीं पहुंच पाती हैं और इनकी संख्या प्रति वर्ष घटती जा रही है।

एक झरने के ऊपर, प्रवाह की दिशा मे विपरीत छलांग लगाती सॅमन मछलियां।

कछुए और तितली भी
प्रजनन के लिए हर वर्ष प्रवास करने वाली केवल मछलियां ही नहीं है। कई स्तनधारी जैसे व्हेल और सील (ये दोनों जंतु समुद्र में रहते हैं), कुछ हिरन (अफ्रिका में पाया जाने वाले विल्डे बीस्ट और उत्तरी अमेरिका में पाया जाने वाला कैरीबू) और बायसन प्रजनन के लिए प्रति वर्ष सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा करते हैं।

उत्तरी अमेरिका और अफ्रीका के समुद्रतट पर रहने वाले ‘लेदर बैक टर्टल’ नामक कछुए प्रजनन करने के लिए प्रतिवर्ष 5,000 किलोमीटर की यात्रा करते हुए दक्षिणी अमेरिकी देश फ्रेंच गुयाना के तट पर पहुंचते हैं जहां मादाएं रेत में अंडे देती हैं। इसी प्रकार दक्षिण अमेरिकी देश ब्रााज़ील के तट पर हने वाले ‘ग्रीन बैंक’ कछुए 1800 किलोमीटर की दूरी तय करके अटलांटिक महासागर में स्थित छोटे से एसेन्शन द्वीप के तट  पर पहुंचते हैं। वहां समुद्र के किनारे रेते में अंडे देने के बाद ये ब्रााज़ील लौट जाते हैं।

संभवत: ये कछुए अंडे देने के लिए सुरक्षित स्थान की खोज में इतनी लंबी यात्राएं करते हैं। हिन्द महासागर में पाए जाने वाले ग्रीनबैक और लदरबैक प्रजाति के कछुओं को इतनी लंबी यात्राएं इसलिए नहीं करनी पड़ती क्योंकि उन्हें अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में अंडे देने के कई सुरक्षित स्थान मिल जाते हैं।

इन बड़े जंतुओं के अलावा कुछ कीट भी मुसाफिरी करते हैं। उत्तरी अमेरिका में पाई जाने वाली मोनार्क तितलियां प्रति वर्ष लाखों की संख्या में उड़कर मेक्सिको के पहाड़ी इलाके में जाड़े का मौसम बिताने के लिए पहुंचती हैं। इस यात्रा में ये तितलियां 1000 से लेकर 2500 किलोमीटर तक की दूरी तय करती हैं। रोचक तथ्य यह है कि इस प्रजाति की सभी तितलियां प्रवास नहीं करतीं। ये तितलियां अपने अंडे मिल्कवीड नामक पौधे पर ही देती हैं।  उत्तरी अमेरिका के जिन भागों में यह पौधा पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है वहां की तितलियां प्रवास नहीं करतीं। जिन भागों में यह पौधा पाया जाता उन भागों से ही मोनार्क तितलियां मेक्सिको पहुंचती हैं जहां यह पौधा बहुतायत से होता है। प्रवासी तितलियों को एक और लाभ होता है। उत्तरी अमेरिका के जो इलाके उत्तरी ध्रुवीय प्रदेश के करीब हैं, वहां जाड़े के मौसम में कभी-कभी तापमान एकदम इतना कम हो जाता है कि पानी जम जाता है। तापक्रम में इस प्रकार अचानक बहुत गिरावट आना तितलियों के लिए जानलेवा होता है। अत: वे इस खतरे से बचने के लिए लंबी यात्रा का खतरा उठाना बेहतर समझती हैं।


अरविंद गुप्ते: प्राणी शास्त के प्राध्यापक। भोपाल स्थित प्रशासन अकादमी में कार्यरत। होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से संबद्ध।