कहने को बहार तो आती है मगर...
संदर्भ के सातवें अंक में हमने एक बच्चे के सवाल - गूलर के फूल क्यों नहीं दिखते - का जवाब दिया था। उस जवाब की कुछ अस्पष्टताओं एवं गलतियों की ओर डॉ. डी. एन. मिश्रराज ने हमारा ध्यान दिलाया था। उनका पत्र हमने संदर्भ के दसवें अंक में प्रकाशित किया था। परन्तु मामला यहीं खत्म नहीं होता। इस बार डॉ. भोलेश्वर दुबे एवं किशोर पंवार ने कई नए तथ्य जोड़ते हुए गूलर के फूल पर चल रही इस चर्चा को और आगे बढ़ाया है।

संभव है कि इन सब प्रयासों के बाद भी गूलर के फूल को लेकर कुछ बातें छूट गई हों क्योंकि अक्सर पुस्तकों में अंजीर के फूल का विस्तृत विवरण दिया होता है, गूलर का खास कोई ज़िक्र नहीं होता। क्योंकि अंजीर, गूलर, पीपल, बरगद ये सब एक ही तरह के पेड़ है इसलिए मान लिया जाता है कि इन सबके साथ एक-सी क्रियाएं हो रही होंगी। इसलिए यदि गूलर विशेष के फूल के संबंध में आपसे पास कोई जानकारी हो तो आप भी इस बहस में शामिल हो सकते हैं।

- संपादक मंडल

संदर्भ के सातवें अंक में गूलर के फूल के बारे में छपे जवाब की शुरुआत ही ठीक नहीं है। लिखा है कि ‘गूलर में भी अन्य पेड़ पौधों की तरह फूल लगते हैं।’ यह कथन उचित नहीं है, यदि ऐसा होता तो फिर परेशानी ही क्या थी! दरअसल गूलर को लेकर सारे भ्रम, सारी उत्सुकता इसी वजह से है कि न तो इसमें गुड़हल और गुलाब की तरह रंग-बिरंगी पंखुड़ियों वाले फूल लगते हैं, न ही आम और जामुन की तरह फल।

यूं तो गूलर के फूल, फल और पुष्पक्रम तीनों ही विशिष्ट हैं जो इसे रहस्यमयी बनाते हैं, जिनके चलते जन सामान्य में भी कई रोचक एवं आश्चर्य-जनक भ्रम फैले हैं। जैसे ‘गूलर के फूल पूर्णमासी की रात को ही खिलते हैं’ और ‘भाग्यशाली लोगों को ही दिखाई देते हैं।’ गूलर के फूल को लेकर एक कहानी मैंने भी बचपन में पढ़ी थी जिसमें राजा अपनी राजकुमारी की शादी उस व्यक्ति से करने का प्रस्ताव रखता है जो उसे गूलर का फूल लाकर दे! कहने का मतलब यह है कि गूलर का फूल अपने-आप में सदियों से लोगों की उत्सुकता का विषय रहा है। यह सवाल आपने ‘संदर्भ’ में उठाया इसके लिए धन्यवाद।

परन्तु संदर्भ के अंक सात में दिए गए जवाब में कई कमियां थी जिनका ज़िक्र डॉ. डी. एन. मिश्रराज ने अपने पत्र में किया है। उनके खत में याददाश्त के आधार पर दिए गए विस्तृत विवरण में कुछ बातें अभी भी ऐसी हैं जो वर्तमान में उपलब्ध जानकारी से मेल नहीं खाती। मसलन उन्होंने पुंकेसर और स्त्रीकेसर वाले फूलों के बारे में लिखा है - “ये एक साथ पास-पास नहीं होते।”  और साथ ही यह भी कहा है कि सच्चे स्त्री पुष्प, खोटे स्त्री पुष्प और नर पुष्प अलग-अलग पुष्पक्रमों (गूलर की गेंदनुमा रचना) में ही लगते हैं। जबकि हकीकत यह है कि गूलर में तीन प्रकार के पुष्पक्रम (गेंदनुमा रचनाएं) तो होते हैं परन्तु उनमें एक से ज़्यादा किस्म के फूल पाए जाते हैं।

  1. एक पुष्पक्रम में नर पुष्प और खोटे मादा पुष्प।
  2. दूसरे पुष्पक्रम में सच्चे स्त्री पुष्प व खोटे स्त्री पुष्प।
  3. तीसरे पुष्पक्रम में केवल सच्चे स्त्री पुष्प।

पहले प्रकार के पुष्पक्रम में मुंह की ओर नर पुष्प और नीचे खोटे मादा पुष्प लगे होते हैं। ऐसा वर्णन रोजर ग्राउन्ड्स ने अपनी पुस्तक में दिया है।

मादा पुष्पों में वर्तिका (मादा पुष्प का तुन्तुनुमा हिस्सा जिस पर परागकण चिपकते हैं और अंकुरित होते हैं) की लम्बाई में अंतर होता है। खोटे मादा पुष्पों की वर्तिका छोटी रहती है जबकि असली मादा पुष्पों की वर्तिका लम्बी होती है। यही कारण है कि मादा बर्र (ब्लास्टोफैगा) का अण्डे जमा करने वाला उपकरण (ओवीपोज़िटर) इन फूलों के अण्डाशय तक नहीं पहुंच पाता, अत: वह अपने अण्डे असली मादा पुष्पों में नहीं दे पाती। परन्तु इस क्रिया में असली मादा पुष्पों का परागण तो हो ही जाता है।

अंजीर में पर-परागणः नर और मादा बर्र (ब्लास्टोफैगा) की रचना बहुत फर्क होती है। नर ताउम्र अंजीर के अंदर ही रहता है। इसलिए उसके पंख भी विकसित नहीं होते। खुद किसी खोटे पुष्प में से बड़ा होकर बाहर निकलता है और फिर अन्य खोटे पुष्पों को टटोलकर किसी परिपक्व मादा को उसी के अंदर घुसकर निषेचित कर देता है। बस, फिर उसकी इहलीला समाप्त।

परागण का कार्य केवल गर्भवती मादा ही करती है। गर्भवती मादा अण्डे देने के लिए सुरक्षित स्थान खोजते हुए नर पुष्पों से परागकण लेकर मादा पुष्प पर पहुंचती है जिससे परागण की क्रिया पूरी होती है। गर्भवती मादा ब्लास्टोफैगा अंजीर के मादा पुष्प की वर्तिका लम्बी होने के कारण उनमें अण्डे नहीं दे पाती। खोटे पुष्पों की वर्तिका छोटी होती है  और नीचे का हिस्सा फूला हुआ।

चित्र में विभिन्न रचनाओं को समझने के लिए तीनों तरह के पुष्पों और ब्लास्टोपैगा को खूब बड़ा बनाकर दिखाया गया है।

मादा बर्र नकली मादा पुष्पों में, जिनका नीचे वाला भाग काफी फूला होता है, अपने अण्डे देती है। वहीं इन अण्डों से लार्वा एवं वयस्क बर्र बनते हैं।

अगर बर्र के जीवनचक्र और गूलर के फूलों के निषेचन को सिलसिलेवार देखा जाए तो घटनाक्रम कुछ इस तरह होगा। गूलर के कच्चे पुष्पक्रम (गेंदनुमा रचना) में मादा बर्र छिद्र से अंदर जाती है। वहां यह खोटे मादा पुष्पों में अपने अंडे देती है। ऐसा प्रयास यह बर्र सच्चे मादा पुष्पों के साथ भी करती है पर उनकी वर्तिका लम्बी होने के कारण इसे सफलता नहीं मिलती। अंडे देने के बाद मादा की मृत्यु हो जाती है।

खोटे मादा पुष्पों में दिए गए अंडे विकसित होते हैं। कुछ दिन बाद खोटे मादा पुष्पों से बर्र की संतानें यानी वयस्क पतंगे निकलते हैं। नर बर्र का विकास तेजी से होता है, अत: वह खोटे पुष्पों में से पहले बाहर निकल आता है और उसी गेंदनुमा रचना के अंदर ऐसे खोटे पुष्पों की खोजता है जिसमें मादा बर्र अभी खोटे स्त्री पुष्प के अंदर ही है। नर बर्र ऐसे फूल के अंदर घुसकर मादा बर्र को वहीं निषेचित कर देता है। इसके तुरंत बाद उसकी मृत्यु हो जाती है। इस तरह गूलर के इस गेंदनुमा पुष्पक्रम में बर्र की दो पीढ़ियां मर-खप चुकी होती हैं।

निषेचित मादाएं परिपक्व होने पर खोटे पुष्पों में से बाहर निकलती हैं। अब गेंदनुमा रचना से बाहर आने का एक ही रास्ता होता है - वही छिद्र जिसके मुंह पर लगे नर फूल अब तक पककर परागयुक्त हो चुके होते हैं। वयस्क मादा बर्र की बाहर निकलने की कोशिश में उस पर नर फूल के परागकण भी चिपक जाते हैं। परागकणों से लदी यह मादा बर्र अपने अंडे देने के लिए नए पुष्पक्रमों की तलाश कर उनमें घुस जाती है। उसके साथ आए परागकणों से मादा फूलों का परागण हो जाता है।

नर एवं मादा ब्लास्टोफैगा की रचना एवं आकार भी अलग-अलग होते हैं। नर इस गेंदनुमा पुष्पक्रम में से कभी बाहर नहीं निकलते। उनका पूरा जीवनचक्र गूलर के अंदर ही खत्म हो जाता है। उनका काम सिर्फ मादा को निषेचित करना ही है। यह क्रिया सम्पन्न कर वे मृत्यु का वरण करते हैं। नर बर्र के पंख तक नहीं होते। और परागण का कार्य केवल गर्भवती मादा ब्लास्टोफैगा ही करती है। खोटे मादा पुष्पों पर अंडे देने के बाद वह एक विशिष्ट द्रव की बूंद भी उस पर छोड़ती है ताकि इस खोटे पुष्प का अंडाशय गठान में बदल जाए। इससे खोटे पुष्प में विकसित हो रही बर्र को भोजन मिलना तय हो जाता है।

गूलर और ब्लास्टोफैगा के पारस्परिक संबंध में बर्र को अपने अंडे देनें के लिए सुरक्षित स्थान व बच्चों के लिए भोजन की जगह मिल जाती है। अंडों से निकालने वाले लार्वा को कोई खतरा नहीं होता क्योंकि वे पुष्पक्रम के अंदर सुरक्षित रहते हैं। दूसरी ओर इस बर्र की मदद से गूलर के फल व बीज बनना सुनिश्चित हो जाता है।

ब्लास्टोफैगा या और कोई...
उल्लेखनीय है कि यह वर्णन अंजीर (फिग) का है। गूलर और पीपल भी इसी वंश के पेड़ हैं इसलिए हो सकता है कि इनमें ब्लास्टोफैगा की कोई अन्य प्रजाति परागण का कार्य करती हो।

अंत में, कुल मिलाकर गूलर के फूल उस मायने में नहीं होते जैसे हमने अन्य पौधों के देखे हैं: अत: जन सामान्य के लिए यह ठीक ही है कि गूलर के फूल नहीं दिखाई देते। परन्तु वनस्पति विज्ञान की दृष्टि से गूलर के फूल होते हैं - एक दो नहीं हज़ारों अलग-अलग नहीं ढेर सारे एक साथ, पूर्ण नहीं अपूर्ण (क्योंकि इनमें अंखुड़ी और पंखुड़ी नहीं होती) और नर व मादा फूल अलग-अलग।

वनस्पति विज्ञान की नज़र से गूलर का तथाकथित पका फल एक विशेष प्रकार का पुष्पक्रम है जिसके अंदर हज़ारों की संख्या में छोट-छोटे फल लगे होते हैं। यानी जब आप अंजीर खाते हैं तो एक-दो नहीं हज़ारों छोटे-छोटे दानेदार, बीजों से भरे फलों के साथ पूरा-का-पूरा परिपक्व पुष्पक्रम खाते हैं। इस दृष्टि से ये एक विशिष्ट फल यानी फलों का समूह है।

गूलर की बात समाप्त करने से पूर्व उसकी एक और विशेषता का ज़िक्र कर लिया जाए तो बेहतर होगा, और वह है इसके पुष्पक्रमों के लगने का तरीका। सामान्यत: फूल पौधों की नई आगे की शाखाओं पर खिलते हैं, लेकिन अगर आपने कभी ध्यान दिया हो तो गूलर में ये पुष्पक्रम मोटे-मोटे तनों पर सीधे गुच्छों की शक्ल में लगते हैं। इसकी इस विशेषता को वनस्पतिशास्त्री कॉलीफ्लोरी कहते हैं।


(- डॉ. भोलेश्वर दुबे, वनस्पतिशास्त्र विभाग, शासकीय के.पी. कॉलेज, देवास, म.प्र.

- डॉ. किशोर पंवार, वनस्पतिशास्त्र विभाग, शासकीय महाविद्यालय, सेंधवा, ज़िला खरगौन म.प्र.)