यूं ही एक किताब पलट रहे थे कि अचानक ये दो चित्र दिखे। गौर किया तो लगा कि ये तो आंखों के भीतर की एक पूरी-की-पूरी व्यवस्था को दिखा रहे हैं। सोचा क्यों न आपको भी दिखाए जाएं।

दरअसल देखने के लिए एक निश्चित सीमा तक रोशनी की जरूरत होती है। लेकिन कभी ज़रूरत से ज्यादा रोशनी मिलने लगे, या कम तो क्या होता है? इस व्यवस्था का प्रबंध सम्हालना आइरिस की मांसपेशियों के जिम्मे है। आवश्यकता से तेज़ रोशनी मिलने पर जैसे कि धूप में, ये मांसपेशियां पुतली के आसपास सिकुड़कर उस घेरे को संकरा कर देती हैं जहां से होकर रोशनी आंख के भीतर जाती है। अब आंख में कम रोशनी प्रवेश कर पाती है। दूसरी ओर कम रोशनी में ये मांसपेशियां फैलती हैं - पतली का आकार बड़ा हो जाता है और ज्यादा रोशनी आंख में जा पाती है। वैसे देखा यह भी गया है कि घबराहट में या किसी चीज़ पर निगाहें केंद्रित करने पर भी पुतली का आकार बड़ा हो जाता है। तो अब समझा हमने कि तेज़ रोशनी में आंखें चुंधिया क्यों जाती हैं या कम रोशनी में आंखें फाड़-फाड़कर क्यों देखना पड़ता है!