अमिताभ मुखर्जी

पुस्तक समीक्षा

शीर्षक: चाय की प्याली में पहेली (मूल: रीड्ल्ज़ इन योर टी कप),
उपशीर्षक: दैनिक जीवन की विज्ञान पहेलियां,
मूल लेखक: पार्थ घोष एवं दीपंकर होम,
अनुवादक: अरविंद गुप्ता,
प्रकाशक: नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया,
नई दिल्ली 110016,
मूल्य: 27.00 पृष्ठ संख्या: 105

— आग पर चढ़ाई हुई पानी की केतनी गुनगुनाती क्यों है?
— सूखे कागज़ के मुकाबले में गीले कागज़ को फाड़ना आसान क्यों होता है?
— साबुन किस प्रकार कपों का मैल साफ करता है?
— उबलता हुआ दूध ऊफनकर गिर जाता है जबकि पानी नहीं गिरता। क्यों?
— तारे क्यों झिलमिलाते हैं?

ऐसे बहुत से सवाल हैं जो कभी-न-कभी हम सबके दिमाग में आए होने पर आमतौर पर हम इन सवालों को महत्व नहीं देते। हम मान लेते हैं कि इन ‘आसान’ सवालों के जवाब भी आसान होंगे। अत: इन पर गम्भीरता से सोचने की ज़रूरत नहीं है।

परन्तु दैनिक जीवन में उठने वाले ये सवाल प्राय: उतने सीधे नहीं होते जितने वे लगते हैं। अक्सर इनमें कोई चौंका देने वाली बात छुपी होती है। ऐसी ही पहेजियों को आम पाठकों के सामने लाने के उद्देश्य से प्रेरित होकर पार्थ घोष और दीपंकर होम ने रिड्ल्ज़ इन योर टी कप’ पुस्तक लिखी थी। पत्रिकाओं में छपने वाले नियमित स्तंभों का यह संकलन 1989 में छपा थ। छ: साल बाद आज इसका हिन्दी अनुवाद उपलब्ध हुआ है। इसके लिए हमें सराहना होगा नेशलन बुक ट्रस्ट को और अनुवाद अरविन्द गुप्ता को।

इस किताब में लगभग एक सौ पहेलियां हैं। दोनों लेखकर भौतिकशास्त्री हैं, अत: सवाल मूलत: भौतिकी के हैं। लेखकों ने उन्हें आठ खंडों में बांटा है। उनका कहना है “इसका आधार है कि समस्या हमें कहां नज़र आयी - रासोईघर में, या उसके आसपास, या फिर बाहर प्रकृति में, या खेल के मैदान में, कोई फिल्म देखते, या  फिर कोई उपन्यास पढ़ते”। आठवें खंड में कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो उनके अनुसार अभी भी अनुत्तरित हैं। किताब के अंत में पहले सात खंडों के प्रश्नों के उत्तर दिए गए हैं।

सवालों में विज्ञान के पारिभाषिक शब्दों का उपयोग नहीं किया गया है। कुछ सवालों के अंतर्गत विख्यात वैज्ञानिकों के बारे में छोटे-छोटे किस्से हैं, तो कुछ में प्रसिद्ध फिल्मों का ज़िक्र है। हर सवाल के साथ कार्टूनशैली में एक चित्र है। सुपर्ण चौधरी के बनाए हुए ये चित्र स्पष्टीकरण के साथ मनोरंजन भी करते हैं। अरविन्द गुप्ता ने अनुवाद के लिए सरल बोलचाल का हिन्दी अपनायी है। इससे मूल अंग्रेजी में जो रोज़मर्रा का ज़ायका है, वह बना हुआ है। इस तरह यह किताब विज्ञान को दैनिक जीवन से जोड़ने का एक सार्थक प्रयास है। किशोर तथा युवा पाठकों की जिज्ञासाएं जगाने में यह समक्ष होगी, इसमें कोई संदेह नहीं।

चलते जाओ 

साइकिल (या पतले रिंग का पहिया) रुकी स्थिति में ज़मीन पर खड़ा नहीं रह सकता। परंतु एक बार उसे चला दिया जाए तो वह नहीं गिरता। इसका क्या कारण हो सकता है?


उत्तरों में लेखकों को सही और सरल की बीच संतुलन बनाए रखना पड़ा है। पारिभाषिक शब्दों का उपयोग प्रश्नों में नहीं किया है पर उत्तरों में करना पड़ा है। इससे हिन्दी में कहीं-कहीं दिक्कत आई है। जैसे एक ही राशि को पृष्ठ-76 पर कोणीय आवेग और पृष्ठ -78 पर कोणीय संवेग कहा गया है। कहीं-कहीं अति-सरलीकरण का आभास है। उदाहरण स्वरूप, चलाई गई साइकिन की स्थिरता का कारण कोणीय संवेग का संरक्षण बताया जो कुछ अधूरा-सा लगता है (इस सवाल का जवाब संदर्भ के तीसरे अंक में विस्तार से दिया गया है। देखिए ‘सीधे-सवाल, टेढे-जवाब’, संदर्भ, अंक-3)। फिर भी कुल मिलाकर दिए गए उत्तर इस पुस्तक के उपयोगी अंश हैं, जो पाठक को आगे सोचने पर मजबूर करेंगे।

अंत में, प्रशंसा के साथ-साथ एक छोटा-सा ऐतराज़। किताब में कुछ वैज्ञानिकों या व्यक्तियों के नामों के हिन्दी रूप गलत दिए गए हैं। मसलन श्रेडिंगर और आइनस्टाइन की जगह श्रेडिंजर और आर्इंस्टीन लिखना फिर भी चल सकता है, क्योंकि ये नाम विदेशी हैं। पर जब भारत ने नोबेल पुरस्कार विजेता रामन का नाम रमन लिखा जाता है तो अजीब लगता है। यहां तक कि लेखक दीपंकर होम का नाम भी दीपांकर बन गया है। आशा है कि अगले संस्करण में ये गलतियां सुधार ली जाएंगी।


(अमिताभ मुखर्जी - दिल्ली विश् वविद्यालय के भौतिकी विभाग में प्राध्यापक।)


ज़रा सिर तो खुजलाइए

गर्मियां तो आ ही रही हैं, बर्फ भी मिलने लगी है। बस ज़रा इस प्रयोग को कर देखिए। करना यह है कि ढक स्केल या लकड़ी, लोहे की पट्टी को हवा में दो आधारों पर लटका दीजिए। एक बर्फ का टुकड़ा उस पर रख दीजिए। अब एक लोहे का पतला-सा तार लेकर जैसे इस चित्र में कपड़े की प्रेस लटकी है वैसे ही कोई और भार लटका दीजिए। देखिए क्या होता है?

अब आपको यह बताने के लिए सर खुजाना है कि ऐसा क्यों हो रहा है कि तार बर्फ को काटते हुए नीचे जा रहा है। इस प्रक्रिया में तार के नीचे की बर्फ तो पिघल रही है लेकिन ऊपर की बर्फ जमती जा रहा ही। मानो पिघली ही न हो।