सवालीराम

सवाल: आखिर यह पोलियों कौन-सी बीमार है? अगर बच्चे को पोलियो की दवा नहीं पिलाई जाए तो बच्चा अपाहिज क्यों हो जाता है?

जवाब: आप इतना तो जानते ही हैं कि पोलियो वह बीमारी है जिसके होने पर बच्चा अपाहिज हो जाता है। लेकिन सिर्फ इतने से जवाब से न आप संतुष्ट होंगे न हम। क्योंकि यह अधूरा तो है ही पर काफी हद तक गलत भी है।

पक्षाघात और पोलियो का इतना भी गहरा संबंध नहीं है। पोलियो के अधिकांश रोगी तो थोड़ी खांसी-जुकाम और बुखार के बाद ऐसे स्वथ्य हो जाते हैं जैसे इन्हें पोलियो हुआ ही न हो और यह भी संभव है कि व्यक्ति को खांसी-जुकाम जैसी चीज़ भी न हो फिर भी डॉक्टरी भाषा में उसे पोलियो का रोगी कहा जाए। तो फिर पोलियो क्या है?

पोलिया (पोलियो मेलाईटिस) एक संक्रामक रोग है जो कुछ विशेष प्रकार के विषाणुओं के ज़रिए होता है। ये विषाणु भोजन अथवा सांस लेने के रास्ते एक संक्रमित व्यक्ति से स्वस्थ व्यक्तियों तक पहुंचकर उन्हें भी रोग ग्रसित कर सकते हैं। जिस भी व्यक्ति के अंदर ऐसे विषाणु पल रहे हों वह पोलियो फैलाने की क्षमता रखता है भले ही उसके अंदर रोक के लक्षण आंशिक ही क्यों न हों।

पोलियो के विषाणु शरीर में दो स्थानों को अपना घर बनाते हैं - आंतें या गला। यहां से ये मल या सांस और थूक के द्वारा बाहर निकलकर अन्य स्वस्थ लोगों तक पहुंच सकते हैं। विषाणुओं के यातायात का साधन होते हैं कॉकरोच, मक्खी, हवा या फिर रोगी के अपने हाथ।

आंतों तक ये विषाणु या तो सीधे रास्ते यानी कि दूषित भोजन पर बैठकर या फिर उल्टे रास्ते से मल विसर्जन के बाद उपयोग में लाए गए पानी द्वारा पहुंचते हैं। इस कारण मल विसर्जन के बाद साफ पानी का उपयोग करना चाहिए। और रोग से बचने के लिए खाने वाली चीज़ों को गंदे हाथ न लगाना और कच्चे फल-सब्ज़ी को ठीक से धोना ज़रूरी है।

कितनी भी सावधानी रखी जाए रोग के फैलने का खतरा तो अवश्य ही बना रहता है इसलिए बच्चों को पालियो की दवा पिला देना बहुत आवश्यक है। ऐसा करने से उनके लिए इस रोग से बचाव निश्चित हो जाता है।

तो अब रोग के लक्षणों पर चलते हैं। जैसा कि शुरूआत में ज़िक्र किया गया है कि पोलियो रोगी के गले में या फिर उसकी आंतों में बसे विषाणुओं के कारण होता है। रोग के लक्षण विषाणुओं के बसने के स्थान पर निर्भर करते हैं।

गले में पहुंचे विषाणुओं का असर रोगी की गर्दन तक ही सीमित रहता है। इस में पहले रोगी को खांसी-जुकाम होता है जो तीसरे दिन तक गर्दन-तोड़ बुखार के लक्षणों में परिवर्तित हो जाता है। ऐसे में रोगी की गर्दन जकड़ जाती है और कुछ रोगियों को सांस लेने और निगलने में बहुत कठिनाई होती है। ऐसी स्थिति में रोगी का दम घुटने का खतरा होता है इसलिए उसे ज़्यादा हिलाना नहीं चाहिए। ऐसी अवस्था में रोगी को चिकित्सक की निगरानी में रखना भी ज़रूरी है। वैसे इस पीड़ा से गुज़रने के बाद अधिकांश रोगी 2-4 हफ्ते में खुद-व-खुद स्वस्थ हो जाते हैं और अपाहिज नहीं होते। परन्तु सबसे घातक अपाहिज करने वाला पोलियो आंतों में बसे विषाणुओं के कारण होता है। ऊपर बतलाए गए किसी एक तरीके से जब ये विषाणु व्यक्ति की आंतों में पहुंच जाते हैं तो सबसे पहले ये अपनी तदाद बढ़ाते हैं। रोगी का शरीर इस पहली अवस्था में विषाणुओं से लड़ने की कोशिश करता है और रोगी को दस्त होने लगते हैं।

अगर विषाणु शरीर की बचाव प्रणाली को हराने में सफल हो जाते हैं तो रोग दूसरी अवस्था तक पहुंच जाता है। इसमें विषाणु आंतों से सेंट्रल नर्वस सिस्टम तक पहुंचते है जहां ये मांस-पेशियों को नियंत्रित करने वाली नसों की कोशिकाओं पर हमला कर उन्हें नुकसान पहुंचाते हैं इससे मांस-पेशियां ढीली पड़कर सिकुड़ने लगती हैं। इस सबसे प्रभावित अंगों में बहुत पीड़ा होती है और विषाणुओं का संहार होने तक शरीर के एक या एक से अधिक अंक बेकार हो जाते हैं।

पक्षाघात ज़्यादातर टांगों में होता है। अगर बच्चे की आयु पाच वर्ष से कम हो तो देखा गया है कि उसका एक ही पैर खराब होता है और पांच वर्ष से अधिक आयु के बच्चे के दोनों पैर बेकार हो जाते हैं। इस अवस्था का कोई इलाज नहीं है। और बच्चा शेष जीवन भर बैसाखी का सहारा लेने के लिए मजबूर हो जाता है। तबाही मचाने के कुछ दिनों बाद विषाणु रोगी के शरीर को छोड़ देते हैं जिसके बाद रोगी से रोग फैलने का खतरा नहीं रहता।

शरीर में रहने के चार तरीके

पोलियो के विषाणु जब हमारे शरीर में घुस जाते हैं तो चार संभावनाएं होती हैं:

  1. विषाणु पेट में ही नष्ट हो जाएंगे और बीमारी नहीं होगी।
  2. पेट (अमाशय) में विषाणु फलते-फूलते रहते हैं परंतु बीमारी नहीं होती। यह अक्सर तंग बस्तियों में होता है जहां शिशु दूषित पानी/भोजन/मल के संपर्क में आते हैं। इन बच्चों के शरीर में पोलियो के विषाणु का सामना करने के लिए प्रतिरोधात्मक शक्ति पैदा हो जाती है।
  3. विषाणु पेट से निकलकर पूरे शरीर में खून के साथ घूमते हैं, कुछ सर्दी, जुकाम, बुखार, दस्त, बदन दर्द, जैसे लक्षण होते हैं। परंतु लकवा नहीं मारता।
  4. विषाणु पेट से पूरे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं बच्चा बीमार हो जाता है। सर्दी-जुकाम, बदन दर्द, हाथ पांव में दर्द आदि होता है। विषाणु रीढ़ की हड्डी और मस्तिष्क की तंत्रिका कोशिकाओं को नष्ट करना शुरू कर देते हैं। इनसे जुड़ी मांस पेशियां कमज़ोर हो जाती हैं। इसलिए हाथ-पांव या श्वसन तंत्र की मांस पेशियां निष्क्रिय हो जाती हैं।

हो सकता है आप पूछें कि पोलियो से कुछ बच्चे तो अपाहिज हो जाते हैं और कुछ को खांसी-जुकाम भी नहीं होता, ऐसा क्यों? दूसरा सवाल कि पोलियो अधिकतर बच्चों को ही क्यों होता है? इन दोनों सवालों से मिलता-जुलता एक और सवाल है कि झुग्गी-झोपड़ियों, जहां कि साफ-सफाई की कोई विशेष व्यवस्था नहीं होती, में रहने वाले बच्चों की तुलना में शहर के मध्यम वर्गीय परिवारों के बच्चों में यह बीमारी अधिक क्यों होती है?

इन तीनों सवालों का जवाब है कि रोग का होना, न होना और रोग के होने की हद हमारे शरीर की रोग से निपटने की क्षमता पर निर्भर कती है। शरीर विभिन्न प्रकार के रोगाणुओं से लड़कर धीरे-धीरे उनसे लड़ने की क्षमता बना लेता है। देखा गया है कि झुग्गियों में रहने वाले बच्चों का शरीर बार-बार रोगाणुओं से लड़कर उनसे जूझने में निपुण हो जाता है। इस कारण सफाई में रहने वाले बच्चों की तुलना में ये गरीब बच्चे कम बीमार पड़ते हैं।

(रोगों से लड़ने की क्षमता इम्यूनिटि के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए देखें संदर्भ अंक-5)

अब हम उस सवाल पर आते हैं कि अगर बच्चे को पोलियो की दवा न पिलाई जाए तो वह अपाहिज क्यों नहीं हो जाता है? पहले तो हम यह देखें कि आखिर यह दवा कया करती है और तीन-चार बार पिलाने से बच्चा आजीवन पोलियो से सुरक्षित कैसे बना रहता है। इसका जवाब देने के लिए शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र की बात करना ज़रूरी है।

कैसे पहचानें

साधारण बीमारी: शुरूआत में पोलियो एक सामान्य जुकाम के रूप में शुरू होता है - नाक बहती है, हल्का बुखार,  सिरदर्द, बेचैनी, गले में दर्द, उल्टी, दस्त हो सकते हैं।

ज़्यादातर बच्चे इस बीमारी के बाद ठीक हो जाते हैं।

मुख्य बीमारी: साधारण बीमारी के 2-3 दिनों बाद कुछ बच्चों में ये सब लक्षण दिखाई देते हैं-

— बुखार फिर से आता है।

— सर दर्द करता हे।

— गर्दन अकड़ जाती है जिससे यह पता चलता है कि पोलियो विषाणु मस्तिष्क पर हमला कर चुका है।

— बाहों, टांगों व पीठ में दर्द होता है। हाथ-पांव का दर्द होने पर अनुमान लगाया जा सकता है कि लकवा मारेगा।

लकवा: गर्दन के अकड़ने के 12-72 घंटे के बीच लकवा मार सकता है। लकबे का प्रभाव सबसे ज़्यादा 48 घंटे तक रहता है। लकवा केवल एक या दोनों ही पांव, जांघ, कंधे की मांसपेशियों को प्रभावित कर सकता है। किसी-किसी मामले में श्वसन तंत्र की मांसपेशियों शिथिल हो जाती हैं जिससे बच्चे को निगलने, सांस लेने और बात करने में कठिनाई होती है। ऐसी स्थिति में बच्चे की जान को भी खतरा हो सकता है। लकवा कितना गंभीर है वह इस बात पर निर्भर करेगा कि रीढ़ की हड्डी व मस्तिष्क पर पोलियो के विषाणुओं ने कितना दमदार प्रहार किया है।

साढ़े तीन हज़ार साल पहले: इजिप्त में मिली साढ़े तीन हज़ार साल पुरानी प्रतिकृति; जिसमें खड़े दिख रहे आदमी का एक पाव कमज़ोर है। जिन बिमारियों के बारे में इंसान को बहुत पहले से मालूम है उनमें से पोलियो एक है।

साढ़े तीन हज़ार साल पहले : इजिप्त में मिली साढ़े तीन हज़ार साल पुरानी प्रतिकृति; जिसमे खड़े दिख रहे आदमी का एक पांव कमजोर है। जिन बीमारियों के बारे में इंसान को बहुत पहले से मालूम है उनमे से पोलियो एक है। 

नीम हकीम खतरे जान

पोलियो की बीमारी का एक विचित्र पहलू यह भी है कि बच्चे को जल्दी से ठीक करवाने की हड़बड़ाहट से इंजेक्शन लगवा देने से भी पोलियों लकवे में बदल सकता है।

अगर किसी बच्चे को पोलियो हुआ है तो यह गलतफहमी आसानी से हो जाती है कि उसे साधारण सर्दी-जुकाम-बुखार है। ऐसी स्थिति में अगर इस बुखार को ठीक करने के लिए उसे इंजेक्शन लगा दिया जाए तो इंजेक्शन की वजह से हाथ-पैर की मांसपेशियों को जो तकलीफ होती है, उसके कारण बच्चे के हाथ-पैर को लकवा मार सकता है।

पोलियों आमतौर पर टांगों में इसलिए होता है क्योंकि बच्चों को अधिकतर पुट्टों पर इंजेक्शन लगाया जाता है।

इसलिए बच्चे का इलाज करते वक्त यह सावधानी अत्यन्त ज़रूरी है कि उसे इंजेक्शन तब तक नहीं लगवाना चाहिए जब तक कि बेहद ज़रूरी न हो। बारिश के मौसम में और भी ध्यान रखना चाहिए क्योंकि उस मौसम में  पोलियो होने की संभावना ज़्यादा होती है।

जब रोगाणु (पोलियों के विषाणु, अन्य विभिन्न प्रकार के विषाणु, (बेक्टीरिया) दूषित भोजन, हवा, पानी इत्यादि के रास्ते हमारे शरीर के अंदर घुस आते हैं तो शरीर इनसे लड़ने का पूरा प्रत्यत्न करता है। बुखार आना इस लड़ाई का संकेत है। रक्त में पाए जाने वाले कुछ श्वेत कण सिपाहियों की तरह इन रोगाणुओं से डटकर जूझते हैं इस लड़ाई में जब हमारे ये सिपाही विजयी होते हैं तो हम स्वस्थ बने रहते हैं और जब रोगाणु विजयी होते हैं तो हम बीमार पड़ जाते हैं।)

लेकिन हार जाने के बाद भ श्वेतकण (लिम्फोसाइट) चुप नहीं बैठते। रोगाणुओं के शरीर पर जाए जाने वाले आणविक समूहों (एंटीजन) के आधार पर लिम्फोसाइट उनकी पहचान कर लेते हैं। शुत्र की पहचान हो जाने के बाद हमारे सिपाही ऐसे हथियार तैयार करते हैं कि अगर वही दुश्मन दुबारा हमला करे तो उसे तुरंत हराया जा सके। सुरक्षा के इस हथियार को एंटीबॉडी कहते हैं। महत्वपूर्ण बात यह हे कि एंटीबॉडी केवल उसी प्रकार के रोगाणुओं से शरीर की रक्षा करते हैं जिनके विरूद्ध इनका निर्माण हुआ हो। इसलिए शरीर को अलग-अलग रोगों से लड़ने के लिए अलग-अलग एंटीबॉडी बनानी पड़ती है। मीसल्स, चिकनपॉक्स, पीलिया आदि की एंटीबॉडी एक बार बनने के बाद आजीवन शरीर में बनी रहती है इसलिए ये रोग एक बार तो बच्चों को सताते हैं लेकिन दोबारा नहीं होते। कुछ रोगों के एंटीबॉडी बनने के बाद थोड़े ही समय में नष्ट हो जाते हैं इस कारण ऐसे रोगों से हम दूसरी या तीसरी बार भी पीड़ित हो सकते हैं। शरीर के इस एंटीबॉडी भंडार को ही बचाव-प्रणाली या इम्यूनिटि कहते हैं।

टीके यानी रोगाणु  
अगर हमारा शरीर पोलियो से ग्रसित नहीं हुआ है लेकिन हम फिर भी चाहते हैं कि हमारे शरीर में उसकी एंटीबॉडी तैयार रहे ताकि भविष्य में कभी उसके रोगाणुओं का हमला होने पर उनका मुकाबला किया जा सके तो उसका भी उपाय है। यह काम टीके द्वारा हमारे शरीर में निर्बल या मृत रोगाणु घुसाकर किया जाता है। जब ऐसे रोगाणुओं का टीके अथवा दवा के रूप में शरीर में प्रवेश होता है तो रोग ग्रसित हुए बिना ही हमारा शरीर उनके एंटीजन को पहचान कर वैसी ही एंटीबॉडी बना लेता है। जब तक ये एंटीबॉडी हमारे शरीर में रहती है हम उसे रोग से मुक्त रहते हैं।

टीके तीन प्रकार के होते हैं। पहले वे जिनको बनाने के लिए मृत रोगाणुओं का प्रयोग किया जाए और दूसरे वे जिनको बनाने के लिए किसी विशेष प्रक्रिया द्वारा रोगाणुओं को इतना निर्बल कर दिया जाए कि वे एंटीबॉडी बनवाने के अलावा शरीर पर कम-से-कम असर करें।

पहले प्रकार के टीके (या दवाएं) काली खांसी, टायफाइड, रेवीज़ के रोगाणुओं से और जीवित टीके पोलियो, तपेदिक, खसरा और येलो फीवर से हमारा बचाव करते हैं।

उपचार

चूंकि पोलियो विषाणु को नष्ट करने की कोई दवा नहीं है इसलिए से ला-इलाज भी कहा जा सकता है। प्रतिजीवाणु दवाएं (एंटीबायोटिक्स) इन विषाणुओं को नष्ट नहीं कर सकती इसलिए उन्हें करने से भी फायदा नहीं होता।

परंतु घर पर कई उपचार किए जा सकते हैं जिनसे बच्चे को आराम मिल सके:

  1. बुखार और दर्द के लिए पेरासिटामॉल की गोली दे सकते हैं।
  2. बच्चे को 6 हफ्ते तक पूरी तरह बिस्तर पर आराम करना चाहिए क्योंकि चलने-फिरने से लकवा बढ़ सकता है।
  3. दर्द कर रहे जोड़ों और मांसपेशियों पर गर्म पानी में भीगा हुआ तौलिया रखने से सुकून मिलता है।
  4. घुटनों तथा हाथों के नीचे नर्म तकिए (या तह किया हुआ कपड़ा) रखें।
  5. बिस्तर पर लगातार लेटे रहने से होने वाले घावों से बचने के लिए नियमित रूप से बच्चे की करवट बदलते रहें।
  6. टांग टेड़ी-मेढ़ी न हो इसके लिए टांगों को सीधा रखना ज़रूरी है। उन्हें बांस या लकड़ी की खपच्ची के साथ भी बांधा जा सकता है।
  7. किसी भी प्रकार का इंजेक्शन न दें क्योंकि इससे लकवा बढ़ सकता है।

दवाई कब-कब

  1. बच्चे को जन्म पर, जन्म के पैंतालिस दिन बाद और डेढ़ साल का होने पर पोलियो की खुराक पिलानी चाहिए।
  2. यदि बच्चा तीन साल से कम है और उसे कभी पोलियो की दवा नहीं पिलाई गई तब भी उसे पोलियो की दवा पिलानी चाहिए।
  3. यदि बच्चे को पोलियो हो चुका है और वह तीन साल से कम उम्र का है तब भी उसे पोलियो की दवा पिला देनी चाहिए ताकि उसे दूसरी तरह के पोलियो विषाणुओं से फिर से पोलियो न हो।
  4. पोलियो की दवा दस्त में भी दी जा सकती है। लेकिन दस्त में इसका असर पूरी तरह नहीं होता। इसलिए दस्त वाले बच्चे को खुराक ज़रूर पिलाएं परंतु दस्त बंद होने पर दवा फिर से पिलाएं।
  5. पोलियो की दवा पिलाने के बाद बच्चों को मां का दूध पिलाया जा सकता है। खुराक पिलाने के आधा घंटा पहले, और आधा घंटा बाद कोई गरम चीज़ नहीं पिलानी चाहिए।
  6. पोलियो के विषाणुओं को जीवित रहने के लिए विशेष तापक्रम चाहिए - न ज़्यादा ठंड, न ज़्यादा गर्मी। क्योंकि पोलियो की दवा इन्हीं विषाणुओं से बनती है इसलिए दवा को फ्रिज में रखना ज़रूरी है ताकि ये विषाणु ज़िंदा रहें। इसलिए एक जगह से दूसरी जगह लेकर जाते वक्त भी उसे ठंड डिब्बे में रखना पड़ता है। पोलियो की दवा पर सीधी धूप भी नहीं पड़नी चाहिए।

तीसरे प्रकार के टीके हमारा टिटेनस से बचाव करते हैं और इन्हें टॉक्साइड कहा जाता है। इनके बारे में फिर कभी बात करेंगे।

काफी लम्बी चर्चा हो गई लेकिन संक्षेप में देखें तो बात इतनी है कि अगर बच्चे को पोलियो की दवा नहीं पिलाई जाए तो यह ज़रूरी नहीं है कि उसे पोलियो हो ही जाएगा। जब तक बच्चे के शरीर में पोलियो का रोगाणु प्रवेश न कर जाए तब तक बच्चे को भला पोलियो कैसे हो सकता है? और अगर पोलियो के रोगाणु शरीर में घुस भी जाएं तो यह संभव है कि हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली उन्हें खदेड़ दे। यहद बच्चे की पोलियो की दवा पिलाई जाए तो उसके शरीर में पोलियो के रोगाणु से लड़ने वाली एंटीबॉडी तैयार हो जाएंगी जो पालियों के रोगाणुओं के किसी भी हमले को नाकाम करने में समर्थ होंगी।