सवाल : ओज़ोन की परत किन गैसों से मिलकर बनी है। यह परत सूर्य से आने वाली ऐसी किरणों को कैसे रोकती है जो हमें नुकसान पहुंचा सकती है?
जवाब : यह तो शायद सबको मालूम होगा कि हीरा और ग्रेफाइट दोनों कार्बन के ही अलग-अलग रूम हैं। इसी तरह ओज़ोन और ऑक्सीजन, दोनों ऑक्सीजन के ही रूप हैं। ओज़ोन भी एक तरह की ऑक्सीजन है। ऑक्सीजन में दो परमाणु होते हैं और हम उसे रसायन विज्ञान की भाषा में 0, संकेत से लिखते हैं। ओज़ोन में ऑक्सीजन के तीन परमाणु होते हैं। और उसे 0, संकेत से लिखा जाता है। ऑक्सीजन का ही एक रूप होते हुए भी ओज़ोन के गुणधर्म ऑक्सीजन से बहुत फर्क हैं - यह तीखी गंधवाली, नीले रंग की गैस है। औज़ोन विषैली गैस है जो साँस के साथ फेफड़ों तक पहुँच जाए तो बेचैनी पैदा करती है।
सूर्य का प्रकाश वायुमंडल के विभिन्न स्तरों को पार कर हम तक पहुंचता है। इस प्रकाश मे कई तरह की तरंगे होती है लेकिन सभी हम तक नहीं पहुंचती। वायुमंडल के विभिन्न हिस्से उन्हें वहीं रोक लेते हैं। रेखाचित्र में वही स्थितियां दिखाई गई हैं।
ओज़ोन गैस वायुमंडल के समताप मंडल नामक हिस्से में बनती है। पृथ्वी के वायुमंडल को विभिन्न हिस्सों में बांटा गया है। पृथ्वी की सतह से 10 किलोमीटर से 50 किलोमीटर तक के हिस्से को समतापमंडल कह्ते हैं। इसे समतापमंडल इसलिए कहते हैं क्योंकि इस पूरे हिस्से में तापमान एक समान रहता है। वायुमंडल के विभिन्न भागों को चित्र में दिखाया गया है। समताप मंडल में ओज़ोन के अलावा और भी गैसें होती हैं। ओज़ोन किसी परत के रूप में नहीं पाई जाती बल्कि यह स्वतंत्र रूप से समताप मंडल में दस से पचास किलोमीटर की ऊंचाई के बीच होती है।
ओज़ोन के बनने की प्रक्रिया भी काफी रोचक है। सूर्य से पृथ्वी तक ऊर्जा विद्युत-चुम्बकीय तरंगों के ज़रिये पहुँचती है। उसमें अलग-अलग तरंग लम्बाई की किरणें होती हैं। यानी प्रकाश के अलावा और भी बहुत तरह की किरणें होती हैं। जैसे - पराबैंगनी, इनफ्रारेड, क्ष किरणें, गामा किरणें, रेडियो तरंगें आदि। तरंग लम्बाई के आधार पर इन्हें विभिन्न समूहों में बांटा गया है।
समतापमंडल में ओज़ोन गैस पराबैंगनी किरणों के कारण ही बनती है। अब देखते हैं कि इन पराबैंगनी तरंगों से ओज़ोन बनती कैसे है और ओज़ोन कैसे पराबैंगनी तरंगों को धरती तक आने से रोकती है।
सूर्य प्रकाश के साथ आने वाली वे पराबैंगनी तरंगें जिनकी तरंग लम्बाई 242 नैनोमीटर (242 x 10-9 मीटर) से कम है, समतापमंडल में ऑक्सीजन को जोड़कर ओज़ोन बनाती हैं यानी दो परमाणु वाली ऑक्सीजन तीन परमाणु वाली ओज़ोन में बदल जाती है। इस बात को इस तरह भी कह सकते हैं -
1ऑक्सीजन अणु+1ऑक्सीजन परमाणु (पराबैंगनी किरणों की उपस्थिति में) = 1ओज़ोन अणु
इस तरह ओज़ोन लगातार बनती रहती है। चूंकि इन पराबैंगनी तरंगों की ऊर्जा ओज़ोन बनाने में खर्च हो जाती है इसलिए इन कम तरंग लम्बाई वाली पराबैंगनी किरणों की घातकता खत्म हो जाती है।
ऊपर बताई गई प्रक्रिया से बनी ओज़ोन सूर्य प्रकाश के साथ आने वाली उन पराबैंगनी तरंगों को सोख लेती है जिनकी तरंग लम्बाई 242 से 290 नैनोमीटर तक होती है। अब होता यह है कि इन पराबैंगनी किरणों को सोखकर ओज़ोन टूटकर ऑक्सीजन बनाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो -
एक ओज़ोन अणु (पराबैंगनी किरणों की उपस्थिति में) = 1ऑक्सीजन अणु + 1ऑक्सीजन परमाणु
इस तरह पराबैंगनी किरणों की ऊर्जा ओज़ोन से ऑक्सीजन बनाने में खर्च हो जाती है और ज्यादा तरंग लम्बाई वाली पराबैंगनी तरंगों की घातकता-खत्म हो जाती है।
यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन पराबैंगनी तरंगों की लम्बाई 242 से 290 नैनोमीटर है वे हम सब के लिए घातक हैं। इनके अलावा अन्य पराबैंगनी तरंगों में से कुछ तरंगें धरती तक पहुँचती हैं लेकिन वे हमारे लिए हानिकारक नहीं हैं। इस तरह पराबैंगनी तरंगों की सारी ऊर्जा ऑक्सीजन से ओज़ोन बनाने तथा ओज़ोन से ऑक्सीजन बनाने में ही खत्म हो जाती है। और हमारे लिए हानिकारक तरंगें धरती तक नहीं पहुँच पातीं।
अब आते हैं तुम्हारे अगले सवाल पर कि पराबैंगनी तरंगों से क्या नुकसान हो सकते हैं। पराबैंगनी तरंगों के शरीर तक पहुँचने के कारण खसरा, माता, चमड़ी का झुलसना तथा कैंसर जैसे खतरनाक रोग हो सकते हैं। आँखों से सम्बंधित विभिन्न रोग भी होते हैं। यह तरंगें सिर्फ मनुष्य के लिए ही हानिकारक हैं ऐसा नहीं है। इन तरंगों का प्रभाव पेड़-पौधों पर भी पड़ता है। अभी इस बात को जानने के लिए प्रयोग चल रहे हैं कि पराबैंगनी तरंगों का पेड़-पौधों, थल और जल में रहने वाले जीव-जन्तुओं पर क्या प्रभाव पड़ता है। अभी तक किए प्रयोगों से यही बात सामने आई है कि इन तरंगों से पौधों की वृद्धि पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। कुछ वैज्ञानिकों का विचार है। कि पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया पर भी पराबैंगनी तरंगें प्रभाव डालती हैं। खैर, सच जो भी सामने आए लेकिन इतनी बात तो तय है कि पराबैंगनी तरंगें हमारे लिए घातक हैं।
पिछले कुछ वर्षों से हम सभी पढ़-सुन रहे हैं कि अंटार्कटिका के ऊपर ओज़ोन परत मैं छेद पड़ गया है।(एक बार फिर याद दिला दें कि परत यानी दूध पर मलाई की परत जैसी परत मत मान बैठना।) छेद का मतलब है कि अंटार्कटिका के ऊपर ओज़ोन बहुत कम रह गई है और घातक पराबैंगनी तरंगें (242 से 290 नैनोमीटर वाली) अंटार्कटिका में जमीनी सतह तक आ रही हैं।
समताप मंडल में ओज़ोन की मात्रा के कम होने के कई कारण बताए गए हैं। इनमें से एक प्रमुख कारण है। सी.एफ.सी. नामक रसायन का बहुत ज्यादा उपयोग होना। सी.एफ.सी. (क्लोरो फ्लोरो कार्बन)नामक रसायन का उपयोग फ्रिज की गैस बनाने, पेंट बनाने, फोम तथा कीटनाशकों के निर्माण आदि में किया जाता है। यह सी. एफ. सी. नामक रसायन जिसमें क्लोरीन गैस भी होती है वायु मंडल में लम्बे समय तक बना रहता है और पराबैंगनी तरंगों के सम्पर्क में आने पर क्लोरीन के परमाणु वायुमंडल में छोड़ देता है। अब यह क्लोरीन ओज़ोन से क्रिया करके क्लोरीन मोनोऑक्साइड और ऑक्सीजन बनाती है। क्लोरीन मोनोऑक्साइड एक अस्थिर किस्म का अणु है और यह बहुत जल्दी क्लोरीन के एक परमाणु के रूप में मुक्त हो जाता है। इस रासायनिक क्रिया को इस तरह भी बता सकते हैं —
ओज़ोन छेद : अंटार्कटिका (दक्षिणी ध्रुव) के ऊपर बने ओज़ोन छेद का एक रेखाचित्र। इसमें दक्षिणी अमेरिका भी दिखाया गया है।
ओजोन + क्लोरीन= ऑक्सीजन + क्लोरीन मोनोऑक्साइड
क्लोरीन मोनोऑक्साइड अस्थिर होने के कारण जल्दी ही फिर से क्लोरीन में बदल जाता है और ओज़ोन के किसी दूसरे परमाणु से क्रिया करके फिर से ओज़ोन को ऑक्सीजन में परिवर्तित कर देता है। इस तरह यह क्रम चलता रहता है और क्लोरीन का एक परमाणु ओज़ोन के तकरीबन एक लाख अणुओं को नष्ट कर देता है। इस रासायनिक क्रिया के लिए पृथ्वी के ध्रुवीय प्रदेशों का ठण्डा और ज़्यादा दाब वाला वातावरण काफी अनुकूल साबित हुआ है। इस कारण ओज़ोन अणुओं की संख्या में कमी भी सबसे पहले अंटार्कटिका और आर्कटिक प्रदेशों में देखी गई। और ओज़ोन अणुओं की संख्या कम होने से अंटार्कटिका में सूर्य प्रकाश के साथ घातक पराबैंगनी तरंगें भी ज़मीन तक आ रही हैं।
समस्या गम्भीर है इसलिए दुनिया के सभी देशों ने फैसला किया है कि आने वाले कुछ वर्षों में सभी देश सी. एफ. सी. रसायन का उपयोग धीरे-धीरे कम करेंगे और दूसरा रसायन उपयोग में लाएंगे जो ओज़ोन को प्रभावित न करे।
मेहराबदार पुल को देखो समझ जाओगे
सवाल : सेना में भर्ती के समय पैर में मेहराब क्यों देखी जाती है?
जवाब : आओ सबसे पहले मेहराब को समझते हैं। अपने गांव, शहर के आस-पास सड़कों पर बनी पुलियाओं, पुराने पुलों को देखो। इनमें से कई की संरचना मेहराबदार होगी। भला पुल पुलियाओं में मेहराब का क्या काम? दरअसल इन पर से खूब वज़नी सामान लादे भारी-भरकम गाड़ियां गुज़रती हैं - इसलिए इनका मज़बूत होना बेहद जरूरी है। मेहराब इसे यही मज़बूती देती है। कैसे?
इसे चित्र से समझते हैं। मेहराब में जो भी पत्थर लगे रहते हैं वे ऊपर से चौड़े और नीचे से संकरे होते हैं। जब वज़न या बल ऊपर वाले पत्थर पर पड़ता है तो आकार के कारण यह अपने नीचे वाले दो पत्थरों को दबाता है। संरचना के कारण पत्थर एक-दूसरे को दबा तो सकते हैं लेकिन गिर नहीं सकते - ये दो पत्थर अगले पत्थरों को दबाते हैं। यह प्रक्रिया चलती रहती है। और इस तरह बीच के पत्थर पर एक सीध में पड़ने वाला वज़न या बल मेहराब के दो खंभों पर बराबर-बराबर बंट जाता है - कुल मिलाकर कहें तो मेहराब का काम है एक सीध में पड़ने वाले वज़न या बल को - जिसके नीचे कोई टेक नहीं है - दूर स्थित दो पायों पर दो बराबर भागों में बांट देना।
ये तो हुई मेहराब की बात, अब अपने पैरों को देखते हैं। पैर यानी पूरे शरीर का वज़न ढोने वाले अंग - इनका मज़बूत होना बेहद ज़रूरी है। मेहराब इन्हें मजबूत बनाती है, पूरे वज़न को पंजों और एड़ियों के बीच बांटकर बिल्कुल पुल की तरह। इस तरह शरीर का वज़न चार कोनों पर बंटने से किसी एक हिस्से पर ही पूरा वज़न नहीं पड़ता - हमारे खड़े होने का एक बड़ा आधार तैयार होता है - और संतुलन बना रहता है।
अब चलने की प्रक्रिया को समझते हैं - यह गिर-गिरकर संभलने जैसी बात है। जिसमें शरीर आगे आता है। - एक कदम आगे बढ़ने पर वज़न एक पैर के पंजे पर और दूसरे पैर की एड़ी पर रहता है तो अगले कदम पर पहले पैर की एड़ी और दूसरे पैर के पंजे पर चला जाता है - इस तरह वज़न लगातार एड़ियों से पंजों और पंजों से एड़ियों पर बदलता रहता है। इस दौरान पैर को लगातार झटके सहने पड़ते हैं - मेहराब इन झटकों को सहने का - काम करती है - किसी। गाड़ी के शॉक-अप की तरह, जिसमें सड़क से लगने वाले झटके सवार तक नहीं पहुंचते।
अब समझते हैं उन दिक्कतों को जो सपाट तलुए वाले लोगों को हो सकती हैं। मेहराब न होने से उनका वज़न एड़ियों और पंजों पर नहीं बंटेगा, बल्कि तलुए के किसी एक बिन्दु पर केंद्रित होगा (शायद टखने की हड्डी के नीचे वाले बिन्दु पर)।
यानी उनका खड़ा होने का आधार भी बहुत छोटा होगा - इसलिए धक्का आदि लगने पर उन्हें तुरंत संतुलन बनाने में दिक्कत होती है। क्योंकि चार बिन्दुओं से बने एक बड़े आधार पर टिकना आसान है, दो बिन्दुओं पर कसा दूसरा मेहराब न होने से उन्हें चलने दौड़ने के समय दिक्कत होगी। इस प्रक्रिया में जो झटके लगेंगे उनका असर पूरे पैर पर पड़ेगा और जल्दी ही पैर दर्द ' करने लगेंगे। यह सब पढ़कर कहीं ऐसा तो नहीं लगने लगा कि मेहराब न होना अपंगता है-बिल्कुल नहीं। रोज़मर्रा की दौड़ भाग में उन्हें कोई परेशानी नहीं होती। हां, ज़रा लंबा चलना हो, दौड़ना हो या फिर बहुत सारी सीढ़ियां चढ़ना हो तो थोड़ी दिक्कत हो सकती है।
जहां तक सेना में भर्ती का सवाल है तो उन्हें तो पूरी तरह चुस्त-दुरुस्त लोग चाहिए। जो ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर कूदते फांदते चल सकें, ज़रूरत हो तो तेज़ दौड़ सके - तो फिटनेस के लिहाज़ से मेहराब की जांच बिल्कुल ऐसी ही है जैसे कि सेना में भर्ती के समय सीने की चौड़ाई, ऊंचाई, आंख आदि की जांच
इस बार का सवाल
दूध और पानी दोनों तरल पदार्थ हैं मगर हम जब दूध को उबालते हैं तो वह उफन जाता है। और गिरने लगता है किंतु पानी को उबालें तो वह क्यों नहीं उफनता?
प्रभाकांत भारद्वाज, जवाहर पारा, बालोद, शिला - दुर्ग; मप्र.