शिक्षक ने कहा दहाई का 1, इसके पीछे लिखा 5 - क्या बना? बच्चों ने कहा '15
', ऐसे ही बात आगे बढ़ी... लेकिन नहीं, शिक्षक को लगा उसके प्रयास में कुछ गड़बड़ है - बच्चे ऊब रहे हैं, उसने यह बात अपनी डायरी में दर्ज की।

एक शिक्षक की डायरी यानी एक ऐसा रोज़नामचा जिसमें हर उस प्रयास का अलोकन दर्ज है जो उसने बच्चों को कुछ सिखाने के लिए किया है - ताकि वह कक्षा में उठाए गए अपने हर कदम पर बारीकी से टीका-टिप्पणी कर सके और उसके आधार पर फिर कुछ नया प्रयास कर सके - इसलिए कि बच्चे कुछ सीख सके।

ऐसी ही एक डायरी के चंद पन्ने जो गंगा गुप्ता ने पाठई, ज़िला बैतूल की प्राथमिक शाला में बच्चों को पढ़ाने के दौरान हुए रोज़मर्रा के अनुभवों को लेकर लिखी थी।

28 जनवरी 1988

बोर्ड पर अक्षर लिखती गई और बच्चों से पूछती भी गई- “अब ये 'आ' की मात्रा 'हा' और ये 'र' - अब पढ़ो क्या लिखा है?”

"हार” मंगलेश ने झट से जोड़कर पढ़ा। मैंने कहा, "अच्छा अब तुम नहीं बता सकते।” मैंने लिखा 'हाथ' मुकेश ने पढ़ा “हाथी”- ललिता बोली, "नई 'हाथ' बहनजी हाथ!”

“अच्छा अब बताओ” मैंने लिखा ‘काना' - मंगलेश बोला, “बहनजी आप तो 'आ' की मात्रा खूब लगा देती हैं” मैने कहा, "तो क्या हुआ - पढ़ो.'क' में 'आ' की मात्रा 'का', 'न' में 'आ' की मात्रा ना” ललिता बोली, “बहनजी - काना” ममता एक हाथ से आंख दबाकर, "ऐसा होता है काना!”

फिर मैंने 'तल' लिखा, मुकेश बोला “त’ ‘ल' 'तल’ बहनजी 'तल।” मैंने कहा, "हां भइया जे तो पूड़ी तल, भजिया तल वाला तल लिखा है।” सभी बच्चे खूब हंसे।

इस गतिविधि में काफी मज़ा आ रहा था। पहले मैंने जोड़कर ही पढ़ाया परन्तु अब अक्षर तोड़कर नहीं लिख रही थी - अक्षर शब्द से ही जुड़े थे।

नोट: कुछ शब्द जानबूझकर चित्र-कार्ड* वाले लिखे थे। यह जानने के लिए कि पहले जो अभ्यास कराया था वो इन्हें याद है या नहीं, परन्तु उन शब्दों को लगभग सभी ने पहचान लिया। उनमें अधिक उत्साह लाने के लिए ही मैं उनसे कहती ‘अब तो तुम बता ही नहीं सकते तो बच्चे जल्दी बताने की कोशिश करते। इस गतिविधि में मुझे और बच्चों को काफी मज़ा आया। मुझे कुछ आशा बंधी कि शायद ऐसे ही बच्चे पढ़ना सीख जाएं।


*बच्चों को भाषा सिखाने की एक महत्वपूर्ण सामग्री - कार्ड के एक तरफ किसी चीज़ का चित्र बना देता है और दूसरी तरफ अक्षरों में उस वस्तु का नाम, इनसे बच्चों के साथ सामूहिक तौर पर या टोलियों में भाषा की तरह की गतिविधियां की जा सकती है। इसके अलावा और भी को तरह के चित्र-कार्ड बनाए जा सकते हैं।


20 सितम्बर 1988

आज स्कूल में उपस्थिति बहुत कम थी। अतः सोचा घर-घर जाकर बच्चों के पालकों से संपर्क कर उन्हें अपने बच्चे स्कूल में

भेजने के लिए प्रेरित किया जाए। प्रत्येक घर जाकर पालकों से संपर्क किया। पालकों ने जो जवाब दिए वो इस प्रकार हैं

पुनिया : “बहनजी लड़की 10 साल की हो गई है। अब तो लड़की कूं जाए है, पहली पढ़ा के का आ जाएगो”

इमला : “हम तो भेजने कूं तैयार हैं पर स्कूल बड़ी दूर है, तुम जेई ढाना में पढ़ाओ तो भेजेंगे।”

छोटीबाई : “नई भेजें। बड़ी दूर है, तुम घेर के रोज़ लिजाओ, उते के ढाने के मोड़ा-मोड़ी मारे हैं।”

राजेश : "कल से भेजेंगे, अबे बुखार से उठो है।”

महेश : “बकरी कौन चराएगा बहनजी ......... पूछ भई ओसे जाएगो तो”

चिरोंजी : “बेहनजी, स्कूल दूर है।”

अशोक : “हम तो कहे हैं, वो जात नई है, तो हम बकरी चराए कें भेज दे हैं।”

कैलाश: “आऊंगा बहनजी कल से।” (कैलाश के पालक घर पर नहीं थे)।

मनोरी: “बहनजी, बकरी चराता है..... बहनजी का पढ़ाएगी ..... गुरुजी होता तो पढ़ाता।”

किसन : "ले जाना बहनजी, वो नई जाता तो का करें।

पप्पू: "बकरी कौन चराएगा बहनजी”

अशोक बिरजू : "बैल चराता है, बड़ा भाई पढ़ने जाता है।

सुवा : “का बहनजी, हम सब देखा है, तुम का पढ़ाते हो - घड़ी भर आए ... और चले का करें। मोड़ा-मड़ी घर के काम करेगो। वहां तो 100 तक गिनती भी नहीं आए है ..... खेल खेलवे नई भेजें हमा”

विस्सू : "कुछ नहीं पढ़ाती हो तुम। मास्साब रहे तो पढ़ाए। दो साल से फेल हो रहा है। नाम लिखना नहीं आता - का करेंगे भेजके। कम-से-कम कृषानी सीखेगा, नई तो स्कूल से भी जाएगा और कृषानी भी नहीं आएगी।”

जहां तक मुझसे बना उन्हें समझाकर संतुष्ट किया। और शिक्षा का महत्व बताते हुए बच्चों को स्कूल भेजने को कहा। कुछ ने कहा कि भेजेंगे। इस प्रकार चार बज गए। और मैं वापस शाला आ गई। बच्चों से कुछ नहीं करा पाई। उन्हीं ने बैठके चित्र बनाए। किसी ने गिनती लिखी। छुट्टी हो गई।

21 सितम्बर 1988

सभी बच्चों को भाई बहनों के नाम लिखना सिखाया। बहुत उत्साह से बच्चे अपने भाई बहनों के नाम बताकर लिखने की कोशिश कर रहे थे। नाम लिख लेते तो बहुत खुश होते। बड़े मनोयोग से वे इस गतिविधि में जुटे थे। सबने पहले नकल की। तीन चार बार नकल करने के बाद बिना देखे नाम लिखकर बताया। मैं कहती लिखो ‘स’ में छोटे ‘उ’ की मात्रा 'सु','न' में छोटी 'इ' की मात्रा 'नि' ,'त' में बड़े 'आ' की मात्रा 'ता', तो मंगलेश ने “सुनिता” लिखा। इसी प्रकार सभी बच्चों को अक्षर और मात्रा शायद समझ में आ रही थी।

एक कहानी पढ़कर सुनाई, ‘शोर मचा जंगल में। प्रत्येक पन्ने पर जानवरों के जो नाम आते गए मैं उन्हें बोर्ड पर लिखती जाती। दूसरा पन्ना पढ़ने से पहले बच्चों से बोर्ड पर लिखे नाम दोहराने को कहती कि ...... किसने जंगल में खेलकूद कर शोर मचाया? मैंने बोर्ड पर

लिखे हाथी पर उंगली रखी तो बच्चों ने पहचान कर पढ़ा - हाथी ने।

अब बहनजी हिरण....

इसी प्रकार बार-बार दोहराने से बच्चे पहचान गए कि हाथी कहां लिखा है तो हिरण, बंदर आदि कहां।

बच्चों को बार-बार बोर्ड पर लिखे शब्दों की ओर देखने के लिए कहा, "भैया देखते जाओ, अपन नाम लिखते जा रहे हैं कि कौन शोर मचा रहा है। बाद में इनको पकड़ कर पिटाई करेंगे।”

"बहनजी खरगोश लिखो" - बच्चे मुझे बताते भी जाते - वो हल्ला मचा रहा था। ..... कहानी समाप्त हुई।

बच्चे बोले, “बहनजी अब इनको पीटो।” मैंने कहा अच्छा चलो .... बच्चों की दो-दो की टोली बनाकर हाथी, हिरण, खरगोश और बंदर बनाए। एक बच्चा बना शेर। शेर ज़ोर से दहाड़ा --- सभी हाथी, हिरण, खरगोश भागे। खूब भगदड़ मची कमरे में। बच्चों को काफी मज़ा आया। फिर सबसे पूछा, “तुम क्या बने थे तख्ता पर लिखा है, उंगली रखकर बताओ” जिस-जिस ने बता दिया वे छूट गए और जो नहीं बता पाए वे अलग हो गए। मैंने कहा “अब इनकी पिटाई होगी, यही शोर मचा रहे थे जंगल में उन्हें गोल-गोल घुमाया। सभी बहुत खुश हुए। खूब मज़ा आया। बच्चों ने तख्ते पर लिखे शब्द काफी हद तक ध्यान में रखे।

नोट : मैंने अनुभव किया कि दो दिन पहले जो शब्द कार्ड से दस बार लिखवाने के बाद भी बच्चे नहीं पहचान पाए थे, वे सब कहानी में शब्दों को बोर्ड पर लिखकर दोहराते जाने से आसानी से बताने लगे। बहुत देर बाद भी बीच में से पूछने पर कि बंदर कहां लिखा है ममता ने झट से बता दिया।

27 सितम्बर 1991

आज सभी के लिए पोस्टकार्ड ले गई थी। ये पोस्टकार्ड फाइन के पैसों से खरीदे थे। मैंने स्कूल में यह नियम बना दिया है कि यदि स्कूल नहीं आते हो तो आवेदन पत्र भेजो अन्यथा 50 पैसे फाइन दो या फिर कक्षा के आसपास की सफाई करो। इसी फाइन का एक रुपया जमा हुआ था। आठ पोस्टकार्ड एक रुपए बीस पैसे के आए। उन पर बच्चों ने मास्साब को चिट्ठी लिखी। उनसे कहा, "तुम्हें जैसा लगे लिखो।” बच्चों ने चिट्ठी, वो भी पोस्टकार्ड पर, पहली बार लिखी। बहुत खुश हैं, सभी ने अच्छी चिट्ठी लिखी।

एक अक्टूबर 1991

दीर्घ अवकाश के बाद मोतियों से बच्चों को इकाई-दहाई सिखाने की गतिविधि कराई - दस मोती की कितनी माला है? ...बहनजी एक ...अच्छा अब पट्टी पर एक लिख लो। अब देखो खुले मोती कितने हैं ....बहनजी पांच। अब एक दहाई के पीछे पांच लिख लो। ये हो गए 15 - दस और पांच ...पंद्रह। अब दो माला यानी कितने मोती हो गए ....बहनजी 20 .... अब कितनी माला है....बहनजी दो - हां ये हो गए 20 - अब दो माला और दो मोती को लिखेंगे 22 यानी दो दहाई और दो इकाई।

नोट : पता नहीं गलती कहां हुई बताने में मेरा उद्देश्य था कि उन्हें 15, 22, 32 या इसी प्रकार के 10 से 30 तक के बीच के अंक लिखना आ जाएं। कुछ खास जमा नहीं, बच्चे शीघ्र ही ऊब गए थे। मुझे भी लगा कि इस प्रकार बताने में कहीं गड़बड़ है।


कक्षा दो में बच्चों को इकाई और दहाई समझाने के लिए किताब में एक गतिविधि इस प्रकार की है जिसमें वे अपने आप मिट्टी के मोती बनाते है और फिर एक-एक गिनकर दस-दस मौतियों को धागे में पिरोकर माला बनाते हैं। दस मोतियों की एक माला को एक दहाई और बचे हुए खुले मोतियों को इकाई मानते हैं- इस तरह इकाई-दहाई की समझ को वनों में उभारने का प्रयास इस प्रकार की गतिविधि में किया जाता है।


शनिवार को मैंने कहानी सुनाई थी। जिन बच्चों से पूछा उन्होंने पूरी कहानी बताई। बीच-बीच में यदि वे भूलते तो अन्य बच्चे बताने लगते कि पहले "ये और हे बे”

मोहन ने कहा, "बहनजी मैं चुनमुन चूहा की कहानी गोंडी में बताऊंगा” उसने गोंडी में कहानी शुरू की। सभी बच्चों को बहुत मज़ा आ रहा था। सब खूब हंस रहे थे। जब मोहन बीच में कुछ भूल जाता तो कक्षा दो की ममता उसे गोंडी में ही आगे की कहानी बताती। मुझे भी बहुत अच्छा लगा - जैसे "चल मेरी ढोलक ढम्मक ढुम, नानी के घर चलें हम और तुम" - इसका गोंडी में अनुवाद है “दा नवा डोलक उम्मक डुम, नानी ना रोन चले इम्मा न नीवा”

नोट : इस प्रकार ये पुरानी कहानी आज बिल्कुल नई ही बन गई। मुझे नहीं पता था कि प्रत्येक बच्चा पूरी कहानी हिंदी से गोंडी में परिवर्तित करके क्रम से लगातार बता सकता था। यह मेरा पहला नया अनुभव था, पर काफी बढ़िया रहा।


* गंगा गुप्ता वर्तमान में सिवनी ज़िले की घंसौर तहसील की प्राथमिक शाला में कार्यरत हैं।