अज़रबैजान के बाकू नगर में नवंबर 11 से 22 तक जलवायु परिवर्तन का 29वां महासम्मेलन (जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र संघ फ्रेमवर्क कंवेंशन का सम्मेलन) आयोजित हो रहा है। इस महासम्मेलन से पहले संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम (यूनेप) ने अपनी वार्षिक उत्सर्जन रिपोर्ट जारी की है। इसके अनुसार विश्व स्तर पर ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन में जो कमी लानी है, उसकी रफ्तार को पहले से कहीं अधिक बढ़ाना होगा।
संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम ने बताया कि यदि तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री तक सीमित करने के लक्ष्य को प्राप्त करना है तो ग्रीनहाऊस गैसों (कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड व कुछ फ्लोरिनेटिड गैसों) को कहीं अधिक तेज़ी से कम करना होगा। यदि ऐसा नहीं किया गया तो इस शताब्दी में तापमान वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित न रहकर 2.6 से 3.1 डिग्री सेल्सियस तक होगी। सवाल यह है कि महासम्मेलन में इस उद्देश्य के अनुरूप एजेंडा कहां तक तैयार हो सकेगा।
जलवायु बदलाव के सम्मेलनों का नियमित समय पर होते रहना तो खैर अपनी जगह पर उचित है, पर साथ में इस सच्चाई का सामना भी करना पड़ेगा कि ऐसे 28 महासम्मेलनों के बावजूद हम जलवायु बदलाव के नियंत्रण के लक्ष्य से पिछड़ते जा रहे हैं। ग्रीनहाऊस गैसों पर समय रहते समुचित नियंत्रण नहीं हो पा रहा है। दूसरी ओर, जलवायु बदलाव का बेहतर सामना कर पाने के लिए ज़रूरी अनुकूलन उपायों में भी समुचित सफलता नहीं मिल पा रही है बल्कि कुछ बदलाव तो ऐसे आ रहे हैं जिनसे अनुकूलन की स्थिति और विकट हो जाएगी। उदाहरण के लिए, कृषि क्षेत्र में व्यावसायिक हितों व बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नियंत्रण विश्व के एक बड़े भाग में बढ़ता जा रहा है, व छोटे साधारण किसानों व किसान परिवारों की स्थिति कमज़ोर होती जा रही है, जो अनुकूलन की दृष्टि से चिंता का विषय है क्योंकि यदि छोटे किसान वैसे ही आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर होंगे तो प्रतिकूल मौसम की परिस्थितियों का सामना उनके लिए और कठिन हो जाएगा।
यदि अभी तक की विफलताओं का संतुलित आकलन किया जाए तो स्पष्ट होगा कि बड़ी कठिनाई दो अवरोधों के कारण आ रही है। ये दोनों समस्याएं एक-दूसरे से जुड़ी हुई भी हैं। पहली समस्या यह है कि विश्व के सबसे धनी देशों में स्थित कुछ बहुत शक्तिशाली व साधन-संपन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने संकीर्ण स्वार्थ साधने के लिए जलवायु एजेंडा में गड़बड़ कर रही हैं। सबसे बड़ी ज़रूरत यह रही है कि जीवाश्म ईंधन को तेज़ी से कम किया जाए व इसके स्थान पर शाश्वत ऊर्जा स्रोतों को विकसित किया जाए। किंतु जीवाश्म ईंधन की सबसे बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां तरह-तरह की तिकड़में कर रही हैं ताकि उन्हें अपना व्यवसाय कम न करना पड़े (अपितु वे इसे और बढ़ा सकें); इसका प्रतिकूल असर जलवायु बदलाव नियंत्रण के प्रयासों पर पड़ रहा है। उसी तरह का व्यवहार कुछ अन्य बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी कर रही हैं।
दूसरी बड़ी समस्या यह है कि धनी देशों में अभी यह सोच सही ढंग से नहीं आ पाई है कि पर्यावरण की रक्षा के लिए विलासिता भरी जीवन-शैली को कम करना भी ज़रूरी है। शराब, तंबाकू, हथियार, ज़हरीले रसायन से सम्बंधित कई उद्योग वैसे भी बहुत हानिकारक हैं व साथ में पर्यावरण की बहुत क्षति भी करते हैं, ग्रीनहाऊस उत्सर्जन भी बहुत करते हैं, पर इन हानिकारक उत्पादों को बहुत कम करने को पर्यावरण रक्षा का महत्वपूर्ण हिस्सा नहीं बनाया गया है। इस तथ्य को अधिक धनी देशों में या तो ठीक से समझा नहीं जा रहा है या इसकी अनदेखी की जा रही है कि यदि विलासिता के उत्पाद तेज़ी से बढ़ते रहे व अनेक हानिकारक उत्पाद भी बढ़ते रहे तो पर्यावरण की रक्षा कठिन है व ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को भी कम करना कठिन होगा। इतना ही नहीं, अन्य देशों के अभिजात्य वर्ग में भी प्राय: यही प्रवृत्ति देखी गई है।
चूंकि आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर वर्ग की बुनियादी ज़रूरतों को तो बेहतर ढंग से पूरा करना ही चाहिए, अत: कटौती तो विलासिता के उत्पादों व हानिकारक उत्पादों की ही करनी होगी। पर शक्तिशाली तत्व इसे स्वीकार नहीं कर रहे हैं, जिसके चलते पर्यावरण रक्षा व जलवायु बदलाव नियंत्रित करने में बाधाएं आ रही हैं।
अत: यह ज़रूरी है कि जलवायु बदलाव के संसाधनों को अधिक व्यापक बनाया जाए व विकास की ऐसी राह तलाशने का प्रयास किया जाए जो बुनियादी तौर पर पर्यावरण रक्षा के अनुकूल हो।
अभी स्थिति बहुत चिंताजनक बनी हुई है। इसका मुख्य कारण यह है कि बुनियादी तौर पर जीवन शैली बदलने, औद्योगीकरण आधारित विकास का मॉडल बदलने, उत्पादन व उपभोग में बड़े बदलाव लाने व समता तथा सादगी का आदर्श अपनाने की दृष्टि से जो मूल सुधार चाहिए, उस दिशा में दुनिया नहीं बढ़ रही है। जलवायु बदलाव के इस दौर में भी उपभोगवाद छाया हुआ है। ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन अधिक करने वाले उद्योगों के लिए किसानों की उपजाऊ भूमि को उजाड़ा जा रहा है, वनों और चारागाहों का विनाश किया जा रहा है। अब समय आ गया है कि जलवायु बदलाव का संकट कम करने की दृष्टि से पूरे विकास के मॉडल को बदलने पर गंभीरता से विश्व स्तर पर विचार किया जाए। अब यह पहले से और भी ज़रूरी है कि समता और सादगी को विकास का मूल आधार बनाया जाए। यह भी पहले से और ज़रूरी हो गया है कि बड़े उद्योग और शहर आधारित अर्थव्यवस्था की अपेक्षा खेती-किसानी व गांव आधारित अर्थव्यवस्था को कहीं अधिक महत्व दिया जाए। हथियारों के उत्पादन व युद्ध की संभावना को न्यूनतम करना पहले से कहीं अधिक ज़रूरी हो गया है। विश्व स्तर पर ऐसी योजना बनाना ज़रूरी है जो ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन में पर्याप्त कमी और सभी लोगों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लक्ष्यों को जोड़ सके। (स्रोत फीचर्स)
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Srote - February 2025
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