इन दिनों सरसों की जीएम फसल पर निर्णय को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर बड़ा विवाद छिड़ा हुआ है। इससे पहले भी कभी बैंगन, कभी सरसों तो कभी कपास की जीएम फसलों पर तीखे विवाद होते रहे हैं। विशेषकर जीएम खाद्य फसलों का विरोध विश्व में बड़े स्तर पर हुआ है। विश्व स्तर पर देखें तो जीएम फसल व खाद्य काफी विवादों में घिरे रहे हैं और बहुत से देशों ने इन्हें प्रतिबंधित भी किया हुआ है।
जेनेटिक इंजीनियरिंग से प्राप्त फसलों को संक्षेप में जीएम (जेनेटिकली मॉडीफाइड) फसल कहते हैं। सामान्यत: एक ही प्रजाति की विभिन्न किस्मों से नई किस्में तैयार की जाती रही हैं। जैसे गेंहू की दो किस्मों से एक नई किस्म तैयार कर ली जाए। इन्हें संकर किस्में कहते हैं।
परंतु जेनेटिक इंजीनियरिंग में किसी भी पौधे या जंतु के जीन या आनुवंशिक गुण का प्रवेश किसी असम्बंधित पौधे या जीव में करवाया जाता है। जैसे आलू के जीन का प्रवेश टमाटर में करवाना या सूअर के जीन का प्रवेश टमाटर में करवाना या मछली के जीन का प्रवेश सोयाबीन में करवाना या मनुष्य के जीन का प्रवेश सूअर में करवाना आदि।
जीएम फसलों के विरोध का एक मुख्य आधार यह रहा है कि ये फसलें स्वास्थ्य व पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित नहीं हैं। इसके अलावा, यह असर जेनेटिक प्रदूषण के माध्यम से अन्य सामान्य फसलों व पौधों में फैल सकता है। इस विचार को इंडिपेंडेंट साइन्स पैनल (स्वतंत्र विज्ञान मंच) ने बहुत सारगर्भित ढंग से व्यक्त किया है।
इस पैनल में शामिल विश्व के कई देशों के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों ने जीएम फसलों पर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ तैयार किया है जिसके निष्कर्ष में उन्होंने कहा है, “जीएम फसलों के बारे में जिन लाभों का वायदा किया गया था वे प्राप्त नहीं हुए हैं तथा ये फसलें खेतों में बढ़ती समस्याएं उपस्थित कर रही हैं। अब इस बारे में व्यापक सहमति है कि इन फसलों का प्रसार होने पर ट्रान्सजेनिक प्रदूषण से बचा नहीं जा सकता है। अत: जीएम फसलों व गैर जीएम फसलों का सह अस्तित्व नहीं हो सकता है। सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि जीएम फसलों की सुरक्षा या सेफ्टी प्रमाणित नहीं हो सकी है। इसके विपरीत, ऐसे पर्याप्त प्रमाण प्राप्त हो चुके हैं जिनसे इन फसलों की सेफ्टी या सुरक्षा सम्बंधी गंभीर चिंताएं उत्पन्न होती हैं। यदि इनकी (खतरों की) उपेक्षा की गई तो स्वास्थ्य व पर्यावरण की अपूरणीय क्षति होगी, जिसे ठीक नहीं किया जा सकता है। जीएम फसलों को अब दृढ़तापूर्वक अस्वीकार कर देना चाहिए।”
इन फसलों से जुड़े खतरे का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष कई वैज्ञानिकों ने यह बताया है कि जो खतरे पर्यावरण में फैलेंगे उन पर हमारा नियंत्रण नहीं रह जाएगा और घातक दुष्परिणाम सामने आने पर भी हम इनकी मरम्मत नहीं कर पाएंगे। जेनेटिक प्रदूषण का मूल चरित्र ही ऐसा है। वायु प्रदूषण व जल प्रदूषण की गंभीरता पता चलने पर उनके कारणों का पता लगाकर उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं, पर जेनेटिक प्रदूषण जो पर्यावरण में चला गया वह हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाता है।
विवाद का एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह बन रहा है कि वैज्ञानिकों के जो विचार सही बहस के लिए सामने आने चाहिए थे उन्हें दबाया गया है। प्राय: जीएम फसलों के समर्थकों द्वारा यह कहा गया है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में जो अनेक जीएम फसलों को स्वीकृति मिली, वह काफी सोच-समझकर ही दी गई होगी। लेकिन हाल में ऐसे प्रमाण सामने आए हैं कि यह स्वीकृति बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में दी गई थी तथा इनके लिए सरकारी तंत्र द्वारा अपने वैज्ञानिकों की जीएम फसलों सम्बंधी चेतावनियों को दबाया गया था।
इस विषय पर एक बहुत चर्चित पुस्तक है जैफ्री एम. स्मिथ की जेनेटिक रुले। कई प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों ने इस पुस्तक को अति मूल्यवान बताया है। इस पुस्तक में स्मिथ ने बताया है कि संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार के खाद्य व औषधि प्रशासन के लिए जो तकनीकी विशेषज्ञ व वैज्ञानिक कार्य करते रहे हैं, वे वर्षों से जीएम उत्पादों से सम्बंधित विभिन्न गंभीर संभावित खतरों के बारे में चेतावनी देते रहे थे और इसके लिए ज़रूरी अनुसंधान करवाने की ज़रूरत बताते रहे थे। यह काफी देर बाद पता चला कि जीएम उत्पादों पर इस तरह की जो प्रतिकूल राय होती थी, उसे यह सरकारी एजेंसी प्राय: दबा देती थी।
जब वर्ष 1992 में खाद्य व औषधि प्रशासन ने जीएम उत्पादों के पक्ष में नीति बनाई तो इस प्रतिकूल वैज्ञानिक राय को गोपनीय रखा गया। पर सात वर्ष बाद जब इस सरकारी एजेंसी के गोपनीय रिकार्ड को एक अदालती मुकदमे के कारण खुला करना पड़ा व 44,000 पृष्ठों में फैली नई जानकारी सामने आई तो पता चला कि वैज्ञानिकों की जो राय जीएम फसलों व उत्पादों के विरुद्ध होती थी, उसे वैज्ञानिकों के विरोध के बावजूद नीतिगत दस्तावेज़ों से हटा दिया जाता था। इन दस्तावेज़ों से यह भी पता चला कि खाद्य व औषधि प्रशासन को राष्ट्रपति के कार्यालय से आदेश थे कि जीएम फसलों को आगे बढ़ाया जाए।
इसी पुस्तक में जैफ्री स्मिथ ने ब्रिटेन का भी एक उदाहरण दिया है जहां वैज्ञानिकों के अनुसंधान से पता चला था कि विकसित किए जा रहे एक जीएम आलू की किस्म के प्रयोगों के दौरान चूहों के स्वास्थ्य को व्यापक क्षति देखी गई थी। जब यह परिणाम बताया जाने लगा तो सरकार ने यह प्रोजेक्ट ही बंद कर दिया, उसके प्रमुख वैज्ञानिक की छुट्टी कर दी व उसकी अनुसंधान टीम छिन्न-भिन्न कर दी गई।
ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं जहां प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों को केवल इस कारण परेशान किया गया या उनका अनुसंधान बाधित किया गया क्योंकि उनके अनुसंधान से जीएम फसलों के खतरे पता चलने लगे थे। इन कुप्रयासों के बावजूद निष्ठावान वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से जीएम फसलों के गंभीर खतरों को बताने वाले दर्जनों अध्ययन उपलब्ध हैं। जैफरी एम. स्मिथ की पुस्तक के 300 से अधिक पृष्ठों में ऐसे दर्जनों अध्ययनों का सार-संक्षेप या परिचय उपलब्ध है। इनमें चूहों पर हुए अनुसंधानों में पेट, लिवर, आंतों जैसे विभिन्न अंगों के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने की चर्चा है। जीएम फसल या उत्पाद खाने वाले पशु-पक्षियों के मरने या बीमार होने का उल्लेख है तथा जेनेटिक उत्पादों से मनुष्यों में भी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का वर्णन है।
जीएम फसलों के अनेक खतरों के बढ़ते उदाहरणों को देखते हुए इन फसलों के समर्थक बस एक बात पर अड़ जाते हैं कि इनसे उत्पादकता बढ़ेगी। जीएम फसलों का सबसे अधिक प्रसार संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ है और यहां फ्रेंड्स ऑफ अर्थ के एक विस्तृत अध्ययन ने बता दिया है कि जीएम फसलों को उत्पादकता बढ़ाने में कोई सफलता नहीं मिली है। इसी तरह भारत में बीटी कॉटन फसलों के कुछ अध्ययनों से भी यही बात सामने आई है। बीटी कॉटन का कीटनाशक उपयोग कम करने का दावा ज़मीनी अनुभव से मेल नहीं खाता है।
कैंटरबरी विश्वविद्यालय (न्यूज़ीलैंड) के इस विषय के विशेषज्ञ डॉ. जैक हनीमैन ने लिखा है कि कुछ बड़ी कंपनियों ने ऊंची उत्पादकता वाले बीजों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया है व इन बीजों को जीएम रूप में ही उपलब्ध करवाती हैं। ऊंची उत्पादकता मिलती है तो यह इन बीजों के अपने गुणों के कारण मिलती है, इन पर हुई जेनेटिक इंजीनियरिंग के कारण नहीं। भारत में जीएम फसलों के विस्तृत अध्ययनों से जुड़े रहे पी. वी. सतीश ने हाल ही में लिखा कि आंध्र प्रदेश में उनके अध्ययनों से बीटी कॉटन की विभिन्न स्तरों पर विफलता की जानकारी मिली। सैकड़ों भेड़ें बीटी कॉटन खेतों में चरने के बाद मर गईं। लेकिन बीज का केंद्रीकरण करके ऐसी स्थिति बना दी गई है जिसमें ऐसा संकरित बीज बाज़ार में मिलना कठिन हो गया है जो जेनेटिक इंजीनियरिंग से न बना हो।
जेनेटिक फसलों के प्रसार से खरपतवार तेज़ी से फैल सकते हैं और सामान्य फसलों में जेनेटिक प्रदूषण का बहुत प्रतिकूल असर हो सकता है। दुनिया के कई देश ऐसे खाद्य चाहते हैं जो जेनेटिक इंजीनियरिंग के असर से मुक्त हों। यदि हमारे यहां जीएम फसलों का प्रसार होगा तो इन देशों के बाज़ार हमसे छिन जाएंगे।
कृषि व खाद्य क्षेत्र में जेनेटिक इंजीनियरिंग की टेक्नॉलॉजी मात्र लगभग छ-सात बहुराष्ट्रीय कंपनियों (व उनकी सहयोगी या उप-कंपनियों) के हाथों में केंद्रित है। इन कंपनियों का मूल आधार पश्चिमी देशों व विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका में है। इनका उद्देश्य जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से विश्व कृषि व खाद्य व्यवस्था पर ऐसा नियंत्रण स्थापित करना है जैसा विश्व इतिहास में आज तक संभव नहीं हुआ है।
इस षड्यंत्र के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में भी लंबी लड़ाई लड़ी गई है। सुप्रीम कोर्ट ने जैव प्रौद्योगिकी के ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक प्रो. पुष्प भार्गव (अब नहीं रहे) को जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी के कार्य पर निगरानी रखने के लिए नियुक्त किया था। पुष्प भार्गव सेन्टर फार सेल्यूलर एंड मालीक्यूलर बॉयोलॉजी, हैदराबाद के पूर्व निदेशक व नेशनल नॉलेज कमीशन के उपाध्यक्ष रहे थे।
ट्रिब्यून में प्रकाशित अपने बयान में विश्व ख्याति प्राप्त इस वैज्ञानिक ने देश को चेतावनी दी थी कि चंद शक्तिशाली व्यक्तियों द्वारा अपने व बहुराष्ट्रीय कंपनियों (विशेषकर अमेरिकी) के हितों को जेनेटिक रूप से परिवर्तित फसलों के माध्यम से आगे बढ़ाने के प्रयासों से सावधान रहें। उन्होंने इस चेतावनी में आगे कहा था कि इस प्रयास का अंतिम लक्ष्य भारतीय कृषि व खाद्य उत्पादन पर नियंत्रण प्राप्त करना है।
हिंदुस्तान टाइम्स के एक लेख में प्रो. भार्गव ने लिखा था कि लगभग 500 शोध पत्रों ने मनुष्यों, अन्य जीव-जंतुओं व पौधों के स्वास्थ्य पर जीएम फसलों के हानिकारक असर को स्थापित किया है और ये सभी शोध पत्र ऐसे वैज्ञानिकों के हैं जिनकी ईमानदारी पर कोई सवाल नहीं उठा है। उन्होंने आगे लिखा था कि दूसरी ओर जीएम फसलों का समर्थन करने वाले लगभग सभी पेपर या प्रकाशन उन वैज्ञानिकों के हैं जिन्होंने हितों का टकराव स्वीकार किया है या जिनकी विश्वसनीयता व ईमानदारी के बारे में सवाल उठ सकते हैं।
प्राय: जीएम फसलों के समर्थक कहते हैं कि वैज्ञानिकों का अधिक समर्थन जीएम फसलों को मिला है पर प्रो. भार्गव ने इस विषय पर समस्त अनुसंधान का आकलन कर यह स्पष्ट बता दिया कि अधिकतम निष्पक्ष वैज्ञानिकों ने जीएम फसलों का विरोध ही किया है। साथ में उन्होंने यह भी बताया कि जिन वैज्ञानिकों ने समर्थन दिया है उनमें से अनेक किसी न किसी स्तर पर जीएम बीज बेचने वाली कंपनियों या इस तरह के निहित स्वार्थों से जुड़े रहे हैं या प्रभावित रहे हैं।
जेनेटिक इंजीनियरिंग का प्रचार कई बार इस तरह किया जाता है कि किसी विशिष्ट गुण वाले जीन का ठीक-ठीक पता लगा लिया गया है व इसे दूसरे जीव में पंहुचा कर उसमें वही गुण लाया जा सकता है। किंतु हकीकत इससे अलग व कहीं अधिक पेचीदा है।
कोई भी जीन केवल अपने स्तर पर या अलग से कार्य नहीं करता है अपितु बहुत से जीनों के एक जटिल समूह के एक हिस्से के रूप में कार्य करता है। इन असंख्य अन्य जीन्स से मिलकर व उनकी परस्पर निर्भरता में ही जीन के कार्य को देखना-समझना चाहिए, अलग-थलग नहीं। एक ही जीन का अलग-अलग जीवों में काफी भिन्न असर होगा, क्योंकि उनमें जो अन्य जीन हैं वे भिन्न हैं। विशेषकर जब एक जीव के जीन को काफी अलग तरह के जीव में पंहुचाया जाएगा, जैसे मनुष्य के जीन को सूअर में, तो इसके काफी नए व अप्रत्याशित परिणाम होने की संभावना है।
इतना ही नहीं, जीन समूह का किसी जीव की अन्य शारीरिक रचना व बाहरी पर्यावरण से भी सम्बंध होता है। जिन जीवों में वैज्ञानिक विशेष जीन पहुंचाना चाह रहे हैं, उनसे अन्य जीवों में भी इन जीन्स के पंहुचने की संभावना रहती है जिसके अनेक अप्रत्याशित परिणाम व खतरे हो सकते हैं। बाहरी पर्यावरण जीन के असर को बदल सकता है व जीन बाहरी पर्यावरण को इस तरह प्रभावित कर सकता है जिसकी संभावना जेनेटिक इंजीनियरिंग का उपयोग करने वालों को नहीं थी। एक जीव के जीन दूसरे जीव में पंहुचाने के लिए वैज्ञानिक जिन तरीकों का उपयोग करते हैं उनसे ऐसे खतरों की आशंका और बढ़ जाती है।
जेनेटिक इंजीनियरिंग के अधिकांश महत्वपूर्ण उत्पादों के पेटेंट बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास हैं तथा वे अपने मुनाफे को अधिकतम करने के लिए इस तकनीक का जैसा उपयोग करती हैं, उससे इस तकनीक के खतरे और बढ़ जाते हैं।
अत: जीएम फसलों, विशेषकर खाद्य फसलों व उनसे प्राप्त खाद्यों, का प्रवेश उचित नहीं है; इन पर प्रतिबंध लगना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
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Srote - February 2023
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