डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
डीएनए आधारित आनुवंशिक विश्लेषण से इस बात की तो पुष्टि हो ही चुकी है कि मनुष्य वानरों के वंशज हैं। प्रजातियों की उत्पत्ति और उनके विकास के बारे में आज से लगभग 160 साल पहले चार्ल्स डार्विन ने बताया था। इस बात को आज सभी स्वीकार करते हैं, हालांकि धार्मिक आधार पर डार्विन को नकारने वालों का एक समूह मौजूद है। इस सिद्धांत को लेकर सन 1860 में एक बड़ी बहस चली थी जिसे ‘ग्रेट ऑक्सफोर्ड बहस’ के नाम से याद किया जाता है। उस समय डारविन बीमार थे और डॉ. थॉमस हक्सले डार्विन के सिद्धांत का बचाव कर रहे थे। ऑक्सफोर्ड के बिशप विल्बरफोर्स ने हक्सले पर तंज कसते हुए पूछा था कि तुम वानर के वंशज होने का दावा दादा की ओर से जोड़कर कर रहे हो या दादी की ओर से? हक्सले ने शांतिपूर्वक इसका जवाब दिया था: “किसी इंसान के लिए इस बात पर शर्म करने का कोई कारण नहीं है कि उसके दादा वानर थे। यदि मुझे अपने किसी पूर्वज को याद करके शर्मिंदगी महसूस होगी तो वह एक मनुष्य होगा जो विशाल और बहुमखी प्रतिभावान है, जो अपने काम के दायरे में सफलता से संतुष्ट नहीं है, और उन वैज्ञानिक सवालों में टांग अड़ाता है जिनके बारे में उसे कुछ पता नहीं है; उद्देश्य सिर्फ यह होता है कि लक्ष्यहीन लफ्फाज़ी से उन सवालों को दबा सके और अपने शब्दजाल और चतुराई से धार्मिक पूर्वाग्रहों का आव्हान करके श्रोताओं का ध्यान वास्तविक मुद्दे से भटका सके।”
हक्सले द्वारा दिया गया यह जवाब यहां सिर्फ इसलिए नहीं दोहराया गया है क्योंकि यह हाजि़रजवाबी, बुद्धिमतापूर्ण, धैर्यपूर्वक अच्छे शब्दों में दिया गया था बल्कि इसलिए दोहराया गया है क्योंकि यह आज भी उतना ही प्रासंगिक है।
इशारों की विरासत
मनुष्यों को वानरों (गोरिल्ला, ओरांगुटान, चिम्पैंज़ी, बोनोबो) से विरासत में ना सिर्फ आनुवंशिक और जैव-रासायनिक गुण मिले हैं बल्कि संवाद के शारीरिक संकेत (इशारे) भी मिले हैं। यह बात एक हालिया शोध पत्र में प्रस्तुत हुई है। वी. क्रसकेन और साथियों का यह शोध पत्र एनिमल कॉग्नीशन नामक पत्रिका के सितम्बर 2018 के अंक में प्रकाशित हुआ है (यह नेट पर मुफ्त में उपलब्ध है, लिंक देखे https://doi.org/10.1007/&10071-08-1213)। इस शोध पत्र में लेखक बताते हैं कि “मानव और गैर-मानव वानरों की सभी प्रजातियों के पूर्वज संवाद के लिए अलग-अलग तरह के संकेतों का उपयोग करते थे: जैसे उच्चारण, शारीरिक संकेत, चेहरे के भाव, शरीर की हरकतें और यहां तक कि चेहरे की रंगत (गुलाबी होना, लाल-पीला होना) या गंध भी आपस में संदेश पहुंचाने का काम करते थे। अलबत्ता, मनुष्यों की भाषा (मौखिक या सांकेतिक) संवाद का एक सर्वथा जुदा तंत्र लगती है।” इसके विपरीत हमारे वानर पूर्वजों के पास मौखिक भाषा नहीं थी, मगर आपस में संवाद के लिए संकेतों के रूप में उनके पास 60 से भी ज़्यादा इशारे थे, जिनका उपयोग वे रोज़मर्रा के लक्ष्य हासिल करने हेतु करते थे। इनमें काफी लचीलापन और सोद्देश्यता दिखाई पड़ती है। और तो और, विभिन्न वानर प्रजातियों में संवाद के इशारे एक जैसे पाए गए हैं। इस बात से यह निष्कर्ष निकलता है कि ये 60 से भी अधिक सांकेतिक चेष्टाएं, जिनका उपयोग पूर्वज वानर आपस में संवाद के लिए करते थे, संवाद की गैर-मानव प्रणाली है। ऐसा भी कहा जाता है कि इंसानों की भाषा इशारों के इसी खज़ाने से विकसित हुई है। इस संदर्भ में दी मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट ऑफ इवॉल्यूशनरी एन्थ्रोपोलॉजी के प्रोफेसर माइकल टॉमसेलो की एक किताब प्रकाशित हुई थी जिसका शीर्षक है ओरिजिन ऑफ ह्यूमन कम्यूनिकेशन । डॉ. ह्यूवेस और उनके साथियों ने 1973 में करंट एंथ्रोपोलॉजी में एक पेपर प्रकाशित किया था: प्राइमेट कम्यूनिकेशन एंड दी जेश्चरल ओरिजिन ऑफ लेन्गवेज (प्रायमेट संप्रेषण और भाषा की शारीरिक संकेत-आधारित उत्पत्ति)। और ज़्यादा हाल में होबैटर और बायर्न ने करंट बायोलॉजी में चिम्पैंज़ियों के हाव-भाव-इशारों का एक शब्दकोश प्रकाशित किया है।
मानव शिशु
अब मानव शिशुओं की बात करते हैं। हमारे शिशुओं को बोलना सीखने में वक्त लगता है। औसत मानव शिशु एक या दो वर्ष की उम्र तक वयस्कों के साथ और आपस में संप्रेषण के लिए विभिन्न हाव-भाव (शारीरिक संकेतों) का उपयोग करते हैं। डॉ. कैथरीन होबैटर के नेतृत्व में स्कॉटलैंड, युगांडा, जर्मनी और स्वीटज़रलैंड के एक समूह द्वारा किए गए एक तुलनात्मक अध्ययन में यह देखने की कोशिश की गई कि इस दौरान (बोलना सीखने से पहले) शिशु ऐसे कितने और कौन-से शारीरिक संकेतों का उपयोग करता है और इनमें से कितने हमारे पूर्वजों से मेल खाते हैं। यह अध्ययन एनिमल कॉग्नीशन पत्रिका के एक विशेष अंक में प्रकाशित हुआ था जिसका विषय था इवॉल्विंग दी स्टडी ऑफ जेश्चर।
शोधकर्ताओं ने युगांडा के 315 से 421 दिन उम्र के 7 शिशुओं और जर्मनी के 343 से 642 दिन उम्र के 6 शिशुओं के शारीरिक संकेतों को रिकॉर्ड किया। सारे शिशु उनके सामान्य परिवेश में ही रखे गए थे। देखा यह गया कि शिशु बात करने के लिए कितने शारीरिक इशारों का उपयोग करते हैं। उन्होंने पाया कि मानव शिशु 52 अलग-अलग इशारों का उपयोग करते हैं। इसके बाद उन्होंने 12 महीने से लेकर 51 वर्ष उम्र के चिम्पैंज़ियों के शारीरिक इशारों से इनकी तुलना की। तुलना में उन्होंने पाया कि मानव शिशु द्वारा उपयोग किए जाने वाले 52 इशारों में से 46 चिम्पैंज़ी इशारा-कोश के भी हिस्से थे। शोधकर्ताओं के मुताबिक, चिम्पैंज़ी की तरह मानव शिशु भी इन इशारों का उपयोग अलग-अलग भी करते हैं और एक क्रम के रूप में भी। और प्रत्येक संकेत का उपयोग लचीले ढंग से विभिन्न उद्देश्यों के लिए किया जाता है।
चिम्पैंज़ी और मानव शिशुओं के कौन-से इशारे एक जैसे हैं? हाथ उठाना, हाथ लहराना, दूसरे के शरीर को पकड़ना, किसी दूसरे को मारना, किसी दूसरे की हथेली तक पहुंचना, पैर पटककर चलना और लयबद्ध ढंग से पैर पटकना, किसी चीज़ को फेंकना, किसी दूसरे के हाथ या उंगली को छूना, वगैरह। ये सब बेतरतीब ढंग से नहीं किए गए थे, इनमें से हरेक क्रिया कोई संदेश और मतलब लिए हुए थी। हालांकि कुछ इशारे सिर्फ मानव शिशु में देखे गए हैं, हमारे पूर्वजों में नहीं। जैसे किसी के स्वागत में या किसी को विदा कहने के लिए हाथ हिलाना। यह भी देखा गया कि मानव शिशु ने चिम्पैंज़ी से ज़्यादा बार चीज़ों की ओर इंगित किया। किंतु फिर भी मानव शिशु और चिम्पैंज़ियों में 89 प्रतिशत हावभाव या इशारे एक समान होना उनके साझा वैकासिक इतिहास का गवाह है।
जैसा कि नेचर वर्ल्ड न्यूज़ नामक अपने कॉलम में नेइया कार्लोस ने लिखा है, शोधकर्ताओं ने इसके बाद एक बड़े समूह के साथ अध्ययन करने का सुझाव दिया है, जिसमें बोनोबो जैसी प्रजातियों को शामिल किया जाए जिनके बारे में माना जाता है कि वे मानव के और भी अधिक करीब हैं। ऐसा लगता है कि हमारे हाव-भाव और भाषा हमें हमारे पूर्वजों से मिली है, और शायद डीएनए का प्रभाव क्षेत्र मात्र शरीर की रासायनिक क्रियाओं के विकास से आगे संप्रेषण व भाषा के विकास तक फैला हुआ है। (स्रोत फीचर्स)