शशिकला नारनवरे, गुलाबचंद शैलू, सुषमा लोधी

परिचय
घरों से बाहर न निकल पाना, लोगों से नहीं मिलना, आसपास का सूनापन और टीवी पर दिन-भर कोविड से जुड़ी खबरें देखना जब हम सब बड़ों पर इतना असर कर रहा था, तो यह सब बच्चों पर किस प्रकार का प्रभाव डाल रहा होगा! अध्ययन बताते हैं कि तनाव बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य और सीखने की प्रक्रिया पर गहरा प्रभाव डाल सकता है| तनावपूर्ण परिस्थितियों में जीने से बच्चों में बेचैनी, डर, मूड ऊपर-नीचे होना और अन्य मानसिक बीमारियों से ग्रसित होने की सम्भावना बढ़ जाती है|
इस बारे में और जानने के लिए हमने अपने घर के आसपास के बच्चों से बात की, साथ ही हमारे काम के क्षेत्र की बस्तियों में फोन के माध्यम से सम्पर्क किया और जब हमारे साथी राशन देने के लिए जाते, उनसे पता लगाने की कोशिश की, कि वहाँ पर क्या स्थिति है। बात करके यह तसल्ली हुई कि बस्ती में रहने वाले बच्चे कम-से-कम ऐसी बसाहटों में रहते हैं जहाँ आसपास एक-दूसरे से मिल सकते हैं, खेल सकते हैं और बातें कर सकते हैं, कम-से-कम वे डर व शक की एक अलग ही श्रेणी में नहीं रह रहे हैं| लेकिन उनकी आर्थिक स्थितियाँ भी उन पर अलग तरह का विकट असर डाल रही थीं।

एक माह के बाद जब खुद बच्चों से मिलने निकले तो उनके मन की स्थिति को समझा और उसमें कुछ हस्तक्षेप करने की कोशिश भी की, जिससे बच्चे सामान्य हो पाएँ| हमारे लिए ज़रूरी था कि हम बच्चों को उनके मन की बातों को बाहर निकालने का अवसर दे पाएँ और साथ ही एक सकारात्मक हस्तक्षेप की कोशिश भी करें।
हमने छोटे-छोटे समूहों में बच्चों से लिखवाकर, चित्र बनाकर और मौखिक रूप में (विशेष तौर पर जो बच्चे लिख नहीं पाते) अपनी बातें अभिव्यक्त करने के अवसर बनाने की कोशिश की। जब भी बस्ती जाते, तो बच्चों से व्यक्तिगत बातें भी करते, बीच-बीच में बच्चों से फोन पर भी बातें करके उनसे जुड़ाव बनाए रखने की कोशिश करते। उनके माँ-बाप और परिवार से भी मिलना शुरू किया और उनकी परिस्थितियों को जाना। बाल मेले भी किए। बाल मेले एवं लाइब्रेरी कार्यक्रम के दौरान बच्चों ने टोपी बनाना, ऑरिगेमी से कागज़ के खिलौने बनाना और कहानी सुनाने जैसी मनोरंजक गतिविधियों में भाग लिया और खूब खुश हुए। हमने जून से सितम्बर 2020 के दौरान भोपाल की 6 कच्ची बस्तियों में बच्चों से मिलते हुए उनके मन में चल रही बातें सुनीं जिससे हम अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि बच्चे किस तरह की मानसिक स्थिति में रह रहे हैं|
एक बच्चे ने कहा, “यह अच्छा नहीं लगा कि न हमारी ईद मनी, न रक्षाबन्धन|”
चंदा (15 वर्ष) बोली, “दीदी, मुझे आपसे इतनी सारी बातें करनी हैं| आप लोगों से इतने दिनों से नहीं मिली, मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था।”

बच्चों में तनाव के प्रमुख कारण
कुछ मामूली-से सवाल पूछते ही बच्चों के दिल का गुब्बार निकलने लगता। उनकी चिन्ताएँ, उनकी परेशानियाँ और उत्सुकताएँ उनके हावभाव से ही समझ में आ जाती थीं। इसके साथ यह भी देखा कि कई बच्चों में जिज्ञासा थी कि उन्हें कोविड के बारे में कुछ सही जानकारी मिल पाए। हमें बच्चों में तनाव के ये सब कारण महसूस हुए:

आर्थिक चुनौतियाँ
मज़दूर वर्ग रोज़ कमाकर खाता है; जब काम रुका तो घर में पैसे की कमी पहले दिन से ही महसूस हुई| बच्चों के लिए घरवालों से पैसे माँगना, जो न्यूनतम खाने की आदत थी, वो भी बदल जाना तनाव का एक प्रमुख कारण बना| कोरोना के दौर में नौकरी छूट जाना, काम न मिलना जैसी समस्याओं से देश की आबादी का बड़ा हिस्सा जूझ रहा है, जिसमें वंचित तबके की स्थिति और अधिक दयनीय है। पुरुषों के अलावा बस्ती की काम करने वाली महिलाओं को भी काम नहीं मिल रहा है; जो बँगलों पर काम करने जाती थीं, अब उन्हें बुलाया नहीं जा रहा या कम वेतन में काम करने को बोला जा रहा है जिसका असर उन पर और उनके बच्चों पर भी दिखता है।

एक 10 वर्षीय बच्चे ने बताया,  “हमें पक्का नहीं पता था कि शाम को खाना बाँटने आएँगे या नहीं, कल बाँटने आएँगे या नहीं, सो चिन्ता होती थी कि जो अभी मिला है, उसे पेटभर के खाएँ या रख लें|”
सोनिका (19 वर्ष) रेस्टोरेंट में काम करती थी, जहाँ उसे 6000 रुपए प्रतिमाह मिलता था। घर में भाई-बहनों को मिलाकर 7 सदस्य हैं। माँ बीनने जाती है और सोनिका और उसकी माँ के लाए हुए पैसों से ही घर चलता था। उसे सुबह 7:00 बजे से रात 8:00 बजे तक काम करना होता था। इन पैसों से वह घर चलाती थी और खुद का बवासीर और एनीमिया का इलाज भी करवाती थी। लॉकडाउन के बाद माँ का बीनने का काम बन्‍द हो गया और सोनिका को वही काम 4000 रुपए में करने के लिए बोला गया। इसलिए उसने यह काम छोड़ने का तय किया, क्योंकि इतने में न तो घर का खर्च चलता और न इलाज के लिए पैसे पूरे हो पाते। फिर कोई काम नहीं मिला तो यही सोचती रही कि काम छोड़ना नहीं चाहिए था, और अपने पर गुस्सा भी आ रहा था|
गोपाल (11 वर्ष) ने लिखा, “हमारे घर राशन खत्म होने लगा था इसलिए एक दिन छोड़कर खाना बनता था। थोड़ा-थोड़ा इधर-उधर खा लेते थे, तो कभी बासी रोटी जो माँग कर लाते थे वही खाते थे, नमक-मिर्च के साथ। लॉकडाउन बढ़ने की खबर आती थी, तो अच्छा नहीं लगता था।”

एक और 10 वर्षीय बच्ची ने हमसे पूछा, “राशन बाँटने वाले आते थे, तो वो आधार कार्ड माँगते थे और उसे दिखाने पर ही राशन देते थे। वे ऐसा क्यों करते हैं?” वो बोल नहीं पाई कि इसमें क्या गड़बड़ है, लेकिन एहसास स्तर पर चुभता रहा|
कई बच्चों ने लिखा कि उन दिनों भूख भी बहुत लगती थी। इसके अलावा इस परिस्थिति में जहाँ सफाई से रहना बहुत महत्वपूर्ण है और नियमित रूप से हाथ धोने की बात की जाती है, कई लोगों के पास साबुन खरीदने तक के पैसे नहीं थे।  

पढ़ाई पर खतरा
कोरोना महामारी के इस दौर में स्कूल, कॉलेज और सभी शिक्षण संस्थान बन्द हैं। इतने महीनों से बच्चे घर पर ही हैं। जो सक्षम हैं, अब उनकी ऑनलाइन पढ़ाई शुरू हो गई है लेकिन एक वंचित तबका जिनके पास खाने के लाले पड़े हैं, उनमें से बहुत ही सीमित लोगों के लिए मोबाइल और इंटरनेट तक पहुँच बना पाना सम्भव है। ऐसे में बच्चों का बड़ा समूह पढ़ाई से छूटा चला जा रहा है। बच्चों और उनके माता-पिता को यह डर सता रहा है कि कहीं बच्चे जो पढ़ा हुआ है, उसे भी भूल न जाएँ। यह चिन्ता उनकी बातों में भी साफ झलकती है। कई बच्चे ऑनलाइन कक्षा के समय उदास बैठे होते हैं क्योंकि उनके पास या तो मोबाइल फोन नहीं होता या फोन में इंटरनेट की सुविधा के लिए डाटा नहीं होता।
ललिता (15 वर्ष) ने बताया कि उसके मम्मी-पापा, दोनों बेलदारी का काम करते थे, जिससे उनके घर का खर्च और उसकी दो बहनों और भाई की स्कूल की फीस भरते थे। कोरोना काल में उसके मम्मी-पापा को काम नहीं मिल रहा है, इस वजह से बहनों को प्राइवेट स्कूल से निकाल लिया गया। इस वजह से उसकी दोनों बहनें बहुत परेशान हैं और इस कारण ललिता को काम करने जाना पड़ रहा है।

दोस्तों से नहीं मिल पाना
दोस्तों से न मिल पाना सभी बच्चों के लिए परेशानी का एक सबब बना है और लड़कियों के लिए स्थिति और भी अधिक चिन्ताजनक है। जहाँ एक तरफ लड़कियाँ घर में रहते हुए घर की ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए तनाव में हैं, वहीं दूसरी ओर उनका अपने दोस्तों से मिलना-जुलना भी नहीं हो पा रहा है।
रती (9 वर्ष) अपनी सहेलियों के साथ पढ़ना-लिखना, खेलना, बातें करना और हर बात साझा करना बहुत पसन्द करती है लेकिन कोविड के चलते वह अपने आप को बहुत अकेला महसूस कर रही है। यूँ तो भाई-बहनों के बीच नोंक-झोंक साधारण-सी बात है लेकिन तनाव के चलते यह छोटी नोंक-झोंक पार्वती को आत्महत्या के प्रयास तक ले गई जिसके कारण उसकी बड़ी बहन मेघा (13 वर्ष) और माँ भी बेहद तनाव में आ गईं।
18 वर्ष का एक युवक गर्लफ्रेंड से न मिल पाने के कारण तनाव में आ गया और उसने खुदखुशी कर ली, यह खबर एक बस्ती से पता चली।

अकेलापन
स्कूल नहीं जाने और घर में ही रहने के कारण मन में चल रही बातों को किसी से साझा नहीं कर पाना, तनाव को और भी बढ़ा रहा है। अभी लॉकडाउन खुलने के बाद यह और मुश्किल हुआ है क्योंकि माता-पिता काम की तलाश में और खाने के इन्तज़ाम में लगे रहते हैं, तब बच्चे अकेले रहते हैं जबकि लॉकडाउन के दौरान मम्मी-पापा पूरे समय बच्चों के साथ ही होते थे और उनका खयाल रख पाते थे।
कुछ बच्चे जिनके पास मोबाइल फोन हैं, इस अकेलेपन और बोरियत को दूर करने के लिए मोबाइल का सहारा लेते हैं, लेकिन जब मोबाइल नहीं मिल पाए, तो बहुत तनाव में आ जाते हैं|

कोविड का आतंक
माहौल में चारों तरफ कोरोना वायरस और टेस्टिंग टीम से डर के कारण बच्चों के मन में बेचैनी और चिन्ताएँ चल रही हैं। इसलिए देखने को मिला कि जब हम एक नई बस्ती में लाइब्रेरी के लिए पहली बार पहुँचे तो बच्चे किताबों के थैले को देखकर डर के कारण इधर-उधर छुपने लगे। बात करने पर पता चला कि बच्चे हमें कोविड टेस्ट करने वाला समझ रहे थे।
सुधा (9 वर्ष) ने बताया, “जब भी कोरोना वायरस चेक करने आते थे, तो हम लोग छुप जाते थे क्योंकि डर लगता था कि हमें पकड़कर ले जाएँगे और हमें अकेले वहाँ रहना पड़ेगा।”
राजा (17 वर्ष) कहता है कि खाना खा पा रहे हैं, लेकिन फिर भी चिन्ता के कारण दुबले हुए जा रहे हैं|

दुत्कार का एहसास
एक ओर जहाँ काम न मिलना परेशानी का कारण है, वहीं काम मिलने पर मालिकों का व्यवहार लोगों को बहुत परेशान कर रहा है। चंदन (16 वर्ष) कहता है कि बस्ती से लोग जब काम करने जाते हैं, तो उन्हें कुछ छूने नहीं दिया जाता और यदि कुछ छू लिया तो उसे धोना पड़ता है। पीने के लिए पानी तक नहीं दिया जाता है।
रोशनी (11 वर्ष) कहती है कि ये छुआछूत जैसी बीमारी है, सामने मल्टी में लौकी बेचने जाते हैं, तो लोग भगा देते हैं।

माँ-बाप के लिए चिन्ता
बच्चे परिवार में बड़ों के तनाव को भी महसूस कर रहे होते हैं, और इस छोटी उम्र में उनके दुःख को भी कम करने की पूरी कोशिश करते हैं| घरवालों को काम नहीं मिलना, घर में भरण-पोषण ठीक से नहीं कर पाने के कारण मायूसी, कुछ पालकों का शराब न मिलने पर सेनीटाइज़र पीने लगना, बारिश से होने वाली परेशानियों का माँ-बाप पर असर और इन तनावों के कारण हो रहे आपसी झगड़े, ये सभी कुछ बच्चों में उभरते तनाव के कारण बने हैं|
मंजना (13 वर्ष) ने लिखा, “सोना दीदी ने खाने के लिए सोने की बाली और नथ बेच दी, इस कारण उनके पति ने बच्चों के सामने तीन-चार दिनों में कई बार उनकी पिटाई की जिससे रिया और उसके भाई-बहन कई दिनों तक खुद भी रोते रहे।”
एक महिला ने बताया कि वो अपने बच्चों के साथ अपनी मालकिन के घर पैसे माँगने गई थी। जब मालकिन ने उन्हें गेट से अन्दर नहीं आने दिया तो बच्ची ही रोती हुई माँ का हाथ पकड़कर उसे वापस ले आई|

घर की बाहर पर निर्भरता
बस्ती में रह रहे लोगों को अपनी छोटी-छोटी ज़रूरतों जैसे खाना बनाने के लिए लकड़ी लाना, पानी भरने के लिए थोड़े दूर तक जाना, बकरियों को चराने जाना और उनके लिए चारा लाना आदि के लिए बाहर निकलना ही पड़ता है। लेकिन लॉकडाउन की सख्ती के चलते लोग बाहर नहीं निकल पा रहे थे - डर रहे थे कि बाहर निकलने पर पुलिस तंग करेगी। इन उदाहरणों से उनकी परेशानियों को समझा जा सकता है।
संजय (10 वर्ष) ने लिखा, “पानी के लिए बहुत परेशान होना पड़ता था। पानी भरने जाते थे तो पुलिसवाले रोकते थे, मास्क लगाने को कहते थे। हमारे यहाँ एक दिन छोड़कर टैंकर आता था और सबको ठीक से पानी भी नहीं मिलता था।”
जहाँ एक बच्चे ने बताया कि “बकरियों को चराने नहीं जा पा रहे थे और उनके लिए चारा भी नहीं ला पा रहे थे तो बकरियाँ कमज़ोर होने लगीं थी, हमें बहुत बुरा लगता था,” वहीं दूसरी तरफ एक बच्चे का गुस्सा था कि “लकड़ी लेने जाओ तो पुलिसवाले भगाते हैं| खाना कैसे बनाएँ? क्या वो जानते नहीं हैं कि हमारे घर में गैस नहीं है?”
“लॉकडाउन में जब पुलिसवाले चौराहों पर खड़े रहते थे तो लोग कहीं नहीं जा पा रहे थे| जो बिना मास्क के गाड़ी चला रहे थे, उन्हें बहुत मार रहे थे, मुझे भी मारा।” योगेश (15 वर्ष)

दुनिया की खबरों का प्रभाव
कोविड कहाँ कैसे फैल रहा है, कौन-से देश में क्या हो रहा है, ऐसी सब खबरें सब तरफ से बच्चों को प्रभावित कर रहीं थीं| यह देखने को मिला कि सभी बच्चों को अपने से दूर रह रहे लोगों के लिए भी चिन्ता थी| सुहानी को पता चला कि नागपुर में रह रहे उनके रिश्तेदार के घर में चोरी हो गई और अब उनके पास बिलकुल भी पैसे नहीं बचे इसलिए उसकी दादी ने कुछ पैसे उनके लिए भेजे हैं।
“हमारे मोहल्ले में राशन बाँटने तो आते थे, लेकिन कहीं तो मज़दूरों को खाना भी नहीं मिला| ट्रेन भी नहीं चल रही थीं|” इकरा (13 वर्ष)
इस पूरी प्रक्रिया से हमें इस दौर के बारे में जो समझ आया:
•    बच्चों के पास बहुत सारे सवाल थे लेकिन जवाब देने के लिए लोग नहीं थे| इसलिए कभी-कभी वे हमें लिखते थे या वापस मिलकर भी सवाल पूछते रहते थे|
•    बस्तियों में बच्चे खेल ज़रूर पा रहे थे, लेकिन आज़ाद महसूस नहीं कर रहे थे; जबकि कॉलोनियों में तो बच्चे घरों से बाहर भी नहीं निकल पा रहे थे तो वे भी अवश्य तनाव में रहे होंगे।
•    बच्चे स्कूल को बहुत याद कर रहे हैं।
•    लड़कियों की आज़ादी पर और ज़्यादा पाबन्दी लग गई - लड़कियों का कामकाज नहीं रुका, काम में और भी ज़्यादा वक्त जाने लगा और जो थोड़ा स्कूल जाती थीं, वो भी रुक गया| तैयार होना, सड़क तक जाना, सब रुक गया|
•    घरों में एक तरफ झगड़ा बढ़ा है क्योंकि पैसे नहीं थे, लेकिन घरों के अन्दर स्थिति थोड़ी बेहतर भी थी क्योंकि दारू की दुकानें बन्द थीं|
•    अपनी परेशानियों के अलावा बच्चे अन्य लोगों की भी परेशानियों को देख रहे थे, सुन रहे थे और महसूस भी कर रहे थे।
बच्चों की जो स्थिति है तथा वे जिस कशमकश से गुज़र रहे हैं, इससे निकलने के लिए उनसे लगातार बात करते रहना और उनके घरों के आसपास कुछ गतिविधियाँ होते रहना  बहुत ज़रूरी हैं। हमारी इस पहल से समझ आया कि यह भूमिका बहुत-से लोग निभा सकते हैं, चाहे वे घरवाले  हों या अच्छे दोस्त या एक शिक्षक या बस्ती के कोई और वयस्क हों, ताकि बच्चे अपने मन की बात एवं अपने तनाव को साझा कर पाएँ।


शशिकला नारनवरे, गुलाबचंद शैलू, सुषमा लोधी: मुस्कान संस्था, भोपाल के शिक्षा समूह से सम्बद्ध हैं।
सभी फोटो: मुस्कान संस्था की लाइब्रेरी।