अज्ञात
कहानी
मेज़ पर मेरा दोपहर का खाना तैयार है -- रोहू मछली, जो मैंने कल रात पकायी थी, और भात। और मुझे मेरे भाई की, चचेरे भाई की याद आ जाती है, जो अब फौज में है। एक अरसा बीत गया, उससे मेरा कोई सम्पर्क ही नहीं रहा है।
वह तब बहुत छोटा था। बस स्कूल जाना शुरू ही किया था। जब वह खाना खाता तो हर कोई उसे ही घूरता था। क्योंकि वह बहुत खाता था। वह हमेशा भूखा रहता था। जब भी वह किसी को कुछ भी खाते देखता, उसकी आँखें बाहर निकल आतीं और ज़बान से लार टपकने लगती थी। उसकी माँ, मेरी चाची-मासी-फूफी-मामी, उसके कान खींचकर उसे फटकार लगाती थीं, “क्या भुक्खड़ है, दूसरों को खाने भी नहीं देता। जा यहाँ से। जा, जाकर आँगन में पौधे को पानी दे या फिर पढ़ाई कर।” वह रोता-रोता चला जाता था।
हमारा 15 लोगों का संयुक्त परिवार था। हम सब गाँव में ही रहते थे, मेरे पिता को छोड़कर जो दूर के एक छोटे शहर में काम करते थे। परिवार के वे ही एकमात्र कमाने वाले थे। हमारे पास हमेशा खाने को पर्याप्त भोजन नहीं हुआ करता था। इसलिए कोई भी इच्छा से हमारे उस छोटे भाई के साथ अपनी थाली बाँटना नहीं चाहता था। वह सब कुछ चट कर सकता था!
हम सब साथ बड़े हुए। जब तक मैंने अपनी हायर सेकंडरी की पढ़ाई पूरी की, हमने उस बड़े परिवार में अपनी गरीबी साझा की। फिर मुझे नेशनल स्कॉलरशिप मिल गई। मेरे पिता को मुझमें एक उज्ज्वल भविष्य दिखाई देने लगा और उन्होंने चाहा कि मैं शहर में पढ़ाई करूँ। हम शहर आ गए और हमने अपने चाचा-चाची, भाई-बहन -- सबको पीछे गाँव में छोड़ दिया। तब तक मेरे सबसे बड़े कज़िन भैया को एक नौकरी मिल गई थी -- स्कूल शिक्षक की नौकरी। मेरे ताऊजी धान के खेतों की देखभाल करते थे। गाँव में हमारे पास धान के कुछेक छोटे खेत हैं। हमारे आँगन में भी चाचा और कज़िन भाई साग-सब्ज़ी उगाते हैं। धान की फसल साल भर के लिए भी काफी नहीं पड़ती, न ही सब्ज़ियाँ। चूँकि मेरे पिता को शहर में परिवार को पालना था, सो वे अब उतने पैसे भी गाँव भेज नहीं सकते थे जितना वे पहले भेजते थे। सो साल में एक बार वे पूरे परिवार के लिए कपड़े भेजते हैं।
जब भी हम गाँव जाते हैं या कोई गाँव से शहर आता है, तो हम कितनी ही चीज़ों की बातें करते हैं -- धान खेत के बारे में, सब्ज़ियों के बारे में, अपने-अपने स्कूल, अर्धवार्षिक परीक्षा के नम्बर, वार्षिक परीक्षा, और भी बहुत कुछ। पर जब भी हम बादल के बारे में बात करते - वही पुराना राग था -- आजकल तो वह घोड़े की तरह खाता है। उसके एक वक्त का खाना 3-4 लोगों के खाने के बराबर है। उसका पेट भरना किसी के बस की बात नहीं। सभी हँसते हैं, बादल भी हँसता है। मैंने उसे तब देखा था जब वह मुश्किल से 12 साल का रहा होगा। वह एक तन्दुरुस्त बच्चे-सा बढ़ रहा था। देखने पर भी यकीन नहीं होता था, पर वह बिना थके धूप में घण्टों काम कर लेता था। छोटा बच्चा ही था तब, फिर भी खाने को लेकर कभी शिकायत नहीं करता था। और उसकी यह बात सभी को बहुत पसन्द थी।
वह पढ़ाई में कभी अच्छा नहीं रहा। उसकी पढ़ाई की किसी को फिक्र भी नहीं थी, न ही उसे खुद को थी। पहली बार इंटर की परीक्षा में वह फेल हो गया, पर अगली बार बमुश्किल पास हो गया। आज की तकनीकी और प्रगति की दुनिया में उसकी योग्यता बस इतनी ही है। अब वह 18 साल का है -- लम्बा, तगड़ा। अब कोई उसका पेट नहीं भर सकता, कोई उसे कपड़े-लत्ते नहीं पहना सकता। वह एक युवक है। उसे अपने रोटी-कपड़े की जुगाड़ खुद ही करनी होगी।
इस बीच मेरा चयन आई.आई.टी. (इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी) बम्बई में आगे की पढ़ाई के लिए हो गया था। बम्बई जाने से पहले मैं अपने गाँव गया। मुझे पता चला कि बादल भी बम्बई गया हुआ था, किसी फैक्ट्री में काम करने। बढ़िया! मैं भी तो वहीं रहूँगा। मैं उसका पता पूछता हूँ। पर किसी को पता नहीं है। अजीब है! “बात क्या है?” मैं पूछता हूँ। “यह तो पक्का है कि वह किसी फैक्ट्री में काम करने गया है, पर कौन-सी फैक्ट्री और वह कहाँ है, यह हमें नहीं मालूम। ठेकेदार का कहना है कि इन लोगों को अलग-अलग ठिकानों पर रखा जाएगा।
जब उनको कोई ठीक-ठाक रहने की जगह मिल जाएगी, तब पता बताएँगे,” मेरे रिश्तेदारों ने मुझे बताया। कहानी कुछ अजीब-सी लगी। मेरे एक रिश्ते के भाई ने मुझे समझाने की कोशिश की, “हमने उसे कहा है कि बम्बई पहूँचने पर तत्काल खत लिखे। मैंने उसे यहाँ के पते लिखे अन्तर्देशीय भी दे दिए हैं।” मैं सारी बात तफ्सील से जानना चाहता हूँ। तो मुझे वो बताते हैं। “बादल बेतहाशा नौकरी की तलाश में था। वह जगह-जगह जाता था, पर हर जगह उसे निराशा ही हाथ लगी थी। इस निराशा में उसे उम्मीद की एक किरण दिखाई दी। पास के गाँव का एक ठेकेदार बम्बई की किसी फैक्ट्री के लिए युवकों की तलाश में था। बादल उससे मिलने चला गया। ठेकेदार ने कोई 12-15 लड़कों को इकट्ठा किया और बम्बई ले गया -- 1000 रुपए मासिक वेतन के वादे के साथ।”
मुझे समझ आया कि अधखाली पेट के साथ बहुत लम्बा समय बीत जाने और रोज़-रोज़ की निराशा ने उसे इस अनिश्चित भविष्य की ओर धकेल दिया था। मैं अपना पता-ठिकाना रिश्तेदारों के पास छोड़ देता हूँ और उनसे कहता हूँ कि जल्द-से-जल्द वे बादल तक यह जानकारी पहुँचा दें। और उसका पता मालूम होने पर मुझे भेजने में भी देर न करें। बम्बई में दो-एक महीने बीतने के पहले ही मुझे घर से चिट्ठी मिली। बादल के बारे में। और मैंने चिट्ठी के मजमून को उदासी के साथ पढ़ा। बादल घर लौट सका था, अधमरी हालत में। मेरी सत्रान्त परीक्षाओं के बाद मैं घर गया और वहाँ उसकी पूरी कहानी सुनी।
इन सभी लड़कों को एक बस्ती में एक अकेले कमरे में रुकाया गया था। वे एक फैक्ट्री में काम करते थे -- सुबह से रात तक लोहे के छड़ और चादरें उठाने का काम। लोहा चढ़ाते और उतारते हुए, कभी-कभी वे निर्माणाधीन इमारतों पर भी काम करते। उन्होंने ढाई महीना काम किया। पहले महीने के अन्त में ठेकेदार ने उन्हें आधे महीने की तनख्वाह दी। पूरी पगार नहीं देने का कारण यह बताया गया कि कहीं वे भाग न जाएँ। पर दूसरे महीने ठेकेदार का कोई नामोनिशान नहीं था। दूसरे महीने के अन्त में इन लोगों ने कार्यकारी मैनेजर से तनख्वाह के बारे में पूछा। उसने बताया कि उनकी पगार पहले ही ठेकेदार को दी जा चुकी थी। सारे युवक चक्कर में पड़ गए। वे आतंकित थे। बम्बई शहर में वे सब नए थे। सभी गाँव से आए थे। किसी ने भी पहले कभी शहर नहीं देखा था। और यह तो विशाल महानगर था। वे अपने घर-गाँव के बारे में किसी से बात भी नहीं कर सकते थे क्योंकि उन्हें हिन्दी भी ठीक से नहीं आती थी। वापस जाने के लिए टिकट खरीदने का भी उनके पास पैसा नहीं था। और घर -- दो हज़ार किलोमीटर दूर था!
बिन पैसों के, बिना टिकट उन लोगों ने ट्रेन पकड़ी। जेबों में थोड़ा-बहुत जो कुछ था, जल्द ही खर्च हो गया। खाने को कुछ नहीं था। तीन बार टिकट चेकर ने पकड़ा। भुसावल में दो दिन तक जेल में रहे। तीन दिन तक सिकन्दराबाद में। जब बादल घर पहुँचा, उसे पहचानना मुश्किल था। तन पर माँस नहीं, आँखें गड्ढों में धँसी हुईं, निर्वाक्। जो बचा था वह था एक झुका हुआ कंकाल। धीमी आवाज़ में वह बस इतना बुदबुदाया था, “मैंने तीन दिन से कुछ नहीं खाया है। मुझे कुछ खाने को दो।”
मुझे बादल दिखाई नहीं दिया। मैंने उसके बारे में पूछा। मुझे बताया गया कि उसने पास के एक गाँव में टेलरिंग की दुकान खोली है। काम तो काफी मिल जाता है। इतना व्यस्त रहता है कि उसे घर आने की भी फुर्सत नहीं मिलती।
मैं उससे मिलने जाता हूँ। उसकी दुकान एक छोटी-सी कुटिया है -- मिट्टी की दीवारें और ऊपर छप्पर। एक कच्ची सड़क के किनारे, पास में चरागाह की ज़मीन। आसपास कोई नहीं, एक इन्सान भी नहीं। मैं दुकान में घुसा। वह पैर से चलने वाली एक सिलाई मशीन पर काम कर रहा था। उसे देखते हुए मैं खुद पर काबू नहीं रख पाया, वह अब भी पूरी तरह ठीक नहीं हुआ था। मुझे देखकर वह मिलने को खड़ा हो गया। मुझे यह पूछने की हिम्मत नहीं हुई, कि तुम कैसे हो। पूरी कहानी उसके जिस्म पर साफ दिखाई दे रही थी। मैंने पूछा, “कितनी देर तक काम करते हो?” “देर रात तक। बहुत सारा काम है।” “पैसे मिलते हैं?” मैं पूछता हूँ। “नहीं, खास नहीं। पर मुझे लगता है कि काम चल निकलेगा। आसपास एक भी टेलर नहीं है,” वह कहता है। उसकी आवाज़ धीमी है, पर असरदार है। उसने मेरी पढ़ाई के बारे में पूछा। हम कुछ देर तक बातें करते रहे। मैंने हल्के-से मसखरी की, “क्या तुम अब दबाकर खाना खाते हो?” वह चहका। मैंने उसे दोपहर के खाने पर घर बुलाया। उसने कहा, “नहीं, अभी नहीं। मैं शाम को आऊँगा।” मैं वहाँ से चल दिया। उस वीरान और तपती जगह से जाते हुए मुझे बस उसकी सिलाई मशीन की आवाज़ सुनाई देती रही।
कोई एक साल बाद मैं फिर से उससे गाँव में मिला। पहले से कुछ बेहतर, पर वह फिर भी अपने सबसे अच्छे स्वास्थ्य में नहीं था। वह फिर कभी अपने मस्त-मौला अन्दाज़ में नहीं रहा। उसका चेहरा सूखा और पीला पड़ा हुआ था। उसने कहा, “मुझे बहुत मेहनत करनी होगी। दुकान खोलने के बाद से कोई आराम नहीं। लोग बहुत कम पैसा देते हैं। मैं घर पर मुट्ठी भर सिक्के तक नहीं दे पाता। टिके रहना बहुत मुश्किल है।” मैंने देखा कि उसने जो पतलून पहन रखी है, उसमें ढेर सारे टाँके लगे हुए हैं।
बाद में मुझे पता चला कि वह फौज में भर्ती हो गया है।
उससे आखिरी बार मिले अब लगभग तीन साल बीत चुके हैं। यह वो वक्त था जब मेरा भाई सड़क दुर्घटना में मारा गया था। खबर मिलते ही वह तत्काल घर आ गया था। अपनी नौकरी के बारे में बात करते हुए उसने अपनी नाखुशी व्यक्त की थी। फौजी कैम्प का उसका जीवन उसे बिलकुल पसन्द नहीं था। जब वह उन तकलीफों के बारे में बताने लगा जिसका सामना उसे कैम्प में करना पड़ता था, और रोज़-रोज़ के अपमान के बारे में, तो उसकी आवाज़ में झुंझलाहट थी। पर जंग में किसी को मारने के बारे में वह बहुत जज़्बे और गर्मजोशी से बात कर रहा था। “अगर पाकिस्तानियों ने हमला किया तो हम उन्हें मार गिराएँगे।” मैंने उससे पूछा, “वो पाकिस्तानी कौन हैं जो तुम पर हमला करते हैं? क्या वे तुम्हारे जैसे ही नहीं हैं जो काम की तलाश में फौज में दाखिल हो गए हैं? भरपेट खाने के लिए? और कुछ पैसे घर भेज पाने के लिए? क्या वे अपनी मनमर्ज़ी से तुम पर हमला करते हैं? या क्या तुम अपनी मर्ज़ी से उन पर हमला करते हो?” वह चुप रहा। मैंने उससे कहा, “तुम्हारे भाई की मौत की खबर ने तुम्हें तोड़ दिया है। और झटके-से तुम्हें कारगिल से कटक ला खड़ा किया है। क्या पाकिस्तानी सैनिकों के दिल इससे कुछ अलग हैं?” उसने मुझे अजीब निगाहों से देखा। वह महीने भर तक घर पर ही रहा। फिर आखिरकार कारगिल लौटने से पहले एक दिन उसने मुझसे कहा, “जब मैं पेंशन के लायक हो जाऊँ तो यह नौकरी छोड़ दूँगा। मुझे खुद किसी को मारना अच्छा नहीं लगता।”
अब मैं उसे मिस करता हूँ, और याद करता हूँ। एक बार वह अधमरा होकर घर लौटा था। इस बार? मैं नहीं जानता। मुझे डर लगता है। जंग छिड़ी हुई है। सैकड़ों मर रहे हैं। मुझे उनमें से हरेक में बादल नज़र आता है। वे सब मर रहे हैं। वे मर रहे हैं क्योंकि उन्हें घर पर भरपेट खाना नसीब नहीं था। क्या ज़िन्दगी है। और अब आप मुझसे कारगिल के नाम पर दान माँग रहे हैं। बहुत हुआ। आप उन्हें रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में हर रोज़ अपमानित करते हैं और दुनिया के आगे उन्हें देशभक्त कहकर उनकी पूजा करते हैं। उन्हें मार देने के बाद आप उन पर माला चढ़ाते हैं और उन्हें शहीद घोषित कर देते हैं। आपने उनका इस्तेमाल किया है, और अब भी इस्तेमाल ही कर रहे हैं। बन्द कीजिए यह सब। मुझसे और बर्दाश्त नहीं होता। उन्हें वापस घर ले आइए। ज़िन्दा वापस लाइए उन्हें। मेरी खाने की मेज़ पर पर्याप्त खाना है जो मैंने कल रात पकाया है।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: टुलटुल बिस्वास: एकलव्य, भोपाल में कार्यरत। कई सालों तक बच्चों के सहज जीवन पर आधारित किताबें, पत्रिकाएँ और अन्य पठन सामग्री बनाने में अहम भूमिका निभाई। इन दिनों शिक्षक शिक्षा, प्रसार और पैरवी का काम कर रही हैं।
सभी चित्र: शरवरी देशपांडे: महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी ऑफ वडोदरा से विज़ुअल आर्ट्स (चित्रकला) में स्नातक की पढ़ाई कर रही हैं। पढ़ने और लिखने में भी खास रुचि।
यह कहानी साउथ एशिया सिटीज़न्स वैब से साभार। इस कहानी का मौलिक अँग्रेज़ी रूप इस लिंक पर देख सकते हैं: http://www.sacw.net/kargil/badal.html