कार्ल ज़िमर
जब मेरे माता-पिता ने मुझे बताया कि मेरा रक्त समूह A+ है तो मुझे अजीब-से गर्व का एहसास हुआ था। जब A+ स्कूल में सबसे ऊँचा दर्जा होता है तो A+ रक्त समूह भी सबसे बढ़िया होना चाहिए - विशिष्टता का जैविक चिन्ह। मुझे यह समझने में देर नहीं लगी कि यह एहसास कितना मासूम था और मैंने इसे दबा दिया। किन्तु मुझे इस बारे में ज़्यादा कुछ पता नहीं चल पाया कि A+ रक्त होने का मतलब क्या होता है। बड़ा होने पर मुझे सिर्फ इतना समझ में आ पाया कि यदि अस्पताल में मुझे खून की ज़रूरत पड़े तो डॉक्टरों को यह ध्यान रखना होगा कि मुझे सही किस्म का खून चढ़ाया जाए।
अलबत्ता, कई सारे सवाल चुभते रहे। ऐसा क्यों है कि कॉकेशियन मूल के लोगों में से 40 प्रतिशत का रक्त समूह A+ होता है जबकि एशियाई लोगों में से मात्र 27 प्रतिशत का? अलग-अलग रक्त समूह कहाँ से आते हैं और वे करते क्या हैं? जवाब पाने के लिए मैं कुछ विशेषज्ञों - रक्त-कार्यिकी विशेषज्ञों, आनुवंशिकीविदों, जैव-विकासविदों, वायरस वैज्ञानिकों और पोषण वैज्ञानिकों - के पास गया।
सन् 1900 में ऑस्ट्रियन चिकित्सक कार्ल लैंडस्टाइनर ने सबसे पहले रक्त समूहों की खोज की थी। इस शोध के लिए उन्हें 1930 में चिकित्सा/कार्यिकी का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। तब से वैज्ञानिकों ने रक्त समूहों के जीव विज्ञान की खोजबीन के लिए कई और शक्तिशाली औज़ार विकसित किए हैं। उन्हें रक्त समूहों के बारे में कई उलझे हुए सुराग मिले हैं। कुछ सुराग रक्त समूहों की लम्बी वंशावली का संकेत देते हैं तो कुछ स्वास्थ्य पर उनके प्रभावों के बारे में हैं। फिर भी मुझे लगा कि कई मायनों में रक्त समूह रहस्यमय ही बने हुए हैं। वैज्ञानिकों के पास आज भी इस बात की कोई अच्छी व्याख्या नहीं है कि रक्त समूह होते ही क्यों हैं।
कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (सैन डिएगो) के एक जीव वैज्ञानिक अजीत वर्की कहते हैं, “अजीब बात नहीं है? इस खोज के लिए नोबेल पुरस्कार मिले तकरीबन सौ साल बीत चुके हैं मगर हम आज भी नहीं जानते कि रक्त समूह किस मकसद से होते हैं।”
रक्ताधान का समाधान
मेरा रक्त समूह A है, यह ज्ञान मुझे चिकित्सा विज्ञान की एक महानतम खोज की बदौलत मिला है। चूँकि डॉक्टर्स रक्त समूह के बारे में सचेत होते हैं, इसलिए वे मरीज़ को खून देकर उसकी जान बचा पाते हैं। मगर इतिहास में काफी लम्बे समय तक एक व्यक्ति का खून दूसरे के शरीर में पहुँचाना एक सपना ही था। पुनर्जागरण काल के डॉक्टर सोचा करते थे कि यदि वे अपने मरीज़ों की शिराओं में खून डाल दें तो क्या होगा। कुछ डॉक्टरों का ख्याल था कि यह तमाम तकलीफों का, यहाँ तक कि पागलपन का भी इलाज साबित होगा। अन्तत: सत्रहवीं सदी के प्रथम दशक में कुछ डॉक्टरों ने इस विचार को आज़माया। नतीजे घातक रहे। एक फ्रांसीसी डॉक्टर ने एक पागल व्यक्ति को बछड़े का खून चढ़ा दिया। उस व्यक्ति को तत्काल पसीने छूटने लगे, उल्टियाँ होने लगीं और उसकी पेशाब का रंग चिमनी की कालिख जैसा हो गया। एक बार और रक्त चढ़ाया गया तो वह व्यक्ति जान से हाथ धो बैठा।
इस तरह के हादसों के चलते रक्ताधान अगले डेढ़ सौ सालों तक बदनाम रहा। यहाँ तक कि उन्नीसवीं सदी में भी कुछेक डॉक्टर ही इस प्रक्रिया को आज़माने की हिम्मत जुटा पाए। इनमें से एक थे जेम्स ब्लंडेल नाम के एक ब्रिटिश चिकित्सक। अपने ज़माने के कई डॉक्टरों के समान उन्होंने भी अपनी कई महिला मरीज़ों को प्रसूति के दौरान रक्तस्राव के कारण मरते देखा था। 1817 में एक मरीज़ की मृत्यु के बाद, उन्हें लगा कि वे ऐसे हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे रह सकते। बाद में उन्होंने लिखा था, “यह जानते हुए कि शायद रक्ताधान से मरीज़ की जान बचाई जा सकती थी, मैं खुद को रोक नहीं सका।” ब्लंडेल को भी यह यकीन हो चला था कि रक्ताधान के दौरान पहले जो हादसे हुए थे वे एक बुनियादी गलती के परिणाम थे: उनके शब्दों में वह गलती थी ‘जानवर का खून चढ़ाया जाना’। उनका निष्कर्ष था कि खून का हस्तान्तरण अलग-अलग प्रजातियों के बीच नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि “विभिन्न किस्म के रक्त में कई महत्वपूर्ण अन्तर होते हैं।”
ब्लंडेल ने तय किया कि मानव मरीज़ को मनुष्य का खून ही दिया जाना चाहिए। मगर इससे पहले किसी ने भी ऐसा करके नहीं देखा था। इसे सम्पन्न करने के लिए ब्लंडेल ने कीपों और सिरिंजों और नलियों का एक जाल बनाया जिसकी मदद से दानदाता का खून किसी मरीज़ तक पहुँचाया जा सकता था। कुत्तों पर इसे आज़माने के बाद ब्लंडेल को एक व्यक्ति की शय्या के नज़दीक ले जाया गया जो खून बहने के कारण मृत्यु की कगार पर था। ब्लंडेल ने लिखा है, “मात्र रक्ताधान ही उसकी जान बचा सकता था।” कई सारे दाताओं ने ब्लंडेल को 14 आउंस (0.4 कि.ग्रा.) खून उपलब्ध करा दिया। इसे उन्होंने व्यक्ति की भुजा में इंजेक्ट कर दिया। प्रक्रिया के बाद मरीज़ ने ब्लंडेल को बताया था कि वह बेहतर (‘कम शिथिल’) महसूस कर रहा है, किन्तु दो दिन बाद वह सिधार गया।
अलबत्ता, इस अनुभव ने ब्लंडेल को आश्वस्त कर दिया कि रक्ताधान मानवजाति के लिए बहुत लाभदायक होगा और आने वाले वर्षों में वे कई हताश मरीज़ों के शरीर में खून उड़ेलते रहे। कुल मिलाकर उन्होंने 10 रक्ताधान किए। इनमें मात्र 4 मरीज़ जीवित रहे। कुछ अन्य डॉक्टरों ने भी रक्ताधान पर हाथ आज़माए मगर उनकी सफलता की दर भी ऐसी ही निराशाजनक रही। कई तरीके आज़माए गए। जैसे 1870 के दशक में किए गए एक प्रयास में दुग्धाधान किया गया (जो बेकार और खतरनाक साबित हुआ)।
इनामी खोज
ब्लंडेल इस मामले में तो सही थे कि मनुष्य को मनुष्य का रक्त ही दिया जाना चाहिए। किन्तु उन्हें खून के बारे में एक और महत्वपूर्ण तथ्य पता नहीं था: कि मनुष्यों को कुछ ही अन्य मनुष्यों का खून दिया जाना चाहिए। यह सम्भव है कि ब्लंडेल की इस अनभिज्ञता के कारण ही उनके कुछ मरीज़ों की जान गई थी। वे मौतें और भी त्रासद इसलिए लगती हैं क्योंकि चन्द दशकों बाद रक्त समूहों की जो खोज हुई, वह अत्यन्त सरल प्रक्रिया से हुई थी।
उन्नीसवीं सदी के रक्ताधान की असफलता के कारणों का पहला सुराग खून के लोंदों के रूप में था, जब 1800 के दशक के अन्त में वैज्ञानिकों ने विभिन्न व्यक्तियों के खून को परख नली में मिलाने पर देखा था कि कभी-कभी लाल रक्त कोशिकाएँ चिपककर गुच्छे बना लेती हैं। किन्तु चूँकि यह खून प्राय: बीमार मरीज़ों का होता था, इसलिए वैज्ञानिकों ने सोचा कि गुच्छे बनना किसी किस्म की गड़बड़ी है। लिहाज़ा, उन्होंने इसकी खोजबीन की ज़रूरत नहीं समझी। किसी ने यह देखने की ज़हमत नहीं उठाई कि क्या स्वस्थ व्यक्तियों के खून में भी ऐसे लोंदे बनते हैं। बहरहाल, लैंडस्टाइनर ने सोचा कि ऐसा करने पर क्या होगा। जल्दी ही उन्हें दिख गया कि स्वस्थ खून में भी कभी-कभी लोंदे बनते हैं।
लैंडस्टाइनर ने लोंदे बनने के पैटर्न का नक्शा तैयार करना शुरू किया। इसके लिए उन्होंने खुद अपना और अपनी प्रयोगशाला के अन्य साथियों का खून लिया। प्रत्येक नमूने में से उन्होंने लाल रक्त कोशिकाएँ और प्लाज़्मा अलग-अलग कर लिए और एक-एक व्यक्ति के प्लाज़्मा को दूसरे व्यक्ति की लाल रक्त कोशिकाओं के साथ मिलाया। लैंडस्टाइनर ने देखा कि कुछ लोगों का खून आपस में मिलाने पर ही लोंदे बनते हैं। सारे लोगों की बन्दिशें (combinations) करने के बाद उन्होंने व्यक्तियों को तीन समूहों में बाँटा। इन समूहों को उन्होंने वैसे ही A, B और C नाम दे दिए। (आगे चलकर C को बदलकर O कर दिया गया।) कुछ और वर्षों बाद अन्य शोधकर्ताओं ने AB समूह की खोज की। बीसवीं सदी के मध्य तक अमरीकी शोधकर्ता फिलिप लेवाइन ने खून के वर्गीकरण का एक और तरीका खोज निकाला। यह तरीका इस तथ्य पर आधारित था कि किसी खून में रीसस (Rh) रक्त घटक है या नहीं। लैंडस्टाइनर के समूह के अक्षरों के बाद धन या ऋण चिन्ह बताता है कि किसी व्यक्ति में यह Rh घटक है या नहीं।
जब लैंडस्टाइनर ने विभिन्न लोगों के खूनों को आपस में मिलाया तो देखा कि इसमें एक नियम का पालन होता है। यदि वे समूह A का प्लाज़्मा समूह A के ही किसी व्यक्ति की लाल रक्त कोशिकाओं में मिलाते हैं तो प्लाज़्मा और कोशिकाएँ तरल बने रहते हैं। यही नियम तब भी लागू होता है जब B समूह का प्लाज़्मा और रक्त कोशिकाएँ आपस में मिलाए जाते हैं। किन्तु यदि समूह A के प्लाज़्मा को समूह B की कोशिकाओं के साथ मिलाया जाए तो कोशिकाएँ लोंदा बनाती हैं। इससे उलट मामले में भी यही होता है। अलबत्ता O समूह के लोगों का खून अलग होता है। जब लैंडस्टाइनर ने A और B रक्त कोशिकाओं को O समूह के प्लाज़्मा के साथ मिलाया तो कोशिकाएँ लोंदा बनीं। किन्तु जब A या B प्लाज़्मा को O लाल रक्त कोशिकाओं में मिलाया तो लोंदे नहीं बने।
विशिष्ट गुणधर्म
लोंदे बनने की इसी क्रिया की वजह से रक्ताधान में खतरे की सम्भावना पैदा होती है। यदि डॉक्टर गलती से मेरे हाथ में B समूह का रक्त चढ़ा दे तो मेरा शरीर छोटे-छोटे थक्कों से भर जाएगा। ये थक्के मेरे रक्त संचार को अस्त-व्यस्त कर देंगे और भयानक रक्तस्राव का कारण बन जाएँगे। मैं साँस के लिए तड़पूँगा और शायद मेरी मृत्यु भी हो जाए। अलबत्ता, यदि मुझे A या O किस्म का खून दिया गया तो मैं ठीक-ठाक रहूँगा। लैंडस्टाइनर को यह पता नहीं था कि वह क्या चीज़ है जो एक खून को दूसरे से अलग बनाती है।
आगे चलकर वैज्ञानिकों की कई पीढ़ियों ने शोध कार्य करके यह पता लगाया कि हर किस्म के खून में लाल रक्त कोशिकाओं की सतह अलग-अलग अणुओं से सज्जित रहती है। उदाहरण के लिए मेरे A समूह के खून में कोशिकाएँ इन अणुओं को दो चरणों में बनाती हैं जैसे किसी दोमंज़िली इमारत की मंज़िलें बनाई जाती हैं। पहली मंज़िल को H एंटीजन कहते हैं। पहली मंज़िल के ऊपर कोशिकाएँ एक मंज़िल और बनाती हैं जिसे A एंटीजन कहते हैं। दूसरी ओर B रक्त समूह वाले लोग इस दूसरी मंज़िल को थोड़ी अलग आकृति में बनाते हैं। और O रक्त समूह वाले लोग एक मंज़िल बनाकर रुक जाते हैं: यानी वे सिर्फ H एंटीजन बनाते हैं, आगे और निर्माण नहीं करते।
हर व्यक्ति का प्रतिरक्षा तंत्र अपने किस्म के खून से परिचित हो जाता है। मगर यदि किसी व्यक्ति को गलत किस्म का खून मिल जाए, तो प्रतिरक्षा तंत्र इसका करारा जवाब देता है, गोया वह खून कोई घुसपैठिया हो। सिर्फ O किस्म का खून ही इसका अपवाद है। इसमें सिर्फ H एंटीजन होता है जो बाकी सारी किस्मों में भी पाया जाता है। तो यह खून A या B, दोनों समूहों के लोगों को जाना-पहचाना ही लगता है। इसी जान-पहचान का परिणाम है कि O किस्म के लोग सर्व-दाता यानी युनिवर्सल डोनर होते हैं। उनका खून रक्त केन्द्रों के लिए काफी कीमती होता है।
लैंडस्टाइनर ने अपने इस प्रयोग की जानकारी एक संक्षिप्त और रूखे-से शोध पत्र में दी थी। उन्होंने निहायत दबी ज़ुबान में कहा था कि “यह उल्लेख किया जा सकता है कि यह अवलोकन चिकित्सकीय रक्ताधान के विभिन्न परिणामों की व्याख्या में मदद कर सकता है।” लैंडस्टाइनर की इस खोज ने बड़े पैमाने पर सुरक्षित रक्ताधान का रास्ता खोल दिया और आज भी ब्लड बैंकों में रक्त समूह पता करने के लिए लोंदे बनने की उसी त्वरित और भरोसेमन्द विधि का सहारा लिया जाता है। हालाँकि, लैंडस्टाइनर के काम से जहाँ एक पुराने सवाल का जवाब मिला, वहीं कई नए सवाल भी खड़े हो गए। जैसे, आखिर रक्त समूह होते ही क्यों हैं? और रक्त कोशिकाओं को अपनी आणविक इमारत बनाने की ज़रूरत ही क्यों पड़ती है? और अलग-अलग लोगों में यह इमारत अलग-अलग क्यों होती है?
रक्त समूह आहार
1996 में पीटर डी’एडामो नामक एक प्राकृतिक चिकित्सक ने एक पुस्तक प्रकाशित की थी: ईट राइट फॉर योर टाइप (Eat Right 4 Your Type)। इसमें डी’एडामो ने दलील दी थी कि हमें अपने रक्त समूह के अनुसार आहार लेना चाहिए ताकि अपनी वैकासिक विरासत के साथ तालमेल कर सकें। उनका कहना था कि रक्त समूह “मानव विकास के कतिपय निर्णायक मोड़ों पर प्रकट हुए हैं।” डी’एडामोे के मुताबिक, O समूह अफ्रीका में हमारे शिकारी-संग्रहकर्ता पूर्वजों में प्रकट हुआ था। समूह A खेती की शुरुआत में और समूह B 10-15 हज़ार साल पहले हिमालय के ऊँचे इलाकों में उभरा था। उनके मतानुसार समूह AB दरअसल A और B का हालिया सम्मिश्रण है।
इन धारणाओं के आधार पर डी’एडामो ने दावा किया कि हमारा रक्त समूह निर्धारित करता है कि हमें क्या खाना चाहिए। इसके मुताबिक मेरे कृषि-आधारित A समूह का तकाज़ा है कि मुझे शाकाहारी होना चाहिए। प्राचीन शिकारी समूह O के लोगों को मांस-प्रचुर भोजन लेना चाहिए और अनाज व दुग्ध उत्पादों से परहेज़ करना चाहिए। पुस्तक के अनुसार, जो भोजन हमारे रक्त समूह के लिए अनुकूल नहीं होते, उनमें उपस्थित एंटीजन्स तमाम बीमारियों को जन्म दे सकते हैं। डी’एडामो ने आहार की सिफारिश इस तरह की थी कि व्यक्ति संक्रमणों से बच सके, वज़न घटा सके, कैंसर और मधुमेह का सामना कर सके और बुढ़ाने की प्रक्रिया को धीमा कर सके। डी’एडामो की इस पुस्तक की 70 लाख प्रतियाँ बिक चुकी हैं और इसका अनुवाद 60 भाषाओं में हो चुका है। डी’एडामो अपनी वेबसाइट पर रक्त समूह के अनुसार पूरक आहार भी बेचते हैं। परिणाम यह है कि मरीज़ अक्सर डॉक्टरों से पूछते हैं कि क्या रक्त समूह आहार वाकई कारगर हैं।
इस सवाल का जवाब देने का सबसे बढ़िया तरीका यह होगा कि एक प्रयोग किया जाए। Eat Right 4 Your Type में डी’एडामो ने लिखा था कि वे कैंसर से पीड़ित महिलाओं के साथ रक्त समूह आधारित आहार का एक लम्बा प्रयोग करने में मशगूल हैं। उस बात को अठारह साल बीत गए हैं किन्तु उस परीक्षण के परिणाम आज तक प्रकाशित नहीं हुए हैं। हाल ही में, बेल्जियम में रेड क्रॉस के कुछ शोधकर्ताओं ने यह जाँचने की ठानी कि क्या इस तरह के आहार के पक्ष में कोई प्रमाण हैं। उन्होंने साहित्य को खंगालकर यह देखने की कोशिश की कि क्या ऐसा कोई प्रयोग हुआ है जिसमें रक्त समूह पर आधारित आहार का कोई लाभ नज़र आता हो। पूरे एक हज़ार अध्ययनों को देखने के बाद भी नतीजा सिफर ही रहा। बेल्जियन रेड क्रॉस-फ्लैंडर्स की एमी डी बक का कहना है, “ABO रक्त समूह के अनुसार आहार के स्वास्थ्य सम्बन्धी लाभ का कोई प्रमाण नहीं है।”
अलग-अलग लकीरें
आइंस्टाइन से तुलना चाहे जो कुछ कहे, मगर रक्त समूह पर वास्तव में अनुसन्धान करने वाले वैज्ञानिक ऐसे किसी दावे को स्पष्ट तौर पर खारिज करते हैं। जैसे शोध पत्रिका ट्रांसफ्यूज़न मेडिसिन रिव्यूज़ में शोधकर्ताओं के एक दल ने दो-टूक शब्दों में कहा है, “इन आहारों का प्रचार गलत है।” अलबत्ता, रक्त समूह आधारित आहार का पालन करने वाले कुछ लोगों को सकारात्मक परिणाम मिलते हैं। टोरोंटो विश्वविद्यालय में पोषण वैज्ञानिक अहमद अल-सोहेमी के मुताबिक यह मानने का कोई कारण नहीं है कि रक्त समूहों का सम्बन्ध आहार की सफलता से है। अल-सोहेमी न्य़ूट्रिजीनोमिक्स (यानी पोषण और जेनेटिक्स के आपसी सम्बन्धों का अध्ययन) नामक एक उभरते क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। उनकी टीम ने 1500 वॉलंटियर्स को अध्ययन के लिए इकट्ठा किया है और उनके भोजन और स्वास्थ्य का अध्ययन कर रहे हैं। वे इन वॉलंटियर्स के डीएनए का विश्लेषण करके यह देखने की कोशिश कर रहे हैं कि जीन्स का इस बात पर क्या असर होता है कि भोजन उन्हें कैसे प्रभावित करेगा। जीन्स में अन्तर के कारण दो लोग एक ही भोजन के प्रति काफी अलग-अलग प्रतिक्रिया दे सकते हैं।
अल-सोहेमी बताते हैं, “लगभग हर बार इसके बारे में मेरे व्याख्यान के बाद कोई-न-कोई यह ज़रूर पूछता है, ‘ओह, तो यह रक्त समूह आधारित आहार जैसा है?’ ” एक वैज्ञानिक के नाते अल-सोहेमी को यह किताब कमज़ोर लगती है। “इस किताब की किसी भी बात को विज्ञान का समर्थन हासिल नहीं है।” मगर अल-सोहेमी को समझ में आया कि चूँकि वे डेढ़ हज़ार वॉलंटियर्स के रक्त समूह जानते ही हैं, इसलिए वे यह देख सकते हैं कि क्या रक्त समूह आधारित आहार से उन्हें कोई लाभ होता है या नहीं। अल-सोहेमी की टीम ने सारे वॉलंटियर्स को आहार के अनुसार समूहों में बाँट दिया। कुछ को डी’एडामो द्वारा O समूह के लिए अनुशंसित मांस-आधारित खुराक दी गई जबकि कुछ को शाकाहारी भोजन दिया गया जो A समूह के लोगों के लिए निर्धारित है। वैज्ञानिकों ने अध्ययन में शामिल प्रत्येक व्यक्ति को इस आधार पर एक स्कोर दिया कि वह रक्त समूह आधारित खुराक का पालन कितनी मुस्तैदी से करता है।
शोधकर्ताओं को पता चला कि सचमुच कुछ आहार लोगों को फायदा पहुँचा सकते हैं। जैसे जिन लोगों ने A किस्म की खुराक का पालन किया उनका बॉडी मास इंडेक्स कम था, कमर का नाप कम था और रक्त चाप भी कम था। O किस्म के आहार वाले लोगों का ट्रायग्लिसराइड कम था। B किस्म के आहार से कोई लाभ नहीं मिला - इस आहार में डेयरी उत्पादों की प्रचुरता होती है। अल-सोहेमी कहते हैं, “पेंच यह है कि इस सबका व्यक्तियों के रक्त समूहों से कोई सम्बन्ध नहीं है।” दूसरे शब्दों में, यदि आपका रक्त समूह O है तो भी आपको तथाकथित A किस्म के आहार से लगभग उतना ही लाभ मिल सकता है जितना किसी A समूह के व्यक्ति को मिलेगा। कारण शायद सिर्फ इतना है कि शाकाहारी भोजन के लाभ कोई भी व्यक्ति हासिल कर सकता है। O किस्म के आहार पर जी रहा व्यक्ति अपने भोजन में कार्बोहायड्रेट्स बहुत कम कर देता है और इससे जो लाभ प्राप्त होते हैं वे किसी की भी झोली में गिरेंगे। इसी प्रकार से डेयरी उत्पादों की अधिकता वाला भोजन किसी के लिए भी अच्छा नहीं होता, रक्त समूह चाहे जो भी हो।
विरासत का सवाल
रक्त समूह आधारित आहार का एक आकर्षण इसकी कहानी का वह हिस्सा है जिसमें बताया गया है कि हमें अपने अलग-अलग रक्त समूह मिले कैसे। किन्तु उस कहानी का उन प्रमाणों के साथ तनिक-सा भी साम्य नहीं है जो वैज्ञानिकों ने रक्त समूहों की उत्पत्ति के बारे में जुटाए हैं। वर्ष 1900 में लैंडस्टाइनर द्वारा रक्त समूहों की खोज के बाद कई वैज्ञानिकों ने यह सोचना शुरू किया कि क्या अन्य जानवरों के रक्त में भी समूह होते हैं। पता चला कि कुछ प्रायमेट प्रजातियों का रक्त मनुष्यों के कुछ रक्त समूहों के साथ भलीभाँति घुल-मिल जाता है। अलबत्ता, काफी समय तक यह समझ में नहीं आया कि इस खोज का क्या अर्थ निकालें। किसी बन्दर का खून मेरे A किस्म के खून के साथ लोंदे नहीं बनाता, तो इसका मतलब यह नहीं है कि बन्दर ने A किस्म का वही जीन विरासत में पाया है जो मुझे अपने साझा पूर्वज से मिला है। हो सकता है कि A किस्म के खून का विकास एक से अधिक बार स्वतंत्र रूप से हुआ हो। यह अनिश्चितता 1990 के दशक में तब छँटने लगी जब वैज्ञानिकों ने रक्त समूहों के आणविक जीव विज्ञान का खुलासा करना शुरू किया। उन्होंने पाया कि रक्त की किस्मों की दूसरी मंज़िल के निर्माण के लिए एक ही जीन ABO ज़िम्मेदार है। इस जीन का A संस्करण चन्द अहम उत्परिवर्तनों के कारण B संस्करण से भिन्न होता है। O किस्म के खून वाले लोगों में ABO जीन में ऐसे उत्परिवर्तन पाए जाते हैं जो उन्हें वह एंज़ाइम बनाने से रोकते हैं जो एंटीजन A या B का निर्माण करता है।
इसके बाद वैज्ञानिक मनुष्य के ABO जीन की तुलना अन्य प्रजातियों से कर सकते थे। पेरिस स्थित नेशनल सेंटर फॉर साइन्टिफिक रिसर्च की लौरे सेग्यूरेल और उनके साथियों ने प्रायमेट्स के ABO जीन्स का अब तक सबसे महत्वाकांक्षी सर्वेक्षण किया है। और उन्होंने पाया कि हमारे रक्त समूह अत्यन्त प्राचीन हैं। गिबन और मनुष्य, दोनों में A और B, दोनों किस्म के परिवर्तित जीन्स पाए जाते हैं और ये जीन्स एक साझा पूर्वज से आए हैं जो 2 करोड़ वर्ष पहले अस्तित्व में था।
हो सकता है कि हमारे रक्त समूह इससे भी पुराने हों किन्तु यह पता करना मुश्किल है कि कितने पुराने हैं। वैज्ञानिकों ने अभी सभी प्रायमेट्स के जीन्स का विश्लेषण नहीं किया है। इसलिए वे यह नहीं देख पा रहे हैं कि हमारे जीन-रूप कितनी अन्य प्रजातियों में पाए जाते हैं। अलबत्ता, वैज्ञानिकों ने अब तक जो प्रमाण जुटाए हैं, उनसे लगता है कि रक्त समूहों का अतीत काफी उथल-पुथल से भरा रहा है। कुछ वंशों में उत्परिवर्तनों के चलते कोई रक्त समूह बन्द हो गया। जैसे, हमारे सबसे निकट के रिश्तेदार चिम्पैंज़ी में मात्र A तथा O रक्त समूह पाए जाते हैं। दूसरी ओर गोरिल्ला में मात्र B समूह पाया जाता है। कुछ मामलों में उत्परिवर्तनों ने ABO जीन को बदल डाला है, जिसके परिणामस्वरूप A किस्म का खून B किस्म के खून में तबदील हो गया। यहाँ तक कि वैज्ञानिकों को पता चल रहा है कि मनुष्यों में भी ऐसे उत्परिवर्तन बार-बार हुए हैं जो ABO प्रोटीन को रक्त कोशिकाओं में समूह दर्शाने वाली दूसरी मंज़िल के निर्माण को रोकते हैं। ऐसे उत्परिवर्तनों ने A या B किस्म के खून को O किस्म में बदल दिया है। वेस्टहॉफ कहते हैं, “किस्म O का खून सैकड़ों तरह से बन सकता है।”
बम्बइया पहेली
मेरा A किस्म का होना मेरे प्राचीन किसान पूर्वजों की विरासत नहीं है। दूसरे शब्दों में, यह मेरे बन्दरनुमा पूर्वजों की विरासत है। ज़ाहिर है, यदि मेरा रक्त समूह सहस्राब्दियों से सुरक्षित रहा है, तो यह अवश्य ही मुझे कुछ स्पष्ट जैविक लाभ प्रदान करता होगा। अन्यथा मेरी रक्त कोशिकाएँ क्यों इतनी जटिल आणविक रचना बनाने की ज़हमत उठाएँ? इस समझ के बावजूद वैज्ञानिक ABO जीन द्वारा प्रदत्त लाभ को जानने को जूझते ही रहे हैं। टूलोस विश्वविद्यालय के एन्तोन ब्लैंचर का कहना है कि “वैसे तो कई उत्तर दिए गए हैं लेकिन ABO की कोई अच्छी और निश्चित व्याख्या नहीं है।”
रक्त समूहों के लाभों को लेकर हमारे अज्ञान का एक चौंकानेवाला मामला 1952 में बम्बई (अब मुम्बई) में सामने आया था। डॉक्टरों को पता चला था कि मुट्ठी भर मरीज़ों में ABO रक्त समूहों का नामोनिशान नहीं था - न A, न B, न AB, न ही O। यदि A और B दो-मंज़िली इमारतें हैं और O एक-मंज़िला मकान है, तो इन मुम्बईकरों के पास तो इमारत ही नहीं थी। इस स्थिति को बॉम्बे फीनोटाइप कहते हैं और इसकी खोज के बाद यह कुछ अन्य लोगों में भी दिखी है, हालाँकि बहुत बिरली ही है। और जहाँ तक वैज्ञानिक समझ पाए हैं, इससे कोई नुकसान भी नहीं होता। एकमात्र चिकित्सकीय खतरा तब सामने आता है जब रक्ताधान की बात आती है। बॉम्बे फीनोटाइप लोग सिर्फ उसी तरह के लोगों का खून स्वीकार कर सकते हैं। यहाँ तक कि सर्व-दाता माना जाने वाला O रक्त समूह भी इनकी जान ले सकता है।
बॉम्बे फीनोटाइप सिद्ध करता है कि ABO रक्त समूह के होने से तत्काल कोई जीवन-मरण का सवाल पैदा नहीं होता। कुछ वैज्ञानिकों को लगता है कि रक्त समूह की व्याख्या शायद उनकी विविधता में है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अलग-अलग रक्त समूह हमें अलग-अलग रोगों से बचा सकते हैं। डॉक्टरों ने रक्त समूहों और विभिन्न बीमारियों के बीच कड़ियाँ देखना बीसवीं सदी के मध्य में शुरू किया था। और इन कड़ियों की सूची बढ़ती ही गई है। वेस्टमिंस्टर विश्वविद्यालय की पामेला ग्रीनवेल ने मुझे बताया था, “विभिन्न रक्त समूहों और संक्रमणों, कैंसरों और विभिन्न बीमारियों के बीच कड़ियाँ आज भी खोजी जा रही हैं।”
ग्रीनवेल से यह जानकर मुझे मायूसी हुई कि रक्त समूह A मुझे चन्द किस्म के कैंसरों के ज़्यादा खतरे में डाल देता है (जैसे अग्न्याशय के कुछ कैंसर और ल्यूकेमिया)। मैं चेचक संक्रमण, हृदय रोग और गम्भीर मलेरिया के प्रति भी ज़्यादा भेद्य हूँ। दूसरी ओर, अन्य रक्त समूहों वाले लोगों को अन्य दिक्कतों का खतरा ज़्यादा होता है। जैसे, O रक्त समूह वाले लोगों को अल्सर तथा अकिलीज़ कण्डरा (पिण्डली को एड़ी से जोड़ने वाली कण्डरा) के फटने का खतरा ज़्यादा होता है।
वायरस स्कैन
रक्त समूहों और बीमारियों के बीच ये कड़ियाँ थोड़ी रहस्यमय मनमानी से परिपूर्ण हैं। वैज्ञानिकों ने इनके कारणों को समझना हाल ही में शुरू किया है। उदाहरण के लिए, टोरोंटो विश्वविद्यालय के केविन कैन और उनके साथी यह छानबीन करते रहे हैं कि क्यों अन्य लोगों की तुलना में O समूह वाले लोग गम्भीर मलेरिया से ज़्यादा सुरक्षित रहते हैं। उनके अध्ययन से पता चलता है कि यदि कोई संक्रमित कोशिका O समूह वाली हो तो प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाएँ उसे अधिक आसानी-से पहचान पाती हैं।
बहरहाल, ज़्यादा रहस्यमयी कड़ियाँ तो रक्त समूह और ऐसी बीमारियों के बीच की हैं जिनका खून से कुछ लेना-देना नहीं है। जैसे नोरोवायरस को ही लें। यह रोगजनक क्रूज़ जहाज़ों का संकट है। यह हज़ारों मुसाफिरों को उल्टी-दस्त से परेशान कर सकता है। यह वायरस अपना कारनामा आँतों की कोशिकाओं में घुसकर करता है, रक्त कोशिकाओं को छूता तक नहीं। फिर भी लोगों का रक्त समूह इस बात पर असर डालता है कि वे नोरोवायरस के किसी स्ट्रेन (किस्म) से संक्रमित होंगे या नहीं।
इस गुत्थी का समाधान इस तथ्य में छिपा है कि रक्त समूह से सम्बन्धित एंटीजन सिर्फ रक्त कोशिकाएँ नहीं बनातीं। इन एंटीजन्स का निर्माण रक्त वाहिनियों की दीवारें, वायु मार्ग, त्वचा और बाल भी करते हैं। कई लोगों में तो रक्त समूह सम्बन्धी एंटीजन उनकी लार में भी स्रावित होते हैं।
नोरोवायरस हमारी आँतों की कोशिकाओं द्वारा बनाए जाने वाले रक्त समूह एंटीजन से जुड़कर हमें बीमार करता है। किन्तु नोरोवायरस किसी कोशिका से तभी चिपक सकता है जब उसका प्रोटीन कोशिका के रक्त समूह एंटीजन से अच्छी तरह जुड़ पाए। तो यह सम्भव है कि नोरोवायरस के प्रत्येक स्ट्रेन में ऐसा प्रोटीन होता है जो एक किस्म के रक्त समूह एंटीजन से जुड़ने के लिए अनुकूलित है। वह अन्य किस्म के एंटीजन से नहीं जुड़ सकता। इससे इस बात की व्याख्या हो सकती है कि क्यों रक्त समूह इस बात पर असर डालता है कि नोरोवायरस का कौन-सा स्ट्रेन हमें बीमार कर सकता है।
शायद इसी में इस बात का भी सुराग छिपा है कि क्यों विभिन्न रक्त समूह लाखों वर्षों से बरकरार रहे हैं। हमारे प्रायमेट पूर्वज अनगिनत वायरस, बैक्टीरिया और अन्य रोगजनक जीवों के साथ निरन्तर दंगल में उलझे रहे थे। हो सकता है कि इनमें से कुछ रोगजनक जीवों ने विभिन्न किस्म के रक्त समूह एंटीजन का फायदा उठाना सीख लिया था। जो रोगजनक जीव सबसे आम रक्त समूह एंटीजन से जुड़ पाते होंगे, वही सबसे सफल रहे होंगे। किन्तु अपने मेज़बानों को बीमार करके मार-मारकर उनको मिलने वाला यह फायदा धीरे-धीरे समाप्त हो गया होगा। इसी समय अन्य दुर्लभ (कम प्रचलित) रक्त समूहों से लैस प्रायमेट्स खूब फले-फूले होंगे क्योंकि उन्हें अपने इन शत्रुओं से सुरक्षा हासिल थी।
इस सम्भावना पर गौर करते हुए भी मेरा A रक्त समूह आज भी मेरे लिए उतना ही चकराने वाला है जितना लड़कपन में था। मगर अब यह थोड़ा गहरे स्तर का चकराना है जो थोड़ा आनन्द भी प्रदान करता है। मुझे यह समझ में आने लगा है कि शायद मेरे रक्त समूह का खून से कुछ लेना-देना ही न हो।
कार्ल ज़िमर: प्रसिद्ध विज्ञान लेखक, ब्लॉगर, स्तम्भ लेखक और पत्रकार। क्रमिक विकास, परजीवी और आनुवांशिकता विषयों के विशेषज्ञ हैं। कई किताबें लिखी हैं और द न्यू यॉर्क टाइम्स, डिस्कवर एवं नेशनल जियोग्रेफिक जैसे प्रकाशनों के लिए विज्ञान लेख लिखते हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।
यह लेख बीबीसी न्यूज़ से साभार।