सवाल: पेड़ों में फल क्यों लगते हैं?

जवाब: सर्दी के इन महीनों में सन्तरे की खट्टी-मीठी रसदार फाँक मुँह में डालते हुए, और बहुत ध्यान से उसके बीजे थूकते वक्त कितनी बार हम इस सीधे-सरल लगने वाले सवाल के बारे में सोचते हैं कि जब सन्तरे का पेड़ उस पर लगने वाले सन्तरों को नहीं खाता तो फिर उस पर सन्तरे लगते ही क्यों हैं?
हालाँकि इसका जवाब हमारे सामने ही है। एक बार फिर अपने आसपास देखें... जी हाँ, हमारा जवाब उन नन्हे बीजों में छिपा है जिन्हें हमने बेपरवाह होकर ज़मीन पर थूक दिया था।
इस बात को समझने के लिए चलिए एक सीधे-सरल सवाल से शुरुआत करते हैं।

क्या सभी पेड़-पौधों में फल लगते हैं?
नहीं। अगर हम पेड़-पौधों के विकास के इतिहास को देखें तो फलधारी पौधों  काविकास तो बाद में हुआ। लगभग 37.5 करोड़ से 36 करोड़ साल पहले ऐसे पौधों का विकास हुआ जिनके बीज तो होते थे लेकिन फल नहीं। इसके काफी समय बाद फलधारी पौधों का विकास लगभग 24.5 करोड़ से 20.2 करोड़ साल पहले हुआ। इसका मतलब है कि पहले बीज फलों के रसदार भीतरी भाग में बन्द नहीं रहते थे बल्कि पेड़ की शाखाओं पर खुले  लटके रहते थे। बल्कि आज भी ऐसे पेड़ मौजूद हैं और अच्छी-खासी तादाद में हैं। अगली बार जब आप पहाड़ों पर जाएँ तो अपने चारों तरफ फैले देवदार के पेड़ों को ज़रा गौर से देखिएगा। वे बीज पैदा करने वाले पेड़-पौधों के जिमनोस्पर्म नामक वर्ग में आते हैं। जिमनोस्पर्म यूनानी भाषा का एक संयुक्त शब्द है जिसका मतलब होता है ‘नग्न बीज’। इन पेड़ों पर ‘असली’ फल नहीं लगते क्योंकि वे शंकु (कोन), जिन्हें आप इन पेड़ों के नीचे पड़ा देख सकते हैं, सन्तरे, आम या सेव के पेड़ के विपरीत अपने बीजों को पूरी तरह बन्द करके नहीं रखते।
फूल वाले पौधे, पौधों का अकेला ऐसा वर्ग है जो ऐसे अंग पैदा करते हैं जिन्हें फल कहा जा सकता है, यानी वे अंग जो फूलों के अण्डाशयों से विकसित होते हैं और अपने भीतर उन पौधों के बीजों का संरक्षण करते हैं। इस तरह के पौधों के वर्ग के लिए संयुक्त  यूनानी  शब्द  एंजिओस्पर्म इस्तेमाल किया जाता है जिसका अर्थ होता है ‘बन्द या ढँके हुए बीज’। पृथ्वी पर, आज के समय में, यह स्थलीय पौधों का सबसे विविध वर्ग है, और अभी तक इन पौधों की 2,95,000 से भी ज़्यादा प्रजातियाँ पहचानी गई हैं।

मुझे एहसास है कि अब आप अपने अगले सवाल को लेकर तैयार होंगे कि: ऐसा क्या हुआ कि बीज पैदा करने वाले पौधों में बीजों को अपने भीतर बन्द रखने वाले फल लगने लगे? और आपको समझ में आ गया होगा कि इस सवाल का जवाब मिलने पर आपके मूल सवाल का जवाब भी मिल जाएगा कि पेड़ों में फल क्यों लगते हैं।

फल महत्वपूर्ण क्यों होते हैं?
इस सवाल का जवाब देते हुए हमें शुरूमें ही बहुत स्पष्ट रूप से एक बात समझ लेनी चाहिए कि पौधे अपनी विशिष्ट ज़रूरतों को पूरा करने के लिए फल पैदा करते हैं।
जैसा कि हम सबको पता है, बीजों से ही नए पौधे निकलते हैं। और ऐसा होने के लिए दो ज़रूरतें पूरी होना चाहिए:
* बीजों के पोषण का कोई स्रोत होना चाहिए जिससे यह पक्का हो सके कि वे तब तक जीवित रह सकें जब तक वे इतने विकसित न हो जाएँ कि स्वयं अपने पोषण का बन्दोबस्त कर सकें, यानी प्रकाश संश्लेषण कर सकें। इसमें फलों की कोई भूमिका नहीं है। दूसरी ज़रूरत का सम्बन्ध फलों से है।
* बीजों को उनकी उत्पत्ति के स्थान से बहुत दूर-दूर तक फैलाया जाना चाहिए जिसके दो कारण हैं। एक तो उन्हें पानी, पोषक तत्वों और सूर्य के प्रकाश के लिए एक-दूसरे से और अन्य पौधों से मुकाबला न करना पड़े, और दूसरा कि अगर मूल जगह या किसी एक स्थान पर कुछ गड़बड़ हो जाए तो अन्य स्थानों पर बाकी बीज तो सुरक्षित रहेंगे।
किसी फल को खाने के बाद, अक्सर काफी समय बाद, उसके बीजों को थूककर, फेंककर या मल के द्वारा बाहर निकालकर चमगादड़, पक्षी, चींटियाँ,  बन्दर-वानर और अन्य चार पैरों वाले जीव जिनमें मनुष्य भी शामिल हैं, इस दूसरी ज़रूरत को बखूबी पूरा कर देते हैं।

हालाँकि इस बात को लेकर कुछ अटकलें हैं कि क्या फल बीजों का संरक्षण करने के लिए ही विकसित हुए थे, लेकिन हमें यह तो पता है कि फलों के विकसित होने के बाद जल्द ही उन जानवरों का विकास हुआ जो उन फलों को उनसे मिलने वाले बहुमूल्य पोषक तत्वों और भरपूर ऊर्जा के लिए खाते हैं, और ऐसा करते हुए वे उनके भीतर मौजूद बीजों को इधर-उधर बिखरा देते हैं। यानी कि पौधों में फल लगने से यह फायदा हुआ कि जानवरों के ज़रिए उनके बीज मातृ-पौधों से दूर पहुँच पाते जिससे उनकी सन्तान अन्य स्थानों पर उग सकती हैं।
फल बहुत ‘लागत’ लेते हैं
हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि पोषक तत्वों से लैस ऐसी सघन संरचनाओं को उगाने के लिए इतने संसाधन लगाना और ऊर्जा खर्च करना किसी भी पौधे के लिए जोखिम भरा काम होता है, जब तक कि इस प्रक्रिया के सफल होने की अच्छी-खासी सम्भावना न हो। पौधा पुरस्कार (यानी फल को स्वादिष्ट और पौष्टिक बनाने) को सही समय और सही जगह के लिए सीमित करके इस जोखिम को कम कर सकता है, यानी तब जब बीज यहाँ-वहाँ छितराए जाने के लिए तैयार हों। क्योंकि अगर बीजों के तैयार होने (वे इतने विकसित हो चुके हों कि उन्हें कहीं और ‘बोया’ जा सके) से पहले फल को खा लिया गया तो फिर फल को पैदा करने का कोई औचित्य ही नहीं रह जाएगा।

शायद इसी वजह से फल तब तक नहीं पकते हैं जब तक उनके बीज पूरी तरह से विकसित नहीं हुए होते।  अगर हम इस वास्तविकता को देखें कि फल पैदा करने वाले पौधे, वर्तमान में ज़मीन पर पाए जाने वाले सभी स्थलीय पौधों की तुलना में सबसे बेहतर स्थिति में और सबसे ज़्यादा संख्या में पाए जाते हैं, तो इससे यह समझ में आता है कि बीजों के छितराव की यह नीति, अपेक्षाकृत रूप से, पौधों के विकास के लिहाज़ से काफी सफल रही है। इसके अलावा फल जानवरों के लिए ज़रूरी पोषक तत्वों का अच्छा स्रोत भी बन गए हैं, और ये जानवर भी अब इस पूरी प्रक्रिया के महत्वपूर्ण अंग हैं।

बिखराव के अन्य तरीके
अपने बीज को फैलाने के लिए किसी पौधे के पास उस बीज को ‘स्वाद से भरे घर’ का सुख देने की बजाय और भी बहुत तरीके होते हैं, जैसे हवा के बहाव द्वारा बिखराना (उदाहरण: कुकरौंधा/डैंडीलायन), पानी के बहाव द्वारा बिखराना (उदाहरण: जल कुमुदिनी)। इसके अलावा चिपचिपे म्यूकस (श्लेष्म) वाले बीज या विभिन्न प्रकार के काँटे जानवरों की बाहरी खाल में चिपककर इधर-उधर फैल सकते हैं (उदाहरण: पुरानी दुनिया यानी यूरोप, अफ्रीका और एशिया में पाई जाने वाली तिपतिया)। तो खाने योग्य फल पैदा करना बीजों को दूर भेजने का अकेला तरीका नहीं है लेकिन एक प्रभावी तरीका ज़रूर है क्योंकि जानवरों ने बीजों को इधर-से-उधर ले जाने का काम बहुत अच्छे से किया है।
हम जैसे लंगड़ा और दशहरी प्रेमी लोगों के लिए तो बहुत अच्छा रहा कि फल अस्तित्व में आए और वो भी तरह-तरह के!

रुद्राशीष चक्रवर्ती: एकलव्य, भोपाल के प्रकाशन समूह के साथ काम करने के बाद इन दिनों स्वतंत्र रूप से शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: भरत त्रिपाठी: एकलव्य, भोपाल के प्रकाशन समूह के साथ कार्यरत हैं।