मधुश्री

क्या आपकी उम्र इतनी हो गई है कि किसी कहानी को विश्वसनीय ढंग से इस तरह शुरु कर सकें, “तुम्हें पता है? जब मैं छोटा था, तब मैं...”?
आश्चर्य की बात है कि जब मैं बच्ची थी, तब मेरी अनेक कहानियाँ इस तरह शुरु होती थीं, “तुम्हें पता है? जब मैं बड़ी होऊँगी तो मैं...”।
ऐसा लगता था कि उन दिनों, सुनाने लायक जो भी कहानियाँ होती थीं, वे सभी भविष्य में घटने वाली होती थीं। वर्तमान में सब कुछ बहुत ही सीमित प्रतीत होता था -- हद से ज़्यादा नियम-कायदे, रोज़मर्रा के काम, मनाहियाँ और कुछ भी कर सकने के लिए बहुत ही कम अधिकार।
शायद किसी दिन हम सभी ऐसे मुकाम पर पहुँच जाएँगे, जहाँ यह लगेगा कि सुनाने लायक जो भी कहानियाँ थीं, वे सब अतीत में घटी थीं। लेकिन फिर इन दोनों तरह की कहानियों में तो कोई खास फर्क नहीं हुआ, है कि नहीं? दोनों ही तरीकों में कहानियाँ समय में सफर करती हैं -- लोगों से लोगों तक, प्रेतों से प्रेतों तक, ज़िन्दगी से ज़िन्दगी तक। कभी-कभी तो ऐसा भी लगता है मानो वर्तमान दर्पण का कोई टुकड़ा हो जिसके दो रुख हों -- अतीत और भविष्य। और इनके प्रतिबिम्बों के बीच में, अघटित घट जाता है, कहा गया अनकहा हो जाता है, जिन चीज़ों के बारे में कभी देखा या सुना नहीं होता, वे इतनी वास्तविक हो चुकी होती हैं कि उन्हें छूकर देखा जा सकता है। वास्तविक कहानियाँ निरन्तर सपनों में बदलती जाती हैं, या फिर गायब होती जाती हैं।

कहानियों, सपनों और हकीकतों के निरन्तर एक-दूसरे में बदलते रहने की बात चल रही है, तो मैंने हाल ही में एक बदसूरत बूढ़े बिल्ले की कहानी फिर से पढ़ी जो एक छोटी-सी अबाबील चिड़िया से शादी करना चाहता था। और आपको पता है क्या हुआ? सभी को बहुत आश्चर्य हुआ, घृणा महसूस हुई, और डर लगा (अबाबील के लिए, ज़ाहिर है) कि वह छोटी-सी चिड़िया भी दरअसल उस बिल्ले को पसन्द करती थी -- हालाँकि वह बिल्ले को उसकी उम्र और बदसूरती के लिए जमकर छेड़ा करती थी! वे दोनों बड़े-बड़े खेतों में और मध्य-बसन्त में तालाब किनारे लगे पेड़ों की छाँवों में एक साथ समय बिताते थे, और इस बात की कोई परवाह नहीं करते थे कि बतखें उनकी हँसी उड़ाती थीं, मुर्गियाँ उनके बारे में बातें बनाती थीं, गायों को उनका रिश्ता एकदम नापसन्द था और काकातुआ तो बहुत ज़्यादा नाराज़ हो गया था। आखिरकार, बिल्ले के बारे में नकारात्मक राय बनाने के लिए कोई भी इन जानवरों को दोष नहीं दे सकता था क्योंकि बिल्लियाँ तो हमेशा दुष्ट खलनायक होती ही हैं और इस बारे में किसी को तनिक भी सन्देह नहीं था क्योंकि सर्वज्ञानी काकातुआ ने इन जानवरों को यही इतिहास बताया था। और इस छोटे-से फार्म के सभी  मामलों  में  अन्तिम  निर्णय काकातुआ का ही होता था। तमाम जानवरों की इतनी सख्त नापसन्दगी के बावजूद बिल्ले का सपना सच हुआ। एक असत्य, अचानक-से सत्य में बदल गया।
यह मेरी कहानी नहीं है। ज़ाहिर है कि मेरी नहीं है, न तो मैं बिल्ला हूँ और ना ही अबाबील। लेकिन मेरे कहने का मतलब है कि मैंने इस कहानी को लिखा भी नहीं है। हालाँकि, जब मैंने बचपन में इसे पढ़ा था, तो मैंने कई बार इसका सपना देखा था -- मुझे यह इस कदर पसन्द थी! यह जॉर्ज लील अमादो दे फारिआ नाम के ब्रज़ीलियाई व्यक्ति द्वारा लिखी गई कहानी थी। अगर यह लम्बा नाम सुनकर आप खिसिया रहे हैं तो मैं आपको याद दिला दूँ कि हमारे यहाँ भी अवुल पाकिर जैनुलब्दीन अब्दुल कलाम और हरदनहल्ली डोड्डेगौड़ा देवेगौड़ा जैसे प्रसिद्ध लोग रहे हैं! खैर, वाह, क्या कहानी थी! एक छोटे-से दक्षिण अमरीकी फार्म का कितना खूबसूरत चित्र खींचा है। हो सकता है यह वैसा ही फार्म हो जैसे फार्म पर जॉर्ज पैदा हुए थे। हो सकता है कि आपको इस कहानी को पढ़ने का मन हो इसलिए मैं इसका अन्त बताकर आपका मज़ा खराब नहीं करूँगी। लेकिन मैं उत्सुक हूँ यह जानने के लिए कि इस कहानी का अन्त क्या रहा होगा, इस बारे में आप क्या सोचते हैं। क्या हकीकत के बारे में बिल्ले का संस्करण हकीकत बना रहा? या क्या यह वापस सपना बन गया? क्या सपने के बिल्ले के संस्करण पर काकातुआ के इतिहास के संस्करण की जीत हुई? कौन अच्छा था? कौन बुरा था? कौन सच बोल रहा था और कौन झूठ?
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जब मैं बच्ची थी तब मुझे मोगली की कहानी भी बहुत पसन्द थी। मोगली कौन? अरे ब्रिटिश-भारतीय लेखक रुडयार्ड किपलिंग द्वारा लिखी गई जंगल बुक का नायक, जो बचपन में मध्य प्रदेश के सिवनी के जंगलों में खो गया था और उसे भेड़ियों के झुण्ड ने पाला था! आप में से जिन लोगों ने यह कहानी पढ़ी है, या इस कहानी पर बनी कुछ फिल्मों को देखा है, उन्हें याद होगा कि किस प्रकार मोगली पर हमेशा ही शेरखान द्वारा शिकार कर लिए जाने का खतरा मण्डराता रहता था। शेरखान यानी वह बंगाल टाइगर जिसके बारे में हममें से किसी को भी ज़रा-सा भी सन्देह नहीं था कि वह बहुत दुष्ट था। शेरखान मनुष्य के इस शावक से पूरी शिद्दत-से घृणा करता था।
कई रातें ऐसी थीं जब मुझे सिवनी के उन सम्मोहक जंगलों के सपने आए जैसे कि मैं ही मोगली थी! मैं भी एक से दूसरी उलझी हुई बेल पर कूदती जाती, भेड़ियों के अपने झुण्ड के ऊपर, टार्ज़न की स्टाइल में। यो-हो! जंगल, एक अनजान जगह, जो एक ही समय पर मेरी थी और मेरी नहीं भी थी।
लेकिन मान लो कि अगर मैं मोगली हूँ, तो क्या वह भेड़ियों का झुण्ड ‘मेरा’ था, वह जंगल ‘मेरा’ था? क्या भेड़ियों का झुण्ड मोगली का था, या मोगली भेड़ियों के झुण्ड का था? अगर मैं एक कुत्ता पालूँ तो मैं उसे अपना कुत्ता कहूँगी। लेकिन अगर मुझे भेड़ियों के किसी झुण्ड द्वारा पाला गया हो तो क्या अभी भी मुझे उन्हें मेरे भेड़िये कहना चाहिए, या तब भेड़िये मुझे उनका मानव-शावक कहेंगे? मैं मोगली की कहानी को जितना पढ़ती थी, उतना ही भ्रमित हो जाती थी। मैं आपको बताती हूँ कि ऐसा क्यों था:
इस कहानी को पढ़ने वालों के नाते हम दो विरोधी पक्षों के बीच में खड़े हैं। आदमी ने जंगलों पर आक्रमण किया -- रहने के इलाके बनाए, पेड़ों को जलाया, जानवरों को मारा, उनके द्वारा मारा भी गया, लेकिन अन्त में हमेशा जीता। शेरखान, जो पहले मनुष्य द्वारा लगाई गई आग में घायल हो चुका था, मोगली को दुश्मन की तरह देखता था। अगर हम जंगल बुक को उसके दृष्टिकोण से देखें तो हमें क्या दिखाई देगा? दो पैरों वाले कुछ खतरनाक पशुओं ने मेरे इलाके को घेर लिया, मेरे सगे-सम्बन्धियों को मारा, मुझे चोट पहुँचाई, और फिर हमारे नाश के लिए मेरे इलाके में अपनी जाति का एक शावक छोड़ गए! तो इस कहानी में कौन अच्छा हुआ और कौन बुरा?
जब हम बड़े हो रहे होते हैं तो अपनी किताबों से सीखते हैं कि आक्रमण करना बुरा होता है, है कि नहीं? या, कम-से-कम, कुछ आक्रमण तो बुरे होते ही हैं। पर हम कैसे तय करें कि कौन-सा आक्रमण बुरा है और कौन-सा नहीं? हम सीखते हैं कि दूसरे की किसी भी चीज़ को कभी चोरी नहीं करना चाहिए, और हमें न्यायपूर्ण और निष्पक्ष होना चाहिए। क्या मोगली, एक मनुष्य के रूप में, वह नहीं चुरा रहा जो उसका नहीं है -- जंगल?

पर मोगली ‘अच्छा’ मनुष्य है। वह जंगल को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहता। बल्कि वह तो जंगल में रहने वाला पशु बनना चाहता है और उससे प्यार करता है। इसकी वजह यह थी कि वह अन्य जानवरों के बीच रहकर बड़ा हुआ था। लेकिन इसके बावजूद, वह अनजाने में जंगल के कुछ हिस्सों को मनुष्य द्वारा लगाई जाने वाली उसी आग के द्वारा नुकसान पहुँचा देता है। इसी आग में शेरखान मारा गया था। यहाँ मनुष्य के बच्चे के साथ शेरखान के रवैये की दो खास विशेषताएँ  हैं।  (1)  वह  रूढ़िगत धारणाओं से प्रेरित है और (2) वह जातीय भेदभाव से प्रेरित है। इसका अर्थ हुआ कि वह यह मानता है कि सभी मनुष्य दुष्ट होते हैं (जातीय भेदभाव), और चूँकि मोगली एक मनुष्य है इसलिए वह भी दुष्ट ही होगा (रूढ़िबद्ध धारणा)। अब हम क्या करें? किसका समर्थन करें? हमारे सामने पाठक की दुविधा आ खड़ी हुई है।
कहानियाँ और इतिहास सत्ता से भरे होते हैं। एक राजा दूसरे राजा पर अपनी सत्ता कायम करता है, एक प्रजाति दूसरी प्रजाति को परास्त करती है, एक नस्ल दूसरी नस्ल को धरातल से गायब कर देती है। हम कोई-सी भी कहानी पढ़ें या मनुष्य के इतिहास का कोई-सा भी वर्णन पढ़ें, हमारे सपने कोई भी हों हम दुविधाओं से बच नहीं सकते। जब हम बच्चे होते हैं तो हमें लगता है कि हमारी ताकत बहुत कम है। और यह बात सही भी है। लेकिन जब हमारे माता-पिता यह कहते हैं कि कुछ समय के लिए, हमारे भले के लिए, हमारी ताकत उनसे कम होनी चाहिए, तो यह भी पूरी तरह गलत नहीं है, है कि नहीं? अगर आप मुझसे पूछें तो मैं आपको एक बिलकुल ही ईमानदार, बहुत परेशान कर देने वाला और बड़ा समस्याजनक जवाब दूँगी, “मुझे तो नहीं पता! आपको क्या लगता है?”

तो हमें यह सिखाया जाता है कि आक्रमण बुरे होते हैं, लेकिन हमें साथ में यह भी सिखाया जाता है कि बेहतर (और शक्तिशाली) बनने के लिए ज़रूरी है कि हम आक्रमण करें और जीतें। और जब हम अपनी ‘जानवरों की कहानियों’ के बारे में सोचते हैं तो यह द्वन्द्व, जिससे कई दुविधाएँ पैदा हो जाती हैं, बहुत स्पष्ट दिखाई देता है। ऐसा इसलिए क्योंकि मानव इतिहास का बहुत बड़ा हिस्सा गैर-मानव जानवरों पर विजय हासिल करने में लगाया गया। 21वीं सदी में, हमने शिकार करके, उनके निवास-स्थानों को छीनकर, उन्हें कई बीमारियों से ग्रस्त करके इस धरती के अधिकांश अन्य जीवों को विलुप्त कर दिया है। अलग-अलग तरीकों से उनके शरीरों का उपभोग करने के लिए हमने उन्हें मारा है।
हो सकता है आपने मॉरीशस के तटीय जंगलों में किसी समय रहे डोडो पक्षी, या उत्तरी प्रशान्त महासागर में किसी समय रही स्टेलर समुद्री गाय के बारे में सुना हो -- ये जीव इसी तरह गायब हुए। भारत में हम लगातार गैंडों और बाघों को उनकी खाल और अन्य अंगों के लिए मारते जा रहे हैं (खास तौर से बंगाल टाइगरों को, शेरखान भी इसी प्रजाति का था)। हमने विभिन्न क्षेत्रों को अपने कब्ज़े में करने के लिए भी आक्रमण किए हैं। जैसे मनुष्यों की उत्तरोत्तर बढ़ती बसाहट के चलते कैलिफोर्नियन टेकोपा पपफिश या जापानी होन्शू भेड़िया या बाघों और शेरों जैसी बड़ी बिल्लियों की विभिन्न प्रजातियाँ विलुप्त हो गई हैं। इस समय भी, जब आप इसे पढ़ रहे हैं, जानवरों को उकसाकर उनके इलाकों से खदेड़ा जा रहा है। और ऐसे में जब वे अपनी जान बचाने के लिए प्रतिक्रिया कर रहे हैं तो उन्हें मारा जा रहा है और पारिस्थितिकी को मुसीबत में डाला जा रहा है। इस विषय पर कई कहानियाँ लिखी जा चुकी हैं। कुछ आक्रमणकारी मनुष्यों के नज़रिए को बयान करती हैं, कुछ आक्रमण झेलने वाले जानवरों के नज़रिए को। हम यह मान लेते हैं कि गैर-मनुष्य इतिहास या कहानियाँ नहीं बना सकते। यदि बना सकते तो ये कैसे बनते? हालाँकि, ऐसी चीज़ों के बारे में कोई धारणा बनाना समस्याजनक हो सकता है। अन्तत: हम यह भी मानने लगते हैं कि सिर्फ हम ही हैं जिसके पास यह बताने की ताकत है कि अतीत आखिर क्या था, और हमारी कल्पनाएँ क्या कर सकती हैं। यह ‘हम’ कुछ भी हो सकता है -- कोई राष्ट्र, कोई धर्म, कोई जाति या फिर कोई व्यक्ति भी। यह बहुत ही संकुचित ‘हम’ होगा और इसकी यथार्थ और सपनों की समझ बहुत ही सीमित होगी।

हम किस तरफ जाएँ? हम कैसी कहानियाँ लिखें? जो कहानियाँ पहले ही लिखी जा चुकी हैं उन्हें हम कैसे पढ़ें? उदाहरण के लिए, जब हम जंगल बुक को उस तरह से पढ़ रहे हैं जिस तरह श्रीमान किपलिंग ने लिखा था तो हम इस कहानी को न तो मोगली के नज़रिए से पढ़ रहे हैं, न शेरखान के, न भेड़ियों के, न उन लोगों के जिन्होंने अपनी झोपड़ियाँ सुन्दर और सुरक्षित शहरों में बनाने की बजाय जंगल के किनारे बनाईं। इसकी बजाय हो सकता है कि हम किपलिंग के नज़रिए से ही कहानी पढ़ रहे हों। किपलिंग ने ही मनुष्य की समानुभूति की जगह मनुष्य के आक्रमण को इस कहानी की विशेषता बनाया था। शायद, अपने उपन्यास में शेरखान को बाघ की इकलौती आवाज़ के रूप में पेश करके, और उसके किरदार को दुष्टता के समस्त रंगों में रंगकर, दरअसल किपलिंग ही इस बाघ को रूढ़िबद्ध धारणाओं में ढाल रहे हैं, जैसा कि सर्वज्ञानी काकातुआ ने बिल्ले के साथ किया था। यह वैसे ही है, जैसे किसी साथी लेखक ने एक बार लिखा था: इस कहानी में शेरखान की हार के अलावा कुछ और हो ही नहीं सकता। लेखक ने उसे इस भूमिका में बाँधकर रखा है, और बाद में इस कहानी पर फिल्में बनाने वाले फिल्मकारों ने भी उसे इसी तरह बाँधकर रखा है।
यह सब कहते हुए मुझे बुरा लग रहा है क्योंकि मुझे श्रीमान किपलिंग से मिलने का मौका ही नहीं मिला (मेरा उनसे मिल पाना बहुत विचित्र-सी बात होती क्योंकि मेरे पैदा होने के करीब आधी सदी पहले उनकी मृत्यु हो चुकी थी)। लेकिन मुझे छोड़िए! मैं तो बहुत आसानी-से परेशान हो जाती हूँ। ऐसे बहुत-से होशियार लोग हैं जो यह सोचते हैं कि इस किताब में वर्णित जंगल भारत की छवि दिखाता है, और मोगली ब्रिटिश अधिकारी की, जो किपलिंग की नज़रों में भोला-भाला और नेकनियत रखने वाला है, लेकिन ज़्यादा बुद्धिमान है और इसलिए जंगल से ज़्यादा ताकतवर है! बाघ की दुष्टता और असुरक्षा की भावना दरअसल स्थानीय रूढ़ीवादी लोगों की परिचायक है, जो इन परोपकारी शासकों को चुनौती देते हैं, और उन्हें अपनी मदद करने से रोकते हैं। मानो मोगली के पास और कोई चारा नहीं कि वह जंगल की भलाई के लिए बाघ को मारकर जंगल को उसके पंजों से मुक्त कराए। बाघ, मोगली के खिलाफ है, इसलिए वह ‘मोगली के जंगल’ के भी खिलाफ है।

कोई आश्चर्य की बात नहीं कि लोग किपलिंग को पसन्द नहीं करते थे। आखिरकार वे ही थे जिन्होंने द व्हाइट मैन्स बर्डन (श्वेत आदमी का दायित्व) नाम की एक लम्बी कविता लिखी थी जिसमें उन्होंने लिखा था कि यह ज़रूरी है कि बेचारे श्वेत शासक दुनिया को व्यवस्थित बनाए रखने की ज़िम्मेदारी उठाएँ। उन्होंने तो दरअसल शासित जातियों को ‘नए पकड़े गए खिन्न लोग/आधे शैतान और आधे बच्चे’ कहा था, और यह मज़ाक नहीं है। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि भारतीय पाठक उनसे खिन्न थे!
पर क्या हम किसी कहानी में बस यही सब समझ पाते हैं? जैसा कि एक प्रसिद्ध अमरीकी अभिनेता ने एक बार लिखा था: हालाँकि यह तो सच है कि हम किसी कहानी को पढ़ते समय उसमें लिखी हर एक बात पर भरोसा नहीं कर सकते (आखिरकार लेखक भी मनुष्य ही होता है, चाहे वे उपन्यास लिखने वाले चेतन भगत हों, या फिर वेद लिखने वाले याज्ञवल्क्य), पर यह भी सही है कि हम किसी कहानी को अपनी ‘मनमर्ज़ी’ के मुताबिक नहीं बदल सकते। उदाहरण के लिए, सिकोव लिखते हैं कि आखिरकार मोगली एक भारतीय लड़का था, ब्रिटिश नहीं -- किपलिंग जैसा आधा ब्रिटिश भी नहीं। इतना ही नहीं, किपलिंग हमेशा मोगली को किसी खुशहाल अन्त की ओर ले जाने की कोशिश नहीं करते, भले ही वह कहानी का नायक है। एक समय, उसे जंगल से निर्वासित कर दिया जाता है, लेकिन उसे मनुष्यों के गाँव में भी अच्छा नहीं लगता। इस मौके पर वह तकरीबन एक ट्रेजिक हीरो (त्रासद नायक) बन जाता है, जिसके बारे में हम आसानी-से नहीं कह सकते कि वह भला है या बुरा।
पर आप चाहे किपलिंग का पक्ष लेने वाले खेमे में हों या फिर उनके खिलाफ, क्या आप इस बात पर मुझ से सहमत नहीं होंगे कि मेरे पास जानवरों की कहानियाँ पढ़ते समय दुविधाओं से घिर जाने के वाजिब कारण हैं? पर सच बताऊँ, कहानियों के बारे में सोचना, उनको लेकर और ज़्यादा भ्रमित होते रहना, इसमें भी अपना मज़ा है। ऐसी ज़िन्दगी में क्या मज़ा  जिसमें  सबकुछ  बिलकुल व्यवस्थित चलता रहे और कभी भी किसी भी चीज़ के बारे में फिक्र करने की ज़रूरत ही न पड़े!
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मनुष्यों और अन्य जानवरों के बारे में, तथा किस पर किसका स्वामित्व है, इस बारे में हुई यह सारी चर्चा आपको हिन्दू देवताओं के पशु ‘वाहनों’ की याद नहीं दिलाती? चूँकि हम बिल्लियों, और विशाल बिल्लियों जैसे बाघों, शेरों आदि के दुष्ट होने या न होने की बात कर रहे हैं, तो कम-से-कम हम अपनी पूज्य देवी दुर्गा के वाहनों के बारे में सोचें, जो कभी कोई शेर होता है, तो कभी बाघ। चलिए दुर्गा को छोड़िए, आखिरकार वह तो बस एक युवा आर्य देवी है जो सबसे पहले, 400-600 ईसवी के आसपास जाकर मार्कण्डेय पुराण में प्रकट हुई थी। इसकी बजाय कुछ हज़ार साल पुरानी, मोहन जोदड़ो की प्राचीन मुहरों की बात करें। इनमें से कुछ मुहरें ऐसी हैं जिनमें पुरुषों और स्त्रियों को बाघों की सवारी करते दिखाया गया है, या उनसे लड़ते हुए दिखाया गया है। इनमें से कइयों को बाघ-देवता और देवी माना जाता रहा है, और हो सकता है कि आज भी इनमें से कुछ को भारत के विभिन्न वन क्षेत्रों में पूजा जाता हो, और जंगलों के नज़दीक रहने वाले किसानों, मछुआरों, शहद इकट्ठा करने वालों, लकड़ी काटने वालों, आदिवासियों में इससे जुड़े कर्मकाण्ड पीढ़ियों से होते चले आ रहे हों। अगर ध्यान से देखें तो हम पाएँगे कि जिस तरह इन प्राचीन बाघ-देवताओं के साथ व्यवहार किया जाता है, वह उससे काफी अलग है जिस तरह हम दुर्गा के वाहनों को देखते हैं। दुर्गा के मामले में, पूरा ध्यान तो खुद देवी दुर्गा पर ही रहता है। वाहन को देखकर हमें अच्छा लगता है, लेकिन देवी दुर्गा के बारे में ढेर सारी कहानियाँ पता होने के बावजूद हमें उनके साथ मिलकर लड़ने वाली इस विशालकाय बिल्ली के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं पता।

पर आदिवासी देवियों के साथ ऐसा नहीं है। उदाहरण के लिए, मैं आपको केरल की कोल्लोंग और उल्लाटर जनजातियों की कहानी बताती हूँ। क्या आपको लगता है कि खुद को सुरक्षित रखने के लिए बाघों को मारना ज़रूरी है? पर क्या आक्रमणों के अच्छे या बुरे होने के बारे में होने वाली चर्चाएँ इस मामले में आपको भ्रमित करती हैं? तो इन जनजातियों के बारे में सोचें। उनके लिए यह दुविधा वास्तविक है -- रोज़मर्रा का मसला। और इस स्थिति पर उनकी सोच यह है:
वे मानते हैं कि बाघ देवी पराशक्ति का पुत्र है, इसलिए वे बाघ को मारने से सख्त गुरेज़ करते हैं। लेकिन अगर उन्हें मजबूर होकर किसी बाघ को मारना पड़ जाए तो वे बेहद दुखी हो जाते हैं और पश्चाताप करते हैं, मानो उन्होंने अपने भाई को मार दिया हो। इसी प्रकार, दक्षिण बंगाल के वन क्षेत्र में, वहाँ के स्थानीय निवासी, जिनका जीवन जंगल के इर्दगिर्द घूमता है, इस बात को पूरी शिद्दत से मानते हैं कि वे बाघों के साथ, और सामान्य तौर पर प्रकृति के साथ, बखूबी रह सकते हैं। बस, उन्हें जंगल के देवी-देवताओं जैसे बन बीबी, दक्षिणराय, आसन बीबी व अन्य देवी-देवताओं के प्रति निष्ठापूर्ण समपर्ण करना होगा। वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि चूँकि उन्हें कभी-कभी मजबूरी में जानवरों और पेड़ों को नुकसान पहुँचाना पड़ता है, इसलिए उन्हें इस बात के लिए तैयार रहना चाहिए कि जब प्रकृति की मर्ज़ी होगी तो ऐसे नुकसान उन्हें भी भुगतना पड़ेंगे। प्राकृतिक व्यवस्था के भीतर ही ऐसी आवश्यकता उभरेगी कि उनके अपने शरीर और आत्मा भी प्रकृति द्वारा आत्मसात कर लिए जाएँगे। जानवरों का इस तरह से सच में समावेशन करने वाली कहानियाँ, किसी वाहन को रखने वाली कहानियों से अलग हैं। आपको नहीं लगता कि इन कहानियों में स्वामित्व का या किसी के बारे में राय बनाने जैसी बातों का स्थान नहीं है? आपके खयाल में ये कहानियाँ किस प्रकार भिन्न हैं? ऐसी कहानियाँ कम-से-कम मुझे तो आक्रमण के उस सवाल का कुछ जवाब तो देती हैं जो हमें परेशान कर रहा है। किसी-न-किसी तरह से ये कहानियाँ यह कहने की कोशिश करती हैं: जीवन में जीतना ही सबकुछ नहीं होता। प्रत्येक जीवन, प्रत्येक मृत्यु किसी बिलकुल ही बुनियादी, सच्ची और स्वाभाविक ज़रूरत से निकलनी चाहिए। हम प्रकृति से जो कुछ भी लेते हैं, उसे हमें वापस पृथ्वी को देना चाहिए, और जितना ज़रूरी हो बिलकुल उतना ही लेना चाहिए, उससे ज़्यादा नहीं: इस तरह की अजीब बातें...

अगर हम वाहन पर निर्भर रहने वाले देवी-देवताओं की बात करें, तो वे तो अपने पालतू पशुओं की पीठ पर बैठकर इधर-उधर लड़ाइयाँ लड़ते रहने में या लोगों पर कृपा बरसाने में ही खुश रहते हैं। लेकिन तब क्या होगा, मान लो किसी सुबह ये वाहन अपनी पीठ को झटककर इन देवी-देवताओं को इधर-उधर घुमाने से मना कर दें? जॉर्ज ऑरवैल नामक व्यक्ति ने इसी तरह की शुरुआत के साथ बहुत ही दिलचस्प कहानी लिखी है। इसका नाम है एनिमल फार्म। क्या आपने यह पढ़ी है? नहीं? तो कभी ज़रूर पढ़ना। यह भी एक फार्म पर आधारित कहानी है, जहाँ एक दिन सभी जानवर एकजुट होकर यह तय करते हैं कि वे उनके मनुष्य मालिकों का स्थान ले लेंगे।
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जानवरों की कहानियाँ इतनी दिलचस्प होती हैं और बहुत ही सुन्दर, अद्भुत, तकलीफदेह दुविधाओं से भरी होती हैं कि लेखक, कलाकार, फिल्म बनाने वाले नई कृतियों के लिए भी लौट-फिरकर इन्हीं का सहारा लेते हैं। हयाओ मियाज़ाकी नामक एक जापानी एनिमेशन फिल्म निर्माता हैं जिन्हें प्रकृति से बेहद प्रेम है। उनके सभी वर्णन यह बताते हैं कि मानव सभ्यता तकनीकी रूप से इतनी उन्नत होने के बावजूद प्रकृति के बारे में कितना कम जानती है। उनकी कुछ कहानियाँ तो बहुत ही सुन्दर और प्यारी हैं जैसे कि माई नेबर तोतोरो। इसमें बताया गया है कि दो छोटी लड़कियों और तोतोरो  नामक  एक  भालू  जैसे विशालकाय जानवर के बीच किस प्रकार दोस्ती पनपती है। तोतोरो से सिर्फ वही बच्चे मिल सकते थे जो दुखी हों, अकेले हों और जिन्हें किसी मित्र की सख्त ज़रूरत हो। तोतोरो ही इन लड़कियों के घर के पास स्थित जंगल की देखभाल करता था। वह इस जंगल की रक्षा करता था, उसके पोषण का खयाल रखता था। इन लड़कियों के प्रति तोतोरो का प्रेम, पेड़ों के लिए या घास, चन्द्रमा और हवा के लिए उसके प्रेम से अलग नहीं था। तोतोरो ने इन लड़कियों को कुछ बेहद रोमांचक अनुभव कराए।
पर इन्हीं मियाज़ाकी ने ऐसी फिल्में भी बनाई हैं जो बेहद अशुभ भविष्य दिखाने वाली और डरावनी हैं। प्रिंसेस मोनोनोक नाम की उनकी फिल्म में हमारी मुलाकात मोगली जैसी ही एक अन्य बच्ची से होती है जो भेड़ियों के साथ रह रही होती है, हालाँकि यह कहानी जंगल बुक से काफी अलग है। यहाँ भेड़ियों द्वारा पाली गई जंगल में रहने वाली लड़की मोनोनोक के भीतर ‘जंगल के न होने’ या ‘जानवरों से अलग होने’ जैसी भावनाएँ नहीं थीं। उसका एकमात्र प्रयास था मनुष्य की हिंसा से जंगल की रक्षा करना। शहर के लोग बन्दूकों के सहारे जंगलों को जीतने आते हैं, लेकिन मनुष्य द्वारा की जाने वाली हिंसा के हर एक कृत्य से जंगल प्रदूषित हो जाता है। क्षति और दर्द से उपजने वाला गुस्सा जंगल के देवताओं, यानी जंगली सूअरों के शरीरों में इकट्ठा होता रहता है, जो अब तक मनुष्यों के साथ शान्ति से रहे थे। वे बीमार पड़ने लगते हैं -- उनके शरीरों पर घृणा के हज़ारों काटने वाले कीड़े रेंगने लगते हैं -- वे विध्वंसकारी और पैशाचिक हो जाते हैं। एक बार जब मनुष्य और जंगल, दोनों पर ही हिंसा सवार हो जाती है, तो विनाश निश्चित हो जाता है। यहाँ कौन अच्छा है और कौन बुरा?
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ज़ाहिर है कि कहानियों के किरदारों के साथ समानुभूति रखना एक बात है और रोज़ की ज़िन्दगी में उनसे व्यवहार करना दूसरी बात। पर जहाँ तक मेरी समझ है, जब मैं कहानियाँ पढ़ती हूँ, तो कभी-कभी वे मुझे सोचने पर मजबूर कर देती हैं, और बाद में जब मुझे कोई निर्णय लेने की ज़रूरत होती है, तो कभी-कभी, किसी-न-किसी तरह से वे विचार जो एक-दूसरे से अलग थे और यहाँ-वहाँ बिखरे हुए थे, मानो एक डोरी में बँधकर मेरे पास लौट आते हैं और मेरी मदद करते हैं। इसी तरह, हो सकता है कि प्रकृति पर किए जाने वाले आक्रमण और प्रकृति से कुछ उधार लेने के बीच के फर्क के बारे में सोचने के बाद आप में से कुछ लोगों को तब बहुत अजीब लगेगा जब आप अपने कुछ दोस्तों को मेंढक पकड़ते और उसके साथ बुरा बर्ताव करते या फिर कॉकरोचों और मक्खियों के पंखों को उखाड़ते देखोगे।
बहरहाल, मुझे एक और कहानी की याद आई जो एक ऐसी लड़की के बारे में है जो कॉकरोचों और मक्खियों के पंख उखाड़ दिया करती थी, और फिर एक बार जब वह एक बड़े गड्ढे में गिर गई और उसकी तली में जाकर फँस गई तो किस प्रकार सब कॉकरोच उसके चेहरे पर रेंगने लगे। रेंगना अब उनकी मजबूरी थी क्योंकि उनके पास उनके पंख नहीं बचे थे! डरावना है, है न? क्या ऐसा वाकई हुआ होगा? या फिर जैसे जंगल बुक भारत बनाम ब्रिटेन का एक प्रतिबिम्ब थी, यह भी किसी चीज़ का प्रतिबिम्ब हो? अच्छा प्रतिबिम्ब या बुरा प्रतिबिम्ब?
जब हम कोई जानवर की कहानी पढ़ते या लिखते हैं, तो अधिकांशत: हम उनमें मनुष्यों की छवियों को प्रतिबिम्बित करने की कोशिश करते हैं। आपको लग सकता है कि यह भी एक प्रकार का आक्रमण है। और यह सच भी है। पर यह उस तरह का आक्रमण है जिसके साथ कभी-कभी नरमी बरती जा सकती है। आखिरकार, जब हम अन्य मनुष्यों के बारे में कोई कहानी पढ़ रहे होते हैं, तो उनके लिए हमारे भीतर गहरी भावनाएँ तभी जागती हैं जब हम उनमें खुद को देख पा रहे हों, है कि नहीं? हम एक या एक से अधिक किरदारों के साथ तादात्म्य बना लेते हैं, और फिर बाकी किरदारों को इन किरदारों के, यानी कि हमारे, नज़रिए से देखने लगते हैं। यह कुछ-कुछ वीडियो गेम खेलने जैसा है जहाँ आप ही स्क्रीन पर रोमांचक व साहसिक कार्य करने वाले बन जाते हैं, लेकिन वीडियो गेम के विपरीत, किताबों की कोई पूर्व-निर्धारित सीमा नहीं होतीं। हम किसी किताब को कोई लक्ष्य हासिल करने के लिए, या फिर जीतने के लिए नहीं पढ़ते। हम तो उन्हें वैसे ही पढ़ते हैं, जिस प्रकार हम दिन-प्रतिदिन जीते चले जाते हैं। जीवन में हम कई नए सच जानने की कोशिश करते हैं, हमें कई दुविधाओं का सामना करना पड़ता है। किताबें कभी-कभी इसमें हमारी मदद करती हैं।

किसी-किसी दिन, मैं उन तमाम खुले और विस्तृत स्थानों के बारे में सोचती हूँ जहाँ मैं अपनी मनमर्ज़ी से घूमती-फिरती रहती थी, पर अब ऐसा नहीं कर पाती। एक खेल का मैदान जो अब एक बहुमंज़िला इमारत बन चुका है, एक अभिन्न मित्र जिससे अब मेरी बात नहीं हो पाती, एक किताब जिसे मैंने सौ बार पढ़ा था पर अचानक खो...। ऐसे दिन मैं खुद को बिलकुल ही किसी जानवर की तरह महसूस करती हूँ। हो सकता है आपने ये शब्द सुने हों ‘पिंजरे में बन्द जानवर की तरह’। एक लेखक इन शब्दों का प्रयोग करके पाठक के मन में ऐसे किसी व्यक्ति की छवि खींच देता है जो पहले तो कोई काम करने के लिए स्वतंत्र था लेकिन अब नहीं कर सकता। ऐसे दिन मुझे भी पिंजरे में बन्द जानवर जैसा महसूस होता है। आखिरकार, पिंजरे का मतलब हमेशा असली का पिंजरा तो नहीं होता। अगर आपने किंग-कॉन्ग पढ़ी है, तो आपको याद होगा कि मनुष्यों ने किस तरह इस भीमकाय गोरिल्ला के इलाके पर आक्रमण कर दिया, किस तरह उन्होंने उसे अपने निवासस्थान से बाहर निकलने के लिए उकसाया, और अन्तत: उन्होंने किस प्रकार उसे एक कोने में फँसाकर (अगर आप एक टॉवर के किनारे को कोना कह सकते हैं) मार दिया। उसे पिंजरे में कैद कर लिया गया था -- न सिर्फ तब जब वह मरा बल्कि  उसी  क्षण  जब  मानव आक्रमणकारी उस द्वीप में दाखिल हुए जो उसकी अपनी जगह थी और जहाँ वह आज़ादी-से यहाँ-वहाँ घूमता रहता था। इसी तरह, टिनटिन इन तिब्बत में टिनटिन अपने दोस्त चैंग को येती (हिममानव) के निवासस्थान से निकालकर बचाता है। लेकिन येती, जो चैंग से बहुत स्नेह करता था, कॉमिक्स के अन्तिम फ्रेम में मानो कैद हो जाता है -- वह उस समय एक गोले के भीतर, चारों ओर से घिर जाता है, जब वह एक गुप्त स्थान से देख रहा होता है कि जिसे वह इतना प्रेम करता है, उसे कोई अजीब और खतरनाक जानवर ले जा रहे हैं। कई प्रकार से, पिंजरे में बन्द करना, आक्रमण का अगला चरण होता है।
मानव सभ्यता में क्रूरता की एक अजीब प्रवृत्ति है -- न सिर्फ हम हमेशा जंगलों व अन्य प्रजातियों पर आक्रमण करते हैं और उन्हें कैद करते हैं, बल्कि इस काम का जश्न भी मनाते हैं। यह खतरनाक काम है क्योंकि जैसा कि हम जानते हैं हमारी लापरवाही धीरे-धीरे हमें हमारे विनाश की ओर ले जाती है। पहले एक के बाद एक बाकी जानवर गायब होते हैं, फिर पेड़, पानी, सूरज की बारी आती है और एक समय ऐसा आता है जब इतिहास और कहानियाँ बताने-सुनाने के लिए हम में से कोई नहीं बचता। जानवरों की कई कहानियाँ इस तरह के क्रूर उत्सवों की कल्पनाएँ हैं। इन्हें गलत तरीके से हमारे सामने आशीर्वाद की तरह प्रस्तुत किया जाता है लेकिन हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि ये किसी कहानी का सिर्फ एक संस्करण है जिसके असंख्य सिरे हैं। उदाहरण के लिए, चीनी दैत्य निआन की कहानी लें। शेरखान, मोनोनोक के सूअर देवताओं और टिनटिन की कहानी के येती की तरह वह आज़ादी से जंगल में रहता था। फिर वहाँ मनुष्यों ने घुसपैठ की और इलाके पर कब्ज़े की शाश्वत लड़ाई प्रारम्भ हुई। देवताओं और मनुष्यों ने साथ मिलकर काम करते हुए, उसे उन चीज़ों से भयभीत किया जिनसे वह डरता था -- आग और तेज़ आवाज़। फिर उसे एक पर्वत के भीतर बन्दी बना लिया और ज़ंजीरों में जकड़कर अकेले छोड़ दिया गया। और यह जानवरों के चीनी पुतलों का एक ऐसा भव्य नमूना है जिसे, हो सकता है आपने चीनी नववर्ष के दौरान होने वाले उत्सव की तस्वीरों में देखा हो। निआन कौन था? हो सकता है वह वाकई कोई दैत्याकार प्रागैतिहासिक जानवर हो जो किसी तरह चीनी जंगलों में बचा रहा हो। क्या वह ज़ंजीरों में बँधा हुआ, पहाड़ी चट्टानों तले फँसा हुआ, घायल अवस्था में और एकदम अकेला मर गया होगा? शायद यह किसी जानवर के विलुप्त होने की एक और कहानी है, और इस पर पछतावा करने की बजाय हमें प्रेरित किया जाता है कि हम इसका जश्न मनाएँ। अपनी दुविधाओं को दूर करने की बजाय हमें प्रेरित किया जाता है कि हम उनकी तरफ आँख मूँद लें।
मनुष्य का इतिहास ऐसे ही सत्यों, ऐसे ही असत्यों, सपनों और हकीकतों से बना है। यह एक जीते-जागते जानवर की तरह है -- ऐसे कई इतिहासों -- कई अन्य जानवरों -- को एक साथ लाना, जो अपना रूप बदलते रहते हैं। इन इतिहासों के भी अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य होते हैं और यह इस पर निर्भर करता है कि इन्हें किसने और किसके लिए लिखा। कई मामलों में इतिहास भी बिलकुल कहानी की तरह होता है। दरअसल, एक खास काल में प्रचलित फ्रेंच और अँग्रेज़ी भाषा में इतिहास और कहानी का अर्थ एक ही था! वह तो काफी बाद में जाकर इतिहास को थोड़े गलत तरीके से ऐसे परम सत्य के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा जिसको लेकर कोई दुविधाएँ नहीं होतीं। लेकिन कहानियाँ वह जगह बनी रहीं जहाँ लोग अभी भी खुलकर अपनी दुविधाओं की पड़ताल कर सकते थे, उन्हें विभिन्न दृष्टिकोणों से, विभिन्न चश्मों से देख सकते थे। जानवरों की कहानियाँ कुछ ऐसे ही दृष्टिकोणों और चश्मों को समेटे रहती हैं। अपने को खुलकर व्यक्त करने वाली इस गुंजाइश पर आक्रमण करने वाले और इसे भी कैद कर लेने की प्रवृत्ति रखने वाले लोगों के खिलाफ लड़ने के अपने सतत प्रयास में हम ऐसी कहानियाँ लिखते और पढ़ते रहते हैं।


मधुश्री: फ्रीलांस लेखक, चित्रकार व सम्पादक। वर्तमान में ‘आइनानगर’, एक द्विभाषी पत्रिका की सह-सम्पादक हैं। बच्चों व वयस्कों, दोनों के लिए कहानियाँ कहने की विभिन्न कथात्मक, चित्रात्मक व अभिनय की शैलियों में रुचि।  
अँग्रेज़ी से अनुवाद: भरत त्रिपाठी: एकलव्य, भोपाल के प्रकाशन समूह के साथ कार्यरत हैं।
सभी चित्र: मधुश्री।