रंजना सिंह

गत  जून  माह  में  एकलव्य  द्वारा आयोजित विज्ञान कार्यशाला में भाग लेने का अवसर मिला। चूँकि कार्यशाला विज्ञान विषय से सम्बन्धित थी तो ज़ाहिर है विज्ञान की पद्धति पर आधारित कुछ प्रयोग किए बिना यह अधूरी ही लगती। इस कार्यशाला में एक सत्र ऐसा था जिसमें सभी प्रतिभागियों से कुछ ऐसे प्रश्न बताने को कहा गया जो उन्हें परेशान या चकित करने वाले तथा अनसुलझे लगते हैं। धीरे-धीरे प्रश्नों की झड़ी लग गई। फिर प्रत्येक प्रतिभागी को इन प्रश्नों में से कोई दो या तीन प्रश्न चुनने को कहा गया। प्रश्न चुनने का एक सरल आधार था -- ऐसे प्रश्न जिन्हें वे समझना चाहते हैं और जो उन्हें रुचिकर लगते हैं। सामान्यत: चार से पाँच लोग एक जैसे सवालों को समझना चाहते थे या फिर किसी के द्वारा चुने गए सवालों में से उस प्रतिभागी को जो सवाल सबसे अहम प्रतीत हो रहा था, प्रतिभागी उस प्रश्न के आधार पर किसी समूह से जुड़ रहा था। इस प्रकार सामान्य रुचि, जिज्ञासा व समस्या के चुनाव के आधार पर कुछ समूह निर्मित हुए जिन्हें इन प्रश्नों पर खोजबीन करके, इनके सभी आयामों को खोलना व समझना था।
हमारे समूह में चार सदस्य थे - मैं, अंजली (प्राथमिक शिक्षिका), एंजेला (अभी हाल में ही एम.ए. शिक्षा की पढ़ाई  पूरी  की  है)  और  तुषीत (इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है और शिक्षा में विशेष रुचि रखते हैं)। हमारे समूह ने जिस प्रश्न की जाँच-पड़ताल की वह था:
‘अगर एक लिफ्ट काफी ऊँचाई से बिना किसी रुकावट के गिर रही है (free fall) और उसमें एक व्यक्ति है, तो ज़ाहिर-सी बात है कि लिफ्ट जब नीचे आकर ज़मीन से टकराएगी तो लिफ्ट को तो काफी क्षति होगी ही, साथ ही अन्दर उपस्थित व्यक्ति का ज़िन्दा रह पाना भी शायद मुश्किल है। परन्तु अगर वह व्यक्ति लिफ्ट के ज़मीन से टकराने से ठीक एकदम पहले लिफ्ट के अन्दर ही एक कूद लगाए तो जिस समय लिफ्ट ज़मीन से टकराएगी उस समय यदि व्यक्ति कूद के कारण लिफ्ट के अन्दर हवा में ही रहता है, तो क्या ऐसा सम्भव है कि व्यक्ति को कम हानि हो और उसकी जान बच पाए?’

इस प्रश्न या यूँ कहें कि परिस्थिति को समझने के लिए हमारे समूह ने काफी खोजबीन व विचार-मन्थन किया और इस दौरान हम कई पड़ावों से गुज़रे और कई रिसोर्स पर्सन से बातचीत की। उसी खोजबीन का वर्णन मैं यहाँ करने जा रही हूँ।
कुछ मान्यताओं के साथ आगे बढ़े
सर्वप्रथम हमने अपने प्रश्न पर ही चर्चा की तथा उसमें निहित मान्यताओं (assumptions) की पहचान की। सबसे पहले, हम यह मानकर चले कि लिफ्ट के अन्दर उपस्थित व्यक्ति को लिफ्ट के ज़मीन से टकराने से पहले किसी तरह यह संज्ञान हो जाएगा कि वह ज़मीन से टकराने वाली है इसलिए उचित समय पर (लिफ्ट के ज़मीन से टकराने से ठीक पहले) वह लिफ्ट के अन्दर कूद लगा पाएगा। दूसरा, जब व्यक्ति लिफ्ट में कूद लगाएगा तो उसका सिर लिफ्ट की छत्त से नहीं टकराएगा यानी लिफ्ट की ऊँचाई और व्यक्ति की लम्बाई में उचित अन्तर होगा।
इन दोनों मान्यताओं के साथ जब हम आगे बढ़े तो मुख्य प्रश्न यह आया कि ‘क्या गिरती लिफ्ट में कूद पाना सम्भव है?’। परिकल्पनाओं (hypothetical visualization), बलों की मात्रा, दिशा तथा गति के समीकरण जाँचने के साथ-साथ, बिना किसी रुकावट के गिर रही वस्तु (free falling body) के रेखा-चित्र बनाकर जब विश्लेषण किया गया तो हम इस नतीजे पर पहुँचे कि लिफ्ट में इतनी उछाल के साथ कूद पाना लगभग नामुमकिन है जितना व्यक्ति को चोट लगने के प्रभाव को कम करने के लिए आवश्यक है। तभी समूह में चर्चा करते हुए एक विचार आया कि अगर व्यक्ति पहले से घुटने के बल बैठा है तो घुटने सीधे करके खड़े होने से भी कूद जैसी परिस्थिति पैदा की जा सकती है। इस बिन्दु  पर  काफी  विमर्श  हुआ। मांसपेशियों की ताकत, ऊर्जा व गुरुत्वाकर्षण बल के साथ लिफ्ट में पैदा हुआ स्पेस जैसा माहौल -- इन सभी कारकों के कारण यह स्थिति भी मुश्किल ही जान पड़ रही थी, परन्तु कहीं-न-कहीं उम्मीद थी कि ये एक रास्ता हो सकता है जिसके द्वारा मनुष्य को कम क्षति का सामना करना पड़े। इसी के साथ पूर्ण रूप से स्वतंत्र होकर गिरती लिफ्ट के मॉडल को लेकर भी हम असमंजस में पड़ते जा रहे थे क्योंकि इस प्रकार की स्थिति का निर्माण करना मुश्किल लग रहा था। कहीं-न-कहीं यह वास्तविकता से दूर था क्योंकि लिफ्ट के गिरते समय उसके आसपास की दीवार व उसेे संचालित करने वाले तार लिफ्ट की गति में प्रतिरोध पैदा करेंगे ही, इसलिए यह स्थिति पूर्ण रूप से बिना रुकावट के गिरती लिफ्ट नहीं कहलाएगी। यहाँ से हमारे प्रश्न ने थोड़ा मोड़ लिया और फ्री फॉलिंग लिफ्ट से हम त्वरित (accelerated) लिफ्ट की ओर बढ़े।

कुछ संकल्पनाएँ
त्वरित लिफ्ट की संकल्पना के साथ हमारे मॉडल के कुछ-कुछ चित्र हमारे मन में उभरने लगे थे जैसे कि त्वरित लिफ्ट के लिए दो पुली लगाएँगे जिसमें एक तरफ लिफ्ट तथा दूसरी तरफ कुछ भार होगा। पुली की ऊँचाई तथा दूसरी ओर भार (जिसे हमने counter weight कहा) को हमने परिवर्तनीय कारक (variable) की तरह देखा क्योंकि इनमें बदलाव से लिफ्ट के नीचे आने की गति में भी बदलाव होगा जिसका प्रभाव लिफ्ट के अन्दर उपस्थित व्यक्ति पर पड़ेगा। इसके बाद यह सोचना प्रारम्भ किया कि लिफ्ट के अन्दर मौजूद व्यक्ति तथा लिफ्ट के गिरने के प्रभाव को उस व्यक्ति पर देखने के लिए मानव का कैसा मॉडल रखना चाहिए जिससे क्षति-प्रभाव1 को आसानी-से मापा जा सके। सबसे पहला विचार आया रबर की गेंद का और उसके ऊपर की ओर उछाल से प्रभाव को मापने का। किन्तु सिर्फ उछाल और उछालों की संख्या से क्षति-प्रभाव को मापना सही नहीं जान पड़ रहा था क्योंकि पहले से व्यवस्थित यंत्र द्वारा गेंद (मनुष्य को प्रदर्शित करती हुई) को उछाल मिलता जो कूद को दर्शाती। उसके बाद गेंद कई बार लिफ्ट के अन्दर उछाल मारती और फिर कुछ समय पश्चात् रुकती जो मनुष्य गुणधर्म से कहीं से भी सम्बन्धित नहीं लग रहा था। इसलिए मिट्टी या आटे की गेंद बनाने पर विचार किया गया क्योंकि इन पदार्थों में स्वनिर्मित उछाल नहीं होता और कूद के बाद नीचे गिरकर इनके आकर में आने वाले बदलाव से क्षति-प्रभाव को मापा भी जा सकता है। इसी के साथ-साथ एक और विचार आया कि मनुष्य के प्रतिरूपी2 एक पारदर्शी बोतल रंगीन पानी भरकर, ढक्कन बन्द करके यदि लिफ्ट में रखी जाए तो रंगीन पानी के ऊपर उठने के स्तर से क्षति-प्रभाव को मापा जा सकता है या फिर बोतल बिना ढक्कन लगे रखी जाए तो बोतल में पहले से उपस्थित पानी की मात्रा तथा उछाल के बाद पानी के बोतल से बाहर छलकने के पश्चात् पानी की मात्रा की तुलना से भी क्षति-प्रभाव को माप सकते हैं।

प्रयोग की शुरुआत
उपरोक्त सभी विचारों का विश्लेषण करने के पश्चात् हमें खुली बोतल में पानी तथा आटे की बेलनाकार आकृति का विचार सरल व कार्यान्वित करने के लिए उपयुक्त लगा। इसके लिए गेहूँ के गुँथे हुए आटे का एक टुकड़ा लिया गया तथा उसे हर बार एक तय त्रिज्या तथा ऊँचाई के बेलन का रूप दिया गया और क्षति-प्रभाव को मापने के लिए उसके गिरने के बाद, उसकी ऊँचाई में आए बदलाव को मापा गया। साथ ही, बिना ढक्कन लगी बोतल में पानी भर कर भी यही अभ्यास किया गया और पानी के बाहर छलकने की मात्रा और बचे पानी की मात्रा में अन्तर को नोट किया गया।
ऐसा नहीं है कि ये सभी विचार किसी निश्चित्  ाृंखला में चल रहे थे अपितु ये सभी समानान्तर रूप से चर्चा में आ रहे थे और इनमें बदलाव भी साथ-साथ चल रहे थे। लिफ्ट बनाने का काम भी साथ ही चल रहा था। लिफ्ट बनाने के लिए हमने गत्ते (कार्ड बोर्ड) का इस्तेमाल किया। गत्ते की 3 सतहें लगाकर लिफ्ट के निचले हिस्से को मज़बूती प्रदान की गई। लिफ्ट की छत्त को भी गत्ते से बनाया गया। लिफ्ट की तली व छत को प्लास्टिक टेप से ढँका ताकि प्रयोग करते समय अगर पानी गिरे तो उससे लिफ्ट खराब न हो। इसके बाद लिफ्ट के निचले हिस्से व उसकी छत को प्लास्टिक के चार पतले व मज़बूत पाइप लगा कर जोड़ा गया। लिफ्ट की साइड वाली दीवार नहीं बनाई गईं ताकि लिफ्ट के अन्दर घटित होने वाली प्रक्रिया को देखा जा सके। लिफ्ट के बीचों-बीच चूड़ीनुमा टिन की पट्टी को लिफ्ट के चारों पाइपों से धागे की सहायता से जोड़ा गया जिससे कि प्रयोग करते समय मनुष्य प्रतिरूप साइड से नीचे नहीं गिरे। दो पुली की मदद से लिफ्ट के ऊपर व नीचे आने का मैकेनिज़्म तैयार किया गया।

कुछ मुश्किलें
इस पूरी प्रक्रिया को करते हुए हमारा समूह एक परेशानी से जूझ रहा था, वह थी मानव के प्रतिरूप की कूद को संचालित करने का मैकेनिज़्म -- कि लिफ्ट जब ज़मीन से टकराएगी तो उससे तनिक पहले लिफ्ट के अन्दर उपस्थित मनुष्य को कूदना है या यूँ कहें कि अपने घुटने पर बैठने के बाद उनको खोलकर सीधे खड़ा होना है, जो एक प्रकार की कूद वाली स्थिति पैदा करेगा। विचार तो अनेक थे परन्तु हाथ द्वारा ऐसी कूद को संचालित करना नामुमकिन था क्योंकि हमारी लिफ्ट को तेज़ गति से नीचे आना था। ऐसे में हाथ द्वारा संचालित कूद पूरी प्रक्रिया को बिगाड़ देती और ऐसा कोई स्वचालित यंत्र, वो भी सीमित सामग्री व समय में बनाना किसी टेढ़ी खीर से कम नहीं लग रहा था। इसी कारण अन्त तक हम स्वचालित कूद का यंत्र नहीं बना पाए और अन्तिम प्रयोग भी हमने कूद के यंत्र के बिना किया। परन्तु हमने कूद के यंत्र को बनाने के लिए अलग-अलग सिद्धान्तों व तरीकों पर विचार-विमर्श ज़रूर किया और इन्हें जानना उतना ही ज़रूरी है जितना यह प्रयोग।
पहला तरीका लिफ्ट की तली में एक कूट द्वार (trap door) बनाने का था जिसके लिए लिफ्ट की तली को बीचों-बीच से काटकर एक छोटा-सा वर्गाकार दरवाज़ा बनाया जाता और उस दरवाज़े के निचले हिस्से में कोई ठोस वस्तु जैसे लकड़ी का छोटा टुकड़ा चिपकाया जाता। जैसे ही लिफ्ट ज़मीन से टकराती तो सबसे पहले लकड़ी का टुकड़ा टकराता जिससे उस दरवाज़े के ऊपर रखे मानव प्रतिरूप को नीचे से ऊपर की ओर बल मिलता और उसमें उछाल आता। इसमें दिक्कत यह थी कि इससे वस्तु को सीधा ऊपर की ओर उछाल मिलने की बजाए थोड़ा तिरछा उछाल मिलता जिससे उस वस्तु के लिफ्ट से बाहर गिरने की सम्भावना अधिक बन रही थी। साथ ही, यहाँ जो उछाल मिलता वह ज़मीन से लकड़ी के टुकड़े के टकराने से मिलता जबकि उद्देश्य यह था कि उछाल लिफ्ट के अन्दर से ही मिले, न कि किसी बाहरी बल से क्योंकि अन्दर से ही पैदा हुआ बल लिफ्ट को भी नीचे की ओर धकेलता है जिससे लिफ्ट के त्वरण में बढ़ोतरी हो सकती है।

दूसरा तरीका, स्पिं्रग को लिफ्ट की तली के बीचों-बीच सीधा खड़ा करके चिपकाना तथा धागे से उसे दबाकर बाँधना। धागे की लम्बाई को इस प्रकार निर्धारित करना कि जब धागे के दूसरे छोर को जलाया जाए तो वह ठीक उतने समय में ही स्पिं्रग से लगी गाँठ तक पहुँचे जब लिफ्ट ज़मीन से टकराने वाली हो। धागे से लगी गाँठ जैसे ही खुले, ठीक उसी समय वह कूद की स्थिति पैदा करे जिससे वस्तु ऊपर उछल जाए। परन्तु हमें स्पिं्रग ढूँढ़ने में बहुत परेशानी हुई और जब अन्त में मिली भी, तो भी हम ऐसा मैकेनिज़्म बनाने में असफल रहे क्योंकि धागे को जलाना तथा उसके जलने की रफ्तार के अनुसार धागे की लम्बाई निर्धारित करना, इसके लिए बहुत ही नियंत्रित परिस्थितियों की आवश्यकता थी।
तीसरा तरीका, काफी कुछ दूसरे तरीके से मिलता-जुलता ही था। हमें लिफ्ट के इस प्रोजेक्ट पर काम करते-करते दो छोटी गोल चुम्बक मिलीं जो समान ध्रुवों को एक साथ रखने पर एक स्पिं्रग की भाँति व्यवहार कर रही थीं। इनके ज़रिए भी लिफ्ट को नियंत्रित करने का तरीका बहुत ही पेचीदा था और इस मैकेनिज़्म को भी हम पूर्ण रूप से व्यवहार में नहीं ला पाए।
अन्तत: लिफ्ट के मॉडल को एक एल्युमीनियम की सीढ़ी पर बाँधा गया। एक तरफ लिफ्ट तथा दूसरी ओर भार बाँधा गया जिसे समय-समय पर बदला गया। लिफ्ट को भी एक तय ऊँचाई से बार-बार अलग-अलग भार के साथ छोड़ा गया। लिफ्ट में मनुष्य प्रतिरूप के लिए पानी भरी खुली बोतल तथा आटे के बेलनाकार ढाँचे का प्रयोग किया गया।

इस प्रयोग को करते समय हमने कुछ समस्याओंें का सामना भी किया, जैसे कि लिफ्ट हमेशा सीधी नीचे नहीं आ रही थी और कई बार लिफ्ट जब ज़मीन से टकराती तो उस स्थिति में बोतल लुढ़क जा रही थी जिससे सारा पानी बोतल से बाहर फैल रहा था। क्योंकि लिफ्ट सटीक रूप से नहीं बनाई गई थी इसलिए लिफ्ट की तली कई बार ज़मीन के साथ समानान्तर न होकर एक तरफ झुक जा रही थी। इससे भी प्रक्रिया के सटीक अवलोकन लेने में अड़चन आ रही थी। इन सब समस्याओं पर भी विचार किया गया और हमने कुछ सुझाव भी रखे ताकि अगर कोई भविष्य में इस प्रश्न पर काम करना चाहे तो इन बातों का ध्यान रखे।
पहली, लिफ्ट के मॉडल को बनाने के लिए सटीक मापन अति आवश्यक है। दूसरी, लिफ्ट को बनाने में प्रयोग की जाने वाली सामग्री ठोस हो ताकि जब लिफ्ट ऊँचाई से गिरे तो उसके ढाँचे में तनिक भी बदलाव न आए। तीसरी, लिफ्ट थोड़े और बड़े आकार की बनाई जाए जिससे उसको संचालित करने व उसके अन्दर मनुष्य प्रतिरूप को रखने व हटाने में आसानी हो। उदाहरण के लिए, जूते के एक बड़े डिब्बे के बराबर लिफ्ट का आकार सही रहेगा। अन्त में, स्वचालित कूद को संचालित  करने  का  मैकेनिज़्म अतिआवश्यक रूप से प्रयोग किया जाए जो हम कम समय व कम संसाधनों की वजह से नहीं कर पाए।

इस प्रयोग से निकले निष्कर्ष
इस प्रयोग के द्वारा हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ‘लिफ्ट को जितनी ज़्यादा ऊँचाई से छोड़ा जाएगा उससे क्षति-प्रभाव उतना ही बढ़ता जाएगा। इसी प्रकार लिफ्ट के दूसरी ओर बँधे भार को यदि कम किया जाता है तो उससे लिफ्ट का वेग बढ़ता है और क्षति-प्रभाव भी बढ़ता है। सामान्य स्थिति में, लिफ्ट में इस ताकत से कूद लगाना सम्भव ही नहीं है जिससे कि मनुष्य क्षति से बच सके और घुटने के बल बैठकर, उठने से नाममात्र का ही अन्तर पड़ेगा। इसलिए कहा जा सकता है कि बिना रुकावट के गिरती लिफ्ट व त्वरित लिफ्ट में मनुष्य को गहरे क्षति-प्रभाव से बचा पाना मुश्किल है’। परन्तु घबराइए नहीं, जब हमने लिफ्ट के बारे में पढ़ा तो पाया कि लिफ्ट के इस क्षति-प्रभाव को कम करने के लिए लिफ्ट की तली में आघात अवशोषक (shock absorber) लगे होते हैं परन्तु इनकी भी एक सीमा होती है। अगर लिफ्ट का वेग अत्यधिक है तो ये आघात अवशोषक भी क्षति-प्रभाव को खास कम नहीं कर पाते।

हमारा मॉडल पूर्ण रूप से सफल तो नहीं हुआ क्योंकि हम कूद वाला मैकेनिज़्म बना ही नहीं पाए जो इस प्रश्न का अहम बिन्दु था, परन्तु इसे पूर्ण रूप से असफल प्रयोग भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि इस पूरे सफर में काफी कुछ सीखने को मिला जिसमें दो सीख बहुत महत्वपूर्ण हैं। पहली, यह पूरा अनुभव हमें दैनिक जीवन के सवाल जिन पर विज्ञान के तरीकों से कुछ जाँच-पड़ताल सम्भव हो, को किस प्रकार परखकर उन पर कार्य करना है, यह सीख देता है। साधारणत: विद्यालयों में ऐसा सिखाया जाता है कि वैज्ञानिक विधि के कुछ खास चरण होते हैं और यह एक नियत क्रम में ही पूरी की जाती है तथा उसमें कोई लचीलापन स्वीकार्य नहीं है। जबकि यह अनुभव एक वैज्ञानिक विधि को रीतिपूर्ण तरीके से करने की बजाए समस्या  को  समझकर,  उसकी आवश्यकतानुसार आगे बढ़ने की प्रक्रिया को दर्शाता है। दूसरी, हम सबने ऐसे बहुत अनुभव व लेख पढ़े हैं जिनमें प्रयोग हमेशा सफल ही रहता है इसलिए ये धारणा बन जाना सहज ही है कि सफल प्रयोग ही प्रयोग के दायरे में आते हैं और असफल प्रयोग निरर्थक ही रह जाते हैं। जबकि यहाँ इस प्रक्रिया के द्वारा एक असफल प्रयोग में सीखने की क्या प्रक्रिया छिपी है, उसे उजागर करने की कोशिश की गई है।


रंजना सिंह: म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन, दिल्ली के विद्यालय में प्राइमरी शिक्षक हैं। केन्द्रीय शिक्षा संस्थान, दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.फिल. (शिक्षा) कर रही हैं। अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन में कुछ समय गणित की रिसोर्स पर्सन तथा दिल्ली के एक प्राइवेट स्कूल में गणित की शिक्षिका के तौर पर काम किया। पाठ्यक्रम डेवलपर के तौर पर भी छह वर्ष तक कार्य किया है।
इस प्रोजेक्ट के सलाहकार (मेंटर) हिमांशु श्रीवास्तव थे। इस प्रोजेक्ट टीम के सदस्य थे - तुषीत, अंजली, एंजेला और रंजना सिंह।