कहानी

लेखक : देवाशीष मखीजा
अनुवाद: मनोज कुमार झा

कल्मू, 8
कोरापुट, ओडिशा के पोट्टाचे डिग्री गाँव में रहने वाला कल्मू अपनी जल चुकी झोंपड़ी के अवशेषों के साथ खेल-खेल कर ऊब चुका है। कुछ लोग, जिन्हें बाबा ‘पुलिस’ बोलता है, उन सबकी झोंपड़ियाँ जला गए थे। झुलसकर काली पड़ गई ईंटें फिलहाल उसके लिए मज़े का सबब बनी हुई हैं। उन ईंटों पर जब वह घूसे से वार करता है, तो वे चूर-चूर होकर धूल में बदल जाती हैं। इससे उसे खुद के ताकतवर होने का गुमान होता है। वैसे तो ईंटें काफी सख्त होती हैं और पेड़ की सबसे ऊँची डाल से गिराने पर भी नहीं टूटतीं। लेकिन यह सब कर करके वह थक गया है।
कल्मू अधजली साड़ी को साफ कर रही अपनी अम्मा को परेशान करता है। वह अपने दाँत से एक साड़ी के काले पड़ गए आँचल को फाड़कर देखती है कि बाकी का हिस्सा पहनने लायक बचता है कि नहीं। कल्मू उसकी कुहनी को झटके-से ठोकर मारता है, जिसका मतलब वह जानती है। वह एक बड़ी-सी थाली से ढँकी एक छोटी टोकरी उठाती है। थाली को हटाकर उसमें झाँकती है, फिर हाथ अन्दर डालकर एक तितली को बाहर निकालती है, जिसके दोनों पंख उसकी तर्जनी और अंगूठे के बीच दबे होते हैं। वह तितली के शरीर से एक धागा बाँधती है और कल्मू को पकड़ाती है; कल्मू की आँखें चमक उठती हैं...धागे के एक छोर पर फड़कता एक जीवित खिलौना! कल्मू तितली को यो-यो की तरह उछालता है फिर गोल-गोल घुमाता है। वह अदना-सी जान पूरी तरह हार मानने से पहले कुछेक बार लाचार-सी फड़फड़ाती है। फिर झूल जाती है।
कल्मू गाँव के बीचो-बीच दौड़ता है, अन्य जले घरों के बाहर दूसरे बच्चों की तरफ। उनमें से दो और बच्चों के पास धागों से बँधी तितलियाँ होती हैं। हालाँकि कल्मू की तितली उनमें सबसे खूबसूरत है। और रंगों की बौछार के साथ अभी भी हर चन्द मिनट दो-एक बार फड़फड़ा उठती है।
अपने आखिरी दम तक।

सूरज डूब रहा है।
कल्मू की माँ अपनी साड़ी को निहार रही है। साड़ी करीब-करीब दो हिस्सों में फटी हुई है और किनारों पर जली हुई है। माँ के फैले हुए हाथों से झूलती साड़ी भी एक निर्जीव तितली-सी दिखती है।
कल्मू भागता हुआ वापस उस जगह जाता है जहाँ उसने अपनी तितली को छोड़ दिया था और जो अभी भी धूल में सनी पड़ी हुई थी। वह उसे उठाकर चारों ओर लहराने लगता है। यह ज़्यादा मज़ेदार है, वह सोचता है। यह वो सब करेगी जो मैं चाहता हूँ। बिलकुल जली हुई ईंटों की तरह।
यूँँ, लाल पंखों वाले उस छोटे जीव को अपने सिर के ऊपर गोल-गोल लहराते हुए कल्मू फिर से खुद को शक्तिशाली होने के गुमान से भर उठता है।

कर्मा, 8
छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा ज़िले के नटमर्गू गाँव में कर्मा अपने बापू के कहे शब्दों को एक बड़े-से चार्ट पेपर पर पेंट से लिखता है, “ये...ज़मीन... हमा-आरी।” बापू अपने वाक्य के आखिरी शब्द को वैसे ही खींचता है जैसे हेडमास्टर कक्षा में इमला बोलते हुए करता है।
“धीरे-धीरे बापू, मैं इतनी जल्दी शब्दों को इतना बड़ा नहीं लिख सकता,” कहते हुए कर्मा अपने छोटे-से हाथ से ‘ज़मीन’ पर दुबारा ‘ज़मीन’ लिखता है, ताकि शब्द मोटा दिखे। इतना मोटा, कि लगे कि बापू इस शब्द को चिल्ला रहे हैं! कर्मा अपने इस विचार पर हँस देता है।
बापू उससे पूछता है, “इसमें हँसने वाली कौन-सी बात है?”
कर्मा बोलता है, “तुम!” और  कूँची को काले पेंट वाली कटोरी में डुबो देता है। कर्मा का मन बापू के मुँह के ऊपर पेंट से एक मूँछ बना देने का होता है। लेकिन बापू गौर से चार्ट के बड़े कागज़ को देख रहा होता है। कितना गम्भीर दिखता है!
कर्मा ‘हमारी’ लिखना शु डिग्री करता है। वह पूछता है, “क्यों न इसे अँग्रेज़ी में लिखें? क्या पता वो बाबू लोग हिंदी पढ़ भी पाते होंगे या नहीं।”
बापू और अधिक गम्भीरता के साथ  कहता है, “अच्छा होगा कि समझ जाएँ। यह हमारी राष्ट्रीय भाषा है। वे हमारी ही तरह भारतीय लोग हैं।”
“फिर वे हमारी ज़मीनें क्यों लेना चाहते हैं? क्या उनके पास अपनी ज़मीन नहीं है?”
“...है।” चार्ट के काग़ज़ की ओर इशारा कर बापू बोलता है, “ध्यान रखना कि अन्तिम शब्द कागज़ पर ठीक से आ जाए।”

कर्मा एक इमली के पेड़ के नीचे बैठ बापू को देखता रहता है। बापू बीच धूप अपने सीने पर वह चार्ट वाला बड़ा-सा कागज़ ताने खड़ा है। कागज़  किसी  ढाल सरीखा दिखाई देता है। मानो महफूज़ रखने वाली कोई जादुर्ई शै हो। कर्मा सोचता है कि वह मूँछ उसे बापू की नाक के नीचे बना ही देनी चाहिए थी। फिर तो बापू किसी योद्धा जैसा दिखता।
नटमर्गू के सारे किसान अब तक इकट्ठा हो चुके हैं। क्या सचमुच सारे किसान? नहीं। कर्मा देखता है, “सोडी का बापू कहाँ है? यहाँ तक कि लिंगा का बापू भी नहीं आया अब तक। लेकिन ऊंगा का बापू यहीं है। पर हेमला का? उसने तो बापू से वादा किया था कि वो आएगा।”

कर्मा गिनता है...एक, दो, तीन, चार, पाँच, छ:, सात, आठ...
“तेईस।” कर्मा घबरा उठता है, “सिर्फ तेईस बापू लोग मिलकर फैक्टरी के बाबुओं से हमारे खेतों को कैसे बचा पाएँगे?”
एक बड़ी-सी कार करीब आती है और ‘वीनस स्टील्स’ के बोर्ड के पास रुक जाती है। कोई उससे नीचे नहीं उतरता। यहाँ तक कि खिड़कियाँ भी नहीं खुलतीं। खिड़कियाँ गहरे रंग वाली हैं। लेकिन कर्मा को पिछली सीट पर बैठी दो आकृतियाँ समझ में आ जाती हैं। पीछे से एक ट्रक आता है।  पुलिसवालों से भरा हुआ है। कर्मा सोचता है, “अपनी हरे रंग की पोशाक में वे पुलिस वाले कितने स्मार्ट लग रहे हैं। मैं आज रात बापू से बोलूँगा कि मुझे बड़ा होकर पुलिसवाला बनना है।”

“अरे, वे हमारे बापू लोगों की तरफ बन्दूकें क्यों तान रहे हैं?” कर्मा उन्हें रोकने के लिए उनकी तरफ दौड़ता है। वह उन पर चिल्लाता है। उनसे कहता है कि उस जादुई ढाल के साथ खड़ा शख्स उसका बापू है। और उस जादुई ढाल पर शब्द उसने लिखे हैं। और वे शब्द हिन्दी में यानी हमारी राष्ट्रीय भाषा में लिखे हुए हैं। और उनकी अँग्रेज़ी यह है, कि “दिस... लैंड...इज़...अवर्स।”
पुलिसवालों में से एक छोटे-से कर्मा को परे ठेल देता है। उसका हाथ इतना सख्त होता है कि कर्मा डर जाता है। कर्मा चुपचाप खड़ा हो जाता है। देखता है कि वे सबको चरने जा रही बकरियों के जैसे इकट्ठा करते हैं। वे बापू लोगों को ट्रक में भर लेते हैं। बापू वहाँ से कर्मा को देखता रहता है। बापू बेबस नज़र आता है। कर्मा सोचता है कि बापू भी उनसे डर गया है।
लेकिन पुलिसवाले डरे हुए नहीं दिखते। पुलिसवाले कभी भी डरे हुए नहीं दिखते। उनकी कही हर कोई सुनता है।
कर्मा सोचता है, “हो सकता है कि मेरे पुलिसवाला बन जाने के बाद किसी को मेरी ज़मीन छीनने की हिम्मत ही न हो।”

कल्मू, 13
एक बार सल्फी पीकर टुल्ल हो जाने के बाद कल्मू ने सरे दिन एक सपना देख डाला। उसकी पीठ एक धनुष में बदल गई। उसकी उँगलियाँ तीर बन गईं। उसने एक हिरन की ओर उँगली तान ली। पीठ को उतना  मोड़ लिया जिससे अधिक वह नहीं मुड़ सकती थी। फिर उसने उसे छोड़ दी। पट्टंग! उसकी उँगली कलाई को छोड़ छू मन्तर।
आज के बाद वह कभी नहीं पिएगा।
जंगल-भाई लोग उसका धनुष उठा ले गए हैं। बदले में उसके हाथ में यह चीज़ धर गए। इसे वे ‘रायफल’ बोलते हैं। जो कि भारी है। कल्मू के बाबा के शव की तरह। रायफल का मुँह गोल छेदनुमा है। कल्मू सोचता है, “इसी जगह से धातु की वह गरम और सख्त चीज़ बाहर आती होगी।” वह चीज़ जिसने उसके बाबा के सिर में छेद कर डाला था।
कल्मू सोचता है, “ऐसा ही मैं उस पुलिस-लोक के साथ करूँगा। उसके सिर में छेद नहीं होगा, वह पूरा खुल जाएगा। और फिर मैं उस गरम-सख्त धातु चीज़ को अपने गले में पहनूँगा।”
कल्मू उन दोनों लोगों के बारे में सोचता है जो कुछ साल पहले अपनी बड़ी-सी गाड़ी में आए थे। उनमें से छोटे आदमी ने बताया कि गाँव के नीचे की मिट्टी में धातु है। उसी समय पुलिस-लोक भी गाँव में आने लगे। पहली बार तो उन्होंने गाँव में आग लगाई।
कल्मू तब बहुत छोटा था।
कल्मू सोचता है, “क्या इसी चीज़ को वे उस धातु से बनाते हैं? सिर में छेद कर देने वाली गरम-सख्त चीज़?”
सिंगण्णा कल्मू की ओर देखता है। उसकी आँखों में थोड़ी-सी भी रहम की भावना नहीं दिखती। दरअसल वह कल्मू में झाँक रहा होता है। कल्मू को यह अच्छा लगता है। वह भी अपनी आँखों में किसी भी तरह का रहम नहीं आने देना चाहता। तब भी नहीं, जब फिर से उन पुलिस-लोक  से उसका सीधा सामना हो।
कल्मू अब अपने आपको छोटा नहीं मानता।
जंगल-भाई लोग कल्मू से वादे लेते हैं। कल्मू उनसे वादे करता है कि वह कोई भी यूनिफॉर्म पहनेगा। कि वह कुछ भी करेगा। कि वह सोएगा नहीं। कि वह मांस नहीं खाएगा। कि सल्फी नहीं पिएगा। कि धिम्सा नहीं नाचेगा। कि शादी नहीं करेगा। कि बच्चे नहीं करेगा। कि आगे से गुदवाएगा नहीं। कुछ भी नहीं।

हालाँकि उसके बाकी के सारे दोस्त  कभी-न-कभी कहीं दूर यह सब कुछ कर रहे होंगे। गाँव से सारे लोग जा चुके हैं। अम्मा भी। दरअसल गाँव में छोड़कर जाने लायक अब कुछ बचा ही नहीं है। जंगल के मुहाने पर बड़ी-बड़ी मशीनें खड़ी हैं, जो जल्द ही उस धातु के लिए उनकी मिट्टी खोदना शुरु कर देंगी। इस खयाल से कल्मू की आँखें नम हो जाती हैं।
वह खुद से वादा करता है, “मैं अपनी आँखों को दुबारा नम नहीं होने दे सकता।”
वह सुदूर, गाँव के मुहाने पर खड़े अपने साल के पेड़ को देखता है। कल्मू जंगल में उस जगह खड़े रहकर भी पेड़ के सिरे के पास बँधा मटका देख सकता है। पेड़ की छाल में बनी सुराख से रिसकर मटके में टपककर इकट्ठा होते अर्क की खुशबू सूंघ सकता है।
इतनी दूरी से भी उसे अपनी वह चीख सुनाई देती है जो उसने तब लगाई थी जब वे उसे धराशायी करने की जुगत में लगे थे। वे चार पुलिस-लोक।
कमज़ोर कहीं के।
कल्मू सोचता है, “मुझे इस रायफल की ज़रूरत नहीं। उन पुलिस-लोक को है।”
उसे तो सिर्फ यही चाहिए - यह जंगल। “लेकिन क्या यह जंगल फिर  कभी  हमारा  अपना  हो सकेगा?” वह सोचता है।
जब कभी कल्मू के ज़हन में ये सारे खयाल आते हैं, वह रो पड़ता है। उसे लगता है कि ऐसे में अगर वह एक तुम्बी सल्फी पी ले, तो यह दुख कम हो जाए। फिर वह सिंगण्णा को देखता है और उसकी आँखों की नमी जाती रहती है।
कर्मा, 13
बचे हुए कुछ किसान कहते फिर रहे हैं कि इस ज़मीन पर कोई श्राप  है। उन्हें विरोध करने की बजाय वर्र्षों पहले ही इसे उस कम्पनी के हाथों बेच देना चाहिए था। इस बरस की फसल को कीड़ों ने तबाह कर दिया। बीते साल बाढ़ ने।
कर्मा की इच्छा ही नहीं थी इस साल बुवाई करने की, लेकिन जबसे उसका बापू कभी न लौटने की तर्ज पर पुलिस लोग के साथ गया, तबसे परिवार का सारा बोझ उसके नाज़ुक कन्धों पर आ गया था।
कर्मा अपने खेत में उकड़ू बैठे, अपने नाखूनों से सूखी मिट्टी खुरचते हुए अपने आपको उस वक्त ही न चेत जाने के लिए कोसता है, तभी उसकी माँ उसे पुकारती है। “फैक्टरी -बाबू आया है, तुम्हें बुला रहा है।”
इस बार सबने तय किया कि बेच देंगे।
सोडी अपने घर की चीज़ें समेट रहा है। उसका बापू परिवार को शहर ले जाने वाला है। लिंगा के बापू ने रुकना तय किया है। कम्पनी ने फैक्टरी चालू होने पर उसे और उसके बेटे को नौकरी देने का वादा जो किया है। ऊंगा गुस्से में है। वह अपनी ज़मीन नहीं छोड़ना चाहता था। लेकिन उसका बापू इस ज़मीन के रहमोकरम पर अब और अधिक गुज़ारा नहीं करना चाहता। “अच्छा होगा कि यह ज़मीन वो ही ले लें। हमारी रहकर भी यह हमारा कितना भला कर रही है, आखिरकार?”
कर्मा ऊंगा से बात करने की कोशिश करता है लेकिन उसका साथी गुस्से में अंगार बना बैठा है। उसका चेहरा  देख कर्मा सहम जाता है। वह ऊंगा को अकेला छोड़ चला जाता है।
दरअसल वह हर किसी को अकेला छोड़ चला जाता है। उसकी माँ बीते साल भर से फैक्टरी-बाबू के दफ्तर में काम जो कर रही होती है।
और कर्मा इस दिन के लिए तैयारियों में लगा रहा है।

ज़िले का स्कूल तीन घण्टे की पैदल दूरी पर है। कर्मा को बरसों पहले वहाँ जाकर हिन्दी, अँग्रेज़ी, अंकगणित और भूगोल पढ़ना याद है। पिछले पाँच सालों से स्कूल एक शिविर बना हुआ है। जंगल में तैनात पुलिसवालों का शिविर। स्मार्ट हरी वर्दी वाले उन्हीं पुलिसवालों का जो बापू को ले गए थे। हर कोई उनसे डरता है। और उन्हें उठाकर ले जाने की हिम्मत कोई नहीं कर पाता है। कर्मा ने भी कसम खाई है ऐसा बनने की जिसे कभी भी  कोई उठाकर न ले जा सके। उसके लिए उसे भी हरे रंग की स्मार्ट वर्दी पहनना होगी।
उसके लिए उसे फिर से उसी स्कूल में जाना होगा। लेकिन इस बार पढ़ाई के लिए नहीं, ट्रेनिंग के लिए।
स्कूल की दीवार पर अभी तक हर किसी के बापू की तस्वीर, यानी गांधीजी की तस्वीर बनी हुई है। हालाँकि तस्वीर का रंग बीते पाँच सालों की बारिश में निरन्तर धुलता हुआ अब बदरंग-सा गया है। सभी दीवारों से सटी तेज़ धार वाले सर्पिल तार की बाड़ें लगी हैं। दीवार के मार्फत रेत से भरी टाट की बोरियों से पूरे स्कूल को घेर दिया गया है। कर्मा को लगता है कि शायद ऐसा बाढ़ से बचने के लिए किया गया होगा। लेकिन अचानक वह उनके बीच से निकल टोह लेती एक रायफल से दो-चार होता है। हाँ, यह सुरक्षा के लिए बनाई दीवार तो है। लेकिन बाढ़ से सुरक्षा के लिए नहीं।
वह तेज़ धड़कती छाती लिए टीन के नलीदार गेट से अन्दर जाने की जुगत करता है तभी एक हट्टा-कट्टा बन्दूकधारी उसे रोकता है।
कमांडर के यह पूछने पर कि सीआरपीएफ में क्यों भर्ती होना चाहता है, कर्मा अपने भीतर एक विचित्र तरह का उत्साह महसूस करता है। इस सवाल के जवाब की रिहर्सल कर्मा पिछले कई सालों से करता रहा है। तभी से, जब उसने आखिरी बार बापू को और पहली बार इन पुलिसवालों को देखा था।
“क्योंकि मैं दुबारा कभी डरना नहीं चाहता,” वह जवाब देता है।
कल्मू और कर्मा, 16
खूबसूरत रात है। पत्तों से पत्तों तक उछलती हज़ार फुसफुसाहटों के बीच जंगल गुनगुना रहा है। उनमें से किसी को भी आसमान नहीं दिखाई दे रहा। उनके सिरों के ऊपर पेड़ों के शिखर की घनी छत है। वे बीते तीन रोज़ से इसी इलाके में फिरते रहे हैं। बाकी सब ने तो ब्रेक भी लिए हैं, लेकिन कर्मा को वह भी मयस्सर नहीं। क्योंकि समूची टुकड़ी में जंगल के चप्पे-चप्पे से वाकिफ सीआरपीएफ का इकलौता जवान होने के नाते इस कोमिंग (ड़दृथ्र्डत्दढ़) ऑपरेशन के स्काउट की ज़िम्मेदारी उसी के कन्धे पर है।
कर्मा को याद नहीं आखिरी बार जब वो किसी से डरा होगा। प्रशिक्षण शु डिग्री होने के महज़ दो हफ्ते बाद, जबसे उसके हाथ में यह रायफल आई, तभी से उसने खुद को अनश्वर  पाया है। लेकिन कभी-कभार उसे इस रायफल से भी डर लग जाता है। वह उसे अक्सर उकसाती रहती है। ऐसे किसी को मार गिराने के लिए जो उसे दुखी करता हो।

कल्मू ठहरकर हवा को सूँघता है। जंगल को बचाने का एकमात्र तरीका जंगल के साथ हो जाना ही है।
उसी रोज़ तड़के सुबह उन्हें भीतरी जंगल में सीआरपीएफ द्वारा एक कोमिंग ऑपरेशन किए जाने का पता चला था। पुलिस-लोक की तो कभी हिम्मत ही न हुई इतना भीतर तक घुसने की। यह कोई अच्छे लक्षण नहीं हैं। उनके बीच ज़रूर कोई ऐसा भी मिला हुआ है जो जंगल को करीब से जानता है। “उन्हें उनकी इच्छा भर के धातु मिलने तक यूँ कितने जंगलों को तबाह होना पड़ेगा?” कल्मू सोचता है।
कल्मू फिर से नाक सुनकता है और बारूद की गन्ध पकड़ता है, और...धातु की। वह पेड़ों की सरसराहट को बहुत बारीकी के साथ सुनता है। दूर कहीं सूखे पत्तों को कुचल रही बूटों की ध्वनि से उसे पेड़ों के गुनगुनाने की लय टूटती हुई जान पड़ती है।
“आज की रात हम उन सबको मार डालेंगे,” वह सोचता है।

रात खूबसूरत है। अगली सुबह भी सुहानी होगी। सूरज जल्दी उग आएगा। उसकी रोशनी जंगली-झरने में चाँदी की बूंदों सरीखी चमकेगी। यह उस बसन्त का पहला दिन होगा, जब किसान नई फसल के लिए खुद को तैयार करेंगेे।
दो लड़के, जो कि किसान हो सकते थे, फिलहाल जंगल में हैं। उन दोनों को मालूम है कि अगली सुबह कितनी खूबसूरत होने वाली है। लेकिन उनमें से कोई एक उसे कभी नहीं देखेगा।

देवाशीष मखीजा: भारतीय फिल्म निर्माता, पटकथा लेखक, ग्राफिक आर्टिस्ट, कथाकार और कवि। लघु फिल्में बनाते हैं। फिल्म ऊँगा को लिखने और निर्देशित करने के लिए व वेन अली बिकेम बजरंगबली जैसी बच्चों के लिए लिखी गई बेस्टसेलर पुस्तक के लेखक के रूप में खास तौर से जाने जाते हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: मनोज कुमार झा: विज्ञान में स्नातकोत्तर। दो कविता संग्रह और कई साहित्यिक अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ एवं आलेख प्रकाशित होते रहे हैं। दरभंगा, बिहार में रहते हैं।
सभी चित्र: शिवांगी: स्वतंत्र रूप से चित्रकारी करती हैं। कॉलेज ऑफ आर्ट, दिल्ली से चित्रकला, फाइन आर्टस् में स्नातक। स्कूल ऑफ कल्चर एंड क्रिएटिव एक्सप्रेशंस, अम्बेडकर युनिवर्सिटी, दिल्ली से विज़्युअल आर्ट्स में स्नातकोत्तर की पढ़ाई की है। दिल्ली में निवास।
यह कहानी तूलिका द्वारा प्रकाशित पुस्तक बीइंग बॉय्ज़ से ली गई है।


देवाशीष मखीजा: भारतीय फिल्म निर्माता, पटकथा लेखक, ग्राफिक आर्टिस्ट, कथाकार और कवि। लघु फिल्में बनाते हैं। फिल्म ऊँगा को लिखने और निर्देशित करने के लिए व वेन अली बिकेम बजरंगबली जैसी बच्चों के लिए लिखी गई बेस्टसेलर पुस्तक के लेखक के रूप में खास तौर से जाने जाते हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: मनोज कुमार झा: विज्ञान में स्नातकोत्तर। दो कविता संग्रह और कई साहित्यिक अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ एवं आलेख प्रकाशित होते रहे हैं। दरभंगा, बिहार में रहते हैं।
सभी चित्र: शिवांगी: स्वतंत्र रूप से चित्रकारी करती हैं। कॉलेज ऑफ आर्ट, दिल्ली से चित्रकला, फाइन आर्टस् में स्नातक। स्कूल ऑफ कल्चर एंड क्रिएटिव एक्सप्रेशंस, अम्बेडकर युनिवर्सिटी, दिल्ली से विज़्युअल आर्ट्स में स्नातकोत्तर की पढ़ाई की है। दिल्ली में निवास।
यह कहानी तूलिका द्वारा प्रकाशित पुस्तक बीइंग बॉय्ज़ से ली गई है।