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पिछले अंक में सवालीराम ने पूछा था कि आखिर कछुए-घोंघे इतने धीमे क्यों हैं। इस सवाल के तीन जवाब पेश कर रहे हैं। पहला जवाब हमारे पाठक श्री प्रेमचन्द्र श्रीवास्तव का है। दूसरा जवाब हमारी पाठक ईशा शाह का है। और तीसरा जवाब एकलव्य की प्रकाशन टीम के साथी रुद्राशीष ने तैयार किया है।

सवाल : कछुएं और घोंघे चलने-फिरने में इतने धीमे क्यों हैं ?

जवाब 1: कछुए के धीरे-धीरे चलने के कारण हैं -

* शिकारी से खतरे की स्थिति में यह अपने अत्यन्त कठोर खोल के अन्दर अपने आप को समेट लेता है।
* कछुए के शरीर का भार बहुत होता है।
घोंघे के धीमे चलने के कारण हैं -
* शरीर के भार की तुलना में इसके पैर बहुत छोटे होते हैं।
* यह घास-पत्तियों को खाकर अपनी क्षुधा शान्त कर लेता है लेकिन कभी-कभी मृत जीवों के छोटे-छोटे टुकड़े भी खा लेता है।

जवाब 2: इसका जवाब सोचते हुए पहले तो मुझे लगा कि कछुए का खोल ही इतना भारी होता है कि इसे सम्हालना इनके लिए थोड़ा मुश्किल होता होगा पर फिर मैंने इस बारे में इंटरनेट पर सर्च किया।
चूँकि ये शाकाहारी जीव हैं तो इन्हें खाने की तलाश में बहुत दूर नहीं जाना पड़ता। और दूसरी बात, ये अपनी खोल में छिपकर खुद को शिकारियों से भी आसानी से बचा लेते हैं।
और हाँ, घोंघे धीमा चलते हैं क्योंकि वे लहरदार चलते हैं। साथ ही चलते हुए वे अपने पीछे म्यूकस छोड़ते चलते हैं जो घर्षण को कम करता है।
जो तर्क कछुए के लिए लागू होते हैं वही स्नेल के लिए भी लागू होंगे।

जवाब 3: तो पहले मुझे यह बताइए कि तेज़ी-से चलने में क्या खास है।
रॉकेट पर सवार बाह्य-अन्तरिक्ष की ओर उड़ने वाला यात्री कहेगा कि  पृथ्वी के गुरुत्व बल की जकड़ से छुटकारा पाने के लिए उसे रफ्तार की ज़रूरत है।
स्पोर्ट्स बाइक चलाने वाला जवाब देगा कि इसलिए कि उसे बहुत अच्छा लगता है।
उसैन बोल्ट का शायद यह जवाब होगा कि उसे जीवन्त मनुष्यों में सबसे तेज़ बनना है।
लेकिन कछुआ या घोंघा इन तीनों को देखकर कहेगा, “ये सब तो बढ़िया हैं, लेकिन मैं अपने सारे काम धीमे चलकर भी कर सकता हूँ। तो भई  धन्यवाद, मुझे तेज़ नहीं बनना है।”  आखिरकार तेज़ भागने के लिए ऊर्जा लगती है और उस ऊर्जा का उपयोग करने की मशीनरी भी लगती है - इन दोनों में जीव को कुछ-न-कुछ निवेश करना पड़ता है।

वास्तव में इस सवाल का सीधा व सरल जवाब नहीं है। इसे हम कुछ अलग-अलग नज़रियों से देख सकते हैं। पहला यह कि तेज़ और धीमा  जैसे विशेषण इस पर निर्भर करते हैं कि कौन इन्हें किसकी तुलना में इस्तेमाल कर रहा है। उदाहरण के लिए स्लॉथ (चित्र-1, जो पेड़ों पर 180 मीटर प्रति घण्टे की रफ्तार से चल सकता है लेकिन ज़मीन पर 60 मीटर प्रति घण्टे की रफ्तार से चलता है) बगीचे के घोंघे को देखकर तो बिलकुल नहीं सोचेगा कि घोंघे (जो लगभग 45 मीटर प्रति घण्टे की रफ्तार से चलते हैं) बहुत धीमे चलते हैं। और घोंघा एक विशाल कछुए (जो 270 मीटर प्रति घण्टे की रफ्तार से चलता है) को देखकर यह सोच सकता है, “काश मैं उसके जैसे तेज़ चल सकता।” तो ये सब तुलनात्मक हैं।

बॉक्स - 1

कछुए का कवच उसके पंजर (rib cage) का ही एक बढ़ाव है जो ज़्यादातर कशेरुकियों से भिन्न कछुओं में शरीर के अन्दर नहीं, बल्कि उसके बाहर पाया जाता है। कछुए का पूरा कवच अनेक छोटी-छोटी हड्डियों से बना हुआ होता है जो केरैटिन (वही सख्त प्रोटीन जिससे हमारे नाखून बने हैं) की अलग-अलग परतों से ढकी हुई हैं। ये हड्डियाँ 33 प्रतिशत प्रोटीन और 66 प्रतिशत हाइड्रॉक्सीऐपेटाइट (जो ज़्यादातर कैल्शियम फॉस्फेट और थोड़ा-बहुत कैल्शियम कार्बोनेट से बना एक खनिज पदार्थ है) से बनी होती हैं।
घोंघे व अन्य सीपों के कवच उनके कंकाल हैं जो शरीर के अन्दर न होकर, उनके बाहर पाए जाते हैं। इन बाह्य-कंकाल में शैल (shell) की तीन परत होती हैं जो ज़्यादातर कैल्शियम कार्बोनेट से बनी होती हैं और इनमें प्रोटीन बहुत कम मात्रा में होता है - 2 प्रतिशत से ज़्यादा तो नहीं। ये कवच कोशिकाओं से नहीं बने होते हैं। मैंटल टिशू (घोंघों व अन्य सीपों में वो ऊतक जो कवच के अन्दर पाया जाता है) प्रोटीन व खनिज पदार्थों को स्रावित करता है जिनसे शैल बनता है।

ये सारे कवच काफी भारी होते हैं और कुछ ऐसा लगता है मानो ये जीव अपने साथ अपना कमरा उठाए चल रहे हों! उदाहरण के लिए, उनके कारण जायंट टॉरटॉइस (जो दो उष्णकटिबन्धीय द्वीपसमूहों में - सेयशेल के ऐल्डैब्रा प्रवालद्वीप और यूकुआडॉर के गलापेगोस द्वीपों - पर पाए जाते हैं) का वज़न 400 किलोग्राम से ज़्यादा होता है जिस कारण उसके लिए तेज़ी-से चलना सम्भव नहीं है।
घोंघों के लिए भी यही चुनौती है - हम मनुष्यों की नज़रों में उनके कवच भले ही छोटे दिखते हैं, लेकिन हिम्मत हो तो उनसे कभी पूछने की कोशिश कीजिए कि हर समय उन्हें उठाकर चलना कैसा लगता है।
अब एक क्षण के लिए भी न सोचिए कि धीमे चलने की नीति बुरी है। कछुओं के कवच 20 करोड़ सालों के जैव-विकास में लगभग अपरिवर्तित रहे हैं। घोंघों का कवच भी करोड़ों साल पहले विकसित हुआ। अगर इनके कवच के कारण इनकी उत्तरजीविता या प्रजनन पर नकारात्मक  प्रभाव पड़ता तो मुमकिन है कि इन गुणों में बड़े बदलाव आते।


इस सवाल के जवाब में हम यह भी कह सकते हैं कि किसी जानवर की उत्तरजीविता के तरीके उसके तेज़ या धीमा होने को तय करते हैं।
सवाल में दिए गए दो समूहों के बारे में बात करते हैं - कछुए और घोंघे। लेकिन यहीं पर पहले एक चीज़ स्पष्ट करना ज़रूरी है जो गलतफहमी पैदा कर सकती है। हम यहाँ उन कछुओं की बात कर रहे हैं जो ज़मीन पर रहते हैं न कि उन कछुओं की जो  पानी में रहते हैं (टर्टल)। यह अन्तर स्पष्ट करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि टर्टल काफी तेज़ी-से तैर सकते हैं। एक दफा घबराकर तैरने वाले किसी लेदरबैक टर्टल की गति 35 कि.मी. प्रति घण्टे रिकॉर्ड की गई। लेकिन यह बात भी सही है कि ये टर्टल जब पानी से निकलकर ज़मीन पर आते हैं - उदाहरण के लिए, जब उन्हें अण्डे देने होते हैं -2 तब वे तेज़ी-से तो बिलकुल नहीं चल पाते।

आइए, हम पूछे गए सवाल को पलटकर इसका जवाब देने की कोशिश करते हैं। तेज़ी-से चलने के क्या कारण हो सकते हैं? चीता 20-30 सेकण्ड के लिए 112 कि.मी. प्रति घण्टे की गति पकड़ सकता है (चित्र-2)। इतना तेज़  दौड़े बगैर वह किसी शिकार, जैसे हिरण जिनकी कुछ प्रजातियाँ 90 कि.मी. प्रति घण्टे की रफ्तार से भाग सकती हैं, को नहीं पकड़ पाएगा। अब देखते हैं कि कछुए और घोंघे को खाने में क्या हासिल करना है। ज़्यादातर - पौधे! और मुझे यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि पौधे कितनी तेज़ी-से गति करते हैं...!

अब एक हिरण 90 कि.मी. प्रति घण्टे की रफ्तार से दौड़ लगा सकता है सिर्फ इसलिए कि वह एक परभक्षी से बचना चाहता है जो उतनी ही तेज़ी या उससे भी अधिक तेज़ी-से दौड़ सकता है। कछुए और घोंघे परभक्षियों से बचने के लिए क्या करते हैं? वे अपने-अपने कवच में वापिस चले जाते हैं, और क्या! और मुझे आपको याद दिलाने की ज़रूरत नहीं है कि ऐसा करने के लिए इनको कितने तेज़ होने की ज़रूरत है।

तो आप समझ गए होंगे कि किसी जानवर की ज़िन्दगी की निर्णायक बातों में से दो - उसे ज़िन्दा रहने के लिए क्या खाना है और किससे बच कर रहना है - यह तय करते हैं कि वह कितनी तेज़ी-से गति करता है। कछुए और घोंघे को देखें तो उनको इन दोनों मामलों में तेज़ी-से चलने की कोई ज़रूरत नहीं है।
लेकिन इन बातों से हमें यह नहीं समझना चाहिए कि चीता तेज़ और कछुआ या घोंघा धीमे सिर्फ इसलिए चलते हैं क्योंकि एक को शिकार पकड़ने की ज़रूरत है और दूसरे को शिकारी से बचने के लिए रफ्तार की ज़रूरत नहीं है। इनके ये गुण किसी उद्देश्य से विकसित नहीं हुए हैं। वास्तव में ज़रूरत किसी भी जीव के गुणों के विकास का कारण नहीं बनती। मगर यदि वह गुण किसी ज़रूरत की पूर्ति करता है या उस जीव के लिए उपयोगी होता है तो वह बना रहता है।

नए गुण प्रजनन के दौरान सन्तानों में आनुवंशिक उत्परिवर्तन (बदलाव) के होते विकसित होते हैं। ये उत्परिवर्तन बेतरतीब होते हैं। मुमकिन है कि कवच जानवरों के पूर्वजों में कई बार विकसित हुए हों। कछुए और घोंघे के पूर्वजों में कवच रह गए। अगर कवच के कारण उनकी उत्तरजीविता बहुत कम हो गई होती तो वे अन्य जीवों से कम सन्तान पैदा करते। ऐसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी कवचधारियों की संख्या कम होती जाती और रह जाते बिना कवच वाले जीव। लेकिन कवच के कारण कुछ पूर्वजों को तो फायदा हुआ ही होगा। और इस कवच का एक नतीजा उनकी धीमी गति है (बॉक्स-1)।
तो सवाल का एक जवाब यह भी है कि कछुए और घोंघे धीमे चलते हैं क्योंकि वे अपने वंश के कारण बाध्य हैं। और परिस्थितियाँ बदलने पर अगर कछुए या घोंघे को बहुत तेज़ी-से चलने की ज़रूरत पड़ती भी है तो जैव-विकास के होते भी वे चीते जैसी दौड़ नहीं लगा पाएँगे।
उनके शरीर की संरचना व मेटाबोलिज़्म ऐसे हैं कि बदलाव कुछ हद तक ही सम्भव हैं। हाँ, करोड़ों साल की अवधि में उनके गुण काफी बदल सकते हैं लेकिन उन जीवों को कछुआ या घोंघा कहना शायद मुश्किल होगा, हो सकता है वे कोई नई प्रजाति कहलाएँ।
वैसे कछुआ और घोंघा पीठ पर भारी कवच उठाए चलते हैं जिस कारण वे बहुत तेज़ी-से चल नहीं सकते।
इस सबसे आपको समझ में आ ही गया होगा कि सवाल का संक्षेप जवाब यह है कि जानवर अपनी उत्तरजीविता के संघर्ष में जैव-विकास से गढ़े हैं और अपने वंश से बाध्य हैं।


रुद्राशीष चक्रवर्ती: एकलव्य, भोपाल के प्रकाशन समूह के साथ कार्यरत हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: विनता विश्वनाथन: संदर्भ पत्रिका से सम्बद्ध हैं।