अलका तिवारी [Hindi PDF, 295 kB]
राजस्थान के टोंक ज़िले में चल रहे अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन के स्कूल में कक्षा-4 के बच्चों के साथ पर्यावरण अध्ययन पर जारी कार्य का अवलोकन मैं यहाँ पर साझा कर रही हूँ। इस स्कूल में टोंक ज़िले के बम्बोर गाँव के वंचित वर्ग के बच्चे आते हैं।
जब पर्यावरण अध्ययन के शिक्षण की बात आती है तो बहुत ही स्वाभाविक तौर पर हम सभी स्वीकार करते हैं कि बच्चों के साथ चर्चा करना पर्यावरण अध्ययन की विषयवस्तु के बारे में समझ बनाने की एक बेहतर प्रक्रिया है। पर जब वंचित वर्ग या ग्रामीण परिवेश के बच्चों की बात आती है तो आम तौर पर यह मान लिया जाता है कि इन बच्चों के पास शायद कहने के लिए ज़्यादा कुछ होता ही नहीं, इसी कारण ये बच्चे शिक्षक के साथ संवाद की प्रक्रिया का हिस्सा बन ही नहीं पाते।
मुझे लगता है हमें अपनी इस मान्यता पर संवेदनशीलता के साथ फिर से गौर करना चाहिए और यह भी देखना चाहिए कि बच्चों के बीच संवाद की बेहतर स्थितियाँ स्थापित करने की दिशा में एक शिक्षक क्या योगदान दे पाता है जिससे इन बच्चों को सहज अभिव्यक्ति के पर्याप्त अवसर मिल पाएँ। उनके विचार को सही या गलत ठहराने की बजाए उन्हें धैर्य-पूर्वक सुना जाए ताकि बच्चे ये महसूस कर पाएँ कि उनकी बात भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी बाकी सबकी। इससे उन्हें तर्क करने व कल्पना करने के अवसर मिल पाएँगे और वे अपने विचारों के माध्यम से कुछ नया सृजित करने की ओर बढ़ पाएँगे।
इस सन्दर्भ में कक्षा-4 के बच्चों के साथ पत्तियों पर किए काम का अनुभव मेरे लिए कई मायनों में विशेष रहा जिसे यहाँ साझा कर रही हूँ।
योजना
एक दिन आपसी बातचीत के दौरान शिक्षक के साथ तय किया कि कक्षा-4 के बच्चों के साथ पत्तियों को लेकर कुछ बातचीत शु डिग्री की जाए, क्योंकि ग्रामीण परिवेश में रहने के कारण खेत और फसलें इन सभी बच्चों के जीवन का अहम हिस्सा हैं। और पेड़-पौधों से जान-पहचान पाठ्यक्रम का भी हिस्सा है। ऐसा अहसास था कि इस विषय पर बच्चों के पास काफी सारे विचार हो सकते हैं और बच्चों के पूर्वानुभव से जाना जाए कि आखिर वे पत्तियों के बारे में किस तरह से सोचते हैं। जब बच्चों के साथ बातचीत शु डिग्री हुई तो पता ही नहीं चला और योजना का स्वरूप स्वत: ही बनता चला गया। तब समझ में आया कि सीखने की प्रक्रिया में बच्चों के अनुभव कैसे मददगार हो सकते हैं और बच्चों के साथ इस तरह का खुला संवाद सीखने की प्रक्रिया को वाकई सहज एवं जीवन्त बना सकता है!
पहला दिन
बच्चों से ‘पौधों में पत्तियों की भूमिका’ पर चर्चा की शुरुआत इस सवाल के साथ की गई - आखिर पत्तियाँ करती क्या हैं? बच्चों की प्रतिक्रियाएँ कुछ इस तरह से आईं-
* पत्ती हरी होती है।
* पत्तियों को जानवर खाते हैं।
* कुछ पत्तियाँ जैसे प्याज़, मेथी की सब्ज़ी बनाकर खाते हैं, तुलसी भी खाते हैं।
* पत्तियों से छाया रहती है।
* नीम की पत्तियों को उबाल कर नहाने से खुजली ठीक हो जाती है।
* और इन्हें जलाकर धुआँ करने से मच्छर नहीं आते।
गर्मियों का मौसम और तेज़ धूप का ध्यान आते ही कुछ बच्चों ने प्रतिक्रिया दी कि - पत्तियाँ तो पानी को बाहर फेंकने का काम करती हैं!
जब शिक्षक ने पूछा कि, “ये बात कितनी ठीक है, आखिर इसका पता कैसे लगाया जा सकता है?” तो इस पर कक्षा में एकदम खामोशी-सी छा गई। थोड़ी देर ज़रूर लगी पर पत्तियों की इस कारीगरी के बारे में जानने के लिए कुछ बच्चों ने एक क्रियाकलाप सुझाया (शायद उन्होंने पहले कहीं इस प्रयोग के बारे में पढ़ा-सुना हो) - किसी छोटे पौधे या टहनी पर पारदर्र्शी पॉलिथीन बाँध दी जाए। इससे पत्ती से जो पानी निकलेगा वह थैली के अन्दर ही इकट्ठा हो जाएगा।
कुछ बच्चों का विचार था कि यदि इस पौधे को पानी भी दे दिया जाए तो शायद कुछ अलग होगा।
इस पर कुछ बच्चों ने सवाल किया कि फिर सही बात का पता कैसे चलेगा कि पानी डालने से क्या हुआ है, और नहीं डालते तो क्या होता। आखिर में सभी ने मिलकर तय किया कि हमें दो पौधों पर पॉलिथीन बाँधनी चाहिए जिससे पूरी बात ठीक से पता चल पाए। साथ ही दोनों पौधे एक जैसे होने चाहिए। क्योंकि अलग-अलग तरह के पौधे होंगे तो उनकी पत्तियाँ छोटी-बड़ी होंगी, और वे कम या ज़्यादा पानी छोड़ सकती हैं।
तो जैसे तय हुआ था फाईकस (यानी गूलर, अंजीर समूह) के दो अलग-अलग पौधों पर पॉलिथीन बाँध दी गई। और इनमें से एक पौधे में 5-6 मग्गे पानी भी डाला गया। कुछ बच्चों का कहना था कि जिसमें पानी डाला गया है उस पौधे की पत्तियाँ बहुत ज़्यादा पानी छोड़ेंगी। पॉलिथीन बाँधने के बाद बच्चों द्वारा 10-15 मिनिट अवलोकन किया गया। बच्चों ने इस प्रक्रिया के दौरान कुछ इस तरह की प्रतिक्रियाएँ दीं -
* पौधे पर बँधी पॉलिथीन के अन्दर थोड़ी देर बाद ही भाप-सी जमा होने लगी है, और छोटी-छोटी बूँदें भी दिखाई देने लगी हैं।
* दूसरी पॉलिथीन को बाद में बाँधा गया है, इसलिए बूँदें आने में थोड़ा ज़्यादा समय लगा।
* पहले बाँधी गई पॉलिथीन के अन्दर ज़्यादा बूँदें आईं, क्योंकि पौधे का ज़्यादा हिस्सा पॉलिथीन के अन्दर था।
उस दिन काम को यहीं विराम दिया गया।
बच्चों का सवाल था - आखिर पानी कहाँ से आया होगा? इस सवाल को बच्चों के बीच ही छोड़ा गया जिनके कुछ कथन और कयास इस प्रकार थे: |
दूसरा दिन
बातचीत की शुरुआत पिछले दिन के प्रयोग पर बच्चों की प्रतिक्रियाओं से हुई -
* कुछ बच्चों का कहना था जिस पौधे में पानी डाला, उसकी थैली में गन्दा पानी इकट्ठा हुआ।
* कुछ का कहना था कि पौधे की पत्तियों से ही गन्दा पानी आया है।
* कुछ अन्य बच्चों का कहना था कि हमने ध्यान नहीं रखा, काम में ली गई थैली में आटा लगा हुआ था, इसलिए पानी गन्दा हो गया।
* दूसरी पॉलिथीन में छोटी बूँदें आईं, पानी भी कम इकट्ठा हुआ। ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि इस पॉलिथीन में पत्तियाँ कम थीं।
* जिस पौधे में पानी नहीं डाला था, उसमें ज़्यादा पानी आया क्योंकि इसमें पत्तियों की संख्या ज़्यादा थी।
इस चर्चा के बाद बच्चों का कहना था कि शायद हम प्रयोग ठीक तरह से नहीं कर पाए। इस प्रक्रिया को और ठीक से समझने के लिए हमें यह प्रयोग दोहराना चाहिए और इस बार हम इन बातों का ध्यान रखेंगे --
- पॉलिथीन बराबर आकार की हों। और बिलकुल साफ हों, फटी न हों।
- हर बाँधी जाने वाली पॉलिथीन के अन्दर पत्तियों की संख्या भी बराबर हो।
- बच्चों का सुझाव था कि हम एक ही पौधे की अलग-अलग टहनियाँ भी काम में ले सकते हैं।
- जो पौधे हम चुन रहे हैं, वे एक-दूसरे से दूर-दूर हों, ताकि कोई अन्य पौधा किसी और पौधे के हिस्से का पानी न सोख ले।
- पॉलिथीन को टाइट बाँधा जाए ताकि इकट्ठा होने वाला पानी बिलकुल भी न बह सके।
फिर एक और उलझन आई, जब शिक्षक ने पूछा कि, “यदि पौधा छाया में हो तो क्या होगा?” और “पौधा धूप में ही हो पर अगर बाँधे गए हिस्से पर एक भी पत्ती नहीं हो तो क्या होगा?”
इस पर कुछ बच्चों का विचार था कि दोनों ही स्थितियों में पानी नहीं इकट्ठा होगा पर सभी बच्चे इस बात पर सहमत नहीं थे। इसलिए आखिरकार यह तय किया गया कि एक ही जैसे 4 पौधों को चुनेंगे जिनमें से 2 धूप में व एक छाया में लगा हो। एक पौधा ऐसा लेंगे जिसका केवल तने वाला हिस्सा ही बाँधेंगे, जिस पर एक भी पत्ती न हो। योजनानुसार बच्चों ने मिलकर प्रयोग सैट करते हुए अवलोकन किए।
बच्चों के निष्कर्ष
दोबारा प्रयोग करने के बाद दोनों दिन के कार्य को लेकर बच्चों के साथ सामूहिक रूप से चर्चा की गई। पहले व दूसरे दिन के क्रियाकलाप को ध्यान में रखते हुए बच्चों ने अपने विचारों को इस तरह साझा किया --
* पौधे में पानी डालने या न डालने से पॉलिथीन में इकट्ठे होने वाले पानी की मात्रा पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
* अगर पत्तियों की संख्या बराबर हो तो निकलने वाले पानी की मात्रा भी बराबर होगी।
* बिना पत्ती वाले पौधे में पानी की एक-दो नन्ही बूँदें दिखीं पर ध्यान से देखा तो पता चला कि तने पर अंकुर फूट रहे थे। ये बूँदें उन्हीं अंकुरों पर दिखने वाली नन्ही पत्तियों की वजह से हो सकती हैं। यानी पानी तो शायद केवल पत्तियाँ ही छोड़ती हैं, तने या छाल से पानी बाहर नहीं आया है।
* छाया में रखे पौधे पर बाँधी गई पॉलिथीन में बिलकुल पानी दिखाई नहीं दिया।
* कुछ बच्चों ने कहा कि पानी जड़ों से तने तक आता है। तने से पत्तियों में आता है और फिर पत्तियों द्वारा बाहर निकल जाता है।
इस चर्चा के साथ इस कार्य को यहीं पर विराम दिया गया।
अनुभव पर चिन्तन
इस पूरे काम के दौरान मैंने काफी हद तक महसूस किया है कि बच्चे अपने आस-पास की चीज़ों पर काफी बारीकी से गौर करते हैं, साथ ही वे उतनी ही सतर्कता के साथ उन चीज़ों के बारे में सोच भी रहे होते हैं। ये अलग बात है कि (हम बड़ों की तुलना में) बच्चे अपनी दुनिया के दायरे को तेज़ी से विस्तार देने की प्रक्रिया में आगे बढ़ रहे होते हैं। अक्सर उनकी बातों को बड़ों द्वारा उतनी संजीदगी के साथ नहीं लिया जाता। पर यदि बच्चों को एक स्वस्थ संवाद की प्रक्रिया से गुज़रने का अवसर मिलता है तो उन्हें अपने अवलोकनों को और ध्यानपूर्वक एवं व्यवस्थित रूप से दर्ज करने की आवश्यकता महसूस होती है। बार-बार के अवलोकन और उन पर विमर्श कर पाने का मंच उनकी सोच-विचार की प्रक्रिया को उचित दिशा की ओर ले जाने के साथ उनमें कुछ और नया सृजित कर पाने की क्षमता को जन्म देता है।
इस पूरी प्रक्रिया में कहीं भी ऐसी कोशिश नहीं की गई कि बच्चों को वाष्पोत्सर्जन के बारे में बता दिया जाए। इसका उद्देश्य केवल बच्चों के साथ एक सार्थक संवाद स्थापित करना था जो शिक्षक के धैर्य और खुलेपन के कारण सम्भव हो सका। पर उम्मीद है कि ये बातचीत भविष्य में बच्चों को वाष्पोत्सर्जन की अवधारणा पर समझ बनाने में भूमिका निभाएगी। पूरे संवाद व कार्य-प्रक्रिया से गुज़रने के पश्चात् बच्चे स्वीकार कर रहे थे कि सिर्फ एक बार कुछ करने से हमें सब ठीक-ठीक पता चल जाए, यह बिलकुल ज़रूरी नहीं है। यहाँ बच्चों ने अपने ही एक सवाल के सम्भावित जवाब, अवलोकन और प्रयोग करते हुए खोजने की कोशिश की। साथ ही समस्या को हल करने के लिए कार्य-प्रक्रिया को बुनने का प्रयास भी किया। अवलोकन करते हुए अपने काम में रही कमियों को चिन्हित कर पाए। इसके लिए नए प्रयोग को गढ़ने के साथ-साथ उन्हें संचालित करके भी देखा। यहाँ बच्चों ने अनुभव, अनुमान से शु डिग्री करके, तर्कपूर्ण ढंग से सोचते हुए बार-बार अवलोकन व विश्लेषण के माध्यम से गुज़रते हुए अपने निष्कर्ष बनाने तक का सफर जिस तरह से तय किया, मेरे लिए यह काफी उत्साहित करने वाला रहा।
ऐसा महसूस होता है कि बच्चे सीखने को भरपूर ढंग से जीते हैं, अगर सहज माहौल दिया जाए जहाँ हर बच्चे को आज़ादी हो अपना मनचाहा सवाल पूछने की और उसके लिए अपने-अपने अनुमानित जवाब बताने की। इससे बच्चों में अपनी बात कहने का आत्मविश्वास भी आता है और वे अन्य सभी को ध्यान से सुनना भी सीख रहे होते हैं। बच्चों की प्रतिक्रियाएँ हमें ये देख पाने में मदद करती हैं कि उन्होंने शिक्षक की बात को किस तरह आत्मसात किया है। अगर हम यह बात पकड़ पाते हैं तो फिर उनके जवाब पर गलत या सही का ठप्पा लगाने की ज़रूरत नहीं रह जाती। पर बतौर एक शिक्षक हम कितना गौर कर पाते हैं इस बात पर कि -- आखिर बच्चे क्या कह रहे हैं और यही बात क्यों? काम के दौरान शायद एक शिक्षक की चिन्ता इस बात के लिए ज़्यादा होती है कि बच्चे कितना सीख रहे हैं या फिर क्यों नहीं सीख रहे हैं! पर कैसे सीख रहे हैं इस पर अमूमन ध्यान कम ही जाता है।
बच्चों से बातचीत की प्रक्रिया में अगर खुलापन हो और बच्चों को भी उतनी ही स्वतंत्रता हो जितनी एक शिक्षक को होती है तो चर्चा सीखने की प्रक्रिया में मज़ेदार भूमिका निभा सकती है। पर ऐसी किसी पहल के लिए शिक्षक को ही साहस करना होगा।
अलका तिवारी: अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, टोंक (राजस्थान) में कार्यरत हैं। विज्ञान से जुड़े मुद्दों पर अध्ययन व विमर्श में विशेष रुचि।
सभी चित्र: तनुश्री: आई.डी.सी., आई.आई.टी. बॉम्बे से एनीमेशन में स्नातकोत्तर। स्वतंत्र रूप से एनीमेशन फिल्में बनाती हैं और चित्रकारी करती हैं।