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सवाल: उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव में ही बर्फ का जमावड़ा क्यों होता है? 

जवाब: वैसे बर्फ का जमावड़ा उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव में सबसे ज़्यादा तो है लेकिन वर्तमान में उष्णकटिबन्धीय हिमालय पर्वत माला और भूमध्य रेखा पर स्थित तंज़ानिया की किलिमंजारो पर्वत पर भी बर्फ का जमावड़ा दिखता है। यानी कि अधिकतर उच्च अक्षांश और पहाड़-पठार की ऊँचाइयों पर ही बर्फ का जमावड़ा दिखता है। यह इसलिए कि ऐसी जगहों पर अन्य जगहों की तुलना में ठण्ड ज़्यादा होती है और सालभर का औसत तापमान इतना कम होता है कि जो बर्फ गिरती है वह पूरी तरह से पिघल नहीं पाती।
लेकिन पूरे पृथ्वी के औसत तापमान का भी असर होता है बर्फ के क्षेत्रफल पर। बहुत पहले, जब औसत तापमान आज से कम था, पृथ्वी पर बर्फ का जमावड़ा इससे अधिक व अन्य जगहों पर भी रहा है। पृथ्वी के तापमान के बढ़ते ज़्यादातर जगहों से बर्फ पिघल चुकी है। चूँकि कम अक्षांशों की तुलना में ध्रुवों और पहाड़ की ऊँचाइयों पर ज़्यादा ठण्ड रहती है, यहाँ पर बर्फ का जमावड़ा अब भी दिखता है।
ध्रुवों पर ज़्यादा ठण्ड क्यों?

पृथ्वी पर भूमध्य रेखा से ध्रुवों की तरफ जाते हैं तो औसत तापमान घटता जाता है। इसके दो कारण हैं। ऊँचे अक्षांशों पर पृथ्वी की वक्रता के कारण सूरज से उतनी ही रोशनी ज़्यादा क्षेत्रफल पर पड़ती है (चित्र-1)। यह भी कह सकते हैं कि उतने ही क्षेत्रफल में सूरज की ऊर्जा कम मात्रा में पहुँचती है जिस कारण तापमान भी कम ही रहता है।
इतना ही नहीं, साल में कुछ महीनों के लिए ध्रुवों पर सूरज उगता ही नहीं है - चौबीसों घण्टे अँधेरा रहता है। पृथ्वी का एक गोलार्ध जब सूरज से विपरीत झुका होता है, तो कुछ समय के लिए उस गोलार्ध के ध्रुव पर सूरज की किरणें बिलकुल नहीं पड़ती हैं (चित्र-2)। यह पृथ्वी के अक्ष के झुकाव के कारण होता है और ऐसे में उस ध्रुव पर सर्दी होती है। इन महीनों में बर्फ गिरती-जमती जाती है। जब यही ध्रुव साल के कुछ महीनों के लिए सूरज की तरफ झुका रहता है तब यहाँ लम्बे समय के लिए सूर्यास्त नहीं होता। ऐसे में वहाँ गर्मी का मौसम होता है और बर्फ पिघलती है।

जब पृथ्वी का औसत तापमान इतना गिरता है कि सर्दियों में काफी ज़्यादा बर्फबारी होती है जो गर्मियों में पूरी तरह पिघलती नहीं है, तो अगली सर्दी में इस न पिघले बर्फ के कारण वहाँ का तापमान पहले से कम हो जाता है। यह इसलिए कि सफेद रंग के कारण सूरज की किरणें काफी हद तक बर्फ से परावर्तित हो जाती हैं। इसे ऐल्बीडो इफेक्ट कहते हैं (समुद्र का पानी सिर्फ 6 प्रतिशत रोशनी परावर्तित करता है और बर्फ 50 से 70 प्रतिशत)। तो इस इफेक्ट के कारण अगली सर्दी में गिरने वाली बर्फ इस बर्फ के ऊपर जमती जाती है। ऐसे साल-दर-साल बर्फ का जमावड़ा बढ़ता है और इसके बढ़ते क्षेत्रफल के साथ, ऐल्बीडो इफेक्ट की वजह से परावर्तन ज़्यादा होता है, और इस तरह बर्फ का जमावड़ा बढ़ता जाता है। यह एक पोज़िटिव फीडबैक चक्र का बहुत ही स्पष्ट उदाहरण है।

ऊँचाइयों पर ज़्यादा ठण्ड क्यों?

सतह से जितना ऊँचा जाते हैं, हवा का दबाव कम होता जाता है, हवा कम घनी होती जाती है। और जितनी विरल हवा, उसमें उतना कम पदार्थ। गर्मी की मात्रा, पदार्थ की मात्रा से जुड़ी है। ऊँचाइयों पर हवा की इकाई में कम पदार्थ और कम गर्मी होती है। जब कम गर्मी के कारण बर्फ गिरती-जमती है तो उसका जमावड़ा होने लगता है, कुछ ऐसे ही जैसे ध्रुवों पर होता है। इसी कारण हिमालय और किलिमंजारो पर, जो बहुत ही ऊँची पर्वत  ाृंखलाएँ हैं, बर्फ का जमावड़ा पाया जाता है।
तो हमने देखा कि बर्फ तो किसी भी अक्षांश पर जम सकती है। और पृथ्वी पर बर्फ का जमावड़ा सालभर या कई सालों के अर्से में कहाँ-कहाँ पाएँगे, इसका हमें पता चलता है स्नो-लाइन की अवधारणा से।

जलवायु स्नो-लाइन

स्नो-लाइन वह काल्पनिक रेखा है जिससे हम टिकाऊ बर्फ (permanent snow cover) की सीमा को जान सकते हैं। स्नो-लाइन मानचित्रों पर उन जगहों को जोड़ते हुए एक लकीर के रूप में बनाई जाती है जहाँ सालभर में जितनी बर्फ गिरती है, उतनी ही पिघलती या वाष्पित होती है। तो धरती हो या समुद्र, बर्फ के जमावड़े का आखिरी छोर है स्नो-लाइन। ऐसा भी कह सकते हैं कि किसी जगह पर यह रेखा वो ऊँचाई है जिससे अधिक ऊँचाई पर सालभर थोड़ा-बहुत बर्फ ज़मीन पर रहता ही है।

पर्वत का नाम अक्षांश स्नो-लाइन की ऊँचाई (लगभग)
माउन्ट कैन्या      0o  4600-4700 m
हिमालय 28oN          6000 m
हिमालय (काराकोरम) 36oN  5400-5800 m
ऐल्प्स  46oN  2700-2800 m
आइसलैण्ड 65oN   700-1100  m 
स्वाल्बार्ड      78oN      300-600 m

तालिका-1: विभिन्न अक्षांशों पर स्नो-लाइन की ऊँचाई। आम तौर पर अक्षांश बढ़ने के साथ-साथ स्नो-लाइन कम ऊँचाई पर पाई जाती है। परन्तु कहीं-कहीं कम अक्षांश (जैसे माउन्ट कैन्या) पर स्नो-लाइन अपेक्षाकृत कम ऊँचाई पर मिल जाती है क्योंकि वहाँ पर बारिश ज़्यादा होती है यानी मौसम अधिक गीला रहता है।

स्नो-लाइन हर अक्षांश पर बन सकती है। भूमध्य रेखा पर स्नो-लाइन काफी ऊँचाई पर होगी और ध्रुवों पर कम ऊँचाइयों पर। लेकिन किसी एक जगह पर स्नो-लाइन ऊँचाई ही नहीं, कई अन्य कारकों से प्रभावित होती है। उदाहरण के लिए, ध्रुवों पर - जहाँ तापमान आम तौर पर कम रहता है - स्नो-लाइन कम ऊँचाइयों पर पाई जाती है और भूमध्य रेखा पर ज़्यादा ऊँचाई पर (तालिका-1)। पहाड़ियों पर जहाँ दोपहर में सूरज की किरणें पड़ती हैं और जहाँ पानी कम गिरता है, वहाँ स्नो-लाईन अधिक ऊँचाइयों पर होती है। व्यापक स्तर और हज़ारों-लाखों सालों के समय-अन्तराल पर यह लाइन तापमान में बदलाव के साथ जुड़े पृथ्वी के घटते-बढ़ते बर्फ के आवरणों के बारे में हमें बताती है (जैसे चित्र-3 में दिया गया है)।

 

आइस-कोर से पृथ्वी की जलवायु का इतिहास

अन्टार्कटिका, ग्रीनलैण्ड व तिब्बत जैसी ऊँची, बर्फीली जगहों पर हज़ारों-लाखों साल से हिमनदियाँ यानी ग्लेशियर मौजूद रहे हैं और बर्फ का जमावड़ा बना हुआ है। हर साल यहाँ बर्फ गिरती व जमती है। जब यह बर्फ जमती है तो उसके साथ हवा के कई घटक जैसे धूल, विभिन्न गैस, प्रदूषण इत्यादि भी लगातार और नियमित रूप से इसमें दर्ज होते जाते हैं। बर्फ के सबसे नीचे वाले हिस्से में सबसे पुराने पदार्थ मौजूद हैं। सतह से कुछ गहराइयों पर जिस बर्फ में लाखों-अरबों सालों से तोड़-फोड़ नहीं हुई है, उससे हम अतीत के पर्यावरण के बारे में काफी कुछ जान सकते हैं। आइस-कोर बर्फ की एक बेलनाकार लम्बाई है जिसके रासायनिक परीक्षण से हम ऐसा कर पाते हैं। वैज्ञानिक बहुत ही सावधानी के साथ आइस-कोर के एक बेलनाकार टुकड़े को लेकर उसे हिस्सों में बाँट लेते हैं। हर हिस्से की उम्र और उसमें फँसे धूल-गैस की जाँच करते हैं। इस तरीके से पृथ्वी के इतिहास के तापमान, बारिश, जंगल के स्वरूप, समुद्र की जैव-विविधता इत्यादि का अनुमान लगाया जाता है। आइस-कोर के अध्ययन के ज़रिए हम पृथ्वी की आज से आठ लाख साल पहले की जलवायु के बारे में भी जान सके हैं।

उथले आइस-कोर (100-300 मीटर) से हमें पिछले कुछ सैकड़ों सालों कीजलवायु का पता चलता है। सबसे लम्बे आइस-कोर 3 कि.मी. की गहराई से लिए गए हैं। ऐसे आइस-कोर को ड्रिल करने के लिए एक साल से भी अधिक समय लगता है। आइस-कोर की रासायनिक जाँच भी काफी जटिल होती है क्योंकि आम तौर पर उसमें मौजूद पदार्थ काफी कम मात्रा में पाए जाते हैं।


हिमयुग और बर्फ के आवरण का बढ़ना-घटना
पृथ्वी का औसत तापमान हमारे जीवनकाल में बहुत ही कम बदला है, हालाँकि कुछ ही डिग्री तापमान के बदलाव से जलवायु काफी प्रभावित हो सकती है। परन्तु हज़ारों-लाखों साल के समय-अन्तराल में पृथ्वी का औसत तापमान इतना बदलता रहा है कि बर्फ का जमावड़ा आज से कहीं अधिक या कम भी होता रहा है।

पृथ्वी के इतिहास पर हुए शोध से हमें यह पता है कि हमारा यह ग्रह पाँच हिमयुगों से गुज़र चुका है। आज भी हम एक हिमयुग से ही गुज़र रहे हैं जो कुछ 25 लाख साल पहले शु डिग्री हुआ था। किसी भी हिमयुग में अधिक व कम ठण्डक के काल बारी-बारी से आते-जाते हैं। ये हिमाच्छादन व अन्तर-हिमानी काल (glaciations and inter-glacial periods) कहलाते हैं। इस हिमयुग में भी शु डिग्री के 15 लाख साल में हर 41,000 साल मौसम काफी हद तक बदलता था। हिमानी काल में बर्फ की परतें बढ़ती-फैलती थीं फिर 41,000 साल बाद पिघलती-घटती थीं। लेकिन पिछले 10 लाख सालों से मौसम इसी चक्रीय तरीके से ज़्यादा अवधि पश्चात् - हर एक लाख साल में बदलता रहा है। यानी कि हर लाख साल बर्फ की परतें बढ़ती हैं, फिर घटती हैं। ऐसा है कि हर 41,000 साल पृथ्वी के अक्ष का झुकाव 21.5 डिग्री से 24.5 डिग्री हो जाता है और अगले 41,000 सालों में वापिस 21.5 डिग्री पर आ जाता है। हर 1,00,000 साल पृथ्वी का सूरज के चक्कर काटने वाला कक्ष 5% कम या ज़्यादा अण्डाकार हो जाता है। तो ऐसा लगता है कि तापमान में ये परिवर्तन खगोलीय चक्रों पर निर्भर हैं।

पिछले कुछ 12,000 सालों से हम एक अन्तर-हिमानी काल से गुज़र रहे हैं। यह एक प्रमुख कारण है पृथ्वी के तापमान के बढ़ने और ध्रुवों पर बर्फ के पिघलने-घटने का। शोध से हमें यह भी पता है कि मनुष्यों द्वारा प्रदूषण के कारण हो रहे ग्लोबल वॉर्मिंग का भी ध्रुवों की बर्फ पिघलने में योगदान है।
वैज्ञानिकों के अनुमान के मुताबिक मनुष्यों के जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव के बावजूद यह अन्तर-हिमानी काल खत्म होगा और पृथ्वी अगले हिमयुग में ज़रूर जाएगी। तो वर्तमान में बर्फ का जमावड़ा भविष्य में बदलेगा ज़रूर।


इस जवाब को विनता विश्वनाथन ने तैयार किया है।

विनता विश्वनाथन: ‘संदर्भ’ पत्रिका से सम्बद्ध हैं।


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