सुशील जोशी     [Hindi PDF, 106 kB]

यदि कोई आपसे कहे कि जो जानकारी आज आप सत्य मानकर स्वीकार कर रहे हैं, वह अगले कुछ सालों में गलत ठहराई जा सकती है, तो पता नहीं आपको कैसा लगेगा। बहरहाल, आपको जैसा भी लगे मगर तथ्य यह है कि विज्ञान में जानकारी लगातार बदलती रहती है, पुरानी जानकारी या तो अर्थहीन हो जाती या गलत साबित हो जाती है। उदाहरण के लिए जिन लोगों ने 1956 से पहले जीव विज्ञान की पढ़ाई की होगी, उन्हें यही पढ़ाया गया होगा कि सामान्य मानव कोशिका में गुणसूत्रों की संख्या 48 होती है। दिक्कत यह है कि 1956 में यह पता चला था कि मानव कोशिका में गुणसूत्रों की संख्या 46 ही होती है। यहाँ उन प्रयोगों और अवलोकनों के इतिहास में नहीं जाएँगे जिनकी मदद से पहले 48 और बाद में 46 गुणसूत्रों की जानकारी प्राप्त की गई थी।

गुणसूत्र आनुवंशिक सूचना के वाहक होते हैं। यह सूचना डीएनए नामक रसायन के रूप में संचित होती है। दिलचस्प बात यह है कि इस डीएनए की आणविक संरचना का खुलासा 1953 में हो चुका था। यानी हम यह तो जान चुके थे कि डीएनए एक दोहरी कुण्डली के रूप में पाया जाता है मगर गुणसूत्रों की ‘सही’ संख्या का पता इसके तीन साल बाद ही चला था।
हाल ही में हार्वर्ड विश्वविद्यालय के फेलो और एविंग मेरिअन काउफमैन फाउंडेशन के वरिष्ठ शोधकर्ता सेमुअल आर्बेसमैन की पुस्तक दी हाफ लाइफ ऑफ फैक्ट्स प्रकाशित हुई है। यह आलेख उसी पुस्तक में प्रस्तुत जानकारियों पर आधारित है।

नई जानकारियाँ और पाठ्यक्रम
गुणसूत्रों की संख्या में यह बदलाव आश्चर्य का विषय नहीं है; कम-से-कम वैज्ञानिकों के लिए तो बिलकुल भी नहीं, जो मानते हैं कि विज्ञान का प्रमुख लक्ष्य सत्य के करीब पहुँचना है और इसलिए इसकी सूचनाओं व व्याख्याओं में निरन्तर परिवर्तन अपरिहार्य हैं। दिक्कत तो विज्ञान पढ़ाने वालों को है। जब भी कोई नई जानकारी आती है, उसे पाठ्य पुस्तकों में शामिल करने की ताबड़तोड़ कोशिश की जाती है।

छात्रों को नवीनतम जानकारी से परिचित कराना तो गलत नहीं कहा जा सकता मगर जिस ढंग से पाठ्य पुस्तकें वैज्ञानिक जानकारी को प्रस्तुत करती हैं उससे अन्तिम सत्य का एहसास मिलता है। छात्र कभी तैयार नहीं होते कि शायद आगे चलकर इसमें से काफी सारी जानकारी में संशोधन/फेरबदल सम्भव है या शायद उसे पूरी तरह अस्वीकार करने की ज़रूरत पड़ सकती है।

पाठ्यक्रमों में जानकारी को ठूँस-ठूँसकर भरने के पीछे तर्क यही होता है कि विज्ञान में तेज़ प्रगति के चलते ‘जानकारी का विस्फोट’ हो रहा है और यदि यह जानकारी पाठ्यक्रम में शामिल न की गई तो छात्र पिछड़ जाएँगे। विज्ञान में प्रगति की तेज़ रफ्तार दरअसल इस तर्क को झुठलाती है। कोशिश तो यह होनी चाहिए कि छात्र नित नई जानकारी को सम्भालने व उसका उपयोग करने में समर्थ बनें, न कि आज उपलब्ध जानकारी को अन्तिम सत्य मानकर रट लें।

विज्ञान में तथ्यों की उम्र
विज्ञान में जानकारी के विस्फोट की बात पाठ्यक्रम निर्माताओं के बीच सदा से सरोकार का विषय रही है। हाल ही में हुए कुछ अध्ययनों ने इस विस्फोट को सर्वथा नए परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। अध्ययन इस बात को लेकर हुए हैं कि विज्ञान में कोई तथ्य कितने समय में बासी पड़ जाता है या गलत साबित हो जाता है।

ऐसा एक अध्ययन पेरिस के पिटिए-सालपेट्रिएर् अस्पताल में थिएरी पोयनार्ड और उनके साथियों द्वारा किया गया है। पोयनार्ड और उनके साथियों ने अपना ध्यान लीवर की दो बीमारियों पर केन्द्रित किया - सिरोसिस और हिपेटाइटिस। उन्होंने पिछले 50 वर्षों में इन विषयों पर प्रकाशित करीब 500 आलेख इकट्ठे करके विशेषज्ञों के एक पैनल को छानबीन के लिए सौंप दिए। हर विशेषज्ञ को यह बताना था कि कोई शोध पत्र आज तथ्यात्मक है, बासी पड़ चुका है या गलत साबित हो चुका है।

उन्होंने अपने अध्ययन के परिणाम एनल्स ऑफ इंटर्नल मेडिसिन में प्रकाशित किए हैं। विशेषज्ञों के आकलन के आधार पर उन्होंने एक चार्ट बनाया (जो नीचे दिया गया है) जिसमें यह स्पष्ट नज़र आता है कि कितनी तथ्यात्मक विषयवस्तु पिछले एक दशक भर टिकी रही। इस चार्ट से एक दिलचस्प बात पता चली: उन शोध पत्रों की संख्या में लगातार गिरावट जो आज भी वैध हैं। इसके अलावा चार्ट की मदद से वे तथ्यों की ‘अर्द्धायु’ की गणना भी कर पाए। यानी कितनी अवधि में आधे तथ्य गलत साबित हो जाते हैं। यह अवधि 45 वर्ष आई। यानी सिरोसिस और हिपेटाइटिस के बारे में चिकित्सकीय जानकारी में से करीब आधी 45 वर्षों में बासी पड़ जाती है या गलत साबित हो जाती है।

वैसे एक बात गौरतलब है। जैसे-जैसे कोई विषय या शोध-क्षेत्र परिपक्व होता जाएगा ‘अर्द्धायु’ में परिवर्तन होगा, तथ्य शायद ज़्यादा समय तक टिके रहेंगे या शायद और भी जल्दी-जल्दी बदलेंगे। मगर इससे इतना तो पता चलता ही है कि ज्ञान का क्षय होता है।
इस चार्ट के आधार पर पक्के तौर पर यह तो नहीं कहा जा सकता कि कौन-सा शोध पत्र कितनी देर में बासी पड़ेगा मगर कुल जानकारी के बारे में ज़रूर कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।

इसी प्रकार का एक अध्ययन सर्जरी के बारे में पहले हो चुका है। लैंसेट में प्रकाशित इस अध्ययन में ऑस्ट्रेलिया के दो सर्जन्स ने पाया था कि सर्जरी के क्षेत्र में भी लगभग आधे तथ्य 45 वर्ष की अवधि में गलत साबित हो जाते हैं।

सन्दर्भ उल्लेख बनाम प्रभाव
अब यह तो सम्भव नहीं है कि विज्ञान में अतीत के सारे निष्कर्षों के बारे में ऐसे चार्ट बनाकर अध्ययन किए जाएँ। लिहाज़ा, इसका एक थोड़ा अलग तरीका निकाला गया है। जब कोई शोध पत्र छपता है, तो उसके महत्व के अनुसार अन्य शोध पत्रों में उसका उल्लेख किया जाता है। किसी शोध पत्र का उल्लेख जितने अधिक शोध पत्रों में हो, उसे उतना ही महत्वपूर्ण या प्रभावशाली शोध पत्र माना जाता है। यानी ‘सन्दर्भ उल्लेख’ शोध पत्रों के प्रभाव को नापने का एक तरीका है।

किसी शोध पत्र की सत्यता के क्षय को नापने का एक तरीका यह हो सकता है कि किसी विषय में एक औसत शोध पत्र का उल्लेख किया जाना कितनी देर में बन्द हो जाता है। उल्लेख बन्द होने का मतलब यह है कि या तो उस शोध पत्र में किसी की रुचि नहीं रही या नवीन शोध के चलते उसका खण्डन हो चुका है या शायद वह इतना स्थापित तथ्य हो चुका है कि उसके लिए किसी सन्दर्भ उल्लेख की ज़रूरत ही नहीं रह गई है।

बहरहाल, उल्लेखों के आधार पर भी कई क्षेत्रों में तथ्यों की ‘अर्द्धायु’ की गणना की जा सकती है। उदाहरण के लिए, फिज़िकल रिव्यू पत्रिकाओं में प्रकाशित समस्त शोध पत्रों के अध्ययन से पता चला कि भौतिकी में ‘अर्द्धायु’ मात्र 10 साल के लगभग है। फिज़िकल रिव्यू काफी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं का समूह है। इसी प्रकार से 2008 में सिमन्स कॉलेज के रॉन्ग टैंग ने प्रतिष्ठित पुस्तकों के एक विश्लेषण में पाया था कि भौतिकी में ‘अर्द्धायु’ करीब 13.7 वर्ष है। यह अर्थशास्त्र, गणित, मनोविज्ञान और इतिहास से ज़्यादा है।

यहाँ एक बात का ध्यान रखना ज़रूरी है। ‘अर्द्धायु’ सम्बन्धी उपरोक्त आँकड़े औसत हैं। कुछ तथ्य जल्दी बासी पड़ते हैं जबकि कुछ लम्बे समय तक तरोताज़ा बने रहते हैं। इससे एक मुद्दा यह उभरता है कि हमारे पास यह जानने का कोई तरीका होना चाहिए कि किन तथ्यों के ज़्यादा लम्बे समय तक कायम रहने की सम्भावना है। इसी आधार पर हम तय कर पाएँगे कि जानकारी के आधार पर कार्यवाही कैसे करें।

रोज़मर्रा के बदलते तथ्य
खास तौर से यह बात उन तथ्यों के बारे में महत्वपूर्ण हो जाती है जिनका उपयोग आम लोग करते हैं। जैसे आहार सम्बन्धी जानकारी। सन्तुलित आहार क्या है, वसा का कितना उपयोग उचित है, नमक कितना खाना ठीक रहेगा वगैरह ऐसी जानकारियाँ हैं जो रोज़मर्रा के जीवन में महत्व रखती हैं। देखा जाए, तो पिछले वर्षों में इस तरह की जानकारी में निरन्तर बदलाव आता रहा है। इसके आधार पर चिकित्सकों द्वारा दी जाने वाली सलाह भी बदलती रहती है। दरअसल, कई चिकित्सा शिक्षा कार्यक्रमों में अब छात्रों को यह बताया जाने लगा है कि जो कुछ वे आज सीख रहे हैं उस पर निरन्तर पुनर्विचार की ज़रूरत होगी और इसलिए उन्हें भी निरन्तर अध्ययन करते रहना होगा।

मिथकीय तथ्य
इस सन्दर्भ में आर्बेसमैन ने सबसे सुन्दर उदाहरण डायनासौर के विषय में दिया है। वे कहते हैं कि बचपन से वे डायनासौर के बारे में एक ऐसी जानकारी को सत्य मानते आए थे जो वास्तव में गलत थी। यह जानकारी थी कि ब्रांटोसौरस नामक एक डायनासौर कभी अस्तित्व में रहा था। यह तो उन्हें बाद में पता चला कि लम्बी गर्दन और छोटे-से सिर वाला यह जीव एक चित्र मात्र है। और इसका वास्तविक नाम एपेटोसौरस है। दरअसल 1978 में दो पुराजीव वैज्ञानिकों ने पाया था कि जिस कंकाल की मदद से ब्रांटोसौरस प्रजाति को पहचाना गया था उसकी गर्दन पर जो सिर रखा दिखता है, वह वास्तव में एक अन्य शाकाहारी डायनासौर का है, शेष शरीर एपेटोसौरस का है। जैव-विकास के लम्बे इतिहास में ब्रांटोसौरस का कभी कोई अस्तित्व ही नहीं था। मगर ब्रांटोसौरस का मिथक इतना लोकप्रिय हुआ कि उसकी एक्सपायरी तारीख निकलने के बाद भी वह जीवित है।


सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।
सभी चित्र: बोस्की जैन: सिम्बायोसिस ग्राफिक्स एंड डिज़ाइन कॉलेज, पुणे से ग्राफिक्स डिज़ाइन में स्नातक। एकलव्य के डिज़ाइन समूह के साथ जुड़ी हैं। भोपाल में निवास।
यह लेख स्रोत फीचर्स के अंक फरवरी, 2013 से लिया गया है।