नाज़िया मुलाणी और अंजुम आरा
अनुवाद: माधव केलकर [Hindi PDF, 397 kB]
हम पूना के शासकीय उर्दू अध्यापक महाविद्यालय के द्वितीय वर्ष की छात्राएँ हैं। चार महीने के बाद शिक्षक के रूप में इस कॉलेज से बाहर निकलेंगे। हमारे प्राचार्य हमें शिक्षा सम्बन्धी विविध लेख ‘पालकनीति’ या इस जैसी और पत्रिकाओं में से पढ़कर सुनाते हैं। हमारी कक्षा में उन लेखों पर चर्चा भी होती है। शिक्षकों के अनुभवों से सम्बन्धित लेख पढ़ते हुए बार-बार ऐसा लगता है कि हमें शिक्षक बनने के बाद बच्चों को इन तरीकों को अपनाते हुए पढ़ाना चाहिए।
इस साल हमारे पाठ्यक्रम में प्रोजेक्ट वर्क भी है। प्रोजेक्ट्स के बारे में जब तफसील से जाना तो हम लोग हड़बड़ा गए थे। समझ में नहीं आया कि हमसे शोधकार्य क्यों अपेक्षित है। हमारे शिक्षकों ने हमें काफी सहज और सरल तरीके से बताया कि जब शिक्षक के रूप में काम शु डिग्री करेंगे तो हमें कक्षा में विविध समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। उनका सुझाव था कि उस तरह की समस्याओं में से किसी एक को चुनकर हम उस पर अपना लघु शोध-प्रबन्ध तैयार करें। हमसे सीनियर छात्राओं ने भी बच्चों के हस्तलेख, पहाड़े रटना, हिज्जों को याद करना - ऐसी ही कुछ समस्याओं पर अपने प्रोजेक्ट तैयार किए थे। शिक्षक बने बिना समस्याओं की पहचान किस तरह की जाए? बिना जाँच किए समस्या का निदान सही है या नहीं - यह कैसे पता चलेगा, ऐसे ही कुछ सवाल हमें परेशान कर रहे थे।
प्रोजेक्ट का चयन
इन सवालों को देखकर हमारी प्राचार्या महोदया ने महाविद्यालय परिसर में स्थित कन्या शाला के शिक्षकों के साथ हमारी एक बैठक आयोजित की। शुरू में ही यह तय हो गया था कि हमें इस पाठशाला की लड़कियों की समस्याओं पर काम करना है। बैठक के दौरान स्कूल के हरेक शिक्षक ने अपनी कक्षा में पढ़ाई में पिछड़ रही लड़कियों की संख्या और विविध विषयों के किन टॉपिक्स में पिछड़ रही हैं, इसके बारे में विस्तार से बताया। देखते-ही-देखते समस्याओं की लम्बी सूची तैयार हो गई।
जब शिक्षक ही इन समस्याओं का निदान नहीं कर पाए तो हम किस तरह पार पाएँगे, यह सवाल हमें परेशान करने लगा। हमारी प्राचार्या ने एक-दो उदाहरण सामने रखते हुए बताया कि किसी समस्या को समझने के लिए उससे जुड़े सभी पहलुओं पर विचार करते हुए समग्रता से समझना पड़ता है।
कक्षा तीन की कुछ लड़कियों को पढ़ना नहीं आता था, इस पर चर्चा में पढ़ने के विविध चरणों की बात समझ में आई। उर्दू में कुछ लड़कियों को कुछेक अक्षरों की ठीक से पहचान नहीं थी, ये अक्षर जब शब्दों में आते थे तो उन्हें पढ़ नहीं पाती थीं। चर्चा से स्पष्ट हुआ कि उर्दू में स्वतंत्र अक्षरों (मूलाक्षर) का आकार और उन्हीं अक्षरों का शब्दों में आने पर आकार काफी बदल जाता है। सम्भव है, इसकी वजह से अक्षर को पहचानने में दिक्कत होती हो। कुछ लड़कियों को संयुक्त अक्षरों को पढ़ने में दिक्कत थी तो कुछ को वाक्य पढ़ने में। पहली बार हमने इतने विस्तार से इन सब बातों पर गौर किया था।
पिछड़ रही लड़कियों के बारे में सोच-विचार करते समय यह बात ध्यान में आई कि इसी तरह की मिलती-जुलती समस्याओं वाली लड़कियाँ कक्षा दूसरी में, चौथी में और पाँचवीं में भी हैं। फिर यह तय हुआ कि लड़कियों पर कक्षा-वार विचार करने की बजाय समस्या की पायदान को ध्यान में रखकर उनके हिसाब से आठ या दस लड़कियों के छोटे समूहों के साथ हम लोग काम करें। हमारी कक्षा की तकरीबन 29 प्रशिक्षु छात्राओं ने अपनी पसन्द के हिसाब से समस्या को चुना।
हम दोनों (यानी नाज़िया और अंजुम) ने कक्षा सातवीं की गणित में पिछड़ रही तेरह लड़कियों के साथ काम करने के प्रोजेक्ट को चुना। इन लड़कियों को जोड़-घटा और गुणा-भाग की गणितीय क्रिया में दिक्कत होती है, ऐसा इनके शिक्षक ने बताया था। इनमें से ज़्यादातर को जोड़ना और गुणा करना तो कुछ हद तक आता था लेकिन घटाने और भाग देने सम्बन्धी जटिल सवाल या इबारती सवाल नहीं कर पाती थी। इस वजह से आगे के बीजगणित, समीकरण, ब्याज निकालना, लाभ-हानि के सवाल कितने भी समझाए जाएँ लड़कियों को समझ में नहीं आते थे। यह बात भी हमें शिक्षक ने ही बताई थी।
क्या पढ़ाएँ, कैसे पढ़ाएँ?
शिक्षकों के साथ हुई बैठक के अगले दिन हम अपने कुछ सवाल लिखकर लाए और अपनी प्राचार्या को बताया कि किसी छोटी समस्या पर गहराई में जाकर काम करने का हमने विचार बनाया है। हमने प्राचार्या को बताया कि लड़कियों की किसी खास समस्या पर काम करने के लिए हमें पचास से साठ पीरियड मिलने वाले हैं। तो हम इन तेरह लड़कियों को जोड़-घटा या गुणा-भाग में से पक्के तौर पर क्या-क्या सिखा सकते हैं? शुरुआत कहाँ से कैसे करें, इस पशोपेश में पड़े थे हम। प्राचार्या महोदया ने हमारी किसी भी बात का सीधा जवाब नहीं दिया। वे हमसे ही विविध सवाल करती रहीं। इनमें से ज़्यादातर के जवाब हम सहजता से दे पाए। उन्होंने जो आखिरी सवाल हमसे किया वही हमारे मुख्य सवाल के जवाब की राह दिखा गया। अपनी पढ़ाई के दौरान मूल्यांकन के बारे में पढ़ते समय हमने प्रश्नावली (क्वेशचनेयर) के बारे में पढ़ा था। हम ऐसी ही एक प्रश्नावली के मार्फत, वे लड़कियाँ गणित की मूलभूत क्रियाओं में किस स्तर पर हैं, यह मालूम करने वाले थे।
हमने एक प्रश्नावली तैयार की। इसमें हमने दो अंकों वाली संख्याओं में हासिल और बिना हासिल वाले जोड़ और घटाने के सवालों से शुरुआत की थी। इसमें भी क्रमश: सरल से कठिन सवालों की ओर बढ़ते गए। प्रश्नावली के अन्त में इबारती जोड़-घटा और गुणा-भाग के सवाल रखे गए थे।
प्रश्नावली तेरह लड़कियों को दी गई। हमने उन तेरह लड़कियों से मिले जवाबों की विस्तृत तालिका बनाई। जैसे-जैसे तालिका में खाने भरते जा रहे थे वैसे-वैसे हमें शुरुआत कहाँ से करनी है, यह भी स्पष्ट होता जा रहा था। हम ऐसा मानकर चल रहे थे कि इन तेरह लड़कियों को गणित एकदम ही नहीं आता, क्योंकि हमें ऐसा ही बताया गया था। लेकिन इन सभी तेरह लड़कियों ने हमारी प्रश्नावली के पहले तीन सवाल बिना गलती हल किए थे। अगले सवालों में हर लड़की ने अपनी समझ के हिसाब से हल खोजने की कोशिश की थी। आखिरी तीन सवालों को कोई भी लड़की हल नहीं कर पाई थी। इन तेरह में से तीन लड़कियों ने बारह सवालों को बखूबी हल किया था। इस विश्लेषण के बाद कक्षा में जो किया जाना है उसकी कार्य-योजना तैयार की जानी थी। इस कार्य-योजना को बनाते समय हमने शिक्षकों के साथ हुई हमारी कार्यशाला के दौरान उभरे तीन अहम मुद्दों पर गौर फरमाया। ये मुद्दे थे:
1. शिक्षकों ने गणित की विविध अवधारणाएँ लड़कियों को एक बार या एक से ज़्यादा बार समझाई हैं। लेकिन लड़कियों को अवधारणाएँ समझ में नहीं आई हैं और इनसे सम्बन्धित सवालों को वे हल नहीं कर पा रही हैं। इसलिए कुछ हटकर, नए तरीके खोजने की ज़रूरत है।
2. कार्य-योजना में ऐन-मौके पर, वक्त के मुताबिक, संशोधन की गुंजाइश होनी चाहिए।
3. हरेक लड़की द्वारा की जा रही गलतियाँ और उनके सामने पेश आ रही कठिनाइयाँ ध्यान में आ सकें, इस तरीके से आगे बढ़ना होगा। हमें लगातार अवलोकन करते रहना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि किस तरह की मदद लड़कियों को दे सकते हैं।
इस तरह की कार्य-योजना बनाते समय हमें बहुत अच्छा लग रहा था। हालाँकि, हरेक लड़की के साथ काम करने का शुरुआती बिन्दु अलग-अलग पायदान पर था। फिर भी हमें लग रहा था कि इन सभी तेरह लड़कियों को कम-से-कम तीन संख्याओं के एक से ज़्यादा गणितीय क्रियाओं के इबारती सवाल हल करना आ जाए, यह हमारा लक्ष्य होना चाहिए।
हमने गणित की विविध क्रियाओं के लिए कई खेल पता किए। कुछ पठन सामग्री भी खोजी और कुछ सामग्री हमने भी तैयार की।
हमारे गणित पढ़ाने के अनुभव
हमें इन तेरह लड़कियों के साथ काम करने के लिए कक्षा का आखिरी पीरियड मिला। इस आखिरी तीस मिनट के पीरियड के आते-आते लड़कियाँ थकी और बोर हो चुकी होती थीं। इस वजह से वे खेलकूद के मूड में होती थीं। पहले आठ-दस दिन काफी परेशानी हुई।
“दीदी, आज बोर हो गए हैं। आज रहने दो, कल पढ़ाई करवा देना। आज मूड नहीं है” - ऐसी ही बातें और माँग चलती रहती थीं। हम उन्हें समझाने-मनाने की कोशिश करते। और, इस तरह दस-पन्द्रह मिनट का समय निकल जाता था। इसलिए हमने तय किया कि रोज़ पीरियड के शुरुआती दस मिनट लड़कियों के साथ खेलना है। दस मिनट तक खेल के बाद बचे बीस मिनट वे पढ़ाई में मन लगाती थीं। अगले कुछ दिनों के बाद ‘आज खेल रहने दो दीदी’ - यह सुझाव भी लड़कियों की ओर से आने लगा था। हमें भी यह सब रुचिकर लगने लगा था। हमने शुरुआत में एक-एक किस्म का एक-एक गणितीय सवाल हरेक लड़की से ब्लैकबोर्ड पर करवाया (अभी तक इस तरह का मौका उन्हें कक्षा में नहीं मिला था)। इससे हरेक लड़की यकीनी तौर पर कहाँ गलती करती है, इसे हम जान पाए। कई दफा हम गलती को इंगित करें या सुधारें, इससे पहले ही कक्षा की कोई लड़की हल को ठीक करने या समझाने में मदद करती थी। लगभग दस लड़कियों को हासिल की अवधारणा स्पष्ट नहीं थी। इसलिए हमने पहले दिन माचिस की तीली और रबर बैंड की मदद से दस-दस और सौ-सौ के बण्डल बना कर कुछ गतिविधियाँ करवाईं। इस तरह उन्हें उधार, दहाई, सैंकड़ा, इकाई के बारे में स्पष्टता हुई। अगले तीन-चार दिनों के बाद दस में से छह लड़कियाँ इन सवालों को कर पा रही थीं। गृहकार्य के रूप में दिए गए गणित भी वे उत्साहपूर्वक करके ला रही थीं।
कभी-कभी गृहकार्य की जाँच करवाने के लिए लड़कियाँ आखिरी पीरियड तक इन्तज़ार न करते हुए, हमें बीच में कहीं पकड़कर होमवर्क दिखाने लगती थीं। इस दौरान वे कहती थीं, “दीदी, ज़िन्दगी में पहली बार हमको इतने अच्छे से समझ में आया है।” यह सुनकर हमारा सीना गज-भर चौड़ा हो जाता था। लेकिन थोड़ा डर भी लगता था कि कहीं ऐसी ही बात लड़कियाँ अपने शिक्षक के सामने न कह दें। साथ ही, चार और लड़कियों को गणित में मदद करने की चुनौती अभी भी बरकरार थी।
इन चार लड़कियों में से एक थी - नुसरत। वह हमेशा सवाल पूछती रहती थी। उसके सवाल सुनकर कई दफा लगता था कि वो हमें आज़माना चाहती है। वो खुद तो गफलत में फँस जाती थी, साथ ही कक्षा की अन्य लड़कियों को भी उलझा देती थी। एक बार उसने पूछा, “दीदी, हम कुछ हासिल करते हैं, तो वो चीज़ हमारी हो जाती है। यहाँ गणित में आप हासिल को वापस करने को क्यों कहती हैं?” नुसरत होशियार है, उसे समझ में आता है। यह हमारा यकीन था, लेकिन गणित के सवाल गलत हो रहे थे।
एक दिन हमारे सब्र का बाँध टूट गया। हम दोनों नुसरत पर चिल्ला पड़े। हालाँकि, हमसे ऐसा पहली दफा ही हुआ था। नुसरत फूट-फूटकर रोने लगी। हम दोनों को तो जैसे साँप सूंघ गया। हमने खुद को सम्भालते हुए नुसरत से कहा, “आप तो इतनी समझदार बच्ची हैं। कितनी बुद्धिमानी भरे सवाल करती हैं। आपको पता है न, रोना बुज़दिली की निशानी है।” हमारी बातें सुनकर वो आँसू पोंछकर उठ खड़ी हुई और बोली, “मैं बुज़दिल नहीं हूँ। हमारी बड़ी मिस ने बताया था कि जो मन में आए, पूछना चाहिए। इसलिए आपसे पूछा, तो आपने डाँटा क्यों?” हमने उसे सॉरी कहा, कुछ और समझाने की कोशिश की। धीरे-धीरे उसके गणित भी सही होने लगे। नुसरत में यह बदलाव किस तरह आया, इसके बारे में यकीनी तौर पर हम कुछ नहीं कह सकते। लेकिन बदलाव तो यकीनन आया है।
उसी कक्षा में सूफिया भी है। सूफिया पहले दिन से ही मौखिक उत्तर तुरन्त देती थी। वो इतनी जल्दी जवाब देती थी कि कक्षा की बाकी लड़कियाँ खीज जाती थीं, चिढ़ जाती थीं क्योंकि जवाब देने का उनका मौका चला जाता था। बाकी लड़कियाँ अकसर हमसे कहतीं, “दीदी, सूफिया को ट्यूशन की ज़रूरत नहीं है, इसको सब आता है।” लेकिन हमने देखा कि सूफिया जिन सवालों के जवाब ज़ुबानी बता देती थी, उन्हीं को कॉपी पर करते हुए गलतियाँ करती थी। उसकी कॉपी को बारीकी से देखते हुए हमने पाया कि जोड़ या घटाने के सवालों को करते समय वह अंक को इकाई, दहाई, सैंकड़ा के हिसाब से एक के नीचे एक न लिखते हुए थोड़ा बेतरतीब तरीके से लिखती थी। इसकी वजह से जवाब गलत हो रहे थे। हमने उसका ध्यान इस ओर दिलाया और इसके बारे में समझाया। अगले एक-दो दिन में उसने अंकों को तो इकाई-दहाई के क्रम में लिखना शुरू कर दिया, साथ ही वो इबारती सवाल भी बिना गलती के करने लगी थी। आगे हमें सूफिया के साथ और समय लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ी। उल्टा सूफिया कक्षा की अन्य लड़कियों की मदद के लिए आगे आई।
अनौपचारिक माहौल के फायदे
हमारी कक्षा में हमने काफी खुला माहौल रखने की कोशिश की थी। हम सचमुच में लड़कियों से दीदी जैसा बर्ताव करते हैं। हमने अन्य शिक्षकों से सुन रखा था, “डर के बिना लड़कियाँ नहीं पढ़ने वालीं।” इसलिए हमने शुरू में थोड़ी सख्ती बरतने की कोशिश की लेकिन हमें अपने अनुभवों से समझ में आया कि सख्ती की ज़रूरत नहीं है, तो हमने भी कक्षा के माहौल को खोलने में देर नहीं की। आज जब अपने अनुभवों को लिख रहे हैं तो हमें समझ आ रहा है कि लड़कियों को गणित करने में कहाँ दिक्कत आ रही है। हम यह इसलिए पता कर पाए क्योंकि हम लड़कियों की दोस्त बन गए थे। पिछले दो महीनों में लड़कियों ने कई मौकों पर सफलता, यश, खुशी जैसे भावनात्मक पलों को जिया है। लड़कियों को हम तय की गई मंज़िल तक ले जा सके हैं, यह देखकर हमें भी बेहद खुशी होती है। अपने कोर्स के दौरान पिछले डेढ़ साल में हमने कम-से-कम चालीस पीरियड तो पढ़ाया होगा, उनके नोट्स बनाए होंगे, नोट्स को तीन-चार बार पक्का किया होगा लेकिन इन तेरह लड़कियों को पढ़ाने में जितना मज़ा आया और सीखने का मौका मिला, उतना पहले कभी नहीं मिला।
परिणाम और कुछ सवाल
कक्षा की राशिदा, हिना और समरीन - इन तीन लड़कियों से हमें अभी तक कोई खास प्रतिक्रिया नहीं मिली है। हिना ने तो साफ-साफ कह दिया है कि “सातवीं के बाद मैं स्कूल छोड़ने वाली हूँ। तो, क्यों सब झंझट करूँ?” हिना को उसके परिजनों ने भी समझाने की कोशिश की थी कि वह अपनी पढ़ाई जारी रखे। हमें लगता है कि अभी और समझाइश की ज़रूरत है।
समरीन और राशिदा के दिलो-दिमाग में गहरे तक गणित के प्रति अरुचि और डर बैठा हुआ है। हमसे गणित नहीं बन सकता, इस बात पर दोनों का ज़बरदस्त भरोसा था। उनके शिक्षकों का भी उनके बारे में ऐसा ही विचार था। हमें ऐसा लगता है कि छोटी कक्षाओं में इन दोनों के साथ शायद ऐसा कुछ हुआ है, जो उस समय किसी के ध्यान में नहीं आया और गणित के लिए उनका डर गहरी पैठ बना गया है। हमने कुछ प्रयास किए लेकिन इस डर को नहीं निकाल पाए हैं।
हमारी प्रधान अध्यापिका कहती थीं, “कुछ छोटी-सी चीज़ अटकी होती है इसलिए पानी का बहाव रुक जाता है। आप छोटे बच्चों के मन में फँसे हुए अटकावों को पहचानकर, इन्हें निकालने में मदद कीजिए उनकी। बस पानी अपने-आप बहने लगेगा।”
तेरह में से दस लड़कियों को गणित सीखने में हम मदद कर पाए। इस दौरान, सच पूछिए तो इसे करते कैसे हैं, यह भी सीख पाए।
हमारे कोर्स के दौरान ‘राइट टू एजुकेशन’ कानून पर खासी चर्चा हुई थी। इस कानून के मुताबिक कक्षा के सभी बच्चों को पढ़ाना शिक्षक की ज़िम्मेदारी है। शिक्षक के रूप में आप कक्षा के सभी बच्चों को समान रूप से पढ़ाते हैं। फिर भी, उनमें से कुछ बच्चे जल्दी सीख लेते हैं, तो कुछ बच्चे सीखने में काफी समय लेते हैं। कुछ बच्चे ज़्यादा सीख पाते हैं, तो कुछ नाममात्र ही सीख पाते हैं। इन हालात में एक शिक्षक को क्या करना चाहिए? क्या बच्चों को उनकी सीखने की गति और उनके लिए उपयुक्त तरीके से पढ़ाया जाना चाहिए? यह सवाल हमारे सामने आ खड़ा हुआ था। इस लघु शोध प्रबन्ध के दौरान मिले अनुभवों की वजह से हम अनेक अनुत्तरित सवालों के जवाब पा सके हैं। ‘न सीखने वाले’ बच्चों के मन को टटोलने की ज़रूरत है।
हमें इन तमाम काम के लिए दिए गए पचास पीरियड का समय पूरा हो गया है। लेकिन हमारा कोर्स पूरा नहीं होने के कारण हम अभी दो महीने और इस कॉलेज परिसर में रहने वाले हैं। हम कभी-कभार हिना, राशिदा, समरीन से मुलाकत करते हैं। उनसे बातचीत करते हैं, और यदि उनका मूड हो तो गणित के कुछ सवाल भी करते हैं। कामयाबी अभी भी दूर है, लेकिन हमने कोशिश तो की है, यही हमारे दिल को सुकून दे रहा है।
नाज़िया मुलाणी और अंजुम आरा: पुणे के शासकीय (महिला) उर्दू अध्यापक विद्यालय में पढ़ाई की है।
मराठी से अनुवाद: माधव केलकर: ‘संदर्भ’ पत्रिका से सम्बद्ध।
सभी चित्र: प्रशान्त सोनी: पेंटर और इलस्ट्रेटर। विद्या भवन एजुकेशन रिसोर्स सेंटर,उदयपुर में कार्यरत।
यह लेख पुणे से प्रकाशित ‘पालकनीति’ पत्रिका के अप्रैल 2012 अंक से साभार।