विपुल कीर्ति शर्मा

ब्राज़ील  के  छोटे-से  शहर  बाहिआ में वैज्ञानिक और प्रोजेक्ट से जुड़े सभी सहायक एकत्रित थे। वे टकटकी लगाए आसमान में मण्डराते हुए ड्रोन को देख रहे थे। फिर रिमोट का बटन दबते ही ड्रोन के नीचे लटके छोटे-से डिब्बे का दरवाज़ा खुलता है और बेचैनी के कुछ पलों के बाद मच्छरों का एक बड़ा झुण्ड आकाश में गोते लगाने लगता है।

योजना के अनुसार झुण्ड के सभी सदस्य नर मच्छर थे जिन्हें उनके लम्बे तथा झबरीले एंटेना से आसानी-से पहचाना जा सकता है। सभी नर मच्छर नौजवान हैं। वे जल्दी ही इलाके की स्थानीय मच्छरों की आबादी में घुसपैठ कर मादा मच्छरों को आने वाले दिनों में आकर्षित करेंगे। इस बार मादा मच्छरों का भाग्य उनके साथ नहीं है।

वैज्ञानिकों की पूरी टीम उनके खिलाफ एक षड़यंत्र बुन रही है। वैज्ञानिकों ने मलेरिया, ज़ीका, डेंगी तथा वेस्ट नाइल वायरस जैसी घातक बीमारियों के प्रकोप से बचने के लिए बांझ मच्छरों की एक फौज भेजी है। ये नर बांझ मच्छर शुक्राणु नहीं बना सकते किन्तु मैथुन तो कर सकते हैं। नर बांझ मच्छरों के छोटे-से जीवनकाल में वे मादाओं से प्रजनन करेंगे। मादा मच्छर इस भ्रम में रहेंगी कि उन्होंने अपने वंश को बढ़ाने के लिए उपयुक्त नर का चयन किया है। वे प्रजनन का महत्वपूर्ण समय बांझ नरों के साथ गुज़ार देंगी और नतीजा रहेगा सिफर। वैज्ञानिक भी यही चाहते हैं। कई बार संक्रामक बीमारी की रोकथाम के लिए बांझ मच्छरों का प्रयोग एक बेहतरीन हथियार सिद्ध हो सकता है।

मच्छर-मार प्रोजेक्ट   
पिछले कुछ वर्षों से वीरोबोटिक्स (werobotics) और अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) के वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की एक टीम ब्राज़ील में मच्छरों से होने वाली घातक बीमारियों को फैलने से रोकने के लिए बांझ नर मच्छरों को फैलाने के नए तरीकों का परीक्षण कर रही है। ड्रोन इस कार्य के लिए बेहद उपयोगी सिद्ध हुआ है। केरल में प्राकृतिक प्रकोप के समय दवाइयों को भेजना हो,  नरभक्षी शेर की आवाजाही पर नज़र रखना हो, सम्पन्न किसान द्वारा विशाल चारागाहों पर घास चरते पशुओं की निगरानी हो, या जंगलों में लगी अनियंत्रित आग का पीछा करके जानकारी जुटाने की  बात  हो  या  बड़ी  इमारत  में पाइपलाइन का जाल बिछाने का काम हो -- ड्रोन हमारी आवश्यकताओं का एक महत्वपूर्ण भाग होते जा रहे हैं। मच्छर-मार प्रोजेक्ट में भी ड्रोन आधारित परीक्षण के आशाजनक परिणाम प्राप्त हुए हैं। बांझ नर मच्छरों को खास जगह छोड़ने जैसे अभिनव प्रयासों से मच्छरजनित बीमारियों को फैलने से रोका जा सकता है। प्रोजेक्ट का लक्ष्य बेहद आसान है -- मानव को मच्छरों की बीमारी से बचाना।

बांझ बनाने की तकनीक
बांझ कीट तकनीक या स्टेराइल इन्सेक्ट टेकनीक (SIT) बगैर पर्यावरण को नुकसान पहुँचाए कीट नियंत्रण करने का एक कारगर तरीका है। रेमण्ड वुडलैंड और एकवर्ड नेप्लिंग ने घास चरने वाले, गर्म खून वाले पालतू पशुओं को एक प्रकार की मक्खी ब्लोफ्लाय कोचलियोमिया होमिनिवोरेक्स से बचाने के लिए यह विधि विकसित की थी। 1930 के अन्त में दोनों वैज्ञानिक संयुक्त राज्य अमेरिका के टेक्सास की कृषि विभाग की प्रयोगशाला में रासायनिक कीटनाशकों के विकल्प की तलाश कर रहे थे। उस समय ब्लोफ्लाय दक्षिण अमेरिका में पशुधन के लिए विनाशकारी साबित हो गई थी। मेक्सिको, मध्य अमेरिका और दक्षिण अमेरिका में तो इसके कारण लाल मांस और डेयरी उत्पादों की आपूर्ति बेहद कम हो गई थी। 1950 के दशक में ब्लोफ्लाय से होने वाले नुकसान का अनुमान 200 मिलियन डॉलर लगाया गया था।

ब्लोफ्लाय का लार्वा स्क्रूवर्म
स्क्रूवर्म ब्लोफ्लाय मक्खी का लार्वा होता है। इनकी कुछ प्रजातियों को आप भी सड़े-गले मांस के आसपास हरे और नीले रंग की मक्खियों के रूप में देख सकते हैं। सामान्य मक्खी के जैसी ही इनके जीवन की चार अवस्थाएँ अण्डे, लार्वा, प्यूपा और वयस्क होती हैं। लार्वा के प्रत्येक खण्ड पर चारों ओर काँटे निकले रहते हैं इसलिए इन्हें स्क्रूवर्म भी कहा जाता है। अक्सर वयस्क ब्लोफ्लाय को भी स्क्रूवर्म कहते हैं। गर्म और आर्द्रता वाले अनुकूल वातावरण में इनका जीवन-चक्र 21 दिनों में पूर्ण होता है। पूरे जीवनकाल में ब्लोफ्लाय 100-400 अण्डे देती हैं। अण्डे प्राय: पशुओं के खुले ज़ख्मों या नाक, मुँह या गुदा द्वार के आसपास दिए जाते हैं। अण्डों से निकला लार्वा मांस में छेद कर खाते-खाते गड्ढा या सुरंग बना देते हैं। एक सप्ताह तक पोषक के शरीर का मांस भरपेट खा लेने के बाद लार्वा ज़ख्मों को छोड़कर ज़मीन पर गिर जाते हैं और प्यूपा अवस्था के बाद वयस्क फ्लाय बनती हैं। पुराने ज़ख्मों पर कोई और नई मादा अण्डे देकर पशुओं के घावों को भरने नहीं देती और घाव नासूर में बदल जाता है।
ब्लोफ्लाय को बांझ बनाना

1958 में वैज्ञानिक बुरालैण्ड एवं नेपलिंग की योजना को तुरन्त ही स्वीकृति मिली। तकनीक के केन्द्र में मादा मक्खी की प्रजनन क्षमता को विकलांगित करना तथा उसे ऐसा बनाना था कि जिससे मादा एक बार से ज़्यादा मैथुन ही नहीं कर पाए। दोनों वैज्ञानिकों ने तर्क दिया कि यदि बड़ी संख्या में कृत्रिम माध्यम पर पले और विकिरणों द्वारा बांझ बनाए गए नर, मादा मक्खियों से मैथुन तो करेंगे किन्तु अण्डों को निषेचित नहीं कर पाएँगे। साथ ही, मादा भी अगली बार प्रजनन नहीं कर सकती। इस प्रकार ब्लोफ्लाय की अगली पीढ़ी का निर्माण ही नहीं होगा।

योजना के अनुसार नर ब्लोफ्लाय का कृत्रिम माध्यम में संवर्धन किया गया। फिर गामा किरणों द्वारा शुक्राणुओं को बनाने वाली कोशिकाओं के गुणसूत्रों को नुकसान पहुँचाकर, अर्धसूत्रीय विभाजन की प्रक्रिया को नष्ट कर नरों में यौन स्टेरिलिटी या बांझपन उत्पन्न किया गया। विकिरणों के प्रभाव से बने शुक्राणु या तो निषेचन करने में असमर्थ होते हैं या निषेचन हो जाने पर भी अण्डे के सामान्य विकास में बाधाएँ उत्पन्न कर देते हैं जिससे अन्त में भ्रूण मर जाता है। यदि कई पीढ़ियों तक बांझ नर मक्खी को पर्याप्त संख्या में स्थानीय आबादी के साथ छोड़ दिया जाए तो वे प्रजनन के लिए सामान्य नर से मुकाबला कर उन्हें पछाड़ देंगे। सामान्य मादाओं का उन्मूलन करने के लिए वैज्ञानिक अक्सर बांझ नरों एवं सामान्य नरों की संख्या का लम्बे समय तक अनुपात क्रमश: 10:1 बनाए रखते हैं।

नरों को बांझ बनाकर पीड़कों से छुटकारा प्राप्त करने की यह विधि सब्ज़ी व फलों की फसल को बचाने में बेहद कारगर रही है। इसी विधि द्वारा मानव में ट्रिपनोसोमा से होने वाले रोग को भी सफलतापूर्वक नियंत्रित किया गया है।
मच्छरों के उन्मूलन में इस प्रकार की तकनीक काफी हद तक नई है। मच्छरों का स्वभाव भी अक्सर इस तकनीक के इस्तेमाल को प्रभावित करता है। जैसे कि ज़ीका, डेंगी तथा पीला बुखार उत्पन्न करने वाले एडीज़ इजिप्टाई मच्छर जीवनभर में कुछ सौ फीट से ज़्यादा यात्रा नहीं कर पाते हैं। अत: बांझ मच्छरों का व्यापक रूप में फैलाव नहीं हो पाता है।

ड्रोन का उपयोग
नर बांझ मच्छरों की सुरक्षित रूप से पैकेजिंग, परिवहन और वितरण करने की प्रक्रिया बेहद मुश्किल है। ड्रोन का इस्तेमाल करने से पहले मच्छरों के नियंत्रण के अधिकांश प्रयासों में बीमारी से जूझ रहे क्षेत्र की बदहाल सड़कें मूल्यवान बांझ नरों को पहुँचाने से पहले ही घायल कर दिया करती थीं। अब कुछ लाख रुपयों में ही ड्रोन खरीदकर, बगैर ड्रायवर और बदहाल सड़कों की परवाह किए, सटीक जगह पर मच्छरों की फौज को उतारा जा सकता है। ड्रोन का एक और उपयोग इस प्रकार भी लाभदायक रहा है कि अन्य हवाई जहाज़ की तुलना में ड्रोन बहुत नीचे उड़कर भी मच्छर, मक्खी जैस नाज़ुक जीवों को छोड़ सकते हैं। अक्सर देखा गया है कि ज़मीन के पास छोड़े गए मच्छर-मक्खी के बचने की सम्भावना 90 प्रतिशत तक होती है।

चूँकि ड्रोन केवल बांझ नरों को ले जाने के लिए ही तो नहीं बने हैं इसलिए इस तकनीक के अनुसार ड्रोन में भी बहुत सारे परिवर्तन आवश्यक हैं। मच्छरों से लड़ाई में इनका उपयोग रोगग्रसित इलाके के मानचित्र बनाने, मच्छरों के फैलाव व व्यवहार को जानने तथा कीटनाशकों का छिड़काव करने में भी बेहतरीन तरीके से हो सकता है।

मानव में मलेरिया उत्पन्न करने वाले मच्छर एनॉफिलिस को मिटाने के लिए भी योजना बनाई जा रही है और आशा है कि ड्रोन तकनीक मलेरिया के मामलों में और भी अधिक कारगर होगी क्योंकि अपने चचेरे भाई ‘एडीस’ के विपरीत एनॉफिलिस बेहतर उड़ाकू होते हैं और ज़्यादा दूर तक उड़कर फैल सकते हैं। वैज्ञानिकों के लिए खुशखबर तो यह है कि मादा एनॉफिलिस एवं कुछ प्रजातियों के एडीस मच्छर भी पूरे जीवनकाल में एक ही बार प्रजनन करते हैं। स्वस्थ्य और बांझ नर के 10:1 के अनुपात में मादा एनॉफिलिस भी किसी बांझ नर से प्रभावित होगी, इसकी सम्भावनाएँ बेहद ज़्यादा हैं क्योंकि बांझ नरों को पालते समय उनकी सेहत पर भी विशेष ध्यान दिया जाता है। परन्तु प्रमुख समस्या यह है कि बांझ मच्छर अपने आप पैदा नहीं हो सकते, हर बार उन्हें नए सिरे से तैयार करना पड़ता है।

प्रोजेक्ट की मुश्किलें
खून की प्यासी मादा मच्छरों और अनेक मादा मक्खियों के लिए बांझ नर का उपयोग इन पीड़कों से निपटने के अनेक तरीकों में से एक सुलभ एवं कारगर तरीका है। किन्तु अन्य तकनीकों के समान ही बांझ नर तकनीक के साथ भी अनेक मुश्किलें हैं जो इस कार्य को दूभर बनाती हैं। सबसे बड़ी मुश्किल तो लगातार नर मच्छरों की फौज तैयार करना है क्योंकि अक्सर नरों की आयु मादा से कम होती है और युद्ध में भेजे गए बांझ नर वापिस लौट कर नहीं आ पाते। ब्राज़ील के छोटे-से क्षेत्र में किए गए प्रयोग में सात लाख नर मच्छरों का उपयोग तो फिर भी आसान था परन्तु मच्छरों से वैश्विक युद्ध की तैयारी में सभी जगह नई प्रयोगशालाओं को खोलना, नर मच्छरों की प्राप्ति के लिए ब्रीडिंग तथा उन्हें रोगमुक्त रखना कठिन कार्य रहा है। सुनने में भले ही पूरी प्रक्रिया अच्छी लगे परन्तु सभी नर मच्छरों को पृथककर बांझ बनाना आसान नहीं है। गलती से भी एक बांझ नहीं बन सका मच्छर पूरे प्रोजेक्ट की सफलता पर पानी फेर सकता है।

कुछ वैज्ञानिक बीमारी उत्पन्न करने वाले मच्छरों से निपटने के लिए जेनेटिकली इंजीनियर्ड नरों का उपयोग करने की सलाह देते हैं। इससे जीनोम में बीमारी उत्पन्न करने वाले जीन पहुँचाकर अगली पीढ़ी को नष्ट किया जा सकता है। यद्यपि मच्छरों की 3500 प्रकार की प्रजातियाँ पाई जाती हैं, इसलिए एडीस व एनॉफिलिस जैसी रोगवाहक मच्छर प्रजातियों के पूरी तरह से समाप्त होने पर भी कोई विशेष अन्तर तो नहीं पड़ेगा। किन्तु ईकोतंत्र पर इस प्रयास के प्रभाव को समझना बेहद आवश्यक है।

कुल मिलाकर ड्रोन ने बीमारी से लड़ने की हमारी ताकत को बेहतर किया है। प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करके हम रोग मुक्ति के युद्ध में मच्छरों की संख्या पर असर डाल सकते हैं। मच्छरों से निपटने के लिए वीरोबोटिक्स ड्रोन के लिए 2020 तक पूरे विश्व में 30 स्टेशन बनाने जा रहा है। आशा है कि भारत में भी एक स्टेशन तो होगा ही। परन्तु भारत जितने विशाल देश में एकाध स्टेशन से शायद ही कोई फर्क पड़ेगा, क्योंकि भारत में प्रतिवर्ष मच्छरों से होने वाली बीमारियों में लाखों लोग समय से पहले मर जाते हैं।


विपुल कीर्ति शर्मा: शासकीय होल्कर विज्ञान महाविद्यालय, इन्दौर में प्राणिशास्त्र के वरिष्ठ प्रोफेसर। इन्होंने ‘बाघ बेड्स’ के जीवाश्म का गहन अध्ययन किया है तथा जीवाश्मित सीअर्चिन की एक नई प्रजाति की खोज की है। नेचुरल म्यूज़ियम, लंदन ने उनके सम्मान में इस प्रजाति का नाम उनके नाम पर स्टीरियोसिडेरिस कीर्ति रखा है। वर्तमान में वे अपने विद्यार्थियों के साथ मकड़ियों पर शोध कार्य कर रहे हैं। पीएच.डी. के अतिरिक्त बायोटेक्नोलॉजी में भी स्नातकोत्तर किया है। वे विज्ञान पर आधारित फिल्मों के लेखक, निर्माता और निदेशक भी हैं। गत वर्ष भारत सरकार द्वारा आयोजित इनकी फिल्म ‘प्रिडेटिंग द प्रिडेटर’ को आठवें नेशनल साइंस फिल्म फेस्टीवल ऑफ इंडिया में ‘गोल्डन बीवर अवॉर्ड’ से नवाज़ा गया है।