सोनल नाईक

बात उन दिनों की है जब मैं तीसरी या चौथी कक्षा में पढ़ती थी। मैं अपनी सहेली विदुला के साथ रोज़ के रास्ते से स्कूल से घर आ रही थी। चलते-चलते मेरी नज़र रास्ते में पड़ी एक चीज़ पर गई। मैं ज़ोर-से चिल्लाई - हाथी! मेरी सहेली ने आसपास देखा, फिर मेरी ओर देखकर बोल पड़ी, “कहाँ है हाथी?” मैंने तुरन्त कहा, “इस रास्ते से हाथी तो शर्तिया गया है। चलो थोड़ी दौड़ लगाते हैं। हाथी ज़रूर दिखाई देगा।” और हमने दौड़ लगाई। हमें वास्तव में आगे मस्त चाल चलता हुआ हाथी दिखाई दिया।
उस रास्ते पर महावत हाथी को कहीं ले जा रहा था। हाथी मेरा पसन्दीदा जीव है। हम काफी देर हाथी को निहारते रहे। जब हम लौट रहे थे तो मेरी सहेली ने सवाल किया, “तुम्हें कैसे पता चला कि यहाँ आसपास हाथी है?” मैंने भी जासूस की तरह कॉलर उठाकर जवाब दिया, “उसने कुछ सुराग छोड़े थे इसलिए। ये देखो यहाँ रास्ते पर क्या पड़ा हुआ है।” विदुला ने नाक-भौं सिकोड़ते हुए कहा, “छी!” अब तक आप भी समझ ही गए होंगे कि रास्ते में हाथी के मल का बड़ा-सा ढेर पड़ा हुआ था। हो सकता है आप मुस्कुराएँ या घृणा से नाक-भौं सिकोड़ें, लेकिन सच तो यही है कि मैंने तो इस लीद के ढेर से ही आसपास हाथी की मौजूदगी को पहचाना था।

एक विश्वसनीय पहचान
जीवों के अस्तित्व को हम अक्सर उनकी आवाज़ से, मिट्टी पर बने पंजों के निशान आदि से जानते हैं। इसी तरह जीवों का मल या विष्ठा भी एक पहचान का सुराग है। शायद आपने शायर मिया चिरकीन का शेर सुना हो - चिरकीन के तख्त पर चिरका हज़ारों ने बूं है मुखतलिब रंग जुदा-जुदा। तो कुल मिलाकर यह भी एक पहचान ही है।
जीवों को मल के मार्फत पहचानने का जुनून कब से शुरु हुआ मुझे भी याद नहीं है, लेकिन विष्ठा देखकर मैं काफी जीवों को पहचानना सीख गई हूँ। सिर्फ उनको पहचानना ही नहीं बल्कि उस जीव की आदतें, क्या खाया होगा, कहीं वो बीमार तो नहीं... ऐसी ही कई बातें मैं मल देखकर जान जाती हूँ।
किसी रास्ते से गुज़रते हुए आपसे पहले उसी रास्ते से गाय, बैल, या भेड़-बकरी गुज़र चुकी है, इसे आप भी पहचान लेंगे। सुराग के तौर पर गाय-बैल का गोबर या बकरी-भेड़ की लेड़ियाँ या पाँवों के निशान ही होंगे न?
हो सकता है आपने जानते-बूझते हुए इन सबका अवलोकन न किया हो लेकिन फिर भी आपके दिमाग में ये सब सूचनाएँ दर्ज हो गई थीं तभी तो आप अपने आसपास बिखरे चिन्हों को जोड़कर जीव की मौजूदगी तक पहुँच सके। फिर अन्य जीवों की विष्ठा को भी ध्यान से देखकर सूचनाएँ हासिल करने में क्या हर्ज़ है।

भोजन ग्रहण होने के बाद शरीर में पचने लगता है। जो कुछ नहीं पच पाता है और जो पच कर भी अवशोषित नहीं होता वो शरीर से विष्ठा के रूप में बाहर निकलता है। हरेक जीव के मल, उसके मल त्यागने के तरीके और उससे जुड़ी आदतों में फर्क है।

शाकाहारी जानवरों की विष्ठा
घास-पत्तियों को खाने वाले जानवरों को देखें तो चीतल, साम्बर जैसे हिरण परिवार के सदस्य चलते-चलते लेड़ियाँ टपकाते चलते हैं। इसलिए अक्सर इनकी लेड़ियाँ बिखरी-बिखरी-सी दिखाई देती हैं। ताज़ी लेड़ियाँ हरे रंग की होती हैं जो बाद में काली होती जाती हैं। थोड़ी अतिश्योक्ति में कहें तो दूर से देखें तो पका जामुन पड़ा है, ऐसा लगेगा। लेकिन इन लेड़ियों को थोड़ा गौर से देखें तो हमें इनमें विविधता दिखाई देगी। उदाहरण के लिए चीतल की लेड़ियाँ अण्डाकार होती हैं लेकिन एक सिरे पर थोड़ी उभरी हुई, नोकदार होती हैं। साम्बर की लेड़ियाँ अपेक्षाकृत थोड़ी कम अण्डाकार होती हैं और उभरा-नोकदार सिरा भी छोटा होता है, वहीं दूसरे सिरे पर (डिंपलनुमा) हल्का गड्ढा पाया जाता है। नीलगाय की लेड़ियों का आकार हल्का चौकोन होता है। इसका एक सिरा चीतल की लेड़ियों जैसा नोकदार होता है। चीतल की लेड़ियों की लम्बाई नीलगाय व साम्बर से कम होती है (ये दोनों लगभग एक ही लम्बाई के होते हैं) और आबादी के आसपास इनको बकरी की लेड़ियों से अलग पहचानने में दिक्कत हो सकती है। उसी तरह नीलगाय व साम्बर के पैलेट में फर्क करना मुश्किल हो सकता है। यह मानकर चलना है कि आप हमेशा मल किस जीव का है, यह पक्के में नहीं कह पाएँगे। लेकिन आप अपने अनुभव, आसपास पाए जाने वाले पैरों के निशान, जंगल की किस्म और विभिन्न जीवों की आदतों की जानकारी को ध्यान में रखते हुए इन सब में फर्क कर सकते हैं। उदाहरण के लिए चीतल पहाड़ी इलाके में कम पाए जाते हैं और साम्बर ऐसे इलाकों में दिख जाते हैं - तो पहाड़ी इलाके में लेड़ियों को लेकर कोई शंका हो तो ज़्यादा सम्भावना है कि वो साम्बर की हैं। और नीलगाय की आदत होती है कि वे रोज़ एक ही जगह आकर लेड़ियाँ टपकाती हैं। इसलिए ऐसी जगहों पर ताज़ी-पुरानी लेड़ियों का ढेर मिलता है। इस जानकारी से फायदा यह है कि यदि आप लेड़ियों का अध्ययन कर रहे हों और आपको ऐसा ढेर दिख जाए तो उस जगह के आसपास पोज़िशन ले लीजिए। आपको नीलगाय के दर्शन हो जाएँगे क्योंकि मलत्याग के  लिए  नीलगाय  यहाँ  आएगी। नीलगाय की यह आदत जानलेवा भी हो सकती है क्योंकि शिकारी जीव भी यहाँ घात लगाए बैठा हो सकता है।

कुछ छोटे जीवों के मल को भी पहचाना जा सकता है। खरगोश जिन खुले मैदानों में भोजन जुटाते हैं अक्सर उन्हीं मैदानों में उनकी लेड़ियाँ मिल जाती हैं। ये लेड़ियाँ चूरन या गटागट की गोलियों की तरह चपटी व गोल होती हैं। उन लेड़ियों में घास के तिनके होने के कारण कुछ पुरानी होने पर ये लेड़ियाँ भुरभुरी हो जाती हैं।
गौर (भैंसा) का गोबर घसियाले मैदान या खुले मैदान में दिखाई देता है। आम तौर पर गोबर का यह गोला काफी बड़ा होता है।

मांसाहारी विष्ठा
मांसाहारी (कार्निवोरस) जीवों की विष्ठा लम्बी, बेलनाकार होती है। जो जीव मांस के साथ हड्डियों को भी खाते हैं उनके मल का रंग कुछ समय के बाद हल्का सफेद दिखाई देता है। शायद इसकी वजह हड्डियों में मौजूद कैल्शियम है। बिल्ली परिवार, कुत्ता परिवार के सदस्यों का मल लम्बा-बेलनाकार और एक छोर से संकरा होता है। फिर भी इन दोनों के मल में कुछ फर्क है। आप कभी दोनों के मल को गौर से देखकर खुद फर्क को पहचानिए।
एक ही टैक्सोनोमिक फैमिली के सदस्यों के आकार के हिसाब से उनके मल के आकार में भी अन्तर होता है। उदाहरण के लिए बिल्ली परिवार के तेन्दुए का मल, बाघ के मल के मुकाबले आकार में छोटा होता है।
बिल्ली परिवार के सभी सदस्य अपने शिकार को खाल समेत खाते हैं। इसलिए इन जीवों के मल को टटोलकर देखा जाए तो मल में न पचे बाल भी मिलते हैं जो इस बात की गवाही देते हैं कि किस जीव का शिकार हुआ था। कई प्राणीविदों का कहना है कि विष्ठा के गहन अध्ययन से कुछ और बातों को समझा जा सकता है। ऐसा कहा जाता है कि बाघ शिकार करके पहले पीठ और पुट्ठे का माँस खाता है जिसकी वजह से मल का रंग काला होता है। जब अगले दिन से वह शिकार की हड्डियों को खाना शुरु करता है तो मल का रंग सफेद होने लगता है। कई अन्य जीवों की तरह बाघ अपने मल का उपयोग अपने इलाके की हद चिन्हित करने में भी करता है। तो बाघ का मल आपको ज़मीन पर भी दिख जाएगा, और अन्य बिल्लियों की तरह वह अपने पिछले पंजों से मिट्टी खोदकर भी उसमें मल त्याग करता है। आपने बिल्ली को भी ऐसा ही करते देखा होगा।
जंगली कुत्ते आम तौर पर समूहों में रहते हैं। वे रास्ते या पगडण्डियों पर आकर कतार में मल त्याग करते हैं।

सर्वभक्षियों के मल
कुछ जीव सर्वभक्षी (ओम्निवोरस) होते हैं। उनके मल में फलों के बीज भी दिखाई देते हैं। भालू ऐसा ही एक जीव है। जिस मौसम में जिस तरह के खाद्य पदार्थ उपलब्ध हों उन्हें खाता है। गर्मी के मौसम में भालू के मल में तेन्दू, बहेड़ा के बीज मिलते हैं। वहीं बरसात के मौसम में जामुन के बीज मिलते हैं। भालू को दीमक खाना भी बहुत भाता है। कई दफा भालू के मल में दीमक के सिर भी दिखाई देते हैं।

मल विश्लेषण
तो आपने समझ लिया न कि प्राणी के मल से हम काफी कुछ जान सकते हैं? स्कैट अनैलिसिस (मल विश्लेषण)  के ज़रिए यह तो पता लग जाता है कि जानवर क्या-क्या खा रहे हैं। शोधकर्ता घास-पत्तों के अनपचे टुकड़ों व बीजों से पौधे की प्रजाति का अक्सर पता कर लेते हैं। और हड्डियों और बालों से जानवर की प्रजाति का। आजकल स्कैट अनैलिसिस जंगल में जीवों की गणना में भी उपयोगी साबित हो रहा है। कुछ प्रजातियों (जैसे कि बिल्ली की कई प्रजातियों) के मल से उनके डीएनए को सफलतापूर्वक अलग किया जा सकता है। तो किसी इलाके में उस प्रजाति के कितने सदस्य हैं इस बात का एक मोटा अनुमान लगाया जा सकता है। इस तरीके में तकनीकी हुनर व पैसे तो काफी लगते हैं, लेकिन फायदा यह है कि न जानवर को देखने की ज़रूरत पड़ती है और उसे बिना कोई नुकसान पहुँचाए, बिना परेशान किए उसकी गणना हो सकती है। तो खास कर कम संख्या में पाए जाने वाले जीवों या फिर जो बहुत मुश्किल से दिख पाते हैं - के बारे में हम काफी कुछ पता कर सकते हैं - उनकी संख्या, उनके इलाके का फैलाव व आकार, किसी इलाके का इस्तेमाल वे कितना कर रहे हैं, उनके खाने की ज़रूरतें, पसन्द व उपलब्धता आदि का पता चल सकता है।
वैसे पक्षियों की विष्ठा से उनको पहचानना मुश्किल काम होता है; यह तरीका स्तनधारी जीवों की जानकारी लेने में सबसे ज़्यादा उपयोगी है।

अब आपकी बारी...
लेकिन यह ज़रूरी नहीं है न कि मल-विष्ठा-लेड़ियों को खंगालने का काम सिर्फ शोधकर्ताओं का ही हो। आप भी चाहें तो विष्ठा जासूस बन जानवरों के बारे में कई सारी बातें मालूम कर सकते हैं। शायद शुरुआत आप इस बात से कर सकते हैं कि आप अपने आसपास मौजूद कितनी विष्ठाओं को देखकर बता सकते हैं कि यह किसकी विष्ठा है - गाय, बैल, बछड़ा, कुत्ता, बिल्ली, भैंस, गधा, घोड़ा, सुअर, बकरी, भेड़, इन्सान, बन्दर, लंगूर... आदि।
यदि आप एक तालिका बना सकें तो और भी बेहतर। इस तालिका में विष्ठा किस जीव की है, विष्ठा का आकार, विष्ठा का रंग, विष्ठा में क्या दिख रहा है मसलन अनाज के दाने, अन्य बीज, पत्ते, हड्डियाँ, प्लास्टिक पन्नी, आपकी कोई टिप्पणियाँ - जैसी बातें शामिल हो सकती हैं। हो सकता है तालिका बनाने के बाद आपको जानवरों में उतनी ही रुचि जग जाए जितनी मुझे है।


सोनल नाईक: प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन, मुम्बई के विज्ञान कार्यक्रम में कार्यरत हैं। न्यास ट्रस्ट के जंगल कैम्पस की वजह से कुदरत को एक फर्क नज़रिए से देखने-समझने का चस्का लगा और उन्होंने अध्ययन शुरु किया। सांख्यिकी विषय में पढ़ाई की है।
मराठी से अनुवाद: माधव केलकर: संदर्भ पत्रिका से सम्बद्ध हैं।
मूल लेख न्यास ट्रस्ट, डोंबिवली, महाराष्ट्र द्वारा प्रकाशित मराठी पत्रिका विज्ञान प्रचिती, जुलाई-सितम्बर, 2016 में प्रकाशित हुआ था।