लेखक :  जेसन जी. गोल्डमैन
अनुवाद: विनता विश्वनाथन

हम सब यह काम करते हैं, लेकिन हम में से बहुत कम इसे मानने को तैयार होंगे। रंगे हाथ पकड़े जाते हैं तो शर्म और अफसोस का अहसास होता है। और खुले आम जब हमारे सामने कोई और इसे करता है, तो हम उसकी निन्दा करते हैं। मैं यहाँ नाक में उँगली घुसारकर कुरेदने की बात कर रहा हूँ। नाक खुजाना क्या वास्तव में इतनी बुरी बात होती है? यह कितना प्रचलित है, कितनी खराब बात है? और क्यों, आखिर क्यों कोई यह देखने की कोशिश भी करेगा कि नाक से निकलने वाले कचरे का स्वाद कैसा होता है!

नाक खुजाने को औपचारिक मेडिकल भाषा में ‘rhinotillexomania’ कहते हैं। इस व्यवहार का पहला व्यवस्थित वैज्ञानिक अध्ययन शायद 1995 में थॉमस और जेफरसन्, अमेरिका के दो शोधकर्ताओं ने किया। उन्होंने डेन काउंटी (अमेरिका के विस्कॉन्सिन प्रदेश का एक ज़िला) के 1000 वयस्क निवासियों को डाक से एक प्रश्नावली भेजी। 254 ने जवाब दिया और उनमें से 91 प्रतिशत ने यह माना कि वे अपनी नाक खुजाते हैं, और 1.2 प्रतिशत ने बताया कि वे हर घण्टे कम-से-कम एक बार अपनी नाक खुजाते हैं। दो लोगों के जवाब से मालूम हुआ कि नाक खोदने की आदत उनकी दैनिक ज़िन्दगी में कुछ हद तक या फिर काफी रुकावटें पैदा करती है। और शोधकर्ताओं को यह बात सुनकर हैरत हुई कि दो अन्य लोगों ने नाक इतनी खुजाई कि उन्होंने अपने नेज़ल सेप्टम (वो पतली ऊतक जो दाईं और बाँई नासिका के बीच में होती है; चित्र-1) में एक छेद कर दिया था।

बहुत सटीक अध्ययन तो नहीं था; जिनका सर्वेक्षण हुआ था, उनमें से एक चौथाई ने ही जवाब दिया, और जिनकी पहले से इस विषय में व्यक्तिगत रुचि थी, उनके द्वारा प्रश्नावली का जवाब देने की सम्भावना ज़्यादा थी। फिर भी, इससे यह तो ज़ाहिर होता है कि सामाजिक व सांस्कृतिक तौर पर निषिद्ध होने के बावजूद नाक खुजाना काफी फैला हुआ है।

युवाओं की आदत
इस अध्ययन के पाँच साल बाद, बेंगलू डिग्री के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य और स्नायु विज्ञान संस्थान के चित्तरंजन अन्द्रादे और बी.एस. श्रीहरी ने नाक खुजाने को कुछ गहराई से जाँचने का निर्णय लिया। उनका तर्क था कि चूँकि अक्सर लत लगने वाले व्यवहार बच्चों और किशोरों में ज़्यादा पाए जाते हैं, तो नाक खुजाना कितना प्रचलित है, इसका जायज़ा लेने के लिए युवा आबादी का सर्वेक्षण करना ही सही होगा। साथ में, यह जानते हुए कि विस्कॉन्सिन अध्ययन में एक पूर्वाग्रह (bias) यह था कि सिर्फ कुछ लोगों ने प्रश्नावली का जवाब दिया था, इन्होंने अपनी प्रश्नावली स्कूली कक्षाओं में बाँटी, जहाँ उनको नमूने के तौर पर एक सेम्पल मिलने की ज़्यादा सम्भावना थी। उन्होंने अपना सर्वेक्षण बेंगलू डिग्री के स्कूलों पर केन्द्रित किया। एक जो कमज़ोर आर्थिक स्थिति वाले परिवारों के बच्चों के लिए था, दो स्कूल जिनमें मध्य-वर्गीय परिवारों के बच्चे आते थे और चौथा स्कूल जिसमें बच्चे उच्च-कमाई वाले घरों से थे। 

कुल मिलाकर, अन्द्रादे और श्रीहरी ने 200 किशोरों से जानकारी इकट्ठी की। लगभग सभी ने यह मान लिया कि वे अपनी नाक खुजाते हैं, और दिन में औसतन चार बार ऐसा करते हैं। यह कोई खास नतीजा नहीं था, यह दोनों वैज्ञानिकों को पता था। लेकिन इस सर्वेक्षण से कुछ पैटर्न निकले, वे रोचक थे। सिर्फ 7.6 प्रतिशत छात्रों ने कहा कि वे दिन में 20 से ज़्यादा बार नाक में उँगली घुसाते हैं, लेकिन लगभग 20 प्रतिशत छात्रों ने सोचा कि उनको ‘नाक खुजाने की गम्भीर समस्या’ है। ज़्यादातर छात्रों ने कहा कि खुजली होने पर या फिर नाक से कचरा साफ करने के लिए ऐसा करते हैं, लेकिन 24 छात्रों ने (12 प्रतिशत बच्चों ने) कहा कि वे नाक इसलिए खुजाते हैं क्योंकि खुजाने पर उनको अच्छा लगता है।
कुल मिलाकर 13 छात्रों ने कहा कि सिर्फ उँगलियाँ ही नहीं, वे चिमटी का इस्तेमाल भी करते हैं, और 9 ने कहा कि वे पेंसिल का! 9 छात्रों ने यह भी कहा कि वे नाक से मिले खज़ाने को खाते हैं। बढ़िया।

सामाजिक या आर्थिक वर्ग का इन पैटर्न पर कोई असर नहीं था - नाक खुजाना ऐसी बात है जो हम सबको एक कर देती है। हालाँकि, कुछ लैंगिक/जेण्डर फर्क थे। लड़कों की ऐसा करने की ज़्यादा सम्भावना थी, और लड़कियों को इसे एक बुरी आदत समझने की सम्भावना ज़्यादा थी। आँकड़ों के आधार पर यह कह सकते थे कि लड़कों की अन्य बुरी आदतों के होने की सम्भावना भी ज़्यादा थी जैसे कि नाखून खाना (onychophagia), या फिर बाल खींच निकालना (trichotillomania)।

चेहरे की विकृति
नाक खुजाना कोई हानिरहित काम नहीं है। जब चिकित्सा सम्बन्धी पर्चों व शोधपत्रों की समीक्षा की तो अन्द्रादे और श्रीहरी ने पाया कि कुछ अति मामलों में नाक खुजाना ज़्यादा गम्भीर समस्याओं से नाता रखता है, या फिर उनका कारण बन सकता है। एक मामले में तो सर्जन मरीज़ के नेज़ल सेप्टम में छेद को लम्बे समय के लिए बन्द न रख पाए क्योंकि मरीज़ नाक खुजाने से अपने आपको रोक नहीं पाता था, जिसके कारण ऑपरेशन के घाव ठीक नहीं हो पाते थे।

एक 29 साल के पुरुष के बारे में भी पढ़ा जिसको बाल खींच निकालने और नाक खुजाने, दोनों आदतें थीं, जो उससे पहले किसी और व्यक्ति में एकसाथ पाई जाने के बारे में लिखित में कहीं दर्ज नहीं थीं। उसके डॉक्टरों को मजबूरन उसकी बीमारी के लिए एक नया नाम गढ़ना पड़ा - rhinotri-chotillomania। वे अपनी नाक के बालों को बार-बार खींच निकालने से रोक नहीं पाते थे। जब बाल खींच निकालना कुछ ज़्यादा ही करते, तो उनकी नाक सूजने-जलने लगती। इसके इलाज के लिए उन्होंने एक लेप लगाना शुरु किया, जिसका एक साइड-इफेक्ट यह था कि उनकी नाक पर बैंगनी रंग के धब्बे बनने लगे। इन बैंगनी धब्बों के कारण अब उनके नाक के बाल दिखते नहीं थे, और इस वजह से वे काफी आराम महसूस करने लगे। उनको बैंगनी रंग की नाक के साथ बाहर जाना ज़्यादा मंज़ूर था, बनिस्बत प्रत्यक्ष नाक के बालों के। डॉक्टरों ने उनको दवाइयों से ठीक किया और वे मरीज़ की इस विवशता को बॉडी डिस्मॉर्फिक डिसऑॅर्डर का एक रूप मानते थे (जिसमें अपने शरीर की किसी एक कमी या खोट के बारे में इतना सोचते हैं कि उसका जुनून-सा हो जाता है) जिसे ऑब्सेसिव कम्पल्सिव डिसऑर्डर (ओसीडी) की बीमारियों में से एक माना जाता है।

खतरे को सूंघ निकालने वाली नाक
यह जानकर हम में से ज़्यादातर चैन की सांस ले सकते हैं कि कभी-कभार सावधानी से नाक खुजाना किसी रोग का लक्षण नहीं है। यह एक रोचक बात है कि जहाँ नाखून चबाना और नाक के बालों को तोड़ना ओब्सेसिव कम्पल्सिव डिसऑर्डर के जाने-माने रूप हैं, लेकिन आम तौर पर rhinotrichotillomania को ऐसा नहीं माना जाता है।
तो इन सब खतरों को देखते हुए, और दूसरों में चिढ़ पैदा करने की सम्भावनाओं को भी देखते हुए, हम ऐसा क्यों करते हैं? इसका कोई सीधा जवाब नहीं है, लेकिन जैसे कि टॉम स्टैफर्ड ने हाल में नाखून चबाने के बारे में लिखा है, शायद यह एक तसल्ली जो हमें ‘साफ-सफाई’ से मिलती है और नाक हमारी उँगलियों की पहुँच में होती है, इन दोनों बातों का मिश्रण है। अन्य शब्दों में कहें तो हम नाक इसलिए खुजाते हैं ‘क्योंकि (हमारे पास) नाक है’।
या शायद नाक खुजाना इस बात का सबूत है कि हम आलसी हैं। नाक साफ करने की जब भी इच्छा होती है, उँगलियों की कभी कोई कमी नहीं होती। जबकि रुमाल के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता।
2001 में अन्द्रादे और श्रीहरी को अपने शोध के लिए इग्नोबल पुरस्कार मिला, जो ऐसे शोध के लिए दिया जाता है जो आपको पहले हँसाए, फिर सोचने को प्रोत्साहित करे। पुरस्कार समारोह में अन्द्रादे ने कहा, “कुछ लोग दूसरों के कामों में टाँग अड़ाते हैं। मैंने अपना काम दूसरों की नाकों में अड़ाया।”


जेसन जी. गोल्डमैन: संज्ञानात्मक वैज्ञानिक हैं। 2013 में इनको युनिवर्सिटी ऑफ सदर्न कैलिफॉर्निया से पक्षियों पर शोध के लिए पीएच.डी. मिली। आजकल ये दूसरों के शोध के बारे में लिखते हैं, विज्ञान लेखक हैं। जानवरों के व्यवहार, वन्यजीव जीव विज्ञान, प्राकृतिक संरक्षण और इकोलॉजी पर लिखते हैं। अमेरिका के लॉस एंजलीस शहर में निवास है।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: विनता विश्वनाथन: ‘संदर्भ’ पत्रिका से सम्बद्ध हैं।
यह लेख बीबीसी फ्यूचर (http://www.bbc.com/future/ ) में 2 फरवरी, 2015 को छपा था।