लेखक:  रुद्राशीष चक्रवर्ती    
अनुवाद: सुशील जोशी: [Hindi PDF, 293 kB]

तकरीबन 5 कि.मी.।
मैं अपने घर से ऑफिस तक रोज़ाना सुबह लगभग इतनी सायकिल यात्रा करता हूँ और फिर शाम को वापिस इतनी ही घर जाने में।
तो यह प्रतिदिन करीब 10 कि.मी. की यात्रा हुई। हैरानी की कोई बात नहीं, है ना? हम में से कई लोग रोज़ाना इतनी यात्रा करने के आदी हैं - स्कूल, कॉलेज या ऑफिस तक।
यानी यह एक सरल राशि है।
अब इस संख्या को देखिए: 19,54,00,00,000। यदि इसे मानक शब्दों में व्यक्त करेंगे तो कहेंगे 19.54 अरब।
और क्यों न इस निरर्थक संख्या के पीछे एक मात्रक लिख दें? मैं उस मात्रक का उपयोग पहले ही कर चुका हूँ - किलोमीटर।
अरे, यह संख्या तो और भी विचित्र, डरावनी दिखने लगी - 19.54 अरब कि.मी.।
हूँ...., थोड़ा बेहतर एहसास पाने के लिए यह देखते हैं कि सूरज पृथ्वी से कितना दूर है।
यह दूरी तो मात्र 0.15 अरब कि.मी. है। इससे तो कोई मदद नहीं मिली।

चलो और देखते हैं - प्लूटो सूरज से कितना दूर है? हम सब प्लूटो का नाम तो जानते ही हैं, नहीं? एक समय था जब हम स्कूल की पाठ्य-पुस्तकों में पढ़ा करते थे कि प्लूटो हमारे सौर मण्डल का नौवाँ ग्रह है। नौवाँ इसलिए क्योंकि यह सबसे दूर है। मगर 2006 में वैज्ञानिकों ने बेचारे प्लूटो को बेरहमी से ग्रहों के अभिजात्य समूह से निष्कासित करने का फैसला किया और इसे मात्र एक बौना ग्रह घोषित कर दिया जबकि प्लूटो की कोई गलती नहीं थी। बहरहाल, यह हमारे सूरज से बहुत दूर है। तथ्यों की बात करें तो, प्लूटो जब सूरज से दूर-से-दूर होता है तो 7.4 अरब कि.मी. दूर होता है।

मगर 7.4 अरब कि.मी. तो 19.54 अरब कि.मी. का आधा भी नहीं है। यानी इस राशि का एहसास इतना आसान नहीं है।
सवाल यह है कि इस दूरी का अर्थ क्या है? क्या यह कोई वास्तविक दूरी है? कहाँ से, कहाँ तक? और हम इसके बारे में बात क्यों कर रहे हैं?
जवाब उजागर करने से पहले मैं आपको दो और आँकड़े दूँगा, तुलना के लिए।
लगभग 20 मिनट। इतना समय लगता है मुझे घर से ऑफिस पहुँचने में। आने-जाने का हिसाब लगाएँ तो यह लगभग 40 मिनट की दैनिक यात्रा होगी। यह भी हम सबको समझ में आता है कि घर से ऑफिस या कहीं और की यात्रा में इतना समय लगता है।
हूँ, 37 साल 2 महीने के बारे में क्या खयाल है? यह किसी यात्रा की अवधि है जिसके दौरान आप एक सेकण्ड के लिए भी न रुकें और यह भी पता न हो कि अन्तत: कहाँ पहुँचने वाले हैं। मगर इस यात्रा के बारे में दो बातें पता हैं - पहली तो यह कि यह यात्रा निकट भविष्य में समाप्त नहीं होने वाली है और दूसरी कि घर वापसी कभी नहीं होगी।

अब वक्त आ गया है कि मैं आपका परिचय अन्तरिक्ष खोजी यान वोयेजर-1 से कराऊँ।
मुझे यकीन है कि आपने इतना अन्दाज़ तो लगा ही लिया होगा कि शायद कोई भी जीवित चीज़ 37 साल तक बगैर रुके नहीं चल सकती; अर्थात् कहीं-न-कहीं कोई मशीन इस किस्से में शामिल होगी।

वोयेजर-1 का प्रक्षेपण नासा ने संयुक्त राज्य अमेरिका से 5 सितम्बर 1977 को किया था। इसका प्रमुख मकसद बृहस्पति और शनि के उपग्रह तंत्र का अध्ययन करना था। ये दोनों प्रमुख अभियान तो नवम्बर 1980 में पूरे हो गए थे। तब इसके संचालकों ने इसे एक नए काम पर लगा दिया - कि पहले यह हमारे सौर मण्डल के बाहरी हिस्सों का अध्ययन करेगा और उसके बाद तारों के बीच फैले अन्तरिक्ष यानी अन्तर-तारकीय अन्तरिक्ष की खोजबीन करने को निकल जाएगा।
आज 14 मई, 2015 के दिन जब मैं ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ तब यह खोजी यान अपनी यायावरी के 37 साल 8 महीने और 9 दिन पूरे कर चुका है। शु डिग्री में 19.54 अरब कि.मी. का जो आँकड़ा दिया गया था वह 6 दिसम्बर, 2014 के दिन इसकी पृथ्वी से दूरी का आँकड़ा था, जो गणनाओं के आधार पर निकाला गया था। उस समय इस यात्रा में 37 वर्ष और 2 माह की अवधि बीत चुकी थी। तब से करीब चार महीने बीत चुके हैं और वोयेजर-1 लगभग 61,000 कि.मी. प्रति घण्टे की रफ्तार से चलता जा रहा है। और शायद जब तक इसका वजूद रहेगा तब तक यह इसी तरह चलता रहेगा।

नासा द्वारा सितम्बर 2013 में की गई घोषणा के मुताबिक वोयेजर-1 ने 25 अगस्त, 2012 के आसपास अन्तर-तारकीय अन्तरिक्ष में प्रवेश किया था - यानी यह तारों के आंगन में पहुँच चुका था।
जिस समय वोयेजर-1 ने अपना सफर शु डिग्री किया था, मेरे जन्म के दस साल पहले और आपमें से कई लोगों के जन्म से पहले; तब से यह मशीन लगातार चलती हुई हमसे जितनी दूर जा चुकी है, उतनी दूर आज तक कोई भी व्यक्ति या कोई भी चीज़ नहीं गई है।
मैं जानता हूँ कि आप यही सोच रहे होंगे, “ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई मशीन बगैर रुके पिछले चार दशकों से चलती जा रही है और पता नहीं कितने दशकों तक चलती रहेगी? क्या इसमें नासा ने शक्ति का कोई जादुई स्रोत लगाया है जो वे किसी को बताना नहीं चाहते?”
बहरहाल, ऐसा कुछ नहीं है। इस अन्तरिक्ष यान में दो तरह के ईंधन हैं। एक है यान को आगे बढ़ाने व दिशा बदलने के लिए (प्रणोदक यानी प्रोपेलेंट) और दूसरा है बिजली को चालू रखने के लिए। इसे आगे धकेलने वाला ईंधन है आइसोहायड्रेज़ीन। यह हाइड्रोजन और नाइट्रोजन का एक सरल यौगिक है जिसकी गन्ध अमोनिया जैसी होती है। इसे चुनने का कारण यह है कि यह सस्ता है और इसका हिमांक (ठोस बनने का तापमान) बहुत कम है। वोयेजर में जेट का उपयोग यान को दिशा देने के लिए होता है। इसलिए इस ईंधन का तकनीकी नाम है ‘रुझान नियंत्रण प्रणोदक’ (ज़ाहिर है कि इसे लगातार धक्का देने की ज़रूरत नहीं पड़ती। इसलिए शु डिग्री में इसे जो धक्का दिया गया था, वह काफी देर तक काम आया। इसके अलावा वोयजर-1 ने अन्य ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण का भी फायदा उठाया। इनके प्रभाव से यान की रफ्तार बढ़ जाती है। जैसे वोयेजर-1 ने बृहस्पति के ज़ोरदार गुरुत्व क्षेत्र का फायदा उठाया और शनि की ओर बढ़ गया। बृहस्पति के प्रभाव के कारण इसकी सूर्य-सापेक्ष रफ्तार में 57,450 कि.मी. प्रति घण्टे की वृद्धि हुई थी)। नासा का अनुमान है कि इसकी ईंधन कार्यक्षमता 13,000 कि.मी. प्रति लीटर हायड्रेज़ीन है। काफी प्रभावशाली संख्या है।

वोयेजर-1 में इतना ईंधन है कि यह 2040 तक काम देगा। दरअसल इसकी वास्तविक सीमा तो दूसरा ईंधन तय करता है - प्लूटोनियम-238। प्लूटोनियम-238 ही वह ईंधन है जो इसके वैज्ञानिक उपकरणों और संचार यंत्रों को चलाए रखता है। प्लूटोनियम-238 के रेडियोधर्मी-विखण्डन से जो ऊष्मा प्राप्त होती है उसकी मदद से ताप-विद्युत जनरेटर काम करते हैं। प्लूटोनियम-238 के छर्रे इरिडियम आधारित खास मिश्र-धातु की खोल में बन्द कर दिए गए थे ताकि यदि वोयेजर-1 पृथ्वी से उड़ान भरने के बाद किसी अनहोनी का शिकार होकर गिर जाए, तो प्लूटोनियम-238 की वजह से पर्यावरण में रेडियो-सक्रियता न फैल सके।

प्लूटोनियम के रेडियोधर्मी विखण्डन का मतलब यह होता है कि समय के साथ यह धीरे-धीरे कम ऊष्मा पैदा करेगा और जब ऊष्मा कम मिलेगी तो ताप-बिजली जनित्र कम बिजली पैदा करेंगे। इस समस्या को टालने के लिए नासा कम महत्वपूर्ण उपकरणों को बन्द करता जा रहा है। एक प्रयास यह भी किया जा रहा है कि कुछ उपकरणों को बीच-बीच में बन्द किया जाए। मगर ये समाधान पर्याप्त नहीं हैं और 7 अक्टूबर, 2001 तक वोयेजर में बन रही बिजली की मात्रा 267.9 वॉट रह गई थी। यह प्रक्षेपण के समय बनने वाली बिजली (लगभग 470 वॉट) का मात्र 57 प्रतिशत है।

गनीमत है कि अन्तरिक्ष में घर्षण नहीं है जो हायड्रेज़ीन का भण्डार खत्म होने के बाद यान को आगे बढ़ने से रोक सके। अर्थात् वोयजर-1 आने वाले दशकों, सदियों या शायद सहस्राब्दियों तक आगे बढ़ता जाएगा। यह यात्रा शायद मेरी मृत्यु के बाद भी, शायद इस धरती पर आज जीवित सारे जीवों की मृत्यु के बाद भी चलती रहेगी। यह यात्रा तब भी जारी रहेगी जब वे लोग भी कूच कर चुके होंगे जिन्होंने इसे बनाया, प्रक्षेपित किया, और एक ऐसी राह पर भेजा कि ‘शायद सदा के लिए चलता रहेगा - आकाशगंगा की सैर करते हुए’।
मगर इस कहानी में एक अद्भुत पेंच है। सब्र कीजिए, बताता हूँ।

देखिए, वोयेजर-1 के पास संगत के लिए दो अच्छे दोस्त हैं। यह खोजी यान दरअसल नासा के वोयेजर कार्यक्रम का हिस्सा है। इस कार्यक्रम के तहत दो एक जैसे रोबोटिक खोजी यानों - वोयेजर-1 व वोयेजर-2 -- को अन्तरिक्ष में भेजना था। वास्तव में पृथ्वी को छोड़ने वाला पहला यान तो वोयेजर-2 था। इसे 20 अगस्त, 1977 को छोड़ा गया था। बृहस्पति और शनि की टोह लेने के अलावा इसे यूरेनस और नेपच्यून की भी ताक-झाँक करनी थी। आज तक यही एकमात्र अन्तरिक्ष यान है जिसने इन दो गैसीय ग्रहों की यात्रा की है। यह सही है कि बाद में वोयेजर-1 इससे आगे निकल गया मगर फिर भी वोयेजर-2 सबसे दूर स्थित मानव निर्मित वस्तुओं में से एक है। 11 दिसम्बर 2014 के दिन यह पृथ्वी से 15.95 अरब कि.मी. दूर था।

ऊपर के चित्र में वैज्ञानिक वायेजर-1 में गोल्डन रिकॉर्ड को फिट करते हुए। इस रिकॉर्ड में धरती पर मौजूद विविध प्राकृतिक ध्वनियों के अलावा गायन, संगीत एवं विविध वाद्यों की आवाज़ को भी रिकॉर्ड कर इस अन्तरिक्ष यान के साथ भेजा गया; इस उम्मीद में कि दूर कहीं कोई होगा जो इसे पढ़कर, सुनकर धरती के बारे में जान सके।
 
नीचे के चित्र में गोल्डन रिकॉर्ड को बड़ा करके दिखाया गया है।

मज़ेदार बात यह है कि यदि हम सौर मण्डल को हमेशा के लिए छोड़कर जाने की बात करें, तो वोयेजर वास्तव में प्रथम नहीं है। वह सम्मान तो दो अन्य जुड़वाँ अन्तरिक्ष यानों को जाता है - पायोनीयर-10 और पायोनीयर-11। इन्हें इसी क्रम में नासा ने एक वर्ष के अन्तराल पर - मार्च 1972 और अप्रैल 1973 में - छोड़ा था। ये दो ऐसी प्रथम मानव निर्मित वस्तुएँ थीं जिन्होंने अस्सी के मध्य दशक में सौर मण्डल को अलविदा कहने योग्य पलायन वेग हासिल कर लिया था। अन्तत: फरवरी 1998 में वोयेजर-1 पायोनीयर-10 से आगे निकल गया।

अनुमान था कि सितम्बर 2012 में पायोनीयर-10 और 11 पृथ्वी से क्रमश: करीब 15.96 अरब कि.मी. और 12.86 अरब कि.मी. दूर थे। मगर ये दोनों एक-दूसरे से विपरीत दिशा में आगे बढ़ रहे थे। जी हाँ, आपको यह जानकर अचरज होगा कि पायोनीयर-10 शेष तीन यानों से विपरीत दिशा में जा रहा है। मगर सच कहें तो ये चार दिलेर यान कभी एक-दूसरे से नहीं मिलने वाले। अलबत्ता, मुझे लगता है कि पायोनीयर-10 बहुत मायूस होगा कि उसे इतनी बेदिली से बाकी तीन से अलग रखने की योजना बनाई गई है।

खैर, इसमें से कोई बात कोई बड़ा पेंच नहीं लगती। तो मैं पहले उसी पर आता हूँ, फिर आखिर में थोड़ी बात और करूँगा।
कड़वा सच यह है कि दोनों पायोनीयर के साथ हमारा सम्पर्क टूट चुका है। पायोनीयर-10 के साथ 12 सालों से और पायोनीयर-11 के साथ करीब दो दशकों से। और आप समझ ही गए होंगे कि वोयेजर के साथ भी देर-सबेर यही होने वाला है, उनकी बिजली के स्रोत के कमज़ोर पड़ने की बात हमने थोड़ी देर पहले की थी। 2025 के आसपास इन दोनों के पास बिजली समाप्त हो जाएगी और ये न तो वैज्ञानिक सूचनाएँ भेज सकेंगे और न ही यान के संचालन सम्बन्धी सूचनाएँ दे सकेंगे।

शुक्र है कि इन यानों के मूल डिज़ाइनर्स बहुत रचनात्मकता के धनी थे। खास तौर से बड़ी-बड़ी दूरियों पर संकेत भेजने के मामले में उन्होंने असाधारण सृजनात्मकता का परिचय दिया है। उन्होंने चारों यानों में अन्तर-निहारिका नोट्स रख दिए हैं जिन्हें कोई भी हासिल कर सकता है, पढ़ सकता है, सुन सकता है। शर्त बस इतनी है कि यान सही सलामत रहे।
सही पढ़ा आपने ‘जिन्हें कोई भी हासिल कर सकता है, पढ़ सकता है, सुन सकता है’।

यदि आप सोच रहे हैं कि यह ‘कोई भी’ कौन होगा तो आप इसकी जगह ज़्यादा लोकप्रिय शब्द ‘एलिएन्स’ इस्तेमाल कर सकते हैं।
वास्तव में इन यानों में दो किस्म के नोट्स हैं - एक को पायोनीयर फलक (Pioneer Plaques) कहते हैं और दूसरे हैं वोयेजर गोल्डन रिकॉर्ड्स। फलक पायोनीयर-10 व 11 में जड़े हैं जबकि गोल्डन रिकॉर्ड्स वोयेजर-1 व 2 में लगे हैं।
फलकों का वज़न मात्र 120 ग्राम है और ये सोने के पानी चढ़े एल्यूमिनियम से बने हैं। इस धातु की पट्टी पर चित्रात्मक संदेश उकेरा गया है। इस उत्कीर्ण चित्र में एक मानव नर व मानव मादा के नग्न चित्र हैं, और साथ में कई संकेत हैं (जैसे हाइड्रोजन के परमाणु की संरचना, हमारे सौर मण्डल की संरचना वगैरह) जिन्हें इस तरह डिज़ाइन किया गया है कि वे अन्तरिक्ष यान के उद्गम की जानकारी दे सकें।

दूसरी ओर, वोयेजर में संलग्न फोनोग्राफ रिकॉर्ड्स में 116 छवियाँ हैं जो हमारी पृथ्वी और हमारे बारे में जानकारी देती हैं। इन रिकॉर्ड्स में कई तरह की प्राकृतिक ध्वनियाँ हैं (जैसे समुद्र की लहरों की आवाज़ें, पवन और तूफान की ध्वनि, जन्तुओं की आवाज़ें, पक्षियों और व्हेल्स के गीत वगैरह)। इसके अलावा रिकॉर्ड में विभिन्न संस्कृतियों और ज़मानों के संगीत तथा उनसठ भाषाओं में अभिवादनों को शामिल किया गया है। इनमें बंगाली, गुजराती, हिन्दी, कन्नड़, मराठी, उड़िया, पंजाबी, राजस्थानी, तेलुगु और उर्दू जैसी भारतीय भाषाएँ भी शामिल की गई हैं। इस सर्व-समावेशी 90 मिनट के संगीत संग्रह में भैरवी राग में केसरबाई केरकर का आधे मिनट का गीत ‘जात कहाँ हो’ शामिल किया गया है।
तो क्या अब आपको कहानी का पेंच पकड़ में आने लगा है? मैं थोड़ी मदद करता हूँ। वोयेजर के गोल्डन रिकॉर्ड में तत्कालीन यूएस राष्ट्रपति जिमी कार्टर का मुद्रित सन्देश है: “यह एक छोटे-से दूरस्थ विश्व से एक तोहफा है। यह हमारी आवाज़ों, हमारे विज्ञान, हमारी छवियों, हमारे संगीत, हमारे विचारों और हमारे जज़्बातों की एक बानगी है। हम अपने समय में जीने की जद्दोजहद कर रहे हैं ताकि आपके समय में जी पाएँ।”

तो यह है पेंच। यदि इन चार यानों के साथ हमारा सम्पर्क पूरी तरह टूट जाता है, और हमें उनका कोई अता-पता नहीं रह जाता, यहाँ तक कि जब हम भूल जाएँगे कि हमने सुदूर अन्तरिक्ष में ऐसे कोई यान छोड़े थे, या चाहे भविष्य में पूरी मानव जाति इस धरती से सदा के लिए समाप्त हो जाए, फिर भी ये दो फलक और ये दो रिकॉर्ड ब्रह्माण्ड के विस्तार में आगे बढ़ते रहेंगे, और जब भी कोई बुद्धिमान शख्सियत इन्हें पा लेगी तो ये उन्हें बताएँगे कि हम कभी यहाँ थे।
इन दो अद्भुत चीज़ों के निर्माण का विचार अमरीका के लोकप्रिय खगोल शास्त्री, विज्ञान लेखक और विज्ञान सम्प्रेषक कार्ल सैगन ने दिया था। उन्होंने कहा था:
“यदि अन्तर-तारकीय अन्तरिक्ष में कोई ऐसी सभ्यता है जो अन्तरिक्ष यात्राएँ करती है, तभी यह अन्तरिक्ष यान उन्हें मिलेगा और वे रिकॉर्ड बजाएँगे। मगर इस ‘बोतल’ का ब्रह्माण्ड के ‘सागर’ में प्रक्षेपण इस ग्रह पर जीवन के बारे में बहुत आशाजनक सन्देश देता है।”
और अन्त में वोयेजर-1 अभियान के बारे में कार्ल सैगन द्वारा लिखे गए आलेखों से प्रेरणा लेकर मैं कुछ निवाले छोड़ूँगा जो शायद आपके विचारों के लिए भोजन साबित होंगे।

वोयेजर-1 ने फरवरी, 1990 में सौर मण्डल को अलविदा कहा था और सुदूर अन्तरिक्ष की अपनी यात्रा शुरु की थी। उस समय कार्ल सैगन के अनुरोध पर नासा ने आखरी बार वोयेजर के कैमरों को पीछे की तरफ मोड़कर पृथ्वी का एक अन्तिम चित्र खींचा था। तो 14 फरवरी, 1990 को वोयेजर ने रिकॉर्ड 6 अरब कि.मी. की दूरी से पृथ्वी ग्रह का चित्र खींचा था। यह चित्र आगे चलकर ‘हल्के नीले बिन्दु’ के नाम से मशहूर हुआ। चित्र में पृथ्वी की साइज़ 1 पिक्सेल से अधिक नहीं है। हमारा ग्रह अन्तरिक्ष के विस्तीर्ण पटल पर कैमरे की प्रकाशीय व्यवस्था से उपजे धूप के पट्टों में एक नन्हे-से बिन्दु के रूप में दिख रहा है। यदि कोई आपका ध्यान न दिलाए तो शायद आपको नज़र भी नहीं आएगा कि यह हमारा घर है। मेरा खयाल है कि बिल्लोरी काँच के साथ एक घण्टा बिताएँगे तो शायद आपको इस तस्वीर में धरती दिख जाए।

वोयेजर ने सौर मण्डल से बाहर निकलते हुए 1990 में पृथ्वी की अन्तिम बार फोटो खींची। लगभग 6 अरब कि.मी. की दूरी से खींची इस फोटो में धरती एक धूल के कण जैसी दिखाई दे रही थी। यहाँ धरती के अलावा शुक्र, बृहस्पति, शनि, यूरेनस व नेपच्यून के भी फोटोग्राफ हैं। सूरज के काफी करीब होने की वजह से बुध की फोटो नहीं खींची जा सकी और मंगल और प्लूटो की तस्वीर वोयेजर के कैमरे नहीं खींच पाए। 

 इसके बाद 1994 में कार्ल सैगन की पुस्तक ‘पेल ब्लू डॉट: ए विज़न ऑफ दी ह्यूमन फ्यूचर इन स्पेस’ का प्रकाशन हुआ। इसमें उन्होंने उस लगभग किसी भी आकार से रहित तस्वीर के बारे में अपने विचार प्रस्तुत किए थे। यहाँ उसके कुछ हिस्से उद्धरित करने का मोह मैं छोड़ नहीं पा रहा हूँ।

“एक बार फिर उस बिन्दु पर विचार कीजिए। यही है। यह घर है। यह हम हैं। आप जिन सबको प्यार करते हैं, जिन सबको जानते हैं, जिनके बारे में कभी सुना है, सारे मनुष्य जो कभी अस्तित्व में रहे, अपना जीवन व्यतीत किया, वे सब यहीं (बिन्दु पर) हैं। हमारे सारे सुख-दुख, आत्मविश्वास से भरपूर हज़ारों धर्म, विचारधाराएँ और आर्थिक विचार, हमारी प्रजाति के इतिहास का हर शिकारी और संग्रहकर्ता, हर नायक और कायर, सभ्यता का हर निर्माता और विनाश-कर्ता, हर राजा और रियाया, प्रेम करने वाला हर युगल, सारे माँ और पिता, आशान्वित बच्चा, आविष्कारक और खोजी, नैतिकता का हर शिक्षक, हर भ्रष्ट राजनेता, हर सुपरस्टार, हर महानायक, हर सन्त और पापी यहीं रहा है - धूप में टंगे धूल के एक कण पर।”

इस साल जनवरी में मैंनेे मिथकीय कथा साहित्य के एक युवा भारतीय लेखक को कहते सुना था कि उनकी पीढ़ी तो भारत में विज्ञान और टेक्नोलॉजी के लोकप्रियकरण के ज़माने में पली-बढ़ी है। तो हमें स्कूलों और कॉलेजों में स्वतंत्र कल्पनाशीलता से मरहूम रखा गया। इसलिए कई सारे वर्तमान लेखक, जो उस समूह के सदस्य रहे हैं, अपनी कहानियों और उपन्यासों के लिए प्रेरणा हेतु सीधे-सीधे अपनी मायथोलॉजी की ओर रुख कर रहे हैं। मैं भी विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ और उक्त लेखक की पीढ़ी का ही हूँ। इतने बुद्धिमान व प्रतिभाशाली व्यक्ति द्वारा युवाओं में कल्पनाशील विचारों की तबाही के लिए विज्ञान व टेक्नोलॉजी शिक्षा को दोष देने की बात सुनकर पहले तो मेरे मन में अविश्वास जागा, फिर गुस्सा आया और अन्तत: मायूसी छा गई। भारतीय शिक्षा प्रणाली के प्राचीन घराने के एक उत्पाद के तौर पर मैं जानता हूँ कि हमारे स्कूलों और कॉलेजों में विज्ञान के विषय कितने उबाऊ ढंग से पढ़ाए जाते हैं। मगर यह निहायत बेतुकी बात है कि शिक्षा संस्थानों में विज्ञान की घटिया पढ़ाई के आधार पर यह अन्तिम सत्य की तरह घोषित कर दिया जाए कि विज्ञान कल्पना-शीलता के लिए एक अभिशाप है।

आपको इस अन्तिम वक्तव्य का प्रमाण चाहिए? इंटरनेट की मदद से पेल ब्लू डॉट को खोजिए। इसके बाद कार्ल सैगन की उन पंक्तियों को पढ़िए। और यदि रात का समय हो, तो छत पर जाकर कुछ समय आसमान को निहारिए। और आसमान को निहारते हुए कल्पना कीजिए कि जब आप अपने रोज़मर्रा के काम हफ्ते-दर-हफ्ते, महीने-दर-महीने करते जाते हैं, तब चार अन्तरिक्ष यान वहाँ आसमान में मौजूद हैं जो हर सेकण्ड अपने उद्गम से दूर, सुदूर अन्तरिक्ष के विस्तार में आगे बढ़ते जा रहे हैं। वे इतने तनहा हैं कि उनके बारे में सोचकर भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ये कभी वापिस नहीं आएँगे, उन्हें पता नहीं है कि उनकी मंज़िल कहाँ है। फिर भी वे हमारी सभ्यता का पैगाम हर वक्त अपने साथ लेकर चल रहे हैं।


रुद्राशीष चक्रवर्ती: एकलव्य, भोपाल के प्रकाशन समूह के साथ कार्यरत हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।