सुनील वर्मा

शीर्षक थोड़ा अजीब लग रहा होगा लेकिन तुरन्त ही मुद्दे पर आकर बात शुरू करता हूँ। मैं और मेरे साथी देवास ज़िले के हाटपीपल्या ब्लॉक में ‘ग्रीष्म कालीन शिक्षक प्रशिक्षण’ में शामिल हुए। प्रशिक्षण के दौरान हमने शिक्षकों के साथ चर्चा एक प्रश्न से शुरू की, “गणित अध्यापन के दौरान बच्चों की समझ बनाने में आपको कहाँकहाँ दिक्कतें आती हैं?” शिक्षकों ने अपने अनुभव से दिक्कतों की एक बड़ी-सी सूची, बोर्ड पर लिखवा दी। इस सूची में ज़्यादातर समस्याएँ ‘बच्चों को गिनती सिखलाने’ से सम्बन्धित थीं। पूछने पर पता चला कि बच्चों को अंक पहचानने में, खासकर दो अंकों की संख्याओं को पढ़ने और लिखने में तरह-तरह की दिक्कतें आती हैं। जैसे - उल्टे अंक लिखना, संख्या को पहचानने में गड़बड़ी करना, किसी लिखी संख्या को पहचानते समय बच्चे अकसर दूसरी संख्या बोल जाते हैं। चर्चा के दौरान एक शिक्षिका ने सवाल किया, “सर, बताइए कि गिनती सिखाने का कौन-सा तरीका अच्छा है, जिससे बच्चे जल्दी से जल्दी गिनती सीखें?” हम प्रश्न समझ नहीं पाए, तब उन्होंने अपने प्रश्न को समझाते हुए बताया, “हमें पिछले साल एक प्रशिक्षण में बताया गया था, बच्चों को गिनती ‘एक पे एक ग्यारह, एक पे दो बारह,...’ तरीके से पढ़ाई जाए तो उन्हें गिनती पहचानने में समस्या नहीं होगी। परन्तु एक साल बाद भी हम देख रहे हैं, कि कक्षा में बच्चे अंकों को पहचानने में, लिखने में, इकाई-दहाई में गलती करते हैं। तो यह बताएँ कि बच्चों को किस तरीके से गिनती सिखाई जाए? क्या उन्हें ‘एक पे एक ग्यारह’ वाले तरीके से या ‘दस और एक ग्यारह’ वाले तरीके से या ‘दस पे एक ग्यारह’ वाले तरीके से’ गिनती बोलना सिखाएँ?”

उस समय हमारे पास कोई सटीक जवाब नहीं था कि कह पाते कि इस तरीके से पढ़ाने से बच्चों में जल्दी और अच्छी समझ बनाई जा सकती है। फिर भी प्रशिक्षण में हमारी कोशिश रही कि शिक्षकों में यह विश्वास बन जाए कि बच्चे अंक पहचान पाएँ, इसके लिए बच्चों में किस तरह की दक्षताओं की ज़रूरत होगी और वे क्रमश: किस तरह विकसित होंगी, उनके लिए कौन-सी गतिविधियाँ तैयार की जा सकती हैं और उन्हें कक्षा में किस तरीके से किया जाए आदि। इसी चर्चा के दौरान पता चला कि चालू सत्र में शिक्षक ‘एक पे एक ग्यारह, एक पे दो बारह...’ वाले तरीके से गिनती पढ़ा रहे हैं। यह प्रश्न दिमाग की गहराई में कहीं छिपा रहा कि आखिर वे क्या कारण हो सकते हैं जिन्होंने शिक्षकों को इस समस्या का हल तलाशने के लिए झकझोर दिया।

सौभाग्य से शैक्षणिक सत्र शुरू होते ही मुझे कक्षा तीन में गणित पढ़ाने का मौका मिला। हमारी शुरुआती योजना यह जाँच-पड़ताल करना थी कि क्या कक्षा तीन में भिन्नात्मक संख्या की समझ बनाई जा सकती है? यदि हाँ, तो कितनी? और वे तरीके कैसे होंगे? परन्तु कक्षा की शुरुआत में मैंने पाया कि बच्चों को पूर्णांक संख्या (दो अंकीय संख्या) पहचानने में दिक्कत हो रही है। यह समस्या, उस प्रशिक्षण की चर्चा में शिक्षकों द्वारा बताई गई दिक्कत के समान थी और अब उसके कारणों से रूबरू होने का समय आ गया था।

बच्चों के साथ लगभग तीन माह तक पूर्णांक संख्याओं पर काम करते हुए, और बच्चों की संख्यात्मक समझ बनाने के प्रयास में मेरी अपनी कुछ समझ बन सकी है। उसी से सम्बन्धित कक्षा के कुछ अनुभव साझा कर रहा हूँ।

गिनमाला से अंकों का अहसास  
कक्षा खत्म होने के कुछ समय पहले बच्चे मुझ से कह रहे थे, “सर, माला में दस मोती और डाल दो न!” मुझे लगा बच्चों में मोतीमाला और उसके ढेर सारे मोतियों के साथ काम करने का लगाव अभी बाकी है। मैंने कहा, “अच्छा ठीक है, हम कल अपनी माला में दस मोती और डाल लेंगे।” जैसे ही मैं दूसरे दिन कक्षा में आया, बच्चों ने सबसे पहले यही बात पूछी, “सर, और मोती लाए कि नहीं?” मैंने उन्हें ‘हाँ’ में जवाब दिया और माला जिसमें सिर्फ 10 लाल मोती थे, उसमें और 10 सफेद मोती पिरोकर कमरे में बाँध दिया। हालाँकि गिनमाला में 100 मोती होते हैं पर मेरा बच्चों के साथ क्रमश: 10-10 मोती बढ़ाते हुए काम करने का इरादा था। मैं माला बाँधते हुए सोच रहा था कि क्या मुझे 20 मोतियों के साथ वैसी ही गतिविधियाँ करनी चाहिए, जिस तरह 10 मोतियों के साथ की थीं जैसे

  • यह विश्वास बनाना कि माला में 20 ही मोती हैं 
  • सुनकर/लिखा देखकर, मोतियों को निकालने के अभ्यास।
  • मैं मोतियों को निकालूँ और बच्चे उसे लिखकर व बोलकर बताएँ।
  • जोड़ और घटाने के अभ्यास करना। पहले मोतीमाला पर मोतियों को मिलाने के अभ्यास तथा बोलना।
  • बोली गई संख्या के आधार पर मोती निकालना और जोड़ने/घटाने का अभ्यास करवाना। बोर्ड पर लिखकर बताना।
  • इशारों में दिए गए जोड़/घटा निर्देश को समझकर गिनमाला पर सवाल हल करना और सवाल लिखने का अभ्यास करना (अमूर्तीकरण की ओर ले जाना)।
  • बोर्ड पर लिखे सवाल को समझकर उन्हें मोतीमाला पर करके देखना और समझाना (मौखिक और लिखकर)।
  • इबारती सवालों को मोतीमाला पर करके देखना, समझाना और लिखकर बताना।

इसी उधेड़बुन में मैंने पहले बच्चों में विश्वास बनाने का निश्चय किया कि माला में 20 मोती हैं और मोती के मात्रा समूह में किस तरह के संख्यात्मक सम्बन्ध हैं। यहाँ संख्यात्मक सम्बन्ध से तात्पर्य एक समान 20 मात्रा में मोती या दो-दो की जोड़ी में 10 बार या 10-10 की जोड़ी में दो बार, या 5-5 की जोड़ी में चार बार से है, ताकि वे अपनी-अपनी समझ से गिनमाला पर कोई चिन्ह बना लें। चिन्ह या सीमा से तात्पर्य है, संख्या और मात्रा के साथ तालमेल व एक नज़र में बिना गिने किसी मात्रा का सही अन्दाज़ लगा पाना, ताकि हमें मोतियों को गिनते या संक्रिया करते समय आसानी और सहजता हो। मेरे अनुभव से ऊपर लिखे ऐसे अभ्यास के मौके हैं जिनसे बच्चे विश्वास बनाते हैं, गणितीय अमूर्त चिन्तन की ओर बढ़ते हैं और उसे इस्तेमाल करते हैं। मैंने सभी

लड़कियों को बारी-बारी से गिनमाला पर आकर मोती गिनने का अभ्यास करवाया और देखा कि वे आज मोतियों को स्कूल में सीखे गिनती गिनने के तरीके (एक पे एक ग्यारह, एक पे दो बारह,...आदि) से नहीं गिन रही हैं बल्कि वे सिर्फ संख्या-शब्द का उच्चारण कर गिन रही थीं (एक, दो, तीन, चार...ग्यारह, बारह, तेरह...)। पहले-पहल जब मैं मोतीमाला पर गिनने का अभ्यास करवाता था, तब बच्चों का गिनने का तरीका ‘एक पे एक ग्यारह, एक पे दो बारह, ...’ था और वे अक्सर दो अंकीय संख्या पहचानने में गलती करते थे। जैसे, ‘छह पे दो बारह।’ परन्तु आज लड़कियाँ निर्भीक होकर अपने तरीकों से मोतियों को गिन रही थीं। गिनती सिखाते समय मेरी बच्चों से इतनी अपेक्षा थी कि वे सिर्फ संख्याओं के नाम बोलें, न कि उस अंक की पहचान बताने के लिए लगाए गए अतिरिक्त विशेषण शब्द। अकसर हम यह निश्चित कर लेते हैं कि बच्चों को गिनती (संख्या-शब्द) के साथ-साथ प्रत्येक संख्या के पहचान सम्बन्धी विशेषण भी याद करा दें ताकि उन्हें जब कभी लिखे अंकों को पहचानने की आवश्यकता हो, तो वे संख्या की छवि (संख्या प्रतीक) देखकर, इकाई और दहाई के स्थान पर मौजूद अंकों के अनुसार उच्चारण करेंगे तो स्वत: ही उनके मँुह से उस अंक का संख्या-शब्द उच्चारित हो जाएगा और वे संख्या पहचान लेंगे। आमतौर पर यह भी माना जाता है कि यदि बच्चों ने, दिए गए अंक का उचित संख्यात्मक शब्द बोल दिया तो वे उस संख्या को भली-भाँति पहचानते हैं। क्या यह सही लगता है आपको?

संख्या की अवधारणा बनने की प्रक्रिया में अंक पहचान के साथ-साथ संख्या की दो अन्य पारस्परिक अवधारणाएँ भी बनती चलती हैं। जब ये तीनों एक-दूसरे से पारस्परिक सम्बन्धों के साथ मस्तिष्क में बैठती हैं तब किसी एक अंक (संख्या) की सम्पूर्ण अवधारणात्मक छवि पूरी होगी। परन्तु गिनती सिखाते समय इन तीनों अवधारणाओं को बिलकुल अलग-अलग सिखाया जाता है। फलस्वरूप, बच्चे भ्रम में पड़े रहते हैं। जब हम बच्चों से यह अपेक्षा करते हैं कि वे लिखी संख्या झट से पहचान लें, इस अपेक्षा में, सम्मिलित रूप से ये तीन अवधारणाएँ होती हैं:
1. लिखे हुए अंक की मस्तिष्क में छवि बनाना, अर्थात् अंक प्रतीक, जिसे हम ज़रूरत पड़ने पर तुरन्त ही पहचान सकें (number symbol)।
2. अंक का संख्या शब्द (number word)।
3. लिखे अंक की मात्रात्मक समझ। अर्थात् उस अंक के बराबर वस्तुओं की मात्रा (quantitative sense of the number)।

अब देखें गिनती सिखाने की प्रक्रिया में पारम्परिक तरीके किस तरह से इस्तेमाल किए जाते हैं, इनसे बच्चों को किस तरह की दिक्कतें होती हैं और क्या समझ विकसित होती है।

लिखे अंक की मस्तिष्क में छवि बनाना  
इस क्रम में सबसे पहले शिक्षक अंकों की छवि बनाने के प्रयास में रोज़ाना गिनती लिखकर लाने के गृहकार्य देते हैं। फिर शायद गृहकार्य पर बच्चों के साथ किसी तरह की चर्चा या अन्त:क्रिया होती हो। रोज़ाना इस तरह के बोरियत भरे गृहकार्य को बच्चे जल्दी-से-जल्दी निपटाने के तरीके विकसित कर लेते हैं जिन्हें हम शॉर्टकट्स कह सकते हैं। बच्चों के दो-तीन तरीके जो मैंने कक्षा में अभ्यास के दौरान देखे, वे आगे दी गई तालिका में दर्शाए गए हैं।

ये तरीके बच्चों ने खुद विकसित किए हैं जिसके लिए वे तारीफ के काबिल हैं। परन्तु इन तरीकों में बच्चे सिर्फ 1-9 तक की संख्या और अंक की पहचान सीख रहे हैं, जो वे अपने परिवेश व माहौल से अकसर स्कूल-पूर्व सीख चुके होते हैं। गिनती लेखन के अभ्यास में बच्चे चार्ट के सभी खड़े या आड़े खानों को पहले एक से नौ और शून्य तक के अंक से लिखने के बाद दूसरे अंक के स्थान पर क्रमश: 1 से 9 तक लिखकर, दो अंकीय संख्या बना लेते हैं और गिनती लेखन का गृहकार्य पूरा हो गया। इस तरह के खेल में बच्चों को बड़ा मज़ा आता है, परन्तु इस प्रकार के अभ्यास में संख्या के साथ संख्या-शब्द और मात्रा का जुड़ाव वाला काम तो रह ही जाता है।

संख्या का शाब्दिक उच्चारण सिखाना (संख्या-शब्द)  
गिनती सिखाते समय यह भी माना जाता है कि जितना सरल व आसान तरीका हो, बच्चों को वह सिखाओ ताकि वे जल्दी-से-जल्दी अंकों को पहचान सकें। अत: कक्षा 1 से ही अंकों के शाब्दिक उच्चारण बच्चों को ज़ोर-ज़ोर से बोलने और बार-बार उसी क्रम में दोहराए जाने की गतिविधि पर ज़ोर दिया जाता है। यहाँ भी संख्या की अवधारणा बनाने के दूसरे पहलू पर बिलकुल अलग-थलग प्रयास किया जा रहा है। पहले संख्या प्रतीक लिखने का और अब संख्या-शब्द याद करने का। संख्या की मात्रा की समझ का प्रयास शायद कभी-कभी ही किया जाता है परन्तु वह भी एक अलग रूप में। इस तरह ये तीनों प्रक्रियाएँ बिलकुल अलग-अलग सम्पन्न हो जाती हैं। अब गिनती चार्ट के दो अंकीय संख्या के शाब्दिक उच्चारण जो कक्षाओं में इस्तेमाल किए जाते हैं, उन्हें देखें।

चार्ट में हमें प्रत्येक आड़ी लाइन में समान ध्वनि को दोहराना है या सुनना है, जैसे - पे एक, पे दो, पे तीन, पे चार...आदि। अब एक उदाहरण के ज़रिए इसे समझने का प्रयास करें कि आखिर बच्चे कहाँ भ्रमित होते हैं। मेरी कक्षा में बहुत-सी लड़कियाँ दो अंकीय संख्या पहचानने की कोशिश में उसे किसी अन्य संख्या के संख्यात्मक शब्द से सम्बोधित कर जाती थीं। दरअसल, उन्हें एक-एक शब्द याद कराया जाता है, ताकि जब बच्चे शब्दों के युग्म को जैसे ही दोहराएँगे, झट से अनचाहे में ही उस अंक का नाम उनके मुँह से निकल पड़ेगा। बच्चों को यह स्पष्ट तौर से बताया जाता है कि पहले वाले अंक और बाद वाले अंक के नाम उच्चारण के मध्य ‘पे’ जोड़कर बोला जाना है जैसे ‘तीन पे चार...।’ परन्तु इन शब्द युग्मों की रचना में परेशानी यह है कि जब बच्चे अंकों को पहचानने के लिए शब्द युग्म बोलते हैं उस उच्चारण के दौरान आने वाली अन्तिम समान ध्वनि, जो गिनती चार्ट में कई संख्याओं के साथ आती है, की गूँज से वे अकसर भ्रमित हो जाते हैं। वे निश्चय नहीं कर पाते कि इस ध्वनि के साथ कौन-सी संख्या का ‘संयुग्म’ उच्चारण करना है।

चित्र में 34 को बच्चों द्वारा बोले जाने की सम्भावानाओं को दर्शाया गया है। कई बार तो स्पष्ट नहीं होता था कि बच्चे सम्भावनाओं में से कौन से संयुग्म बोलेंगे।

अन्य भारतीय भाषाओं में  
आइए, अब हम अँग्रेज़ी एवं भारत की अन्य तीन भाषाओं - मलयालम (केरल), कन्नड़ (कर्नाटक) और बांग्ला (प. बंगाल) में गिनती बोलने की शाब्दिक व्यवस्था के तरीकों को भी देखें।

अँग्रेज़ी, मलयालम और कन्नड़ तीनों भाषाओं में संख्या को सम्बोधित करने के लिए ‘संख्या-शब्द’ की बनावट या उच्चारण व्यवस्था इस तरह है जिसमें प्रत्येक ‘संख्या-शब्द’ मात्रा और अंक का स्थानीय मान भी व्यक्त करता है। इस व्यवस्था में संख्याओं को ‘मात्रा बोधक शब्द’ से दहाई से इकाई की ओर उच्चारण करते हुए नामकरण किया गया है। इसके अलावा ‘संख्या प्रतीक’ पहचान हेतु कोई अन्य शब्द इस्तेमाल नहीं हो रहा है। इससे इस व्यवस्था के तहत गिनती में किसी एक विशेष ‘अंक प्रतीक’ के साथ ‘संख्या-शब्द’ और मात्रा के भाव को याद रखने में आसानी होती है। दूसरी ओर हिन्दी गिनती की शाब्दिक संरचना में दो तरह की व्यवस्थाएँ लागू होती है। इसमें एक दैनिक व्यवहार के प्रयोग में आने वाली ‘संख्या-शब्द’ (ग्यारह, बारह,... इक्कीस, बाईस...) की उच्चारण व्यवस्था जो इकाई से दहाई की ओर बोलते हुए मात्रा के भाव के संयुग्म से बनी है, जबकि संख्या लिखने का तरीका दहाई से इकाई की ओर होता है। दूसरा, स्कूल में सिखाई जाने वाली गिनती, जिसमें ‘विशेषण शब्द’ (एक पे एक, एक पे दो...) जो दहाई से इकाई के उच्चारण करते हुए, मात्रा के भाव के प्रदर्शन के साथ-साथ दैनिक व्यवहार के प्रयोग में आने वाले ‘संख्या-शब्द’(ग्यारह, बारह,... इक्कीस, बाईस...), दोनों का मिश्रित रूप (एक पे एक ग्यारह, एक पे दो, बारह...) होता है। लगभग इसी तरह की व्यवस्था बांग्ला में भी अपनाई गई है। शायद मलयालम, कन्नड़ और अँग्रेज़ी में ‘संख्या-शब्द’ की व्यवस्था, लिखने की सहूलियत (दहाई से इकाई की ओर) और मात्रा बोध का सहज अहसास कराने के लिहाज़ से बनाई गई होगी। दूसरी ओर हिन्दी और बांग्ला में ‘संख्या शब्द’ व्यवस्था (इकाई से दहाई की ओर) लिखने के तरीके के बिलकुल उलट है।  साथ ही अँग्रेज़ी, मलयालम दो पे चार चौबीस और कन्नड़ में अंकों की पुनरावृत्ति से नई संख्याओं की रचना के समान, ‘पूर्व संख्या-शब्द’ के दोहराव से नए ‘संख्या-शब्द’ बनाने का प्रयास है (दाशमिक प्रणाली में 0-9 तक प्रतीक के बाद नए प्रतीक चिन्हों की रचना इन्हीं अंकों की पुनरावृत्ति से की गई है) जो मात्रा का भी बोध कराते हैं; जबकि हिन्दी में संख्याओं की शाब्दिक रचना में दो-तीन व्यवस्थाओं का मिश्रण नज़र आता है। जैसे--

1. 1-18 तक और 99, 100, प्रत्येक संख्या के लिए नए शब्द का प्रयोग।
2. दस की गुणज से एक कम (10x-1) संख्या (19,29,39,49,59,69,79,89,) के लिए संख्या-शब्दों की अलग व्यवस्था।
3. दस के गुणज और दो (10x-2) जैसी संख्या (12, 22, 32, 42, 52, 62, 72, 82, 92) के लिए अलग व्यवस्था जिससे मात्रा का सहज अहसास नहीं हो पाता।
4. 50-59 अंकों के लिए अलग व्यवस्था।

अत: गिनती सिखाने व बच्चों को संख्या पहचानने में होने वाली दिक्कतों को दूर करने के लिए ऐसे तरीके ढूँढ़े जाने चाहिए जिससे अंकों की पूर्ण अवधारणा (संख्या प्रतीक, संख्या-शब्द और मात्रात्मक भाव की मिश्रित अवधारणा) भी साथ-साथ बनाई जाएँ, तथा सिखाने की प्रक्रिया में यह निश्चित कर लिया जाए कि प्रत्येक संख्या अपने आप में एक पूर्ण संख्या है और उसे सम्बोधित करने का सिर्फ एक ‘संख्या-शब्द’।

मेरा प्रयास रहेगा कि अगले अंक में मैं मेरी कक्षा में गिनती सिखाने के तरीके की चर्चा के साथ आपसे मिलूँ।


सुनील वर्मा: एकलव्य के होशंगाबाद केन्द्र पर गणित समूह के साथ कार्यरत।

लेख में दिए गए कन्नड, मलयालम व बांग्ला भाषा के ‘शाब्दिक गिनती चार्ट’ बनाने में यमुना सन्नी व बिन्दु तिरूमलय का विशेष सहयोग रहा।