अंजु दास मानिकपुरी

अच्छा तो तुम इंदौर में थी... फिर तो तुम किशोर पंवार और भोलेश्वर दुबे को ज़रूर जानती होगी!! मालवी आती है? ओह! तो तुम आईपीएस अकेडमी में थी... अरे, वहाँ फिज़िक्स डिपार्टमेंट में डॉक्टर बाबूलाल सराफ थे न? उनके साथ काम किया है  क्या?” और न जाने ऐसे कितने सारे सवालों की झड़ी लग गई थी, जब मैं पहली बार कालू राम शर्मा से मिली। हम जब भी मिलते तो मालवा के गराड़ु और दाल-बाफले की बात ज़रूर करते। वे उज्जैन के नमकीन के बारे में बताते और मैं कहती, “मुझे उज्जैन के नमकीन से ज़्यादा, हमारे तिलकनगर इंदौर के नमकीन ज़्यादा भाते हैं।” फिर हम दोनों नमकीन के प्रकार और खुशबू पर खूब बहस करते और रतलामी सेव पर आकर एकमत हो जाते। हमारा चाय का ज़ायका भी एक-जैसा था।

जब भी विज्ञान समूह में काम करने वाले साथी आपस में मिलते तो मैं अक्सर ध्यान देती कि के.आर. शर्मा या तो ध्यान से कुछ पढ़ रहे होते या लिखते मिलते या फिर कोई गतिविधि करते दिखते। कई बार कुछ साथी उनकी गतिविधि में इतना तल्लीन हो जाते थे कि वे थोड़ी देर के लिए अपने असाइनमेंट के बारे में ही भूल जाते थे। मैंने अक्सर देखा कि वे किसी भी काम के लिए कभी मना नहीं करते थे और हाँ, दलीलों को जल्दी माना भी नहीं करते थे। देर सांझ तक अक्सर चुपचाप अपना काम करते रहते।

विज्ञान करते समय जब भी कोई समस्या आती थी तो हम उसका हल निकालने के लिए कालू रामजी की मदद लेते थे। हम दोनों भले ही अलग-अलग विषयों पर काम कर रहे होते, मसलन मैं रसायन शास्त्र की कुछ अवधारणाओं पर काम कर रही थी और कालू रामजी जीव विज्ञान की अवधारणाओं पर, लेकिन वे हर अवधारणा पर अपने विचार खुलकर रखते थे और समस्याओं को सुलझाने के प्रयत्न में वे मेरे साथ हर तरह का जोखिम उठाने को तैयार रहते थे। मैंने उनके साथ काम करते हुए सीखा कि हर व्यक्ति का विचार बेहद महत्वपूर्ण है, किसी विचार पर नया या पुराना, छोटा या बड़ा जैसा तमगा लगाने की बजाय ज़रूरी है कि उन विचारों पर बात की जाए।

एकलव्य में विज्ञान विषय पर काम करते हुए कालू रामजी के पास इतना ज़्यादा अनुभव इकट्ठा हो गया था कि मुझे हर बार उनकी बातें आकर्षित करती थीं, मैं यह सोच पाती थी कि एकलव्य में काम कैसे होता होगा। कई बार वे रोज़मर्रा के सवाल पूछते थे जैसे – “अंजु क्या तुमने रसोई में काम करते हुए ध्यान दिया है कि यदि कढ़ाई थोड़ी गीली हो और उसमें तेल डाल दिया जाए तो बड़ी ज़ोर-ज़ोर-से आवाज़ आती है? इस तरह की कुछ घटनाओं को भी अपने पदार्थ वाले मॉड्यूल में जोड़ सकते हैं क्या?” शायद उन्हें बहुत सारी घटनाओं के पीछे के कारण मालूम होते थे पर फिर भी वे सीधे उत्तर देने की बजाय मुझे खोजने की तार्किक प्रक्रिया में हर कदम पर मार्गदर्शन देते रहे। समस्याओं को भी उन्होंने संवाद का एक मंच बनाया; जहाँ समस्या को सुलझाने की कोशिश की जाए, उसके लिए कुछ पढ़ा जाए, कुछ गतिविधियाँ करके देख ली जाएँ, कुछ अवलोकनों के पैटर्न को समझा जाए एवं उसके बाद अपने विचारों को जाँचा जाए और उन विचारों पर दूसरों को भी सवाल उठाने का लचीलापन रहे। अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन में उनके साथ काम करते हुए, उनके साथ बिताया गया समय मुझे यह सिखा गया कि हम विज्ञान कैसे सीखते हैं।

ज़िद, जिजीविषा, जीवटता और जीवन्तता - एक साथ किसी एक आदमी में देखनी हो तो उनके व्यक्तित्व को जानने वाले कहेंगे कि अगर इसमें सहजता भी जोड़ दें तो वह आदमी के.आर. शर्मा हो सकता है। मैं जब भी उनसे पूछती कि आप इतना सहज और बेबाक तरीके से कैसे लिखते हैं, तो उनका जवाब होता था, “अंजु, किसी की कृपा से अच्छे लेखक कभी नहीं बनते। तुम्हारे मन में जो आए वो लिखो, लिखते समय खुद पर पाबन्दियाँ मत लगाओ। एकदम बहती हवा जैसे, बहती नदी जैसे बस अपने शब्दों को लिखते जाओ। जब पूरा लिख लो तो अपने आपको लेखक के अलावा बतौर पाठक भी पढ़ो, यदि तुम लिखे हुए को बतौर पाठक समझ पा रही हो तो बस, आगे बढ़ जाओ। देखो भाई, ये कमी निकालने का काम सम्पादक मण्डल पर छोड़ दो।” उन्होंने इतना लिखा है और ऐसी साधारण भाषा में लिखा है कि हर तरह का पाठक उनकी रचना को पढ़ सकता है और वे अपने लेखन के ज़रिए बच्चों और वयस्कों को बेहतरीन संसाधन उपलब्ध कराते रहे।
मुझे लगता था कि कालू रामजी बढ़िया जीव वैज्ञानिक हैं और विज्ञान के मुद्दों पर अच्छी रचनाएँ लिखते हैं जो किताब और पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। लेकिन एक बार फिर उनके व्यक्तित्व के एक अन्य हिस्से से मेरी मुलाकात हुई, जब मैंने उन्हें भोपाल में गाते सुना – आ चल के तुझे, मैं ले के चलूँ... कितना डूबकर गाए थे। तब मुझे समझ आया कि कालू रामजी अच्छा लिखने के साथ-साथ अच्छा गाते भी हैं। लेकिन उन्हें जानने का सिलसिला यहीं नहीं थमा, आगे के सफर में पता चला कि वे तो इन्स्ट्रुमेंट भी अच्छा बजाते हैं।

एक आसान-सा प्रयोग
एक दौर बीच में ऐसा आया था जब बेहद पढ़े-लिखे लोग अपने भाषण और व्याख्यान में यह कहने लगे थे कि गाय साँस छोड़ते समय ऑक्सीजन छोड़ती है। कालू रामजी ने इस अवधारणा पर तुरन्त लिखने की बजाय बाकायदा इस पर प्रयोग किया। प्रयोग के लिए आवश्यक सामान भी ऐसा लिया कि हर कोई वह प्रयोग कर सके, हर कोई का मतलब है बच्चे, युवा और बुज़ुर्ग सब; जो स्कूल गए हैं वे भी और जो किसी कारण से स्कूल नहीं जा पाए, वे भी। बस चूने के पानी और पन्नी से उन्होंने साबित कर दिया कि भाई, गाय भी अन्य जानवरों की तरह साँस छोड़ते समय कार्बन डाई ऑक्साइड ही छोड़ती है। अपने अनुभव को उन्होंने लेख के रूप में प्रकाशित भी किया और उस लेख को हमने शिक्षकों के साथ काम करने के लिए खूब उपयोग किया।
पिछले डेढ़ साल से हम सब कोरोना वायरस से जूझ रहे हैं। जब पूरी दुनिया के वैज्ञानिक कोरोना वायरस को समझने की कोशिश कर रहे थे और आम आदमी इस वायरस से भयभीत था, उस समय के.आर. शर्मा ने एकदम सरल भाषा में इस वायरस पर बेहद सारगर्भित लेख लिखा। इस लेख को हमने हर समूह के साथ साझा किया और जिसने भी इस लेख को पढ़ा, उन्होंने कालू रामजी को दिल से शुक्रिया कहा।

अलविदा कालू रामजी!
कालू रामजी, आपने तो इस वायरस के बारे में खूब पढ़ा था, आप विज्ञान विषय के विद्यार्थी थे, जिस वायरस से आपने सबको जागरूक कराया, वही वायरस आपको हमसे कैसे छीन सकता है?
आज जब आप हमारे बीच में नहीं हैं तो मेरा (और मुझे लगता है आपसे जुड़े हर व्यक्ति का) यही कहना है कि आपके जैसा सहज होना कठिन है।


अंजु दास मानिकपुरी: अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, रायपुर (छत्तीसगढ़) में विज्ञान शिक्षण सम्बन्धी काम कर रही हैं। इससे पहले वे इन्दौर में रसायन विज्ञान की सहायक प्रोफेसर थीं।