मौसमी सेन शर्मा
हम इधर-उधर घूमते हैं, अनजानी जगहों पर अपनी स्थिति-दिशा जान लेते हैं और फिर तुरन्त ही अपने घर या स्कूल का रास्ता पहचान लेते हैं। और यह सब करते हुए हमें उस प्रक्रिया का तनिक भी भान नहीं होता जिसकी वजह से हम यह सब कर पाते हैं। हमारे जैसे जटिल शहरों में दिशा ढूँढ़ने का हुनर कोई आसान नहीं, हमें दूरी और दिशा का ज्ञान होना चाहिए। भू-चिन्हों की पहचान के साथ-साथ कई सारे अन्य संकेतकों की मदद से अपना रास्ता पहचानने का सामर्थ्य होना चाहिए। हर घूमने-फिरने वाले पशु को अपना रास्ता ढूँढ़ने की ज़रूरत होती है और इसलिए उसे इस तरह के कौशल की दरकार होती है। घोंसले में असहाय बच्चे को छोड़, खाने की तलाश में गए पक्षी के लिए सफलतापूर्वक अपना रास्ता खोज पाना कितना ज़रूरी है, इसका अन्दाज़ सहज ही लगाया जा सकता है। ज़रा-सी भी गलती की कीमत अत्यन्त घातक हो सकती है।
ततैयों की कुछ प्रजातियाँ अण्डे देने के लिए छोटे छिपे हुए-से छत्ते बनाती हैं और अपने लार्वा को पर्याप्त भोजन उपलब्ध कराने हेतु कई-एक बार आना-जाना करती हैं। हरेक प्राणी आसपास के पत्थरों, रेत के टिब्बों और अन्य भ्रामक परिवेश के बीच अपने छत्ते की सटीक पहचान करना सीखता है। इस क्षमता को गृह-बोध (होमिंग इंस्टिंक्ट) कहते हैं। इसे सबसे पहले डच कीट वैज्ञानिक निकोलस टिनबर्गेन ने खोदक ततैयों में पहचाना था। प्राणी व्यवहार के क्षेत्र में ततैयों, मधुमक्खियों, मछलियों और पक्षियों पर अपने उल्लेखनीय अध्ययन के लिए कॉनराड लॉरेंज़ और कार्ल वॉन फ्रिस्च के साथ टिनबर्गेन को संयुक्त रूप से 1973 का नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था।
राह की पहचान कैसे?
चींटियों और मधुमक्खियों जैसे सामाजिक कीट अपने घर बनाते हैं। हज़ारों की संख्या में वयस्क और नवजात इनमें बसते हैं, फलते-फूलते हैं और इनका संवर्धन होता है। यह सब कई महीनों की अवधि में होता है। हर दिन वयस्क खाने की तलाश में निकलते हैं और जो कुछ भी मिलता है, उसे अपने छत्ते के साथियों के साथ साझा करते हैं। तत्पश्चात कामगारों को भोजन लाने के काम पर तैनात कर दिया जाता है। प्रत्येक वयस्क अपने जीवनकाल में अपने छत्ते और भोजन प्राप्ति स्थल के बीच हज़ारों बार आता-जाता है। उसका घर तो एक ही जगह पर रहता है जबकि भोजन छत्ते से कई किलोमीटर के घेरे में पाया जा सकता है।
अधिकांश चींटियाँ और कुछ मक्खियाँ अपनी राह में विशेष गन्ध छोड़ती जाती हैं ताकि घर ढूँढ़ने में कोई समस्या न हो और अन्य चींटियों, मक्खियों को भी भोजन प्राप्ति स्थल का पता चलता रहे। लेकिन चींटियों की कुछ खास प्रजातियाँ और मधुमक्खियाँ राह-पहचान हेतु गन्ध का कोई सुराग नहीं छोड़तीं। इसकी बजाय वे पर्यावरण में बिखरे संकेतों की मदद से यह पता करती रहती हैं कि वे कहाँ जा रही हैं और घर वापसी कैसे होगी। सही दिकचालन के लिए उस प्राणी में अपने छत्ते से भोजन के स्रोत की दिशा व दूरी नापने की क्षमता होनी चाहिए।
आन्तरिक कम्पास
आज यह सर्वविदित है कि मधुमक्खियों समेत कई अन्य प्राणियों में आन्तरिक कुतुबनुमा कम्पास होते हैं। मधुमक्खियाँ अक्सर एक कम्पास इस्तेमाल करती हैं जिसमें सूर्य को सन्दर्भ माना जाता है। पहली एक-दो बार की उड़ानों से मधुमक्खियों को आकाश में सूर्य की स्थिति पता चल जाती है। इस जानकारी के आधार पर मधुमक्खियाँ दिनभर सूर्य की दिशा की गणना करती रहती हैं।
ऐसा देखा गया है कि भोजन तक पहुँंचने के लिए चींटियाँ और मक्खियाँ सर्पिल मोड़ों वाला पेचीदा मार्ग अपनाती हैं, लेकिन वापस अपने छत्ते पर आने के लिए सबसे छोटा मार्ग चुनती हैं। रेगिस्तानी चींटियों पर वेहनर और उनके साथियों द्वारा किया गया अध्ययन दर्शाता है कि वे यह काम एक गणना के ज़रिए करती हैं जिसे पथ-एकीकरण कहते हैं, यानी वे तमाम सदिश राशियों (वेक्टर) की परिणामी सदिश राशि की गणना करती हैं। और यही वह रास्ता होता है जिसे वे भोजन तक पहुँचने के लिए चुनती हैं। यह दिशारेखा उनके छत्ते की दिशा की ओर इशारा करती है। इसीलिए इसे ‘होम वेक्टर’ कहते हैं। होम वेक्टर की लगातार गणना करनी होती है और इसे अपडेट करते रहना होता है। ऐसा इसलिए कि यदि यात्रा के दौरान किसी समय चींटियों की राह में कोई व्यवधान आए और उसे मज़ेदार खाने के कुछ टुकड़े मिल जाएँ तो वे इसी होम वेक्टर के सहारे तुरन्त ही वापस अपने घर पहुँच सकती हैं। मधुमक्खियों पर किए गए प्रयोग प्रदर्शित करते हैं कि वे भी पथ-एकीकरण के ज़रिए अपना रास्ता ढूँढ़ती हैं।
फूलों के नए खज़ाने को खोजने के साथ ही मधुमक्खियाँ कामगार मक्खियों को जल्द-से-जल्द मकरन्द इकट्ठा करने का ज़िम्मा सौंप देती हैं। इस बात का पूरा खयाल रखा जाता है कि प्रतिद्वन्द्वियों के पहुँचने से पहले भरपूर फायदा उठा लिया जाए। फूल खोजी मक्खियाँ इन कामगारों को बताती हैं कि लक्ष्य कितनी दूर और छत्ते से किस दिशा में है। कार्ल वॉन फ्रिस्च ने देखा कि मधुमक्खियाँ सम्प्रेषण का यह काम नृत्य की भाषा से करती हैं। फ्रिस्च ने चीनी के घोल रूपी भोजन के स्रोेत तक आने हेतु मधुमक्खियों को प्रशिक्षित किया। भोजन के साथ वापस अपने छत्ते पर आने पर उन्होंने मधुमक्खियों का व्यवहार देखा। भोजन के स्रोेत की छत्ते से दूरी में बदलाव के साथ-साथ नृत्य भाषा में भी बदलाव आता है। नृत्य या तो गोले में होता है या फिर कम्पन करते हुए। कम्पन की दिशा भोजन की दिशा बताती है जबकि नृत्य की कम्पन अवधि या प्रति मिनट कम्पनों की संख्या भोजन स्रोेत की छत्ते से दूरी। 50 मीटर से कम दूरी होने पर यह नृत्य लगभग गोल नृत्य जैसा ही होता है।
मधुमक्खियों की मापन और सम्प्रेषण की इस क्षमता ने वैज्ञानिकों को अचरज में डाल दिया कि ये दूरी का मापन कैसे करती हैं। फ्रिस्च का कहना था कि मक्खियाँ दो बिन्दुओं के बीच उड़ने में खर्च हुई ऊर्जा से उनके बीच की दूरी का अन्दाज़ लगाती हैं। लेकिन कई प्रयोगों के बाद भी इस परिकल्पना का कोई आधार नहीं मिला। प्रयोगों में पाया गया कि वास्तव में अतिरिक्त ऊर्जा खर्च करने के बावजूद दूरी का अन्दाज़ सही नहीं था। मसलन, फ्रिस्च और सहयोगियों ने देखा कि जिन मधुमक्खियों को भोजन के वास्ते ज़मीन से ऊपर विभिन्न ऊँचाइयों पर उड़ते गुब्बारों तक जाना पड़ा, उन्होंने दूरी का आकलन करने में ऊँचाई को शामिल नहीं किया। वास्तविकता यह है कि ऊँचाई बढ़ने के साथ मधुमक्खियों ने क्षैतिज दूरी को कम ही आँका।
मधुमक्खी की नृत्य भाषा
गोल नृत्य में मक्खी छत्ते के पास गोले में नाचती हैं। यह छत्ते से 80 मीटर के घेरे में भोजन मौजूद होने की सूचना है। कम्पन नृत्य में मधुमक्खियाँ 8 के आकार में नाचती हैं। 8 के बीच के हिस्से में कम्पन नृत्य होता है। इस दौरान वे अपने पिछले हिस्से में कम्पन करती हैं। इसकी आवृत्ति भोजन के स्रोेत की दूरी का सूचक है।
ओडोमीटर भी
इसके अलावा शक्कर के घोल रूपी भोजन की प्राप्ति हेतु मधुमक्खियों को संकरी सुरंग से भी गुज़रने को प्रेरित किया जा सकता है। एक बार उस जगह पर वे लगातार आने लगें तो भोजन का वह स्रोत हटाया जा सकता है। और अगर वे उसी जगह पर आना जारी रखती हैं तो यह दर्शाया जा सकता है कि उन्हें भोजन के स्रोत की एकदम ठीक जगह पता चल गई है। यह भी दर्शाया गया है कि यह सीखना न तो उस गन्ध पर आधारित है जिसे मधुमक्खियाँ अपने पीछे छोड़ सकती हैं, न ही सुरंग की लम्बाई या फिर ऐसे ही अन्य सुरागों पर। हाँ, सुरंग की दीवारों के पैटर्न का सीखने पर असर पड़ता है।
भोजन के स्रोेत की एकदम सही पहचान उन मामलों में हुई जब दीवार का पैटर्न या तो खड़ी लकीरों के रूप में था या फिर बेतरतीब था। लेकिन जगह का अन्दाज़ तब गड़बड़ा गया था जब धारियाँ आड़ी खिचीं थीं। इश्च और बर्न्स ने पाया कि मक्खियाँ उनकी आँखों के सामने से गुज़रने वाली चीज़ों की कोणीय गति का मापन करती हैं और फिर इन्हें जोड़कर दूरी का अन्दाज़ लगाती हैं। श्रीनिवासन और उनके सहयोगियों का कहना है कि मक्खियों में मौजूद ओडोमीटर उन्हें यह कोणीय गति मापने में सहायता देता है। (ओडोमीटर दूरी मापने का यंत्र होता है)। बाद में इस बात की पुष्टि हुई कि गति का मापन संरचना पर निर्भर नहीं करता, इसलिए धारियाँ घनी हों या छितरी हुई हों, इसका दूरी के आकलन पर असर नहीं पड़ता है। हाँ, मक्खी से इनकी दूरी इस आकलन को ज़रूर प्रभावित करती हैं। इसलिए दूरी के आकलन पर इस बात का प्रभाव पड़ता है कि सुरंग संकरी थी या चौड़ी।
नृत्य का गणित
श्रीनिवासन और उनके सहयोगियों ने यह भी बताया है कि कैसे ओडोमीटर में संशोधन कर, उसे इमेज की गति को नृत्य की भाषा में बदलने के काम में लाया जाता है। चिन्हित मक्खियों को ज्ञात चौड़ाई और लम्बाई वाली सुरंगों से गुज़ारा गया और उनके द्वारा छत्ते पर पहुँचकर किए गए नृत्य का विश्लेषण करने पर पाया गया कि बेतरतीब पैटर्न वाली संकरी सुरंगों से गुज़रने वाली मक्खियाँ दूरी का गलत अन्दाज़ लगाती हैं। वे वास्तव में 6 मीटर उड़ी थीं लेकिन उनका आकलन 186 मीटर का था। हो सकता है कि तय की गई दूरी को वे सीधे-सीधे दूरी के रूप में न लेते हुए, आँखों द्वारा अनुभव की गई इमेज गति की मात्रा के रूप में ग्रहण करती हों। शोधकर्ताओं ने गणना की कि 11 से.मी. चौड़ी सुरंग के बीचों-बीच 1 से.मी. का फासला तय करने पर दीवार का बिम्ब 10.3 डिग्री के कोण से पीछे हटेगा। इस हिसाब से 6 मीटर फासला तय करने में कुल 6180 डिग्री की इमेज गति होगी।
अर्थात् इमेज गति आसपास के फूलों और ज़मीन की औसत दूरी पर बहुत ज़्यादा निर्भर करेगी और इसलिए यह पर्यावरण आधारित भी है। इसके बावजूद लगता है कि यह तरीका काफी कारगर होगा क्योंकि नई कामगार मक्खियाँ उन्हीं रास्तों को अपनाती हैं जिन्हें अनुभवी मक्खियाँ ढूँढ़ती हैं।
चींटियों के पास इस तरह के किसी ओडोमीटर की उपस्थिति के कोई प्रमाण नहीं हैं। फिर भोजन की तलाश में कई-कई किलोमीटर जाने वाली चींटियाँ क्या करती होंगी, शायद वे अपने कदमों को ही गिनती हों।
मौसमी सेन शर्मा: सेंटर फॉर ईकोलॉजिकल साइंसिस, भारतीय विज्ञान संस्थान, बेंगलुरु में कार्यरत हैं।
यह लेख स्रोत पत्रिका, अंक दिसम्बर 2001 से साभार।