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चकमक का यह जुड़वाँ अंक है। दो गुना अंक।

कवर-1
इस अंक का आवरण वृषाली जोशी के दस छोटे छोटे वृक्ष चित्रों के कोलॉज से बना है। वृषाली बार-बार वृक्ष बनाकर बार-बार वृक्ष को समझती, जानती और उससे प्रेम करती हैं। कई बार उनके वृक्ष सिर्फ वृक्ष का एक आकार होते हैं। कई बार सिर्फ रंग। कई बार सिर्फ धूप। वृक्षों की धूप वृक्षों की धूप होती है। कई बार सिर्फ डालियाँ और उनसे बनते आकारों को जानने के लिए.... वृक्ष का बनना जैसे कभी खत्म नहीं होता है। जब वृक्ष वृक्ष रहता तब तो होता ही है जब वह वृक्ष नहीं रहता तब भी उसके रंग, उसके आकार, उसकी चरमराहट हमारे जीवन में बनी रहती है। इस कोलज के एक छोटा-सा वाकया भी है - जिसमें एक स्मृति है कि एक बच्चा कैसे बचपन के एक पेड़ को याद करता है जो अब नहीं है। वहाँ एक दूकान है। और वह पेड़ बार-बार स्मृति में आता है और बच्चा हर बार उसका चित्र बनाता है। टीचर कहते हैं कौआ बनाओ तो वह हरा बनाता है। जैसे कौए को याद करता है तो उसे इमली भी याद आती है। टीचर कहते हैं कि सूरज बनाओ तो वह हरा सूरज बनाता है कि सूरज को याद करते हुए वह पेड़ भी याद आता है। वह सोचता है - मैं सूरज हरा बनाता हूँ तो टीचर डाँटते हैं। जब लोग इमली की दूकान बना देते हैं तो उन्हें कोई नहीं डाँटता।

काला और मैं/ कहानी- चन्दन यादव/ चित्र-प्रोइती राय
काला और मैं उन बहुसंख्यक बचपनों की कहानी है जो अनदेखी झेल रहे हैं। इस कहानी के नायक दो बच्चे हैं। एक विस्थापित है। उसकी ज़मीन के नीचे कोयला निकल आया। इस वाक्य को देखें। जब आप इस कहानी को पढ़ चुके होंगे तो फिर इस वाक्य की चमक आपको पता चलेगी। जैसे - कोयला ज़मीन में नहीं उस ज़मीन पर रहने वाले लोगों के जीवन में निकल आया हो। इस तरह की कहानी बालसाहित्य में कम मिलती हैं। क्योंकि हम अकसर बच्चों को एक नकली तथा सुन्दर-सुन्दर दुनिया में अटकाए रखना चाहते हैं। असल जीवन से उनको बचाए रखना चाहते हैं। यह भूलकर कि हम लाख छुपा लें पर हमारे आसपास की हकीकत उनसे खुलती रहेगी। यह कहानी इसलिए भी आपको आकर्षित करेगी कि यह डायरेक्ट नहीं है। इसमें क्राफ्ट तथा कहानीपन की कीमत पर कोई मुद्दा सामने नहीं लाया गया है। यह कहानी दो अलग दिखते बचपनों को समान रूप से जूझते हुए दिखाती है।
प्रोइती राय शांतिनिकेतन स्कूल की चित्रकार हैं। उन्होंने बहुत ही सुन्दर चित्रण इस कहानी का किया है।

टहनी पेंसिल/लम्बी कहानी – विनोद कुमार शुक्ल/ चित्र – अतनु राय
हिन्दी के प्रख्यात रचनाकार विनोदकुमार शुक्ल की लम्बी कहानी का पहला भाग। भाषा के असम्भव से खेल तथा कहने की ऐसी कला अन्यत्र नहीं। और बहुत चुटीले सम्वाद भी। जैसे इसकी एक किरदार कूना एक पेड़ ने नीचे ध्यान कर रहे बाबा से कहती है - बाबा हम बोलते हैं तो आप चुप कराते हो। क्या आप ने कभी तोतों को टेंटें करने से मना किया? चिडि़यों को चहचहाने से रोका?
और ज़रा इन वाक्यों पर गौर कीजिए -
कुछ बदल गया था। कुछ नहीं बदला था। यह ऐसा था कि बहुत दिन एक दिन की तरह बीत गया।
पहला वाक्य है - कुछ बदल गया था यानी बहुत कुछ नहीं बदला था। पर अगला वाक्य यह नहीं कहता। वह कहता है - कुछ नहीं बदला था। मतलब? कुछ नहीं बदला था मतलब बहुत कुछ बदल गया था? नहीं। मतलब बदलना बहुत धीमा था। बहुत धीमा। इतना कम कुछ बदला था कि वह - कुछ नहीं बदला - जैसा था। इसलिए अब इसी रोशनी में आगे का चमत्कारी वाक्य पढि़ए - यह ऐसा था कि बहुत दिन एक दिन की तरह बीत गया। बहुत दिन एक दिन की तरह बीत गए थे - ऐसा नहीं कहा है। ऐसा कहेंगे तो हम जैसे मान लेंगे कि बहुत दिन बहुत दिन थे। और वे एक दिन की तरह बीते। इन बहुत दिनों में बहुत सुबहें थीं, बहुत शामें थीं। बहुत रातें थीं। तब फिर वे बहुत दिन ही हुए न। पर ऐसा नहीं है। जैसे - एक दिन - होता है वैसा यह - एक बहुत दिन - था। दिन तो मानी हुई अवधि है। तो अगर हम एक दिन बहुत दिनों को मान लें तो। अगर आपको ऐसा कोई भाव कहना हो तो कैसे कहेंगे कि बहुत सा समय बीत गया जिसमें कुछ हुआ ही नहीं। लेखक ने इसे बहुत ही रचनात्मक तरीके से कहा है। और एक तरह से भाषा में कहने की तथा सोचने की गुंजाइश बढ़ाकर भाषा का दायरा भी बढ़ाया है। क्या ऐसी रचनाएँ भाषा के सूक्ष्म तथा आनंददायक स्वभाव तथा उसके आंतरिक संसार में विचरने का मौका नहीं देती हैं? यहाँ शब्द कितना निरीह हो जाता है। तो फिर उसका अर्थ निर्मांण कहाँ होता है? इसलिए एक कवि ने कहा है कि साहित्य अर्थ से ज़्यादा अभिप्रायों में रहता है।
इस कहानी के झिलमिल चित्र मशहूर चित्रकार अतनु राय ने बनाए हैं।

बोली रंगोली में गुलज़ार साब की इस बार की पंक्तियाँ भी खूबसूरत थीं
वक्त काटना क्या मुश्किल है? एक घण्टे को आधा करके

उसको फिर से आधा कर लो तो पंद्रह मिनिट हैं
पंद्रह मिनिट को तीन हिस्सों में काटो
पाँच मिनिट के तीन हिस्से बचते हैं
पाँच के काटो तीन और दो दो के फिर दो
एक बचेगा
वक्त काटना क्या मुश्किल है?

बच्चों ने बहुत ही खूबसूरत चित्र बनाए हैं। किसी ने पेड़ का चित्र बनाया है। असल में हमारा समय हमारे आसपास की चीज़ों से ही तो बना है। और उन्ही में बीत जाता है। एक नदी है तो उसे देखने का समय है। उसी से एक मछुआरे का समय है। किसान का समय है। पक्षियों का, जानवरों का। हम नई-नई चीज़ें रचकर अपना समय बनाते हैं। इसलिए कहते हैं कि वहाँ मेरा अच्छा वक्त गुज़रा। पर असल में हुआ क्या? हम अपने स्कूलों को आनंददायक बनाने में लगे रहते हैं कि बच्चों के लिए बेहतर वक्त बने।
भाषा कई बार शब्दों के अलग-अलग अर्थों से मज़ेदार नए अर्थ बनाती है। जैसे, यहाँ काटना शब्द। वक्त को काटना और अमरूद को काटना अलग चीज़ है। या रास्ता काटना। इन्ही खेलों से हमें शब्दों को जानने का भी मौका मिलता है। यह कितने कमाल की बात है कि एक भी बच्चे ने घड़ी को आरी से काटते हुए नहीं दिखाया। या समय के किसी और रूपक को काटते हुए नहीं दिखाया है। स्कूल के एक पीरयड का समय तय करते समय यह ख्याल भी तो रखते हैं कि वह बच्चों से कट पाए। ...

वो चालीस मिनिट/संस्मरण – नरेश सक्सेना/ चित्र – हबीब अली
हिन्दी के मशहूर कवि नरेश सक्सेना ने एक किस्सा बयान किया है। किस्सा इतना रोमांचक है कि पढ़ने वाले के रोंगटे खड़े कर दे। चालीस मिनिट का एक-एक पल इतना भारी था कि पाठक भी उसे महसूस करने लगता है। विन्दा करंदीकर का एक किस्सा कुछ अंकों पहले पाठकों ने पढ़ा था। अन्द और बाहर के लोग। इसकी एक झलक इस किस्से में भी मिलेगी। इस किस्से से समय की यह तासीर भी पता चलेगी कि अलग-अलग परिस्थितियों में समय का एक ही अंतराल कितना अलग-अलग होता है। यानी मज़दूर का एक घण्टा और एक दूकान में आराम से बैठकर काम कर रहे व्यक्ति का एक घण्टा कितना अलग हो सकता है। बल्कि एक ही दूकान में बैठे एक मालिक आदमी का एक घण्टा तथा एक वहाँ के एक कामगार आदमी का एक घण्टा कितना अलग-अलग हो सकता है। कथ्य के हिसाब से भाषा तथा शैली बदलती है। इस रोमांचक किस्से में भी यह भी देखने लायक है।

क्या आप बता सकते हैं कि किन एक-दो वाक्यों ने रोमांच पैदा होने में सबसे ज़्यादा मदद की। हबीब अली ने इस कोहरे भरी रात में रेलगाड़ी में एक मुसीबत में पड़े इंसान को दिखाने की बेहतरीन कोशिश की है।

पेड़
एक कविता है। हवा पर, पानी पर, मिट्टी पर, रंग और आकाश पर 

आरी किसी पर नहीं चलती है।
वह पेड़ पर चलती है
और कटकर गिर जाते हैं
हवा, पानी, मिट्टी, रंग और आकाश।

इस कविता को बहुत ही सुरीला चित्र बनाया है चित्रकार तापोषी घोषाल ने।

बुढ़िया/निरंकार देव सेवक/चित्र- तापोशी घोषाल
बुढि़या की एक कहानी है और एक कविता।

एक कविता है निरंकारदेव सेवक की।
कहीं एक बुढि़या थी
जिसका नाम नहीं था कुछ भी
वो दिन भर खाली रहती थी काम नहीं था कुछ भी
......
ऊपर से देखने पर यह एक अत्यंत सरल तथा इसलिए बच्चों के लिए एकदम मुफीद कविता मानी जाती है। यह और बात है कि यह कविता इसे ध्यान से देखने की माँग करती है। इसमें एक बुढि़या है जिसकी कोई आइडेंटिटी नहीं है। उसके पास काम नहीं है। काम होता तो आराम होता। यह कविता इस पाठ में एक मार्मिक कविता बन जाती है। हमारे आसपास ऐसी बुढि़याँ देखी जा सकती हैं। क्या स्कूल बच्चों को किसी ऐसी बुढि़या से बातचीत का होमवर्क दे सकता है? तब शायद बच्चे इस कविता के अर्थ तक पहुँचेंगे। एक चित्रकार के लिए यह एक बहुत ही मुश्किल कविता है। क्योंकि यह कविता - नहीं होने - पर चलती है। नहीं होना शब्दों में तो बताया जा सकता है पर चित्रों में तो वह घटित हो जाएगा। इस कविता का चित्र सम्भव करते हुए तापोशी घोषाल ने क्या युक्ति अपनाई यह चित्र देखकर आपको पता चलेगा। क्या कभी कभी ऐसी कविताओं के चित्र बनवाकर भी पढ़ाई की एकरसता नहीं तोड़ी जानी चाहिए?

इसी कविता के साथ एक और कहानी है पर इसकी बुढि़या ज़रा सी अलग है। है वह भी अकेली। कहते हैं कि एक ज़माना था तब बुढि़याँ चाहें वे नानी हों या दादी कहानी सुनाने के लिए बच्चो से घिरी रहती थीं। पर यह अकेलेपन का दौर है। तो अकेली बुढि़या सोचती है कि काश वो पंछी होती। और उसका सपना सच हो जाता है। वह उड़ने लग जाती है। यह एक ज़र्मन कहानी है। इसके चित्र कमाल हैं। चित्रकार का नाम है - निकोलस हाइडलबाख।

स्कूल का पहला दिन
आयुषी फिलहाल पाँचवीं में पढ़ती हैं। पर उन्हें अपने स्कूल जाने का पहला दिन है। एक-एक विवरण। मम्मी से क्या बातें हुर्इं। स्कूल में उनसे पहला सवाल क्या पूछा जानते हैं - तुम्हें क्या आता है? क्या आता है सवाल में अपने अनुभव नहीं बताने होते हैं। न यह कि सपना आता है। या सूसू आती है। या गंध आती है। या रुलाई आती है। या हॉकी आती है। या छुपना आता है। ...गिनती आती हैं कि नहीं...ए बीसी आती है कि नहीं। और जानते हैं इस बच्चे की क्षमता क्या थी? आयुषी ने अपनी माँ से पूछा - अम्मा सर ने अपनी अलमारी के ऊपर ये जग क्यों सजा रखे हैं। अम्मा ने कहा - नहीं जग नहीं हैं। ये ट्रॉफी हैं। आयुषी को तो नहीं मालूम था कि ट्रॉफी क्या बला होती है। तो भाषा का जो कमाल है। उसने अनुमान लगाया। ज़रूर इसमें टॉफी रखते होंगे। खैर। इस मज़ेदार वर्णन को पढ़ना एक कमाल अनुभव होगा।

अलग पर एक जैसे/चित्रकथा – फेरीदल ओराल
एक चित्रकथा है। छोटी सी। एक भेड़ के बच्चे की। एक खूबसूरत मेमने की। जिसकी अगली दो टाँगे जन्म से ही कमज़ोर थीं। इतनी कमज़ोर कि वह चल-फिर नहीं सकती थी। लेकिन चरवाहा उसे यूँ ही तो नहीं छोड़ सकता था। उसने एक तरकीब लगाई और मेमना कुलाँचे मारता फिरने लगा। ...फेरीदल ओराल के दिल मोह लेने वाले चित्रों के साथ इस कहानी को पढ़कर दिल खुश हो जाएगा।

अंदाज़े गुफ्तगू के क्या कहने/किस्सा – हिमांशु बाजपेयी/चित्र – प्रिया कुरियन
हिमांशु की एक और दिलकश दास्तान। एक नवाब की। और तीन लड़कियों की। जो निडर हैं। और दो टूक कहने वाली। नवाब उनकी इसी बात पर उन्हें माफ कर देता है। पर किस्सा क्या था...। किस्सा और वह भी उर्दू के शहद माफिक शब्दों तथा उनके अर्थों के साथ। वाह। ऊपर से प्रिया कुरियन का एक पूरे पन्ने का समाँ बाँध देने वाला चित्र।

हद है! /लेख – पल्लवी वर्मा / चित्र-निज़ार अली बद्र
आज पूरी ही दुनिया में बच्चे संघर्ष कर रहे हैं। युद्ध, आतंकवाद, दंगे, कलह ...सबका अंज़ाम बच्चों को भुगतना पड़ता है। सीरिया के एक बच्चे की कहानी के बहाने पूरी दुनिया के बच्चों के बारे में एक बयान। और सीरियाई शिल्पी निज़ार अली बद्र का मार्मिक तथा हिम्मत बँधाने वाला इंटरव्यू पढ़ना एक अनुबव हो सकता है। और इस पूरे लेख तथा इंटरव्यू में प्रस्तुत उनके पंद्रह से ज़्यादा पत्थर शिल्प सीरिया तथा सीरिया के बहाने बहुत कह रहे हैं। एक एक शिल्प आपको मोह लेगा।

शंख घोष तथा उनकी कविताएँ/प्रयाग शुक्ल/चित्र-वृषाली
शंखघोष हमारे देश के बहुत मशहूर चिंतक तथा रचनाकार हैं। उनके साहित्य में योगदान के लिए इस वर्ष उन्हें ज्ञानपीठ अवार्ड भी मिला है। यह हमारे देश का सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार है। शंख घोष ने बांगला में बच्चों के लिए भी कई कई कविताएँ लिखी हैं। उनके बारे में कवि-कलाकार प्रयाग शुक्ल का एक छोटा सा आलेख तथा उनकी दो कविताओं का हिन्दी अनुवाद। सिर्फ इतना ही नहीं...हिन्दी अनुवाद के अलावा हमने इन बांगला कविताओं को देवनागिरी लिपि में भी छापा है। क्यों? ताकि तुम बांगला भाषा तथा उसकी ध्वनियों का मज़ा उठा सको ...और याद हो जाएँ तो अपने किसी बंगाली जानने वाले दोस्त को सुना सकते हो। अगर तुम्हारा उच्चारण ठीक रहा तो तुम्हें शाबासी मिल सकती है।

कबाड़ में कला/ रिपोर्ट – चन्दन यादव
एक कैम्प लगा। कैम्प में कबाड़ को बच्चों ने इकट्ठा किया था। कबाड़ के ढेर लगे। और बच्चों ने मिलकर उस कबाड़ में आकृतियाँ देखीं। और यह भी कि उनसे क्या क्या बनाया जा सकता है। तीन दिनों में बच्चों ने टूटी साइकिल, मोटर साइकिल, नट-बोल्ट, टीन-टप्पर ...से कई शिल्प बनाए। तीन शिल्पियों ने इस काम में उन्हें थोड़ी बहुत मदद की। इस कार्यशाला के चित्र तथा बच्चों के साथ बातचीत।

माधुरी पुरन्दरे की कहानियाँ अलग क्यों होती हैं?/लेख – संध्या टाकसाले
तुमने कभी ये नाम सुना है? माधुरी जी मराठी की बहुत बड़ी लेखक व चित्रकार हैं। बच्चों की कई कहानियाँ उन्होंने लिखी हैं। उन्हें पिछले दिनों आज का बच्चों के साहित्य का सबसे बड़ा पुरस्कार मिला। इसी अवसर पर उनके बारे में एक आलेख तथा उनके कुछ चित्र।

मेरा पन्ना
बच्चों के चित्र। बच्चों के द्वारा लिखी गई कविताएँ, कहानियाँ, किस्से।

पेड़ की कीमत/ लेख – रेक्स रोज़ारियो
एक पेड़ की क्या कीमत? पेड़ की कीमत अगर पता भी करें तो कैसे? एक बहुत ही दिलचस्प लेख। चकमक के संस्थापक सम्पादक रैक्स डी रोज़ारिओ का लिखा। और इसी के साथ है रेक्स की लिखी हुई एक उलझन। तुम भी इसे पढ़कर उलझन में पड़ जाओगे।

दीवार में सुराख/ कहानी – एत्गार कैरेट/ चित्र- अतनु राय
एत्गार कैरेट इज़राइली लेखक हैं। वे दुनिया के बड़े कहानीकार माने जाते हैं। कहते हैं उनकी कहानी एक बार अगर पढ़ना शुरू की तो फिर आप उसे पूरी पढ़कर ही उठ सकते हैं। ऐसी ही गिरफ्त में ले आने वाली एक कहानी। इस कहानी का नायक एक व्यक्ति है जिसके पंख होते हैं। और जो उन्हें एक कोट में छिपाए रहता है। वह किस्सेबाज़ है। वह अपने दोस्त को कहता है कि वह उड़ सकता है। उसका दोस्त उसे उड़ते हुए देखकर तसल्ली कर लेना चाहता है कि वह सचमुच उड़ सकता है और कि उसके सुनाए किस्से सच होते हैं। और एक दिन उसे मौका मिलता है। अपने दोस्त को परखने का। कि वह उड़ सकता है कि नहीं। ...अतनु राय के बेहद खूबसूरत चित्र के साथ।

नाचघर की पाँचवीं किस्त – एक रुकी हुई सुबह / कहानी-प्रियम्वद/चित्र-प्रशान्त सोनी
कथाकार प्रियम्वद की कहानी का अगला भाग। इस कहानी में मोहसिन एक दूधवाले का काम करता है। और उसका यह अनुभव कितना दिलचस्प होता है। इसी सिलसिले में वह घोंसले से गिरे एक चिडि़या के बच्चे को भी बचाता है। बेहद खूबसूरत भाषा तथा कहन के लिए भी इस कहानी को ज़रा थमकर पढ़ा जाना चाहिए।

उस्ताद/किस्से-गोपाल भांड
गोपाल भांड के दो किस्से। एकदम चुटीले। और हबीब अली का एक बहुत ही दिलकश चित्र।

हाइकू/तेजी ग्रोवर/चित्र-नीलेश गहलोत
हाइकू तीन पंक्ति की कविता को कहते हैं। हाइकू जापानी शब्द है। हाइकू के बारे में दिलचस्प बातचीत के अलावा जापान के कालजयी दस हाइकू पढ़ना अद्भुत अनुभव होगा। कवि चित्रकार तेजी ग्रोवर ने इन हाइकू का अनुवाद हिन्दी में किया है।

नीलेश गेहलोत ने प्रकृति का एक सुन्दर चित्र बनाया है।

लद्दाख की कहानी/लेख व फोटो-जयंत पंड्या
जय पंड्या घुमन्तू आदमी हैं। उनके पाँव में चक्के लगे हैं। कहीं एक जगह नहीं रहते। इस बार वे गए लद्दाख। लद्दाख की यात्रा का वर्णन पढ़ोगे तो तुम्हारा भी मन हो जाएगा लद्दाख जाने का। इस यात्रा के पाँच-छह फोटोग्राफ्स के साथ।

पीले और अन्य रंग को सेती चिड़िया/लेख व चित्र-तेजी ग्रोवर
तेजी ग्रोवर चित्रकार हैं। उन्हें बच्चों के साथ चित्र बनाने में उन्हें कहानियाँ सुनाने में बहुत आनंद आता है। उन्होंने इस बार फ्रांस की एक नदी लूआर की मिट्टी से रंग बनाए और रंगों से चित्र। तेजी पहले भी चकमक में प्राकृतिक रंग बनाने की एक श्रृंखला लिख चुकी हैं जिसमें कितनी आसानी से हमने रंग बनाना सीखा था। इस मिट्टी के रंग से बने एक बहुत ही दिलकश चित्र के साथ उनका यह अनुभव पढ़ो।

नाडिया, क्या तुम खुश हो?/स्मरण-नाडिया – सी एन सुब्रह्मण्यम्-रश्मि पालीवाल-कमल सिंह
रेक्स डी रोजारियो ने कई महत्वपूर्ण काम किए। इनमें से एक है चकमक पत्रिका की शुरुआत। बीती 19 तारीख को उनका निधन हो गया है। वे व्यक्तिगत जीवन में भी एक दिलचस्प तथा प्रेरक और आज़ाद ख्याल व्यक्ति के रूप में जाने जाते हैं। उनकी बेटी नाडिया ने अपने पिता को याद किया है। एक पिता कैसा हो सकता है इसकी एक मिसाल है यह स्मृति। इसके अलावा रेक्स के तीन साथियों ने भी रेक्स को याद किया है।

इच्छू-बिनिया/कहानी – शशि सबलोक/चित्र-प्रिया कुरियन
छोटे बच्चों की फंतासी की दुनिया का एक किस्सा

माथापच्ची तथा चित्रपहेली
जैसे नियमित कॉलम तो हैं ही। जिनमें तुम्हें हर बार की तरह दिमागी कसरत के भरपूर मौके मिलेंगे।