एन. जोस, मानबिका मंडल और शांतनु दीक्षित

पिछले वर्ष केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण ने रिपोर्ट किया था कि भारत बिजली सरप्लस राष्ट्र होने की दहलीज़ पर है। जो देश बिजली के अभाव का आदी हो, वहां यह बात विश्वसनीय बिजली सप्लाई की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम जैसी लगती है। किंतु सरप्लस बिजली ने अभाव को दूर नहीं किया है। खास तौर से देश के ग्रामीण इलाके आज भी बिजली कटौतियों का सामना कर रहे हैं। इस विरोधाभास की व्याख्या क्या है?
सरप्लस बिजली तब होती है जब वितरण कंपनियों के पास उपलब्ध बिजली मांग से ज़्यादा होती है। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि औद्योगिक बंदी के दौरान बिजली की मांग कम हो जाए। या जब कोई नई बिजली उत्पादन इकाई शु डिग्री हो जाती है तो सप्लाई बढ़ने के कारण भी बिजली सरप्लस हो सकती है। विभिन्न राज्यों के विश्लेषण से पता चलता है कि बढ़ता सरप्लस मुख्यत: सप्लाई में वृद्धि के कारण है।
पहले यह देखते हैं कि सरप्लस बिजली एक समस्या क्यों है। अव्वल तो इसने वितरण कंपनियों पर काफी वित्तीय बोझ डाला है और लगता है कि यह उनके पहले से ही नाज़ुक वित्तीय स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा।

बिजली की लागत
वितरण कंपनियां अधिकांश बिजली की खरीद बिजली उत्पादन कंपनियों से दीर्घावधि (25-वर्षीय) अनुबंधों के तहत करती हैं। ये अनुबंध वितरण कंपनियों को कानूनी तौर पर बाध्य कर देते हैं कि वे एक स्थिर लागत के हिसाब से उत्पादन कंपनियों को हर साल भारी भरकम राशि का भुगतान करें। इसके अलावा परिवर्तनशील लागत के लिए प्रति युनिट बिजली का भुगतान करना होता है (यह अधिकांशत: ईंधन की लागत होती है)।
चाहे कोई वितरण कंपनी उत्पादन कंपनी से किसी अवधि में बिजली प्राप्त न करे, किंतु उसे स्थिर लागत का भुगतान तो करना ही होता है। यदि इस सरप्लस की बिक्री न हो, तो बैक डाउन किया जाता है। इसका मतलब है कि उस अवधि में बिजली उत्पादन इकाई बंद पड़ी रहती है। इस दौरान स्थिर लागत तो वहन करनी होती है जबकि बिजली उत्पादन शून्य होता है।
प्रस्तुत तालिका में बताया गया है कि पांच राज्यों में इस तरह के बैक डाउन का वित्तीय असर क्या होता है। महाराष्ट्र को छोड़कर शेष राज्यों के आंकड़े 2015-16 के हैं, महाराष्ट्र के आंकड़े 2016-17 के हैं।

कुल मिलाकर परिणाम यह है कि राज्य उस सरप्लस बिजली का भुगतान कर रहे हैं जिसका वे उपयोग ही नहीं करते। बैकिंग डाउन की वजह से उत्पादन कंपनियों को स्थिर लागत का भुगतान 15 से 35 प्रतिशत तक हो रहा है। गुजरात में यह भुगतान बिजली पर दी जाने वाली कृषि सबसिडी से ज़्यादा है। अन्य राज्यों में यह भुगतान बिजली सबसिडी के 40 से 60 प्रतिशत के बराबर है। और इस लागत का बोझ अंतत: बिजली उपभोक्ता वहन करते हैं।

विपरीतों की समस्या
चूंकि सरप्लस बिजली से लदी वितरण कंपनियों ने बिजली के लिए लंबी अवधि के कानूनी रूप से बंधनकारी अनुबंध किए हैं, इसलिए इस बिजली को लौटा देना या उत्पादन क्षमता का नए सिरे से आवंटन करना मुश्किल है। लिहाज़ा, सरप्लस बिजली की लागत से निपटने की सबसे आम रणनीति है कि इसकी बिक्री सुनिश्चित की जाए।
सरप्लस बिजली आम तौर पर महंगी और मौसमी होती है, इसलिए इसके खरीदार बहुत कम मिलते हैं। खास तौर से उस स्थिति में इसके लिए खरीदार ढूंढना मुश्किल होता है, जब अल्पावधि के बाज़ार में सस्ती बिजली एक दिन पहले आदेश देकर खरीदी जा सकती है। यह बात भी उतनी ही सच है कि वितरण कंपनियों ने सरप्लस बिजली को मौसमी तौर पर या मध्यम अवधि के आधार पर ऐसे अन्य राज्यों को बेचने की कोशिश नहीं की है जहां बिजली की कमी है।
हाल ही में बिजली के सरप्लस वाली महाराष्ट्र राज्य बिजली वितरण कंपनी अभावग्रस्त उत्तर प्रदेश की वितरण कंपनियों को दो माह के लिए बिजली बेचने पर राज़ी हुई है। इस तरह के प्रयास अन्य कंपनियों को भी करने होंगे। इसके लिए डिस्कवरी ऑफ एफिशिएंट इलेक्ट्रिसिटी प्राइस (क़्ककघ्) जैसे मददगार मंचों का उपयोग किया जा सकता है। इस मंच को पिछले वर्ष ही केंद्र सरकार ने लघु अवधि के लिए बिजली नीलामी में मदद के लिए स्थापित किया है।
सरप्लस क्षमता की परिवर्तनशील लागत 2.7 रुपए से 3.3 रुपए प्रति युनिट होती है और अभावग्रस्त राज्यों में जिस क्षमता के लिए नए अनुबंध हुए हैं उसकी लागत 4 रुपए से 5.7 रुपए प्रति युनिट है। लिहाज़ा सरप्लस बिजली की बिक्री से वितरण कंपनियों को आमदनी भी होगी और अभावग्रस्त राज्यों में बिजली खरीद की लागत भी कम हो सकती है।

नियामकों का अति-उत्साह
वितरण कंपनियों द्वारा वसूले जाने वाले शुल्क के निर्धारण की ज़िम्मेदारी प्रांतीय विद्युत नियामक आयोगों की है। ये आयोग आम तौर पर अगले साल के लिए पूर्व निर्धारित दरों के आधार पर सरप्लस बिक्री की मंज़ूरी दे देते हैं। इसके लिए आयोग बिजली संयंत्रों के वास्तविक उत्पादन को नहीं बल्कि मानक-आधारित उत्पादन को आधार बनाते हैं। इसलिए कई संयंत्रों के मामले में नियामक आयोग मानकर चलते हैं कि पहले जितना उत्पादन हासिल नहीं हुआ उससे ज़्यादा उत्पादन होगा। परिणाम यह होता है कि बिक्री के लिए उपलब्ध सरप्लस का अनुमान वास्तविकता से ज़्यादा लगाया जाता है।
अल्पावधि के बाज़ार में सस्ती बिजली की उपलब्धता के बावजूद, नियामक आयोग यह भी मानते हैं कि सरप्लस बिजली को ऊंची दरों पर बेचा जाता है ताकि लागत वसूल हो सके। ऐसी आशावादी बिक्री से प्राप्त होने वाली अनुमानित आमदनी का उपयोग अनुमानित लागतों को कम करने में और उपभोक्ताओं से वसूले जाने वाले शुल्क में रियायत देने के लिए किया जाता है।

नियामक आयोगों द्वारा शुल्क दर की मंज़ूरी इस आधार पर दी जाती है कि अगले वर्ष वितरण कंपनियां अपने खर्चों की पूर्ति कर सकें। उस वर्ष जितने भी अतिरिक्त खर्च होते हैं, जिनकी वसूली नहीं हो पाती, वे वितरण कंपनियों के नुकसान में योगदान देते हैं।
सरप्लस क्षमता की बिक्री के अनुमान लगाकर कई राज्यों ने अगले वर्ष में ज़रूरी शुल्क वृद्धि को आधे से भी कम रखा है। इस रणनीति का उपयोग करते हुए, मध्य प्रदेश ने वर्ष 2014-15 में शुल्क वृद्धि को पूरी तरह टाल दिया था। अलबत्ता, ऑडिट में पता चला है कि सरप्लस क्षमता की बिक्री से जितनी आमदनी का अनुमान लगाया गया था, वास्तविक बिक्री से उसकी 20-50 प्रतिशत ही मिल पाई।
इसका कारण यह है कि वास्तव में जितनी सरप्लस बिजली बिक्री के लिए उपलब्ध होती है, वह नियामक आयोग के अनुमान से काफी कम होती है। दूसरी बात यह है कि नियामक आयोग जितनी कीमत मानकर चलता है, वास्तव में सरप्लस बिजली उससे काफी कम कीमत पर बेची जाती है।
अनुमानित आमदनी अर्जित न कर पाने की वजह से वितरण कंपनियां घाटे में चली जाती हैं। यदि शुल्क वृद्धि करके इस घाटे की पूर्ति न की जाए, तो कर्ज़ बढ़ता जाता है। कर्ज़ की वजह से अंतत: कंपनियों के लिए बेलआउट पैकेज की ज़रूरत पड़ती है। ऐसा सबसे ताज़ा पैकेज केंद्र सरकार द्वारा 2015 में शुरु की गई उज्ज्वल डिस्कॉम आश्वासन योजना (उदय) है।
यदि सरप्लस का यथार्थवादी अनुमान लगाया जाए और इसे संभावित कीमत पर बेचने की बात हो, तो नियामक आयोग वितरण कंपनियों पर इसकी बिक्री को सुनिश्चित करने का दबाव बना सकते हैं। किंतु वर्तमान हालात में, हो सकता है कि नियामक आयोग सरप्लस की बिक्री से पर्याप्त आमदनी का अनुमान व्यक्त कर रहे हैं, ताकि उस वर्ष ज़रूरी शुल्क वृद्धि को टाला जा सके न कि इसलिए कि सरप्लस बिजली का प्रबंधन किया जा सके।

सरप्लस बिजली तो रहेगी
आज, स्थिति यह है कि अधिक से अधिक औद्योगिक उपभोक्ता वितरण कंपनियों का साथ छोड़ रहे हैं और सीधे अपनी पसंद के उत्पादनकर्ता से बिजली खरीद रहे हैं। इसके अलावा, कीमतों में गिरावट होने के चलते नवीकरणीय बिजली क्षमता तेज़ी से बढ़ रही है। आम तौर पर इस क्षमता से होने वाले उत्पादन को बंद नहीं किया जाता है। तो, वितरण कंपनियों के पास उपलब्ध सरप्लस बिजली में वृद्धि होना तय है। इसके चलते निकट भविष्य में काफी सारी ताप-विद्युत उत्पादन क्षमता को बैक डाउन किया जाना भी तय है।
फिलहाल भी, कई राज्यों में हाल ही में स्थापित ताप बिजली संयंत्रों को बंद करने की नौबत आई है। दरअसल, गुजरात व महाराष्ट्र की वितरण कंपनियों ने आने वाले वर्षों में उन बिजली संयंत्रों के बैक डाउन का भी अनुमान व्यक्त किया है जो अभी स्थापित भी नहीं हुए हैं। यह कहना गलत न होगा कि हाल ही में अनुबंधित कई सारे बिजली संयंत्र सिर्फ बैक डाउन करने के लिए बनाए जा रहे हैं।
सरप्लस बिजली के प्रबंधन पर तत्काल ध्यान नहीं दिया गया तो भारत में बिजली वितरण क्षेत्र में यह भी उसी तरह की कठिन समस्या बन जाएगी जैसी कि वितरण व पारेषण हानियों की और अत्यधिक क्रॉस सबसिडी की है। (स्रोत फीचर्स)