चक्रेश जैन

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के वैज्ञानिकों की टीम ने 5 जून को श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से अभी तक निर्मित रॉकेटों में सबसे भारी और अत्यधिक शक्तिशाली रॉकेट जियोसिंक्रोनस सेटेलाइट लांच वेहिकल मार्क-3 का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण किया है।
पूरी तरह देश में ही तैयार यह रॉकेट दो सौ वयस्क हाथियों के बराबर वज़न का है। दरअसल यह पहला रॉकेट है जिसमें देशी क्रायोजेनिक इंजन लगाया गया है। क्रायोजेनिक इंजन बेहद शक्तिशाली होता है और अत्यधिक निम्न तापमान के विज्ञान पर काम करता है। इस प्रौद्योगिकी में महारत हासिल करने में हमारे यहां के वैज्ञानिकों को लगभग पन्द्रह वर्ष लगे हैं। यह वही रॉकेट है, जिसकी पीठ पर सवार होकर जीसैट-19 संचार उपग्रह को अंतरिक्ष में स्थापित किया गया है। इस उपग्रह का  वज़न 3200 किलोग्राम है। इसकी मदद से देश में दूरसंचार और प्रसारण सेवाओं को बेहतर बनाया जा सकेगा। एक बात और, भविष्य में हम अपनी ही धरती से अपने रॉकेट अथवा प्रक्षेपण यान के ज़रिए अंतरिक्ष में मानव को भेज सकेंगे।  

जीएसएलवी मार्क-3 का वज़न 640 टन और लम्बाई 43 मीटर है। इस नए रॉकेट की लागत 300 करोड़ रुपए है। यह पूरी तरह कार्यक्षम यानी फंक्शनल रॉकेट है, जिसके क्रायोजेनिक इंजन में प्रणोदकों के रूप में द्रव ऑक्सीजन और द्रव हाइड्रोजन का इस्तेमाल किया गया है। सी-25 वास्तव में जीएसएलवी का वृहद ऊपरी चरण है। यह रॉकेट का वह हिस्सा है, जिसका निर्माण सबसे मुश्किल और चुनौतीपूर्ण है। इसरो ने इसी वर्ष 18 फरवरी को सी-25 का सफल परीक्षण किया था। देश में ही जीएसएलवी एमके-3 को विकसित करने में 25 वर्ष लगे हैं। इस अवधि में लगभग 11 उड़ानों और रॉकेट के विभिन्न घटकों का करीब दो सौ बार परीक्षण किया गया है।

किसी भी देश के सामने शक्तिशाली रॉकेट अथवा प्रक्षेपण यान में प्रयुक्त क्रायोजेनिक इंजन का निर्माण एक बड़ी चुनौती है। हमारे अंतरिक्ष वैज्ञानिकों और प्रौद्योगिकीविदों ने इसे स्वीकारते हुए अंतत: बड़ी सफलता प्राप्त की है। बीते दशकों में हमने कई बार रॉकेट भेजे हैं, परन्तु हर बार सफलता नहीं मिली है। प्रश्न उठता है कि क्या हमें असफलताओं से हताश होकर अंतरिक्ष कार्यक्रम को स्थगित कर देना चाहिए?
दरअसल शक्तिशाली रॉकेट अथवा प्रक्षेपण यान का विकास बेहद कठिन काम है क्योंकि आगे चलकर इससे विनाशकारी प्रक्षेपास्त्र का सृजन भी किया जा सकता है। लिहाज़ा, आम तौर पर रॉकेटों को विकसित करने में एक देश दूसरे देश की मदद नहीं करता है। यह गोपनीय मामला है। नए रॉकेटों के विकास में असफलता कोई असामान्य बात नहीं है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी में वी-2 रॉकेट के तीनों आरंभिक परीक्षण विफल रहे थे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने 68 बार वी-2 रॉकेट का परीक्षण किया, जिसमें से 23 परीक्षण असफल रहे। हमारे एसएलवी-3 के चार परीक्षणों में से आधे परीक्षण असफल रहे। अंतरिक्ष विज्ञान के विशेषज्ञों का मानना है कि प्रक्षेपण यानों में सफलताओं की तुलना में विफलताओं से अधिक जानकारियां मिलती हैं। शक्तिशाली प्रक्षेपण यानों के अभाव में कई देशों का अंतरिक्ष कार्यक्रम प्रभावित हुआ है।

देश में 1962 में त्रिवेंद्रम के निकट थुम्बा रॉकेट केंद्र की स्थापना की गई थी। यहां शुरुआती दौर में छोटे-छोटे साउंडिंग रॉकेट बनाए गए। इस तरह के रॉकेटों को बनाने का उद्देश्य वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी सम्बंधी प्रयोग थे। भारत ने अपने पहले स्वदेशी रॉकेट का सफल परीक्षण 23 जनवरी 1969 में किया था। इस रॉकेट का वज़न 10 किलोग्राम था, जो मुश्किल से 4.2 किलोमीटर की ऊंचाई तक ही पहुंच पाया था। विश्व के कुछ ही देश ऐसे प्रक्षेपण यानों का निर्माण कर पाए हैं, जिनसे उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजा जा सकता है। अभी हाल तक भारत पराए देशों के प्रक्षेपण यानों से अपने संचार उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजता रहा है।
भारत का पहला उपग्रह प्रक्षेपण यान अथवा लांच वेहिकल एसएलवी-3 था, जिसने जुलाई 1980 में सफलतापूर्वक उड़ान भरी और 40 किग्रा वज़नी रोहिणी उपग्रह को अंतरिक्ष में पहुंचाया। दूसरा उपग्रह प्रक्षेपण यान एएसएलवी यानी आगमेंटेड सेटेलाइट लांच वेहिकल था, जिसे 20 मई 1992 को तीसरी विकासात्मक उड़ान के दौरान श्रोस-सी यानी स्ट्रेच्ड रोहिणी सेटेलाइट सीरीज़ के उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजने में सफलता मिली। इसी प्रक्षेपण यान से 4 मई 1994 को श्रोस-सी-2 उपग्रह को पृथ्वी की निम्न वृताकार कक्षा में स्थापित किया गया। उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए और अधिक शक्तिशाली रॉकेटों के निर्माण का सिलसिला जारी रहा और हमारे वैज्ञानिकों ने पोलर सेटेलाइट लांच वेहिकल पीएसएलवी का निर्माण कर लिया। इस प्रक्षेपण यान के ज़रिए आईआरएस श्रेणी के सुदूर संवेदी उपग्रहों को अंतरिक्ष में पहुंचाया गया। पीएसएलवी में ठोस और द्रव दोनों प्रकार के ईंधनों का इस्तेमाल किया गया है। अभी तक पीएसएलवी के ज़रिए 46 स्वदेशी और 180 विदेशी उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजा जा चुका है।

स्वदेशी प्रक्षेपण यानों की विकास यात्रा के अंतिम दौर में जीएसएलवी अर्थात जियोसिंक्रोनस सेटेलाइट लांच वेहिकल का विकास किया गया है। पृथ्वी से 36000 किलोमीटर की ऊंचाई पर संचार उपग्रहों को स्थापित करने के लिए इसी तरह के प्रक्षेपण यानों की आवश्यकता है। जीएसएलवी में प्रणोदक के रूप में ठोस, द्रव और क्रायोजेनिक ईंधन का इस्तेमाल किया गया है। जीएसएलवी मार्क-3 के पहले 2010 में जीएसएलवी मार्क-2 का प्रक्षेपण सफल रहा था, जिसमें क्रायोजेनिक इंजन का इस्तेमाल किया गया था।
संचार उपग्रहों को धरती से 36000 किलोमीटर की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में पहुंचाने के लिए बेहद शक्तिशाली प्रक्षेपण यानों की आवश्यकता है। अमेरिका, चीन और रूस के बाद अब इस बिरादरी में शामिल होने वाला भारत चौथा देश बन गया है। अब हम अपने ही बनाए रॉकेटों से स्वदेशी उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेज सकेंगे। भारत का अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना बड़ी उपलब्धि है, जिसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। (स्रोत फीचर्स)