इस वर्ष 11 मई को जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रेसल समिति ने भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय को सरसों की जीएम फसल की खेती को स्वीकृति देने की अपनी संस्तुति दी है। अब आगे सवाल यह है कि पर्यावरण मंत्रालय इस संस्तुति को स्वीकार करता है या नहीं।
पर्यावरण मंत्रालय को निश्चय ही इस संस्तुति को स्वीकार नहीं करना चाहिए क्योंकि जीएम (जेनेटिकली मॉडिफाइड या जेनेटिक रूप से परिवर्तित फसलों) से पर्यावरण, स्वास्थ्य व खेती-किसानी को गंभीर क्षति होने की पूरी संभावना है।
जीएम फसलों के विरोध का एक मुख्य आधार यह रहा है कि ये फसलें स्वास्थ्य व पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित नहीं हैं तथा यह असर जेनेटिक प्रदूषण के माध्यम से अन्य सामान्य फसलों व पौधों में फैल सकता है। इस विचार को इंडिपेंडेंट साइंस पैनल (स्वतंत्र विज्ञान मंच) ने बहुत सारगर्भित ढंग से व्यक्त किया है। इस पैनल में एकत्र हुए विश्व के अनेक देशों के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों ने जीएम फसलों पर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ तैयार किया जिसके निष्कर्ष में उन्होंने कहा है - जीएम फसलों के बारे में जिन लाभों का वायदा किया गया था वे प्राप्त नहीं हुए हैं और ये फसलें खेतों में बढ़ती समस्याएं उत्पन्न कर रहीं हैं। अब इस बारे में व्यापक सहमति है कि इन फसलों का प्रसार होने पर ट्रान्सजेनिक प्रदूषण से बचा नहीं जा सकता है। अत: जीएम फसलों व गैर जीएम फसलों का सहअस्तित्व नहीं हो सकता है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि जीएम फसलों की सुरक्षा या सेफ्टी प्रमाणित नहीं हो सकी है। इसके विपरीत पर्याप्त प्रमाण प्राप्त हो चुके हैं जिनसे इन फसलों की सुरक्षा सम्बंधी गंभीर चिंताएं उत्पन्न होती हैं। यदि इनकी उपेक्षा की गई तो स्वास्थ्य व पर्यावरण की क्षति होगी जिसकी पूर्त्ति नहीं हो सकती है। जीएम फसलों को अब दृढ़ता से अस्वीकृत कर देना चाहिए।

इन फसलों से जुड़े खतरे का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष कई वैज्ञानिकों ने यह बताया है कि जो खतरे पर्यावरण में फैलेंगे उन पर हमारा नियंत्रण नहीं रह जाएगा व दुष्परिणाम सामने आने पर भी हम इनकी क्षतिपूर्ति नहीं कर पाएंगे। जेनेटिक प्रदूषण का मूल चरित्र ही ऐसा है। वायु प्रदूषण व जल प्रदूषण की गंभीरता पता चलने पर इनके कारणों का पता लगाकर उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं, पर जेनेटिक प्रदूषण पर्यावरण में चला गया तो हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाता है।
जानी-मानी बायोकेमिस्ट व पोषण विशेषज्ञ प्रोफेसर सूसन बारडोक्ज़ ने कहा है कि अब तक की सब तकनीकें ऐसी थीं जो नियंत्रित हो सकती थीं। पर मानव इतिहास में जीएम पहली तकनीक है जिससे खतरा उत्पन्न हो गया तो इस क्षति को रोका नहीं जा सकता है, जिसकी क्षतिपूर्ति नहीं हो सकती है। जब एक जीएम ऑर्गेनिज़्म या जी.एम.ओ. को रिलीज़ कर दिया जाता है तो वह नियंत्रण से बाहर हो जाता है, हमारे पास उसे लौटा लाने का कोई उपाय नहीं है। इससे मनुष्य व अन्य जीवों के स्वास्थ्य पर बहुत गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
जहां एक ओर जीएम फसलों को फैलाने में लगी बहुराष्ट्रीय कंपनियां इनके प्रचार-प्रसार में करोड़ों डॉलर तक झोंक रही हैं वहीं विश्व के विख्यात पर्यावरणविद व पर्यावरण रक्षा से जुड़े संगठन इस ओर ध्यान दिलाने में जुटे हैं कि जीएम फसलें कैसे पर्यावरण की गंभीर क्षति का कारण भी बन सकती हैं। पर्यावरण के व्यापक विनाश की संभावना मूलत: जेनेटिक इंजीनियरिंग के कृषि में उपयोग की मूल सोच में ही निहित है।

जेनेटिक इंजीनियरिंग का प्रचार कई बार इस तरह किया जाता है कि किसी विशिष्ट गुण वाले जीन का ठीक-ठीक पता लगा लिया है व इसे दूसरे जीव में पंहुचा कर उसमें वही गुण उत्पन्न किया जा सकता है। किन्तु हकीकत इससे अलग व कहीं अधिक पेचीदा है।
कोई भी जीन अकेले अपने स्तर पर या अलग से कार्य नहीं करता अपितु बहुत से जीन्स के एक जटिल समूह के एक हिस्से के रूप में कार्य करता है। इन असंख्य अन्य जीन्स से मिलकर व उनसे निर्भरता में ही जीन के कार्य को देखना-समझना चाहिए, अलगाव में नहीं। एक ही जीन का अलग-अलग जीव में काफी अलग-अलग असर होगा, क्योंकि उनमें जो अन्य जीन्स हैं वे भिन्न हैं। विशेषकर जब एक जीव के जीन को काफी अलग तरह के जीव में पहुंचाया जाएगा, तो इसके काफी अप्रत्याशित परिणाम होने की आशंका है।

इतना ही नहीं, जीन्स के समूह का किसी जीव की अन्य शारीरिक रचना व बाहरी पर्यावरण से भी सम्बंध है। जिन जीवों में वैज्ञानिक विशेष जीन पहुंचाना चाह रहे हैं, उनसे अलग जीवों में भी इन जीन्स के पहुंचने की संभावना रहती है जिसके अनेक अप्रत्याशित परिणाम व खतरे हो सकते हैं। बाहरी पर्यावरण जीन के असर को बदल सकता है व जीन बाहरी पर्यावरण को इस तरह प्रभावित कर सकता है जिसकी संभावना जेनेटिक इंजीनियरिंग का उपयोग करने वालों को नहीं थी। एक जीव के जीन दूसरे जीव में पहुंचाने के लिए वैज्ञानिक जो तरीके अपनाते हैं उनसे अप्रत्याशित परिणामों व खतरों की संभावना और बढ़ जाती है।
‘जीव विज्ञान की नई परिभाषा’ पर मलेशिया में हुई एक बहुचर्चित सभा में अनेक विख्यात जीव वैज्ञानिकों, कृषि वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों ने एक दस्तावेज़ जारी किया जिसमें कहा गया कि जेनेटिक इंजीनियरिंग से उत्पन्न कुछ असफल फसलें हानिकारक खरपतवार बन सकती है या उनके माध्यम से ऐसे जीन जंगली पौधों में पहुंच सकते हैं और उन्हें हानिकारक खरपतवार बना सकते हैं। जहां इस तकनीक से हानिकारक कीड़ों की रोकथाम के उपाय का दावा किया जा रहा है वहीं इससे नए हानिकारक कीटों के प्रकोप की व बीमारियों की संभावना भी उत्पन्न हो रही है। किसानों की विविध फसलों की किस्मों व जंगली पौधों को विस्थापित कर ये नई तकनीक की फसलें जैव विविधता का ह्रास भी कर सकती हैं।

जेनेटिक इंजीनियरिंग के अधिकांश महत्वपूर्ण उत्पादों के पेटेंट बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास हैं और वे अपने मुनाफे को अधिकतम करने के लिए इस तकनीक का जैसा उपयोग करती हैं, उससे इस तकनीक के खतरे और बढ़ जाते हैं। उनका एक विशेष प्रयास ऐसे बीज बनाने और बेचने का रहता है जिसके साथ उनके अपने बनाए खरपतवारनाशकों का उपयोग जुड़ा होता है। साथ ही वे प्राय: इन बीजों की अगले वर्ष के उपयोग पर पाबंदी लगा देते हैं। इतना ही नहीं टर्मीनेटर नाम से प्रचलित ऐसा बीज बनाने का भी प्रयास हुआ है जो अगले साल उग ही न सके और हर साल बीज व रसायन के लिए किसान किसी कंपनी पर निर्भर हो जाए।
बीज ऐसा बनाया जा रहा है जिसमें किसी विशेष खरपतवारनाशक को सहने की विशेष क्षमता हो। इस स्थिति में खरपतवारनाशक का उपयोग अधिक होगा जिससे आसपास के अनेक उपयोगी पौधे, केंचुए आदि भी मारे जाएंगे।
जेनेटिक इंजीनियरिंग से जिस तरह खाद्य पदार्थों का स्वरूप बदला जा रहा है, उससे अनेक अन्य समस्याएं व नैतिक सवाल भी उठ रहे हैं। भोजन के बारे में अलग-अलग धर्मों और समुदायों की अपनी-अपनी मान्यताएं है। कुछ लोग किसी विशेष तरह का मांस नहीं खाते है तो कुछ लोग किसी भी तरह का मांस नहीं खाते हैं। जेनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा वनस्पति आधारित भोजन में जीव जंतुओं के आनुवंशिक गुणों का भी प्रवेश किया जा रहा है, जैसे सोयाबीन में मछली का। इस तरह के जो नए खाद्य पदार्थ बाज़ार में आएंगे उनसे शाकाहारियों के सामने एक महत्वपूर्ण नैतिक सवाल खड़ा हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)