डॉ. सुशील जोशी

हाल ही में राजस्थान हाई कोर्ट के एक न्यायाधीश ने अदालत में एक जीव वैज्ञानिक ‘तथ्य’ उजागर किया। इस ‘तथ्य’ की रोचकता जाने दें मगर यह आधे-अधूरे सच की एक उम्दा बानगी है। हाई कोर्ट के न्यायाधीश का मत है कि गाय एकमात्र ऐसा प्राणि है जो ऑक्सीजन ही लेता है और ऑक्सीजन ही छोड़ता है। और उनके हिसाब से यह गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने का पर्याप्त आधार होना चाहिए। तो चलिए तथ्यों पर नज़र डालते हैं।
इस संदर्भ में न्यायाधीश के कथन के दो हिस्सों पर गौर करना चाहिए - पहला ऑक्सीजन लेने और छोड़ने के बारे में और दूसरा गाय के ऐसा एकमात्र प्राणि होने के बारे में।
आम तौर पर जीव विज्ञान की पाठ्य पुस्तकों में यही पढ़ाया जाता है कि हम (जिसका आशय प्राणियों से है) सांस में ऑक्सीजन लेते हैं और कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ते हैं। यह गलत प्रस्तुतीकरण है। तथ्य यह है कि सारे सांस लेने वाले प्राणि हवा लेते हैं और हवा छोड़ते हैं। यदि सिर्फ फेफड़े वाले जंतुओं की बात करें (जिनमें गाय, घोड़े, सुअर, बंदर, मनुष्य वगैरह शामिल हैं) तो इनमें से किसी की नाक पर ऐसा कोई फिल्टर नहीं लगा होता जो सिर्फ ऑक्सीजन को अंदर जाने दे।
तो गाय और अन्य सारे फेफड़े वाले प्राणि सांस में हवा ग्रहण (अंत:श्वसन) करते हैं। साधारण हवा में विभिन्न गैसों की मात्राएं तालिका में बताई गई हैं। हां, थोड़ी-बहुत कमी बेशी हो सकती है।

कोई प्राणि चाहे न चाहे, उसे इसी हवा को ग्रहण करना पड़ेगा। और यदि वायु प्रदूषण के कारण हवा में नाइट्रोजन के ऑक्साइड, धूल-धुएं के कण या अन्य पदार्थ हों तो वे भी सांस के साथ अवश्य अंदर जाएंगे।
फेफड़ों में लेन-देन
उपरोक्त तालिका के मुताबिक जो हवा फेफड़ों में पहुंचती है उसमें लगभग 21 प्रतिशत ऑक्सीजन होती है। कार्बन डाईऑक्साइड नगण्य मात्रा में होती है जबकि सबसे अधिक मात्रा (लगभग 79 प्रतिशत) तो नाइट्रोजन की होती है। फेफड़ों में इस हवा के साथ क्या किया जाता है? फेफड़ों में यह हवा एक-एक नली के माध्यम से पहुंचती है। फेफड़े के अंदर यह नली शाखाओं में विभाजित होती जाती है और अंतत: सबसे पतली नली के सिरे पर एक गोलाकार रचना होती है। फेफड़े को अंदर से देखेंगे तो लगभग अंगूर के गुच्छे जैसा दिखेगा। बाहर से आई हुई हवा इन अंगूरों में भर जाती है।
प्रत्येक अंगूर की सतह पर रक्त नलिकाओं का एक जाल फैला होता है। इन नलिकाओं में वह रक्त होता है जो पूरे शरीर में घूमकर आया है। इस वजह से इसमें ऑक्सीजन की मात्रा कम और कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा थोड़ी ज़्यादा होती है। ऐसा क्यों होता है, इस पर हम थोड़ी देर में विचार करेंगे। तो फेफड़े के ‘अंगूरों’ की सतह पर बाहर से भरी गई हवा और शरीर में से घूमकर आए रक्त का निकट संपर्क होता है। बाहर से आई हुई हवा में ऑक्सीजन की मात्रा खून में उपस्थित ऑक्सीजन की मात्रा से अधिक है, इसलिए हवा की कुछ ऑक्सीजन खून में चली जाती है और खून की कार्बन डाईऑक्साइड हवा में घुल जाती है। इस लेन-देन के दौरान नाइट्रोजन की मात्रा पर कोई असर नहीं पड़ता।

तो जब फेफड़े से हवा बाहर निकलती है (प्रश्वसन), तो उसमें ऑक्सीजन पहले के मुकाबले थोड़ी कम तथा कार्बन डाईऑक्साइड पहले के मुकाबले थोड़ी ज़्यादा होती है। मनुष्य द्वारा छोड़ी गई सांस में गैसों की मात्राएं भी तालिका में बताई गई हैं।
स्पष्ट है कि अंतर सिर्फ ऑक्सीजन और कार्बन डाईऑक्साइड की मात्राओं में पड़ा है। यह भी स्पष्ट है कि छोड़ी गई (प्रश्वासित) हवा और ली गई हवा (अंत:श्वासित) के बीच ऑक्सीजन की मात्रा में अंतर सिर्फ 6 प्रतिशत का है। अर्थात जितनी ऑक्सीजन हम सांस के साथ लेते हैं, उसमें से लगभग तीन-चौथाई को वापिस वायुमंडल में छोड़ देते हैं। गाय भी ऐसा ही करती है और फेफड़ों की मदद से सांस लेने वाले सारे प्राणि ऐसा ही करते हैं।
ऑक्सीजन के बदले ऑक्सीजन: तो सांस क्यों लें?
वैसे पूरी बात को समझने के लिए सामान्य तर्क का सहारा भी लिया जा सकता है। यदि कोई जीव ऑक्सीजन लेकर ऑक्सीजन छोड़ दे तो सवाल यह उठता है कि फिर वह सांस लेता/लेती ही क्यों है। सांस लेने का मकसद ही यह है कि हवा के साथ शरीर में जाने वाली गैसों का उपयोग किया जाएगा। इस दौरान हवा की गैसों में भी कुछ परिवर्तन होंगे और शरीर के अन्य पदार्थों में भी। अत: जब सांस के साथ अंदर ली गई हवा को वापिस छोड़ा जाएगा तो वह बदली हुई होगी। यदि वैसी की वैसी छोड़ दी तो श्वसन क्रिया का कोई लाभ जीव को नहीं मिलेगा।
और श्वसन की यह क्रिया जीवन की बुनियाद में है। यह हमारे व सारे जंतुओं के शरीर में ऑक्सीकरण की क्रिया द्वारा भोजन से ऊर्जा को मुक्त करती है जिससे जीवन की शेष समस्त क्रियाएं चलती हैं। लिहाज़ा, यदि ऑक्सीजन वैसी की वैसी बाहर आ रही है तो गाय को ऊर्जा कहां से मिलेगी?
देखते हैं कि शरीर के लिए ऊर्जा उपलब्ध कराने में ऑक्सीजन की भूमिका क्या है और क्या यह संभव है कि ऑक्सीजन के बगैर भी काम चल जाए।
ऑक्सीजन के बगैर जीवन
जीवन की शुरुआत अरबों साल पहले हुई थी। उस समय वायुमंडल में मुक्त ऑक्सीजन नहीं थी। उस ज़माने में जो जीव विकसित हुए उनके ऊर्जा प्राप्त करने के तरीके कुछ ऐसे थे कि उनमें ऑक्सीजन की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। मान लीजिए कि किसी जीव के लिए ऊर्जा का प्रमुख स्रोत ग्लूकोज़ है। ग्लूकोज़ को विघटित करके काफी सारी ऊर्जा मिल सकती है। यदि ऑक्सीजन की उपस्थिति में ग्लूकोज़ के एक अणु को पूरी तरह विघटित किया जाए तो क्रिया निम्नानुसार चलती है:
ग्लूकोज़ अ ऑक्सीजन उ कार्बन डाईऑक्साइड अ पानी अ ऊर्जा (ऊष्मा अ 36 एटीपी अणु)
यदि इसी क्रिया को ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में किया जाए तो नज़ारा कुछ इस तरह होता है:
ग्लूकोज़ उ अल्कोहल/लैक्टिक अम्ल अ पानी अ ऊर्जा (ऊष्मा अ 2 एटीपी अणु)

एटीपी वह अणु है जो कोशिकाओं द्वारा ऊर्जा के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। स्पष्ट है कि ऑक्सीजन का उपयोग करके ग्लूकोज़ से ऊर्जा प्राप्त की जाए तो 18 गुना ज़्यादा ऊर्जा मिलती है। ऑक्सीजन के बगैर ऊर्जा उत्पादन में एटीपी के मात्र 2 अणु बनते हैं। इसके अलावा इस क्रिया में लैक्टिक अम्ल या अल्कोहल जैसे पदार्थ बनते हैं। दरअसल, कई जीव इस तरह की प्रक्रिया से ऊर्जा उत्पादन करते हैं। ये ज़्यादातर सूक्ष्मजीव हैं। आप देख ही सकते हैं कि इनकी ऊर्जा उत्पादन की क्रिया से अल्कोहल जैसे पदार्थ बनते हैं जो शराब उद्योग की बुनियाद हैं। कुल मिलाकर यह ऊर्जा उत्पादन का अत्यंत अकुशल तरीका है। इसके दम पर किसी बड़े जंतु का जीवन नहीं चल सकता। सारे बड़े जंतु ऊर्जा उत्पादन के लिए ऑक्सीजन पर निर्भर हैं।
कभी-कभार वे जंतु, जो सामान्यत: ऑक्सीजन-आधारित श्वसन करते हैं, बगैर ऑक्सीजन के भी काम चला लेते हैं। जैसे बहुत कड़ी मेहनत या एथलेटिक प्रतियोगिता के दौरान व्यक्ति के शरीर की मांसपेशियां बगैर ऑक्सीजन काम चला लेती हैं। किंतु इस प्रक्रिया में लैक्टिक अम्ल पैदा होता है और मांसपेशियों में जमा हो जाता है। लैक्टिक अम्ल जमा हो जाने से दर्द होता है। कड़ी मेहनत के बाद बदन दर्द इसी अनॉक्सी श्वसन का परिणाम होता है।
दरअसल, ऐसा माना जाता है कि जैव विकास के दौरान बड़े जंतुओं का विकास तभी संभव हो पाया था जब जंतु श्वसन में ऑक्सीजन का इस्तेमाल करने में दक्ष हो गए। अर्थात वायुमंडल में ऑक्सीजन की बढ़ती मात्रा और जंतुओं द्वारा ऊर्जा उत्पादन में इसका उपयोग जैव विकास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पड़ाव है।
यदि गाय ऑक्सीजन लेकर ऑक्सीजन छोड़ रही है तो मानना होगा कि वह जैव विकास के इस महत्वपूर्ण आयाम का लाभ नहीं उठा रही है। ऐसा कैसे हो सकता है? गाय एक स्तनधारी प्राणि है (जिसके द्वारा अपनी संतानों के लिए बनाए गए दूध का एक हिस्सा हम चुरा लेते हैं) और कोई कारण नहीं कि वह ऑक्सीजन के इस्तेमाल के इतने ज़बरदस्त लाभ को त्याग वापिस अनॉक्सी श्वसन का सहारा लेगी।

जिन लोगों ने स्काउट वगैरह में हिस्सा लिया होगा, वे कृत्रिम श्वसन से परिचित होंगे। जो लोग परिचित नहीं हैं, उनके लिए यह जानना पर्याप्त होगा कि आपातकालीन स्थिति में कभी-कभी व्यक्ति को सांस लेने में परेशानी होती है। तब कोई अन्य व्यक्ति उसके मुंह से मुंह सटाकर अपने मुंह से उसके फेफड़ों में हवा ठूंसकर उसे सांस लेने में मदद कर सकता है। इसका मतलब हुआ कि हर व्यक्ति की छोड़ी गई सांस में ऑक्सीजन इतनी तो होती है कि वह किसी दूसरे व्यक्ति को जीवनदान दे सके। कहने का मतलब यह है कि इस अर्थ में गाय ही नहीं हम सब “ऑक्सीजन लेते हैं और ऑक्सीजन ही छोड़ते हैं”। यह न्यायाधीश की ‘एकमात्र’ वाली स्थापना को झुठला देता है।
अदालत ने गाय के बारे में अन्य कई तथा मोर-मोरनी के बारे में भी कई टिप्पणियां की हैं। जैसे गाय के गोबर से विकिरण से बचाव हो सकता है। गोमूत्र के करिश्मों का भी उल्लेख किया गया है। इनकी चर्चा हम अगले किसी लेख में करेंगे। दिक्कत बस इतनी है कि पूजनीयता का तालमेल आधुनिक विज्ञान के साथ जमाने की कोशिश की जा रही है। मगर ऐसा करते हुए यह भुला दिया गया है कि विज्ञान में निष्कर्ष निकालने के सख्त मापदंड हैं। मनगढ़ंत बातों को सिर्फ इसलिए वैज्ञानिक नहीं माना जा सकता है कि उनमें कतिपय वैज्ञानिक शब्दावली का उपयोग कर लिया गया है। (स्रोत फीचर्स)

रिसर्च इन वेटर्नरी साइन्सेज़ के मई 1989 के अंक में जी. जे. गैलिवान और साथियों के शोध पत्र में घोड़े और गाय के श्वसन की तुलना की गई थी। इन शोधकर्ताओं ने पाया था कि ऑक्सीजन की खपत और कार्बन डाईऑक्साइड का उत्पादन, दोनों मामलों में गाय के आंकड़े घोड़ों से ज़्यादा थे। शोधकर्ताओं की राय थी कि गाय में ज़्यादा ऑक्सीजन खपत का सम्बंध उसकी पाचन क्रिया में लगने वाली अधिक ऊर्जा से है।
इसी प्रकार से डोनाल्ड मसारो और ग्लोरिया मसारो ने अमेरिकन जर्नल ऑफ फिज़ियॉलॉजी में मार्च 2002 में प्रकाशित समीक्षा पर्चे में विभिन्न स्तनधारी प्राणियों के श्वसन को लेकर रोचक व महत्वपूर्ण आंकड़े प्रस्तुत किए थे। उस शोध पत्र का एक ग्राफ यहां प्रस्तुत है।