हमारे शरीर की सामान्य कोशिकाओं के विपरीत, कैंसर कोशिकाएं अनियंत्रित होकर विभाजित होती रहती हैं और फैलती रहती हैं। इस अनियंत्रित वृद्धि के कारण गठानें यानी ट्यूमर बनते हैं। यदि हम इस अनियंत्रित वृद्धि को रोकने का तरीका खोज पाएं तो हम कैंसर का इलाज कर सकते हैं।
कैंसर-रोधी दवाइयांं अभी पर्याप्त रूप से विशिष्ट नहीं हैं और अक्सर ये सामान्य, स्वस्थ कोशिकाओं को भी नुकसान पहुंचाती हैं। इसकी वजह से अप्रिय साइड प्रभाव होते हैं। ये दवाइयां ट्यूमर को भेदने में भी सक्षम नहीं हैं। सर्जिकल स्ट्राइक या ट्यूमर को काटकर हटाने की शल्य क्रिया बहुत विशिष्ट नहीं होती और यह सामान्य ऊतकों को भी नुकसान पहुंचाती है। जादुई गोलियों से युक्त नैनोकण जैसे भौतिक साधन विशिष्ट कैंसर घटकों की तलाश कर उन्हें नष्ट करते हैं, लेकिन इनकी भेदन क्षमता सीमित होती है और शरीर में इनका काम पूरा हो जाने के बाद इनकी निकासी मुश्किल होती है।
कैंसर के इलाज के लिए चाहिए एक ऐसा साधन जो कोशिकाओं के शरारती समूह को लक्ष्य बनाकर उसे खत्म करे, और दूसरी कोशिकाओं को नुकसान न पहुंचाए।
सन 1893 में न्यूयार्क के डॉ. विलियम कॉवे को एक असाधारण विचार आया था कि पूरे बैक्टीरिया (या उनके अर्क) का उपयोग कैंसर के इलाज में किया जाए। तर्क यह था कि ये सूक्ष्मजीव हमारी कोशिकाओं में प्रवेश करके वहां तबाही मचा देते हैं। उन्होंने माइकोबैक्टीरियम बोविस (जो गायों में टीबी पैदा करता है) जैसे सूक्ष्मजीव का अर्क निकाला और पाया कि इस तरह तैयार किए गए ‘कॉवे विष’ से उपचार करने पर ट्यूमर सिकुड़ जाता है।

शैतान पर लगाम
तरीका मूलत: यह है कि एक प्रकार की मारक कोशिकाओं (सूक्ष्मजीव जो स्वस्थ कोशिकाओं को बीमार करते हैं और अक्सर जानलेवा साबित होते हैं) का इस्तेमाल दूसरे प्रकार की मारक कोशिकाओं (कैंसर) को मारने में किया जाए। इसमें परेशानी यह है कि जब वे कैंसर कोशिकाओं को मारते हैं तब शरीर की स्वस्थ कोशिकाओं को भी क्षति पहुंचा सकते हैं। इस तरह के संक्रमण के खिलाफ ऐसा उपचार कैंसर को दुबारा आने का न्यौता देता है। यदि हम केवल ऐसे सूक्ष्मजीवों को काबू करने का रास्ता खोज पाएं ताकि वे सामान्य कोशिकाओं को नुकसान न पहुंचाए लेकिन विशिष्ट रूप से कैंसर कोशिकाओं को लक्ष्य बनाएं तो यह हमारी जीत की रणनीति हो सकती है।
हालांकि कॉवे यह नहीं कर सके, मगर आज जेनेटिक इंजीनियरिंग, आणविक और कोशिका विज्ञान में हुई प्रगति की बदौलत हमारे पास ऐसा करने के तरीके हैं। पिछले 20 सालों में कैंसर से लड़ने के लिए एंटी-कैंसर अणुओं से लदी बैक्टीरिया कोशिकाओं के उपयोग के क्षेत्र में तेज़ी से तरक्की हुई है। इस क्षेत्र के कई शोधकर्ताओं ने सॉल्मोनेला टाइफीम्यूरियम नामक बैक्टीरिया को चुना है। (यह बैक्टीरिया चूहों में टाइफाइड जैसी बीमारी का कारण बनता है और मनुष्यों में पेट और दस्त की परेशानी का कारण बनता है।) आगे इस रोगजनक को संक्षेप में एसटी कहेंगे। आज एसटी का आणविक जीव विज्ञान भलीभांति ज्ञात है और आनुवंशिक रूप से इसको तोड़ना-मरोड़ना मुश्किल नहीं है। यूएसए के येल विश्वविद्यालय के शोधकर्ता समूह ने यह पाया कि यदि इसके जीनोम में से थ्र्द्मडए नामक जीन को हटा दिया जाए तो सामान्य कोशिकाओं के प्रति इसकी विषाक्तता काफी कम हो जाती है। हालांकि यह सुरक्षित था, लेकिन इस जीन से रहित बैक्टीरिया ने शरीर में कोई ट्यूमर-रोधी गतिविधि नहीं दर्शाई।

जल्द ही इस समूह को यह समझ में आया कि सामान्य कोशिकाओं की अपेक्षा ट्यूमर कोशिकाएं एटीपी नामक अणु के मामले में कहीं ज़्यादा समृद्ध होती हैं। एटीपी कोशिकाओं में ऊर्जा का भंडार होता है। यदि हम purLनामक एक जीन को एसटी कोशिका से हटा दें, तो संशोधित बैक्टीरिया को विभाजित होकर संख्यावृद्धि करने के लिए बाहर से अतिरिक्त एटीपी की ज़रूरत होगी क्योंकि द्रद्वद्धख्र् नामक उपरोक्त जीन एटीपी के संश्लेषण में भूमिका निभाता है। इस प्रकार purL विहीन एसटी स्वस्थ कोशिकाओं को अनदेखा कर सीधे ट्यूमर कोशिकाओं का रुख करेगा क्योंकि उनमें एटीपी की तादाद ज़्यादा होती है। इस प्रकार हमारे पास एसटी को ट्यूमर की ओर धकेलने का यह दूसरा तरीका है।
यदि हम दोहरा परिवर्तन कर दें तो क्या होगा? अर्थात msbB और purLदोनों जीन्स को हटाकर एसटी बनाएं और इसे कैंसर पीड़ित अंग में मुक्त कर दें? वास्तव में 15 वर्ष पहले येल विश्वविद्यालय के निकट स्थित दवा कंपनी वियॉन के वैज्ञानिकों के एक समूह ने यह किया भी था। इस दोहरे उत्परिवर्तित किस्म को VNP20009 कहा गया था। इसे मेलानोमा किस्म के कैंसर से ग्रस्त चूहों पर आज़माया गया था। इसके अलावा इसका परीक्षण कुछ ऐसे चूहों पर भी किया गया था जिनमें मानव ट्यूमर की ग्राफ्टिंग की गई थी। इंट्रावीनस मार्ग से दिए जाने पर VNP20009 शरीर में ट्यूमर की वृद्धि को 57-95 प्रतिशत तक रोकता है। यह भी पता चला था कि केवल जीवित बैक्टीरिया ही ट्यूमर-रोधी प्रभाव दिखाता है। इसका मतलब यह है कि ट्यूमर से निपटने के लिए लगातार जीवित बैक्टीरिया की उपस्थिति की ज़रूरत होती है। इस बैक्टीरिया के अर्क या सीमित खुराक से काम नहीं चलेगा। इसी दौरान वॉशिंगटन स्थित नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने VNP20009 का उपयोग द्वितीयक त्वचा कैंसर के 24 रोगियों पर किया और इसे मनुष्यों के लिए सुरक्षित पाया।

ड्यूक विश्वविद्यालय के डॉ. रवि बेलमकोन्डा इस मामले में एक कदम आगे बढ़े हैं। उन्होंने VNP20009 को एक वाहक के रूप में उपयोग करने का निर्णय लिया है। उन्होंने इस उत्परिवर्तित बैक्टीरिया को  पी53 नामक प्रोटीन से लाद दिया जो ट्यूमर की वृद्धि को रोकता है। इसके अलावा एक अन्य अणु एज़ूरिन जोड़ा गया जो कैंसर कोशिकाओं को मारता है और साथ ही पी53 की रक्षा करता है। इलिनॉय विश्वविद्यालय कॉलेज ऑफ मेडिसिन के डॉ. आनंद चक्रवर्ती पहले ही दिखा चुके थे कि पी53 और एज़ूरिन की जोड़ी उपयोगी होती है।
डॉ. बेलमकोन्डा ने दो अणुओं से लदा हुआ यह एसटी चूहों में प्रविष्ट कराया। इन चूहों में मनुष्यों से प्राप्त कैंसरग्रस्त मस्तिष्क ट्यूमर प्रत्यारोपित किया गया था। इस चिकित्सा से कैंसर ग्रस्त चूहे 100 दिनों से ज़्यादा जीवित रहे जबकि बगैर उपचार के वे मात्र 26 दिन जीवित रह पाए।
इस तरह के अणुओं से लदे दोहरे उत्परिवर्तित सूक्ष्मजीवों के उपयोग की खूबसूरती यह है कि
1. ये सामान्य और स्वस्थ कोशिकाओं को प्रभावित नहीं करते हैं;
2. ये कैंसर कोशिकाओं को भेदने में सक्षम हैं;
3. इससे दवा को कैंसर कोशिकाओं के भीतर पहुंचाने में आसानी होती है (जहां पारंपरिक दवाइयों का प्रवेश मुश्किल होता है;
4. हम और अधिक अणु भी इनमें जोड़ सकते हैं और कैंसर-मारक दवाओं की अतिरिक्त खुराक देते हुए भी सामान्य कोशिकाओं को सुरक्षित रख सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)