किसी व्यक्ति विशेष से बात करने के लिए आपको उसके टेलीफोन नंबर की आवश्यकता है। आप डायरेक्ट्री उठाते हैं और उसका नंबर ढूंढते हैं। नंबर पढ़ कर आप डायल घुमाते हैं। जब आपको लाइन मिल जाती है, तब आप उस व्यक्ति विशेष से बात करने लगते हैं और उसका टेलीफोन नंबर भूल जाते हैं। यानी वह टेलीफोन नंबर आपकी स्मृति में कुछ समय के लिए सुरक्षित रहा और जब आपका कार्य सिद्ध हो गया, तो वह नंबर विस्मृत हो गया। कुछ समय बाद जब आपको उस व्यक्ति से फिर बात करनी होती है, तो आप फिर से डायरेक्ट्री की मदद लेते हैं। लेकिन आप अपना टेलीफोन नंबर प्राय: नहीं भूलते।
एक और उदाहरण लें। मान लीजिए आपको संख्या 83 को संख्या 7 से गुणा करना है। इसके लिए पहले आपको दोनों संख्याओं को याद रखना पड़ेगा। इसके बाद आप 7 का पहाड़ा याद करेंगे, जो आपने बचपन में सीखा था। तब आप 7 गुणा 3 करके गुणनफल 21 निकालेंगे। अगले कदम के रूप में आप संख्या 1 को याद रखेंगे और संख्या 2 को हासिल के रूप में रखेंगे। फिर आप 8 को 7 से गुणा करके गुणनफल 56 प्राप्त करेंगे और उसमें 2 जोड़ देंगे। इस प्रकार आपके पास उत्तर के रूप में जो संख्या आएगी, वह होगी 58। अब आप अपनी स्मृति से पहले गुणनफल की संख्या 1 को संख्या 58 के दाईं ओर लगा कर अंतिम उत्तर निकालेंगे, जो 581 होगा। इस प्रक्रिया के बाद आप इस बात को भूल जाएंगे कि पहले गुणनफल का हासिल क्या था या गुणनफल की संख्या क्या थी। अब यदि आठ-दस दिन बाद आपसे इन्हीं संख्याओं का गुणनफल फिर से बताने को कहा जाए, तो आपको गुणा की संपूर्ण प्रक्रिया फिर से दोहरानी पड़ेगी। परंतु 7 का पहाड़ा आप नहीं भूलेंगे, वह आपको आजीवन याद रहेगा।

इन दो उदाहरणों से सिद्ध होता है कि हमारे मस्तिष्क में दो प्रकार की स्मृतियां होती हैं। पहली दीर्घ अवधि स्मृति और दूसरी अल्प अवधि स्मृति। निसंदेह यह संपूर्ण पशु जगत में होती है। वस्तुत: यह सूचनाएं एकत्र करने और आवश्यकता के समय उन्हें पुन: प्राप्त करने की क्षमता है। इसी के आधार पर हम सोचने, बोलने, निर्णय लेने, अनुभवों के आलोक में प्रतिक्रिया करने, या यूं कहिए कि प्रत्येक काम करने में सक्षम होते हैं। स्मृति के बिना हमारा बौद्धिक अस्तित्व असंभव है।
दीर्घ अवधि स्मृति में हम उन सूचनाओं को एकत्र करते हैं, जिनकी लंबे समय तक हमें आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए हम अपना नाम, अपने परिवार का विस्तृत परिचय, अपने मित्रों एवं अन्य सगे-सम्बंधियों के विषय में आवश्यक जानकारी, अपनी कार की पंजीकरण संख्या, अपनी भाषा, पहाड़े आदि को इसी स्मृति का अंग बनाते हैं। यह स्थायी होती है और सुगमता से मिटती नहीं है।

दूसरी ओर, अल्प अवधि तक रहने वाली स्मृति के साथ एकदम विपरीत स्थिति है। इसमें वे सूचनाएं एकत्र होती हैं, जिनकी आवश्यकता हमें अस्थायी रूप में होती है अथवा जिन्हें हम तुरंत पुन: प्राप्ति के लिए संजोते हैं। मौखिक गणनाओं को हम इसी श्रेणी में रखेंगे। जब हमारा कार्य सिद्ध हो जाता है, तो यह स्मृति मिट जाती है और उसके स्थान पर नई सूचनाओं को एकत्र किया जा सकता है। इस बात का उत्तर देना सहज-संभव नहीं है कि यह निर्णय कैसे किया जाता है कि कौन-सी सूचना दीर्घ अवधि स्मृति में जाएगी और कौन-सी अल्प अवधि स्मृति में। इस प्रक्रिया को कुछ सीमा तक ही समझ सकते हैं।
पहला उदाहरण फिर से लेते हैं। जब आप व्यक्ति विशेष का टेलीफोन नंबर पहली बार घुमाते हैं, तो वह अल्प अवधि स्मृति में एकत्र होता है। परंतु यदि आप उसी नंबर को प्रतिदिन घुमाएं, तो वह उच्च मस्तिष्कीय प्रक्रियाओं के माध्यम से दीर्घ अवधि स्मृति में पहुंच जाता है। अल्प अवधि स्मृति से दीर्घ अवधि स्मृति में स्थानांतरण का यह निर्णय आपका मस्तिष्क ही करेगा।

इन दो स्मृतियों के अतिरिक्त एक तीसरे प्रकार की स्मृति भी होती है। इसे संवेदी स्मृति कहते हैं। इसे चलचित्र के उदाहरण से समझा जा सकता है। चलचित्र वास्तव में स्थिर चित्रों की एक लड़ी है, जिसे एक निश्चित क्रम और अवधि में हमारी आंखों के आगे प्रस्तुत किया जाता है। इस अवधि के दौरान क्रम के पहले चित्र को दूसरा चित्र आने तक स्मृति में रखना अनिवार्य है, जिससे हमारा मस्तिष्क दूसरे चित्र के साथ उसका सम्बंध स्थापित कर सके और इस प्रकार चित्रों की निरंतरता को समझ सके। ऐसे ही अन्य उदाहरण हो सकते हैं, जैसे कपड़ा जलने की गंध, आम का स्वाद, तबले की थाप या वीणा की झंकार। हमारे मस्तिष्क में इन संवेदी बोधों का एक स्मृति कोश होता है, जिससे हम अपने संवेदी अनुभवों का मिलान करते रहते हैं।
मस्तिष्क के आकार को देखते हुए मनुष्य की स्मृति क्षमता अद्वितीय ही कही जाएगी। यदि हम बहुचर्चित पांचवी पीढ़ी के सुपर कंप्यूटर से मनुष्य के मस्तिष्क की तुलना करें, तो पाएंगे कि कंप्यूटर की तुलना में मनुष्य का स्मृति कोश कहीं अधिक विशाल होता है, तथापि उसे मनुष्य अपनी आवश्यकतानुसार कंप्यूटर के चुंबकीय टेप या डिस्क पर भरता है। परंतु दूसरी ओर, कंप्यूटर में एक बार सूचना भर देने पर वह अपने आप मिटती नहीं, जबकि मनुष्य के स्मृति कोश का क्षय भी होता है।
स्मृति कोश का क्षय क्यों होता है, इस विषय में दो सिद्धांत प्रचलित हैं। एक सिद्धांत के अनुसार हमारी स्मृति समय के अनुरूप मंद हो जाती है या नष्ट हो जाती है, जैसे धूप और पानी पड़ने पर रंग हल्के पड़ जाते हैं या नष्ट हो जाते हैं। दूसरे सिद्धांत के अनुसार हमारे स्मृति कोश की पूर्व एकत्र सूचनाएं इसलिए नष्ट हो जाती हैं क्योंकि नए अनुभवों के कारण नई सूचनाएं उन पर अंकित हो जाती हैं। अत: स्मृति कोश का क्षय हस्तक्षेप के कारण होता है।

स्मृति कोश में एकत्र सूचनाओं के प्रयोग की अवधि और विस्मृति में गहरा सम्बंध है। प्रयोग की अवधि में जितना लंबा अंतराल होगा, विस्मृति की आशंका उतनी ही अधिक होगी। हम कोई नई भाषा सीखते हैं, परंतु लंबे समय तक उस भाषा को पढ़ने-लिखने या बोलचाल में प्रयोग नहीं करते, तो उसे हम धीरे-धीरे भूल जाते हैं। यह विस्मृति प्रयोग अंतराल के कारण ही होती है।
कई बार ऐसा होता है कि हमारे मस्तिष्क में सूचना तो होती है, परंतु समय पर स्मृति पटल पर वह उभरती नहीं है। ऐसी स्थिति में यदि कोई संकेत मिल जाए, तो वह वांछित सूचना तुरंत उभर आती है। क्विज़ के समय इसके उदाहरण देखने में आते हैं। ऐसे समय कोई शब्द, कोई चित्र या कोई अन्य सम्बद्ध सूचना हमारे स्मृति कोश को अतिरिक्त रूप से सक्रिय करके खोज का क्षेत्र सीमित कर देती है और हम वांछित उत्तर खोज लेते हैं।
कई बार इस स्मरण में कई कारणों से व्यवधान भी उपस्थित हो जाता है। यह व्यवधान भावनात्मक भी हो सकता है और संदेहात्मक भी। भय, अतिरिक्त आत्मचेतना, मंचभीति आदि भावनात्मक व्यवधान के उदाहरण माने जाएंगे, जिनसे वाणी दोष या क्रिया दोष उत्पन्न हो जाता है। संदेह की स्थिति में दो स्मृतियां एक साथ उभरती हैं और एक-दूसरे में बाधा उत्पन्न कर देती हैं। ऐसा भी होता है कि व्यक्ति में अभिव्यक्ति के समय दो अभिव्यक्तियां एक साथ उभरती हैं और परिणामत: व्यक्ति हकलाने लगता है। सामने वाले व्यक्ति का नाम याद न आ पाने के पीछे भी एक दूसरे को काटती हुई दोहरी स्मृतियां होती हैं। ऐसी स्थिति में नाम याद करने का प्रयत्न यदि छोड़ दिया जाए, तो कुछ देर में स्वयं नाम याद आ जाता है। इसी प्रकार का व्यवधान तब उपस्थित होता है, जब आधी स्मृति तो उभर आती है, लेकिन शेष आधी स्पष्ट नहीं हो जाती।

सूचनाओं का यह अंकन हमारी स्मृति में कैसे होता है, इसके विषय में एक और सिद्धांत प्रचलित है। इसके अनुसार जाग्रत अवस्था में हमारे अनुभव हमारी स्मृति में क्रमहीन रूप से एकत्र होते रहते हैं। क्रमहीन रूप से अंकित यही अनुभव हमारी सुप्तावस्था में पुनर्व्यवस्था की प्रक्रिया से गुज़रते हैं और सूचनाएं मस्तिष्क में आवश्यकतानुसार एक स्थान से दूसरे स्थान पर एकत्रित होती हैं। इन सूचनाओं में से व्यर्थ सूचनाएं स्वप्न के रूप में मस्तिष्क से निकल जाती हैं। स्वप्न के रूप में बाहर निकली सूचनाओं को हम शीघ्र ही विस्मृत कर देते हैं।  
वस्तुत: जाग्रत अवस्था में हमारी गतिविधि में निरंतर परिवर्तन होता है। यदि हमारी प्रत्येक गतिविधि का संचालन बिंदु हमारे मस्तिष्क में अलग-अलग हो, तो हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं रहेगी और न ही इस बात की संभावना रहेगी कि एक क्रिया दूसरी क्रिया की संरचना पर प्रभाव डाले। परंतु हमारा मस्तिष्क स्वतंत्र संचालन बिंदुओं के रूप में नहीं बल्कि संरचनाओं के रूप में काम करता है। अलग-अलग क्रियाओं में प्रयुक्त संरचनाएं एक-दूसरे को काट भी सकती हैं और एक-दूसरे के अनुरूप भी हो सकती हैं। अत: परस्पर हस्तक्षेप की संभावना बनी रहती है। एक क्रिया विशेष को याद करते हुए बनी मस्तिष्कीय संरचना दूसरी क्रिया के समय बनी संरचना से बिगड़ सकती है, खास कर जब दो क्रियाएं एक जैसी हों। पर्वत यात्रा के दृश्यों के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। यदि हम अपनी यात्रा के प्रत्येक दृश्य को याद करने का प्रयत्न करें, तो पाएंगे कि एक दृश्य ने दूसरे दृश्य को मिटा दिया है और हमें केवल प्रमुख दृश्य याद हैं। (स्रोत फीचर्स)