डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

संक्रामक रोगों से निपटने दो तरीके हैं - उपचार और रोकथाम। उपचार में दवा और अन्य सहायक विधियां इस्तेमाल की जाती हैं। रोकथाम का उद्देश्य संक्रामक रोगाणु के प्रवेश और उसकी क्रिया को रोकना होता है। टीकाकरण एक जांची-परखी विधि है जो रोगाणु-जनित बीमारियों की रोकथाम करती है। इसमें शरीर को आक्रमणकारी (रोगजनक) कोशिकाओं और अणुओं की उपस्थिति की पहचान करवाई जाती है ताकि वह जवाबी-अणु पैदा कर सके जो उस रोगाणु को परास्त कर दे।
दरअसल, एक बार विकसित होने पर यह क्षमता हमारे शरीर में संग्रहित रहती है और इसे सहेजा जाता है ताकि जब वही रोगाणु फिर से हमला करे तो हमारा सुरक्षा कवच इससे हमारी रक्षा करने और उसे हटाने के लिए पहले से तैयार रहे। दूसरे शब्दों में, शरीर ने उस आक्रमणकारी से रक्षा करना सीख लिया है। सचमुच हमारा प्रतिरक्षा तंत्र बहुमुखी और कई सारे रोगाणुओं के खिलाफ खुद का बचाव करने में सक्षम है। यह रक्षा व्यवस्था इम्युनोग्लोबुलिन नामक प्रोटीन्स पर निर्भर है जिन्हें एंटीबॉडीज़ भी कहते हैं।

टीकाकरण द्वारा शरीर में थोड़ी मात्रा में नकली रोगाणु (प्राय: गर्मी से मारने के बाद या बुरी तरह अक्षम बना दिए जाने के बाद) को प्रविष्ट कराया जाता है। परिणाम यह होता है कि शरीर इस रोगाणु के खिलाफ विशिष्ट एंटीबॉडीज़ बनाता है। बेशक शरीर में प्रविष्ट कराने से पहले ज़रूरी है कि हम प्रयोगशाला में इस रोगाणु को पृथक करें और उसका संवर्धन करें। खुशी की बात है कि कई आम संक्रामक रोगों (खसरा, चेचक, पोलियो, हैज़ा, डायरिया, हेपेटाइटिस) के मामले में यह किया जा चुका है और हमने इनके खिलाफ टीके भी बना लिए हैं। मगर उस स्थिति में क्या किया जाए जब किसी रोगाणु का प्रयोगशाला में आसानी से कल्चर न बनाया जा सके?
इसी प्रकार की एक बीमारी कुष्ठ है जो प्राचीनकाल से हमारे साथ चली आ रही है। (महाभारत में बताया गया है कि कैसे प्रतिपा पुत्र देवापि हस्तिनापुर के सिंहासन पर आसीन नहीं हो सके थे क्योंकि उन्हें कुष्ठ रोग था और इसी वजह से तपस्या के लिए उन्हें जंगल जाना पड़ा था)।
भाग्यवश हममें से अधिकांश मनुष्य (लगभग 99 प्रतिशत) कुष्ठ-कारक बैक्टीरिया माइकोबैक्टीरियम लेप्रे (एम. लेप्रे) संक्रमण का प्रतिरोध करने में सक्षम हैं। लेकिन जो लोग इस रोग का प्रतिरोध नहीं कर पाते हैं उनमें से कुछ की मृत्यु (ज़्यादातर एशिया और अफ्रीका में) हो जाती है, कुछ समाज द्वारा बहिष्कृत कर दिए जाते हैं, कुछ विकृत अंग और अन्य संक्रमण, विशेष रूप से टीबी से ग्रस्त हो जाते हैं। कुष्ठ रोग के लिए दवा उपलब्ध तो है किंतु बहुत महंगी है और बार-बार लेनी पड़ती है। और यह 100 प्रतिशत प्रभावी भी नहीं है। टीकाकरण एक आदर्श समाधान होगा।

दिल्ली स्थित एम्स के प्रोफेसर गुरशरण प्राण तलवार ने 1970 के दशक में कुष्ठ के लिए टीके के विकास की इसी समस्या को संबोधित किया। (प्रसंगवश, हस्तिनापुर दिल्ली से मात्र 90 किलोमीटर दूर है।) बाधाएं अनेक थीं। एम. लेप्रे को कल्चर नहीं किया जा सकता है। यह किसी भी माध्यम में नहीं पनपता है। इसलिए एंटीबॉडीज़ बनाने के लिए मृत या दुर्बलीकृत रोगाणु बनाना चुनौतीपूर्ण था। इस मुद्दे को हल करने के लिए डॉ. तलवार और उनके साथियों ने माइकोबैक्टीरियम परिवार के 16 ऐसे-ऐसे अलग-अलग कल्चर-योग्य सदस्यों की छंटाई की जो एम. लेप्रे के दूर के रिश्तेदार हैं। कुछ वर्षों के शोध कार्य के बाद इनमें से पांच ने उम्मीद जगाई और लगभग दो दशकों के काम के बाद इनमें से एक निकला जो टीके के लिहाज़ से फिट बैठता है। इसे माइकोबैक्टीरियम डब्लू (Mw) कहते हैं।
ध्यान दीजिए Mw एम. लेप्रे नहीं है, लेकिन उसकी कार्बन कॉपी है। यह कल्चर योग्य था, और यह एम. लेप्रे के समान लेप्रोमिन अणु के उत्पादन को प्रेरित करता था। अत: यह टीकाकरण के लिए सही था। जब इसको कोलकाता और दिल्ली के कुष्ठ रोगियों पर आज़माया गया तब Mw ने लेप्रोमिन पैदा करने की प्रतिक्रिया दी और यह काफी प्रभावी भी रहा था।

1980 के दशक में डॉ. तलवार एम्स छोड़कर नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ इम्युनोलॉजी चले गए थे। यहां डॉ. तलवार और उनके छात्रों द्वारा Mw का एक विस्तृत और आनुवंशिक विश्लेषण करने पर पता चला कि यह एम. लेप्रे के समान है। सैयद रहमान, सैयद हसनैन और साथियों ने टीबी रोगजनक एम. ट्यूबरक्यूलोसिस के साथ इसकी समानता का पता लगाया था। यह भी पाया गया कि गर्मी से मारा गया Mw भी कई रोगजनकों के खिलाफ प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को प्रेरित कर सकता है।  
Mw को डॉ. तलवार के सम्मान में माइकोबैक्टीरियम इंडिकस प्राणी या MIP नाम दिया गया (इंडिकस शब्द का अर्थ भारत है और प्राण तलवार के मध्य नाम से आया है)।
उपरोक्त ट्रायल से प्रभावित होकर तथा औषधि महा नियंत्रक व यूएस खाद्य और औषधि प्रशासन की मंज़ूरी के बाद भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद की डॉ. सौम्या स्वामिनाथन ने घोषणा की कि अब इस टीके का परीक्षण बिहार, गुजरात और तमिलनाड़ु के उन लोगों पर किया जाएगा जो कुष्ठ रोग पीड़ित व्यक्तियों के निकट संपर्क में हैं। उनका कहना है कि MIP ने संभावना जताई है कि अगले तीन सालों में कुष्ठ के नए रोगियों की संख्या में 60 प्रतिशत तक की कमी की जा सकेगी।

पहले हमने उल्लेख किया था कि MIP के कुछ गुण टीबी बैक्टीरिया के समान हैं। तो क्यों न इसे टीबी-रोधी एजेंट के रूप में इस्तेमाल किया जाए?
पहले कुछ गिनीपिग को टीबी बैक्टीरिया से संक्रमित किया गया और देखा गया कि यह संक्रमण उनके फेफड़ों और तिल्ली में दिखाई दिया। इसके बाद दूसरे समूह के जंतुओं को पहले MIP का टीका देकर फिर टीबी बैक्टीरिया से संक्रमित किया। इस बार जंतुओं में रोग की विकरालता कम रही। इससे प्रोत्साहित होकर अहमदाबाद के कठिन टीबी रोगियों पर परीक्षण किया गया। देखा गया कि टीबी की दवा के साथ MIP देने पर बेहतर परिणाम मिले। अत: इंजेक्शन और बीसीजी टीके (जो हम सबको लग चुका है) के बीच कुछ समानताएं दिखाई देती हैं।
हाल ही में भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलुरु के प्रोफेसर दीपांकर नंदी ने MIP का इस्तेमाल एक एंटी-कैंसर एजेंट के रूप में किया है। अब वे MIP और एंटी-कैंसर दवा साइक्लोफॉस्फेमाइड का मिला-जुला उपयोग करने के बारे में सोच रहे हैं।
तलवार की गाथा टीकाकरण के आविष्कारकर्ता लुई पाश्चर की इस उक्ति की याद दिलाती है, “जहां तक अवलोकन का सवाल है, संयोग एक तैयार दिमाग की मदद करता है।” (स्रोत फीचर्स)