लोग जिस ढंग से भाषा का इस्तेमाल करते हैं, उससे यह पता चल सकता है कि उनमें आंतरिक तनाव का स्तर क्या है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि व्यक्ति अपने तनाव के बारे में जो कुछ बताता है, उससे कहीं अधिक उसकी भाषा के पैटर्न से समझ में आता है। और तो और, व्यक्ति द्वारा उपयोग की गई भाषा से शरीर में विभिन्न जींस की अभिव्यक्ति भी परिलक्षित होती है। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ में हाल में प्रकाशित शोध पत्र में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के स्टीव कोले और उनके साथियों ने स्पष्ट किया है कि यह तनाव के अध्ययन का एक नया तरीका है।
जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों, जैसे गरीबी, सदमा या सामाजिक बहिष्कार का स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर होता है और ऐसे तनाव की वजह से व्यक्ति कई बीमारियों के प्रति कमज़ोर हो जाता है। जीव वैज्ञानिकों ने देखा है कि ऐसी परिस्थितियों को झेल रहे लोगों की प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाओं में जींस की अभिव्यक्ति भी बदल जाती है। सूजन के लिए ज़िम्मेदार जींस ज़्यादा सक्रिय हो जाते हैं जबकि वायरस का सामना करने वाले जींस निष्क्रिय हो जाते हैं। मगर तनाव का यह स्तर व्यक्ति के अपने बयान से कई बार मेल नहीं खाता। हो सकता है कि इस तरह के तनाव का नियमन किसी स्वायत्त तंत्र द्वारा किया जाता हो और व्यक्ति इसके बारे में जान ही न पाता हो।
इस गुत्थी को सुलझाने के लिए कोले ने एरिज़ोना विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक मेथियास मेह्ल के साथ मिलकर व्यक्तियों के भाषा विन्यास और जीन अभिव्यक्ति में होने वाले परिवर्तनों के सम्बंध को लेकर एक अध्ययन किया। इन शोधकर्ताओं ने यूएस के 143 वयस्क वालंटियर्स को ध्वनि रिकॉर्डर पहना दिए जो कुछ मिनट के अंतराल पर स्वत: चालू हो जाते थे। इन्हें दो दिनों तक पहने रखना था। प्रयोग के अंत में मिली 22,627 ऑडियो क्लिप्स का अध्ययन उनकी विषयवस्तु के लिए नहीं बल्कि भाषा विन्यास की दृष्टि से किया गया। खास तौर से उन शब्दों पर ध्यान दिया गया जिन्हें मनोवैज्ञानिक लोग “फंक्शन” शब्द कहते हैं। इनमें सर्वनाम, विशेषण वगैरह आते हैं। इनका अपना कोई अर्थ नहीं होता मगर इनसे समझा जा सकता है कि चल क्या रहा है। संज्ञा, क्रिया शब्द तो हम सचेत होकर चुनते हैं किंतु फंक्शन शब्द ज़्यादा स्वचालित ढंग से इस्तेमाल करते हैं।
इस विश्लेषण में मेह्ल व उनके साथियों ने देखा है कि जब लोग किसी संकट या सदमे से गुज़र रहे होते हैं तो फंक्शन शब्दों का उनका उपयोग बदल जाता है। फिर उन्होंने प्रत्येक वालंटियर की भाषाई अभिव्यक्ति की तुलना उनकी श्वेत रक्त कोशिकाओं में उपस्थित ऐसे 50 जींस से की जिनकी अभिव्यक्ति प्रतिकूल परिस्थिति में बदल जाती है। शोधकर्ताओं ने पाया कि वालंटियर्स द्वारा प्रयुक्त फंक्शन शब्दों का सम्बंध जींस की अभिव्यक्ति से साथ काफी नज़दीकी है बनिस्बत स्वयं उनके अपने बयान से।
तनावग्रस्त जीन अभिव्यक्ति वाले लोग वैसे तो कम ही बोलते हैं किंतु यह भी देखा गया कि वे “वाकई”, “अविश्वसनीय” जैसे क्रिया-विशेषणों का उपयोग ज़्यादा करते हैं। संभवत: ऐसे शब्द भावनाओं को रेखांकित करने का काम करते हैं। इसके अलावा तनावग्रस्त जीन अभिव्यक्ति वाले लोग “वो”, “उनको” जैसे सर्वनामों का उपयोग भी कम करते हैं।
इस तरह के अध्ययन के आधार पर शोधकर्ताओं का मत बना है कि शायद व्यक्ति की बात नहीं, बात कहने के ढंग से काफी कुछ पता चल सकता है हालांकि उन्होंने चेताया है कि अभी मामला बहुत शुरूआती अवस्था में है और इसका व्यावहारिक उपयोग होने में कई साल लग सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)