हाल में किए गए एक अध्ययन ने उजागर किया है कि जलवायु परिवर्तन के असर उष्ण कटिबंधीय देशों पर ज़्यादा होंगे बनिस्बत कम अक्षांश पर बसे देशों के। यह अध्ययन युरोपियन भूविज्ञान संघ की वार्षिक बैठक में प्रस्तुत किया गया।
बांग्लादेश और मिरुा जैसे राष्ट्र भलीभांति जानते हैं कि उन पर जलवायु परिवर्तन का असर समृद्ध देशों की तुलना में अधिक होगा किंतु ताज़ा अध्ययन ने इस गैर-बराबरी को नापने की कोशिश की है। यह अध्ययन ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के जलवायु शोधकर्ता ल्यूक हैरिंगटन के नेतृत्व में किया गया है।

गौरतलब है कि 2015 में पेरिस जलवायु संधि के तहत दुनिया के 195 देशों ने यह तय किया था कि वैश्विक तापमान में वृद्धि को औद्योगिकरण से पूर्व के तापमान से 1.5 से 2 डिग्री सेल्सियस के बीच सीमित रखा जाएगा। हकीकत यह है कि दुनिया लगभग 1 डिग्री गर्म हो चुकी है। और तो और, सन 1900 के बाद से प्रति वर्ष शुष्क महीनों और गीले महीनों की संख्या भी बढ़ी है।

किंतु इन औसत के आंकड़ों के पीछे यह हकीकत ओझल हो जाती है कि इनके असर दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग होंगे। इस बात को स्पष्ट समझने के लिए हैरिंगटन और उनके साथियों ने ‘तुल्य प्रभाव’ का मानचित्र तैयार किया है। यह मानचित्र दर्शाता है कि दुनिया के समृद्ध देश जलवायु परिवर्तन के जो प्रभाव 3 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से पहले महसूस नहीं करेंगे वे कई अन्य देश काफी कम वृद्धि पर ही महसूस करने लगेंगे।

दरअसल, हैरिंगटन ने बात को समझने के लिए यह देखा कि औसत वैश्विक तापमान में एक निश्चित वृद्धि होने पर दुनिया के विभिन्न हिस्सों में ‘इन्तहाई दैनिक गर्मी’ की क्या स्थिति रहेगी। वे यह देखना चाहते थे कि औसत तापमान के किस स्तर पर किसी इलाके में अत्यंत गर्म दिन या अत्यधिक बारिश में इतनी वृद्धि होगी कि उसे सामान्य उतार-चढ़ाव की बजाय वैश्विक तापमान में वृद्धि का सूचक माना जा सके।
उन्होंने जो मॉडल विकसित किया उसके मुताबिक अफ्रीका, अधिकांश भारत और अधिकांश दक्षिण अमेरिका में जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाले असर 1.5 डिग्री की वृद्धि पर ही दिखने लगेंगे। दूसरी ओर, मध्य अक्षांश के जिन देशों में अधिकांश ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है, वहां उतने ही असर वैश्विकतापमान में 3 डिग्री की वृद्धि के बाद नज़र आएंगे।

हैरिंगटन के मॉडल में अभी सिर्फ इंतहाई प्रभावों की चर्चा की गई है। अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि इस मॉडल को और विकसित करके इसमें यह जोड़ना चाहिए कि खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य वगैरह पर ‘तुल्य प्रभावों’ की क्या स्थिति रहेगी। हैरिंगटन भी मानते हैं कि उन्होंने अभी सिर्फ एक ढांचा तैयार किया है और इसमें जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित अन्य बातों को जोड़ना चाहिए ताकि समय रहते उन देशों की मदद की जा सके जहां जलवायु परिवर्तन के असर जल्दी दिखने वाले हैं। (स्रोत फीचर्स)