अरविंद गुप्ते

कमरे का दरवाज़ा उखाड़ कर छुपा देना।
तिज़ोरियों के ताले तोड़ना।
शराब खानों में जाकर खूब शराब पीना, मौजमस्ती करना।
नशे में लोगों में लड़ना।
सड़क पर ड्रम बज़ाना।

माफ कीजिएगा लेकिन हम किसी ऐसे-वैसे व्यक्ति के बारे में बताने नहीं जा रहे। बल्कि ये तो विख्यात भौतिकशास्त्री रिचर्ड पी. फाइनमेन की ज़िंदगी के कुछ तथ्य हैं।

ये तथ्य खुद फाइनमेन ने अपनी जीवनी में इकठ्टे किए हैं। जो फाइनमेन आप मज़ाक कर रहे हैं? शीर्षक से प्रकाशित है। वैसे आप को लग सकता है कि एक इतना बड़ा वैज्ञानिक और ऐसी ज़िंदगी, कहीं ये मज़ाक तो नहीं है। लेकिन नहीं, ये सब बातें सही हैं। दरअसल फाइनमेन ऐसे वैज्ञानिक कतई नहीं थे जो दिन रात किताबों और प्रयोगशालाओं में घुसे रहते हों। उन्हें ज़िंदगी का मज़ा लेने में मज़ा आता था1 उनका मानना था कि दुनिया में होने वाली हर बात के लिए वे ज़िम्मेदार नहीं हैं, इसलिए वो अपने तरीके से मस्ती से जीते थे।

फाइनमेन को भौतिकी के लिए नोबेल पुरस्कार मिला। शोध करने के साथ-साथ फाइनमेन में क्लास में ज़ाकर विद्यार्थियों को पढ़ाने की ज़बर्दस्त ललक थी। यह दिखाई देता है प्रसिद्ध ‘फाइनमेन लेक्चर्स’ में, जिसे तैयार करने में उन्होंने लगभग डेढ़ साल बिताया। इस दौर में उन्होंने कोई खास शोध कार्य नहीं किया, बस वे लेक्चर्स तैयार करते और विद्यार्थियों को पढ़ाते थे। इन्हीं लेक्चर्स को इक्ट्ठा कर ‘फाइनमेन लेक्चर्स’ नाम से जो किताब तैयार हुई, वो पूरी दुनिया में भौतिकी के अध्ययन के लिए आज भी बेजोड़ मानी जाती है।

इस जीवनी का जो हिस्सा हम दे रहे हैं वो उनकी ब्रााजील यात्रा का वृतांत है। जो उन्होंने लगभग 45 साल पहले की थी। उन्हें ब्रााज़ील भौतिक शास्त्र पढ़ाने के लिए बुलाया गया था। वहां उन्होंने पढ़ाया, साथ ही उस देश की विज्ञान शिक्षा पद्धति का विश्लेषण भी किया। इस वृतांत को पढ़िए और सोचिए कि तब के ब्रााज़ील में विज्ञान अध्ययन स्थिति और हमारे देश में आज शिक्षा की स्थिति में क्या फर्क है और क्या समानता है?

ब्रााज़ील में जिस प्रकार विज्ञान पढ़ाया जाता है उसे देखकर फाइनमेन काफी अचंभित हुए। अपने इस अनुभव के बारे में उन्होंने लिखा है कि “ब्रााज़ील के मेधावी माने जाने वाले छात्रों को विज्ञान इस प्रकार रटा हुआ होता है कि वे किताबों के पृष्ठ बिना किताब खोले सुना सकते हैं। उन्हें वैज्ञानिक शब्दावली, परिभाषाएं आदि सब कुछ कंठस्थ होता है, किंतु इस सबके बावजूद उन्हें विज्ञान में कुछ नहीं आता; वे बिल्कुल शून्य होते हैं1 न तो उनमें अवलोकन की क्षमता होती है न ही अपने आसपास बिखरे विज्ञान के सिद्धांतों की समझ। सारी जानकारी रटी होने के बावजूद जब इन सिद्धांतों को लागू करने की बात आती है तो साधारण-से-साधारण प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाते।”  इस अनुभव से जुड़े कुछ रोचक उदाहरण भी फाइनमेन ने प्रस्तुत किए हैं।

एक शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय में पढ़ाते हुए फाइनमेन ने पाया कि छात्रों को प्रकाश के ध्रुवण (Polarisation) की परिभाषा, उसका कोण, दिशा तथा ध्रुवण और माध्यम के बीच संबंध.....सब कुछ कंठस्थ था। उन्हें पोलेरॉइड के दो टुकड़े देकर प्रयोग करवाने के बाद जब फाइनमेन ने उनसे पूछा कि बाहर लहराते हुए समुद्र का प्रकाश ध्रुवीकृत है क्या - तो पूरी क्लास में एक गहन चुप्पी छा गई। उन्होंने विद्यार्थियों को कई इशारे और संकेत भी दिए, फिर भी कोई भी समझ नहीं पा रहा था कि वो खुद जिस माध्यम की बात कर रहे थे वो समुद्र का पानी हो सकता है, कि ‘प्रकाश की दिशा’ का मतलब उस दिशा से हो सकता है जिस दिशा में आप किसी वस्तु को देख रहे हैं। ब्राूस्टर कोण के बारे में पूछते ही वे क्योंकि उनके दिमागी कम्प्यूटर में वो शब्द था पर ‘पानी को देखो, समुद्र को देखो ...’ कहने पर मूक चुप्पी ही मिलती। उन्हें कुल मिलाकर इतना ही करना था कि एक पोलेरॉइड में से समुद्र के पानी को देखते और फिर पोलेरॉइड को घुमा कर देखते कि क्या किसी खास दिशा में अंधेरा-सा छा जाता है। जबकि दो पोलेरॉइड के साथ उन्होंने इस प्रयोग को पहले इसी तरह किया हुआ था।

फाइनमेन एक बार एक इंजीनियरिंग कॉलेज की भौतिक शास्त्र की कक्षा में जाकर बैठ गए। प्राध्यापक महोदय व्याख्यान देते जा रहे थे और छात्र उन शब्दों को कॉपियों में उतारते जा रहे थे। भाषण का एक अंश कुछ इस प्रकार था ‘अगर दो पिंडों पर समान बलघूर्ण (Torque) लगाने पर समान त्वरण उत्पन्न होता है तो दोनों पिंडों को समतुल्य माना जाएगा।। फाइनमेन को आश्चर्य हुआ कि पूरे व्याख्यान के दौरान बलघूर्ण समझाने के लिए एक भी उदाहरण नहीं दिया गया, जबकि रोज़मर्रा के जीवन में इसके कई सरल उदाहरण मौजूद हैं। जैसे कि किसी दरवाज़े के बाहर बीचोंबीच कोई भारी वस्तु रखी हो तो दरवाज़ा खोलने में अधिक कठिनाई होती है, किंतु यही भारी वस्तु दरवाज़े के कब्जे के पास रखी हो तो दरवाज़ा एकदम आसानी से खुल जाता है। ऐसे उदाहरणों से छात्रों को शायद इस तरह की सैद्धांतिक परिभाषिक को समझने में मदद मिलती। लेकिन न तो शिक्षक ही इसे समझने की कोशिश कर रहे थे और न ही छात्र प्रश्न पूछ रहे थे।

जब पीरियड खत्म हो गया तो फाइनमेन ने एक छात्र ने पूछा कि परीक्षा में भौतिकी के इस हिस्से को लेकर कैसे सवाल पूछे जा सकते हैं। छात्र ने सरल-सा जवाब दिया कि परीक्षा में पूछा जाएगा, “दो पिंड समतुल्य कब माने जाएंगे?” और हम लिखेंगे, “जब समतुल्य बलघूर्ण दो पिंडों में समान त्वरण उत्पन्न करते हैं तब उन पिंडों को समतुल्य माना जाएगा।”

है न बढ़िया बात! न तो शिक्षक ने कुछ समझाया, न ही छात्रों की समझ में कुछ आया। फिर भी वे अच्छे अंक पा कर परीक्षा पास कर लेते हैं। फाइनमेन ने जब ध्यान से इस स्थिति पर गौर किया तो उन्होंने पाया कि लगभग सभी विषयों में पढ़ाई की यही स्थिति है।

*Two bodies are considered equivalent if equal torques will produce equal acclearation. 

कुछ ऐसी ही स्थिति उन्हें एक दूसरे इंजीनिरयरिंग कॉलेज में भौतिकशास्त्र पढ़ाने के दौरान महसूस हुई। उन्होंने देखा कि गणित के सवालों को हल करने की परीक्षण और चूक विधि (Trial and Error Method) से छात्र परिचित नहीं थे। चूंकि यह विधि काफी उपयोगी है, इसलिए फाइनमेन ने सरल गणितीय उदाहरणों को गृहकार्य के रूप में देकर छात्रों से कहा कि वे इन्हें इस विधि से हल करके लाएं। बहुत कम छात्र दिया हुआ काम करके आए। जब फाइनमेन ने इस पर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की तो कुछ छात्रों ने कक्षा के बाद उनसे कहा कि यह सरल काम तो उनके स्तर के बहुत नीचे का है। वे तो इसके आगे बहुत कुछ पढ़ चुके हैं इसलिए इतने आसान से सवाल क्यों करें। जब बाद में फाइनमेन ने उन्हें कठिन प्रश्न हल करने को कहा तो परिणाम फिर वही ‘ढाक के तीन पात’ निकला। मुश्किल से दस प्रतिशत छात्र गृहकार्य करके लाए। अब फाइनमेन की समझ में आया कि छात्रों को तो कुछ आता ही नहीं था, इसीलिए वे कोई भी प्रश्न नहीं हल कर पा रहे थे। फाइनमेन ने एक बात और महसूस की कि जब वे पढ़ाते थे तो कोई भी छात्र उनसे सवाल नहीं पूछता था। इस अनुभव के बारे में फाइनमेन ने लिखा है:

"अंत में एक छात्र ने मुझसे कहा कि यदि मैं कक्षा में आपसे सवाल पूछूंगा तो बाकी विद्यार्थी बाद में मुझ पर पिल पड़ेंगे और कहेंगे ‘हम सब, कुछ सीखने की कोशिश कर रहे हैं और तुम शिक्षक से प्रश्न पूछ कर व्याख्यान में बाधा डाल रहे हो और हमारा समय नष्ट कर रहे हो।"

कुल मिलाकर यह एक ऐसी स्थिति थी जहां किसी को कुछ नहीं आता था किंतु किसी को कुछ नहीं आता था किंतु हरेक व्यक्ति यह जताने की कोशिश कर रहा था कि उसे सब कुछ आता है और प्रश्न पूछने वाला व्यक्ति मूर्ख है, यानी हर विद्यार्थी खुद के अज्ञान को छुपाने का भौंडा प्रयास कर रहा था।

मैंने उन्हें बहुत समझाया कि समूह में काम करने, आपस में चर्चा करने और प्रश्न पूछने से फायदा होता है लेकिन छात्र अपनी यह मानसिकता अंत तक नहीं छोड़ सके कि किसी अन्य से पूछने पर सवाल पूछने वाली की हेठी होती है। यह एक दयनीय स्थिति थी। बुद्धिमान छात्रों में ऐसी मानसिकता पैदा कर देने वाली यह शिक्षा प्रणाली निरर्थक है, एकदम निरर्थक!”

जब फाइनमेन के वापस अमेरिका जाने का समय आया तो वहां के विद्यार्थियों ने उनसे अनुरोध किया कि वे ब्रााज़ील में अध्यापन के दौरान अपने अनुभवों को लेकर एक व्याख्यान दें। इस व्याख्यान में छात्रों के अलावा प्राध्यापक और शिक्षा विभाग के अधिकारी भी उपस्थित रहने लगे थे। इसलिए फाइनमेन ने आयोजकों से पहले ही यह अनुमति ले ली कि उन्हें अपने विचारों को खुले रूप से व्यक्त करने की छूट होगी। उनकी यह शर्त स्वीकार कर ली गई। फाइनमेन जब व्याख्यान देने के लिए सभागार के अंदर आए तो उनके हाथ में कॉलेज के प्रथम वर्ष में पढ़ाई जाने वाली भौतिक शास्त्र की पुस्तक थी। यह पुस्तक ब्रााज़ील में बहुत अच्छी मानी जाती थी क्योंकि इसमें कई नवाचार किए गए थे जैसे - याद रखने लायक बहुत महत्वपूर्ण बातें पतले और बारीक अक्षरों में छपी थीं। किसी ने फाइनमेन से पूछा, “कहीं आप इस पुस्तक की आलोचना तो नहीं करने जा रहे हैं? जिस व्यक्ति ने यह पुस्तक लिखी हे वह यहां मौजूद है, सब लोग यह मानते है कि एक बहुत अच्छी किताब है।”

फाइनमेन का जवाब था, “आप मुझसे यह वादा कर चुके हैं कि मैं जो चाहूंगा वो बोलने की छूट होगी।”

उन्होंने अपने भाषण के शुरू में यह बताया कि विज्ञान किसे कहते हैं और विज्ञान की पढ़ाई क्यों ज़रूरी है। फिर फाइनमेन ने यह कहते हुए धमाका कर दिया, “मेरे इस व्याख्यान का उद्देश्य यह दिखाना है कि ब्रााज़ील में विज्ञान पढ़ाया ही नहीं जाता।” सारे श्रोता यह सुनकर चौंक पड़े - “क्या हम विज्ञान नहीं पढ़ाते? यह आदमी पागल है। हम तो प्राथमिक कक्षाओं से ही विज्ञान पढ़ाना शुरू कर देते हैं।”

फाइनमेन ने बोलना जारी रखते हुए कहा कि ब्रााज़ील में उन्होंने प्राथमिक शाला के छात्रों को भौतिक शास्त्र की पुस्तकें खरीदते हुए देखा है। अमेरिका की तुलना में ब्रााज़ील में बच्चे बहुत कम आयु में और बहुत बड़ी संख्या में भौतिक शास्त्र सीखना शुरू कर देते हैं। लेकिन उसके अनुपात में ब्रााज़ील में भौतिक शास्त्रियों की संख्या बहुत कम है। ऐसा इसलिए हैकि बच्चे मेहनत तो बहुत करते हैं किंतु इसका नतीजा कुछ नहीं निकलता।

फाइनमेन ने ऐसे देश की काल्पनिक कहानी सुनाई जहां हर बच्चा विदेशी भाषा सीख रहा था और उस विदेशी भाषा के ग्रंथ उन्हें रटे पड़े थे किंतु वे किसी भी ग्रंथ के किसी भी अंश का अर्थ अपनी स्वयं की भाषा में नहीं बता सकते थे। यही हाल ब्राज़ील में विज्ञान का हो रहा है। छात्रों ने विज्ञान की भाषा को बिना सोचे समझे रट तो लिया है किंतु उन्हें विज्ञान आता ही नहीं हैं।

फिर फाइनमेन ने भौतिक शास्त्र की पुस्तक दिखाते हुए कहा, “इस किताब में केवल एक ही स्थान पर प्रयोग से निकले हुए आंकड़े दिए गए हैं जिसमें यह दिखाया गया है कि एक झुके हुए तल (सतह) से गेंद लुढ़कने पर वह एक सेकेंड, दो सेकेंड, तीन सेकेंड आदि में कितनी दूरी तय करेगी। इन आंकड़ों में गलतियां भी हैं। जिनके कारण प्रयोग से प्राप्त आंकड़े, सैद्धांतिक गणना से प्राप्त आंकड़ों से भिन्न होते हैं। पुस्तक में यह भी लिखा है कि प्रयोगिक त्रुटियों का सुधारने की आवश्यकता होती है। बहुत बढ़िया। परन्तु मुश्किल यही है कि इन आंकड़ों से गणना करने पर आपको त्वरण का सही मूल्य मिल जाएगा!

किंतु यदि गेंद लुढ़का कर यह प्रयोग वास्तव में किया जाए तो प्राप्त होने वाले आंकड़ों से पता चलेगा कि लेखक ने यह प्रयोग करके ही नहीं देखा है, सिर्फ अपनी समझ से ही लिख दिया है, क्योंकि इसमें जो आंकड़े दिए गए हैं वे किसी भी स्थिति में मिल ही नहीं सकते। क्योंकि किसी भी झुके हुए तल पर गेंद लुढ़कने के साथ-साथ घूमती भी है। और गेंद को घुमाने पर लगने वाले बल का कुछ हिस्सा गेंद को घुमाने में खर्च हो जाता है। शेष बल गेंद में त्वरण पैदा करता है इसलिए त्वरण के आंकड़े इन आंकड़ों से कम ही आएंगे।

मैं बिना देखे किसी भी पृष्ठ पर अपनी उंगनी रख दूंगा और वहां छपे अंश को पढ़ कर सिद्ध कर दूंगा कि आप लोग जो पढ़ा रहे हैं वह विज्ञान नहीं, केवल तोता रटंत है।”

फाइनमेन ने यही किया और ऐसे ही कोई भी पन्ना खोलकर छपा हुआ अंश पढ़ कर सुनाया, “रवों को कुचलने पर उत्पन्न होने वाले प्रकाश को घर्षण संदीप्ति (Turbo Luminiscence) कहते हैं।”

फाइनमेन ने कहा, “क्या यह विज्ञान है। नहीं, आप केवल एक शब्द का अर्थ दूसरे शब्दों में बता रहे हैं। आप इसके बारे में बात नहीं कर रहे कि कौन से रवों को कुचलने पर प्रकाश उत्पन्न होता है? यह प्रकाश क्यों उत्पन्न होता है? क्या आपकी पुस्तक पढ़ कर कोई छात्र घर में प्रयोग कर सकेगा? इसके स्थान पर आप पुस्तक में लिखते ‘यदि आप मिश्री के टुकड़े को अंधेरे कमरे में प्लायर से कुचलेंगे तो आपको नीला प्रकाश दिखाई देगा। कुछ अन्य रवों के साथ भी यह होता है, किन्तु इसका कारण पता नहीं चल पाया है।’ इस तरह से समझाने पर हो सकता है कि कम-से-कम कुछ छात्र तो घर पर यह प्रयोग करके देखेंगे।”

फाइनमेन ने तो केवल एक दृष्दांत दिया था, किंतु पूरी किताब इस प्रकार के उदाहरणों से भरी पड़ी थी। अंत में फाइनमेन ने कहा, “एक ऐसी प्रणाली से, जिसमें लोग केवल परीक्षाएं पास कर लेते हैं, और फिर दूसरों को परीक्षाएं पास करवाते हैं, कोई शिक्षित हो सकता है इसकी वे कल्पना ही नहीं कर सकते। फिर भी इस निकृष्ट शिक्षा प्रणाली से कुछ अच्छे छात्र निकलते हैं, ऐसा प्रतीत होता है। मेरी कक्षा में दो ऐसे छाऋ थे जिन्हें भौतिक शास्त्र का बहुत अच्छा ज्ञान था।”

मिश्री वाला प्रयोग

फाइनमेन ने मिश्री वाले जिस प्रयोग का ज़िक्र किया है वो हमने भी करके देखा, आप भी देखिए खुद करके।

बस इतना करना है कि किसी एकदम अंधेरे कमरे में मिश्री के एक टुकड़े को प्लायर या रसोई में बर्तन पकड़ने वाली संड़ासी से झटके से कुचल दीजिए। गौर से देखिए ज़रा, क्या कोई रोशनी निकलती दिखी?

वैसे एक और मज़ेदार तरीका है। चेहरे के सामने शीश रखकर मिश्री के टुकड़े को दांतों के बीच फंसाकर ज़रा जोर से तोड़िए। दिखा न रोशनी का चमकारा, नीला-सफदे-सा। इसी प्रकाश को ‘घर्षण संदीप्ति’ कहते हैं!

व्याख्यान समाप्त होने पर विज्ञान शिक्षण के विभागाध्यक्ष ने खड़े होकर कहा, “फाइनमेन की बातें हमें सुनने में ज़रूर कड़वी लगीं, लेकिन यह स्पष्ट है कि उन्होंने जो भी आलोचना की है, पूरी ईमानदारी और विज्ञान के प्रति प्रेम के कारण ही है। अत: हमें उनकी बातों पर गौर करना चाहिए। मुझे यह तो पता था कि हमारी शिक्षा प्रणाली की हालत खराब है, किंतु आज पता चला कि उसे कैंसर हो गया है।”

इसके बाद कई लोगों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किए और शिक्षा में सुधार लाने के लिए सुझाव दिए।

सबसे मज़ेदार बात यह हुई कि फाइनमेन ने अपने व्याख्यान ने जिन दो अच्छे छात्रों का ज़िक्र किया था उन्होंने स्वीकार किया कि उनकी शिक्षा ब्रााज़ील में न होकर अन्य देशों में हुई है। विज्ञान शिक्षण के विभागाध्यक्ष ने भी कहा कि उनकी शिक्षा ब्रााज़ील में हुई थी। किंतु दूसरे विश्वयुद्ध के चलते हुए उस समय विश्वविद्यालय में पढ़ाने के लिए कोई शिक्षक नहीं थे। इसलिए उन्होंने स्वयं ही पुस्तकों से पढ़ कर सीखा है।


अरविंदे गुप्ते - प्राणीशास्त्र के प्राध्यापक। प्रशासन अकादमी, भोपाल में कार्यरत। होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से संबद्ध।

लेख फाइनमेन (1918 - 1988) की आत्मकथा "Surely You re Joking Mr. Feynman" पर आधारित है।