किशोर पंवार

बीजों में श्वसन

जीव विज्ञान की कक्षाओं में कई बार यह प्रयन उठता है कि क्या सूखे बीज जीवित हैं। जानकार लोगों द्वारा जवाब हां में दिया जाता है। यह कहा जाता है कि बीज बोने पर वे उगकर नया पौधा बनाते हैं। क्योंकि जीव से ही जीव उत्पन्न होता है इसलिए बीज जीवित हुए - उनसे ही तो नया पौधा बनता है।

जीव विज्ञान की कक्षाओं में कई बार यह प्रश्न उठता है कि क्या सूखे बीज जीवित हैं। जानकारों लोगों द्वारा जवाब हां में दिया जाता है। यह कहा जाता है कि बीज बाने पर वे उगकर नया पौधा बनाते है इसलिए बीज जीवित हुए - उनसे ही तो नया पौधा बनता है।

पर बिना उगाये क्या यह तय किया जा सकता है कि बीज जीवित है या नहीं? अब अगर हम यह दिखा सकें कि बीजों में श्वसन हो रहा है तो बीजों को जीवित मानना ही पड़ेगा।

श्वसन क्रिया में तकरीबन सभी जीव ऑक्सीजन इस्तेमाल करते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं। मनुष्य द्वारा सांस में छोड़ी गई हवा में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्र ज़्यादा होती है, यह तो आसानी से दिखाया जा सकता है। यदि आप चूने के पानी के घोल में एक नली द्वारा फूंक मारकर लगातार हवा गुज़ारें तो चूने का पानी दूधिया हो जाता है। ऐसे ही अगर फिनाफ्थलीन के रंगीन घोल में फूंक मारें तो उसका रंग उड़ जाता है। जबकि चूने के पानी या फिनाफ्थलीन के रंगीन घोल में से किसी पंप द्वारा हवा गुज़ारें तो कोई परिवर्तन नहीं होता या फिर बदलाव बहुत ही धीमा होता है।

ऐसा ही एक प्रयोग सन् 1988 में होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के शिक्षक प्रशिक्षण शिविर के दौरान बीजों को लेकर किया गया था। जिसमें तरह-तरह के सूखे बीजों से चार-पांच परखनली को आधा-आधा भर दिया और फिर उनमें फिनाफ्थलीन  का रंगीन घोल डाला गया। लगभग एक घंटे बाद अवलोकन देने पर देखा गया कि जिन परखनलियों में बीच रखे थे उनमें घोल का रंग हल्का होने लगा। ज़्यादा समय तक रखने पर फिनाफ्थलीन  का रंग बिल्कुल उड़ जाता है।

बीज जीवित हैं या निर्जीव: यह पता करने के लिए एक प्रयोग - चारों परखनलियों में फिनोफ्थलीन  का गुलाबी सूचक घोल डालकर तीन में बीज डाले हैं और चौथी में रेत के कण। इन्हें थोड़ी देर यूं ही रखा रहने देते हैं। यही कोई दो-तीन घंटे।

कुछ समय बाद उन सब परखनलियों का रंगीन घोल रंगहीन हो जाता है जिनमें बीच डाले थे। जबकि रेत वाले घोल का रंग पहले जैसा ही रहता है।

रंग में परिवर्तन बीजों के आसपास सबसे पहले होता है, जहां बीज घोल के संपर्क में आ रहे हैं। ऐसा लगा कि प्रयोग सफल रहा। बीजों से श्वसन के दौरान कार्बन डाइऑक्साइड निकली और रंगीन फिनाफ्थलीन  को रंगहीन कर दिया।

यानी यह तय हो गया कि सूखे बीज श्वसन करते हैं। इस प्रयोग में तुलना का प्रावधान (कन्ट्रोल) रखने के लिए इन सब बीज वाली परखनलियों के साथ एक परखनली में धुली हुई रेत या कंकड़ लिए जाते हैं। उसमें भी फिनाफ्थलीन  का रंगीन घोल भरा जाता है।

बुरे फंसे  
इस प्रयोग से प्रेरित होकर हमारे एक शिक्षक साथी पटैल मास्साब ने यही प्रयोग सूखी पत्तियों के चूरे और पेड़ों की सूखी छाल के साथ करके देखा। पता चला कि दोनों फिनाफ्थलीन का रंग उड़ा देते हैं। तो क्या यह मान लिया जाए कि सूखी पत्तियों और पेड़ों की छाल भी श्वसन करते हैं!

कुछ देर के लिए तो सब सोच में पड़ गए कि आखिर चक्कर क्या है, गलती कहां हुई? फिर समझ में आया कि दरअसल फिनोफ्थलीन तो सूचक मात्र है जो अम्लीय माध्यम में गुलाबी से रंगहीन हो जाता है। अर्थात उससे सिर्फ यह पता लगता है। लेकिन माध्यम श्वसन की प्रक्रिया के कारण पैदा हुई कार्बन डाइऑक्साईड के पानी में घुलने से अम्लीय हुआ है या किसी और कारण से - इस प्रयोग में यह पता करने का तो कोई तरीका नहीं है।

थोड़ा दिमाग लड़ाने पर यह तो समझ में आ गया कि अधिकांश पत्तियां और छाल अम्लीय होती हैं इसलिए उन्होंने फिनोफ्थलीन का रंग उड़ा दिया। पर अब सवाल यह था कि पटैल मास्साब ने जिस उलझन में फंसा दिया है उसमें से निकला कैसे जाए? आखिर कैसे साबित किया जाए कि बीच श्वसन करते हैं?

इसलिए यह तय किया गया कि अगली बार प्रयोग को इस तरह डिज़ाइन किया जाए कि बीज या सूखी पत्तियां फिनोफ्थलीन  के सीधे संपर्क में ही न आयें। ऐसे में अम्लीय होते हुए भी ये पदार्थ घोल का रंग नहीं उड़ा पाएंगे। और यदि श्वसन हुआ तभी कार्बन डाइऑक्साइ  निकलेगी जो फिनोफ्थलीन को रंगहीन कर पायेगी अन्यथा कोई परिवर्तन नहीं होगा।

पहले वाले प्रयोग को करने का एक बेहतर तरीका: पता तो करना था कि सूखे बीज श्वसन करते हैं कि नहीं लेकिन पहले वाले प्रयोग में केवल यही कहा जा सकता है कि गीले बीज श्वसन करते हैं, क्योंकि बीज फिनोफ्थलीन  में भीग जाते हैं। इसलिए इस प्रयोग में फिनोफ्थलीन  और बीज व रेत के बीच रूई लगाकर दोनों को अलग-अलग कर दिया गया है ताकि बीज या रेत भीगें नहीं और जांच की जा सके कि सूखे बीज भी श्वसन करते हैं या नहीं।

एक कोशिश और  
हाल ही में वेड़दी (गुजरात) में इस तरह के एक और विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के दौरान इस प्रयोग को करने का फिर से मौका मिला। इस बार परखनली में फिनोफ्थलीन  रंगीन घोल भर कर उस पर सावधानी से एक रूई का फाहा लगा दिया।

रूई के फाहे के ऊपर बिना किसी चीज़ को हिलाए-डुलाए धीरे-धीरे से ऊपर तक बीज भर दिए जाते हैं। इसमें भी तुलना का प्रावधान रखने के लिए एक परखनली में रूई के फाहे के ऊपर रेत रख दी जाती है। चार-पांच घंटे बाद देखा गया कि जिन परखनलियों में रूई के फाहे पर बीच रखे गए थे उन सब में फिनोफ्थलीन का रंग उड़ जाता है। इससे स्पष्ट तौर पर सिद्ध होता है कि ‘सूखे बीज’ श्वसन करते हैं चूंकि कार्बन डाइऑक्साइड गैस हवा से भारी है, अत: रूई से होती हुई नीचे जाकर फिनोफ्थलीन  को रंगहीन बना देती है।

अब यह प्रयोग सूखी पत्तियों व छाल के साथ करने पर भी कोई परेशानी नहीं हुई।

संभावनाएं और भी हैं   
आप भी इस प्रयोग को खुद करके देखिए और अपने विद्यार्थियों से भी करवाइए। प्रयोग करते वक्त कई और प्रश्नों पर भी गौर किया जा सकता है, जैसे -

क्या सब परखनलियों में रंग परिवर्तन की दर एक जितनी ही है या कुछ परखनलियों में कम या ज़्यादा है? क्या इस आधार पर हम विभिन्न बीजों की श्वसन दर के बारे में पक्के तौर पर कुछ कह सकते हैं? रूई की जगह क्या किसी अन्य पदार्थ का उपयोग बीजों को फिनोफ्थलीन से दूर रखने के लिए किया जा सकता है?

इस पूरी प्रक्रिया के दौरान यह प्रयोग तो ज़्यादा सटीक बना ही पर साथ ही एक और बात समझ में आई कि शायद इसी तरह के प्रश्नों, उलझनों और उन्हें हल करने की कोशिशों से भी विज्ञान आगे बढ़ता है।


किशोर पवार - शासकीय महाविद्यालय, सेंधवा, खरगोन, म.प्र. में वनस्पति विज्ञान में प्राध्यापक।