सुशील जोशी

अब  तक  हमने  ऐसे  प्रयोगों  पर चर्चा की जिनमें किसी परिकल्पना के सत्यापन, कुछ नियमों के प्रतिपादन या किन्हीं परिकल्पनाओं के बीच चुनाव के लिए प्रयोग किए जाते हैं। अब देखते हैं कि विज्ञान में प्रयोगों की अन्य भूमिकाएँ क्या हो सकती हैं।

सामान्य गुणधर्मों के आँकड़े
प्रयोग करते समय या तकनीक का विकास करते समय पदार्थों के गुणधर्मों की जानकारी की ज़रूरत होती है। जैसे उनके घनत्व, तनाव सहने की क्षमता, विद्युत चालकता, ऊष्मा चालकता, गलनांक, क्वथनांक वगैरह।
इनमें से कुछ जानकारी हासिल करने के लिए काफी पापड़ बेलने पड़ते हैं। यह सही है कि कई मामलों में ऐसे गुणधर्मों की सैद्धान्तिक गणना की जा सकती है मगर आम तौर पर आपको प्रयोग करके यह जानकारी निकालनी पड़ती है। कई लोग यही काम करते हैं। वे प्रयोगों को ज़्यादा-से-ज़्यादा परिष्कृत बनाते हैं ताकि उपलब्ध जानकारी ज़्यादा-से-ज़्यादा सटीक हो। ऐसी जानकारियों की तालिकाएँ भी प्रकाशित की जाती हैं।

आपको  पदार्थों  के  गलनांक, क्वथनांक, घनत्व वगैरह की तालिकाएँ आसानी से मिल जाएँगी। पदार्थों के वर्णक्रम भी नियमित रूप से प्रकाशित किए जाते हैं।

प्राकृतिक घटनाओं की जानकारी
वैसे हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि कई बार इस तरह की जानकारी उपकरणों की मदद से प्राप्त की जाती है मगर वह सिर्फ अवलोकनों पर आधारित होती है। जैसे मौसम सम्बन्धी जानकारी या आकाशीय पिण्डों (तारों, ग्रहों, उपग्रहों, तारामण्डलों) की गति सम्बन्धी जानकारी। आप देख ही सकते हैं कि इन दोनों तरह की जानकारियों ने हमारे जीवन पर कितना गहरा असर डाला है। कई प्रयोगशालाएँ, कई विशाल दूरबीनें लगातार आसमान को ताकती रहती हैं ताकि नए-नए पिण्डों की खोज की जा सके, नए-नए आकाशीय करतब देखे जा सकें। ये अवलोकन वैज्ञानिक सिद्धान्तों को परिष्कृत करने में मददगार होते हैं।
मौसम सम्बन्धी जानकारी संग्रह करना भी इसी तरह का काम है।

इन्हीं के तहत यह भी शामिल होता है कि आप अपने उपकरणों में सुधार करें और उन्हें अधिक सटीक व विश्वसनीय बनाएँ। कई प्रयोग सिर्फ उपकरणों में परिष्कार से सम्बन्धित होते हैं। जैसे सूक्ष्मदर्शी की संरचना, उसमें तरह-तरह के लेंस, प्रकाश व्यवस्था की जाँच करना अपने आप में विज्ञान की एक शाखा है। इसके अलावा प्रयोग की विधियों, अवलोकन लेने के तरीकों में सुधार करने के लिए भी प्रयोग किए जाते हैं। जैसे कोशिकाओं के अध्ययन के लिए अभिरंजन (स्टेनिंग) और सेंट्रीफ्यूज की तकनीक, इसी तरह के प्रयोगों का परिणाम हैं।
देखने वाली बात यह है कि किस तरह की जानकारी की ज़रूरत पड़ेगी, यह इस बात पर निर्भर है कि विज्ञान में किस तरह के विषयों पर काम ज़ोरों से चल रहा है।

दो राशियों के बीच सम्बन्ध
प्रकृति में कई घटनाएँ होती रहती हैं और आप इनका अवलोकन कर सकते हैं, इनका बारीक-से-बारीक विवरण प्रस्तुत कर सकते हैं। मगर यदि आप यह देखना चाहते हैं कि कोई घटना किस कारण से होती है, तो आप थोड़ी मुश्किल में पड़ जाएँगे।
तो कई बार हमें कोशिश करनी होती है कि ऐसी कुछ व्यवस्था बनाएँ जिसमें हम विभिन्न सम्भावित कारकों को एक-एक करके बदल सकें (शेष कारकों को यथावत रखते हुए)। इस व्यवस्था को ही तो प्रयोग कहते हैं।

जैसे दोलक की गति को ही लीजिए। दोलक किसी रस्सी की मदद से लटकाया गया एक वज़न होता है। जब इसे इसकी स्थिर अवस्था से थोड़ा एक ओर ले जाकर छोड़ा जाता है तो यह दोलन करने लगता है। लगभग 1 मीटर की एक रस्सी लीजिए और उसके एक छोर पर एक छोटा-सा पत्थर बाँध लीजिए। इस रस्सी को दूसरे छोर से किसी ऐसी कील से लटका दीजिए कि दोलक स्वतंत्र रूप से लटके यानी रस्सी और पत्थर किसी चीज़ को न छुएँ।

अब पत्थर को पकड़कर थोड़ा एक तरफ ले जाइए और छोड़ दीजिए। पता यह करना है कि इस दोलक को किसी स्थिति से शुरू करके वापिस उसी स्थिति में आने में कितना समय लगता है। एक दोलन पूरा करने के समय को दोलन काल कहते हैं।

सबसे पहले तो पता करना है कि आपने जो दोलक बनाया है, उसका दोलन काल कितना है। कैसे करेंगे?

विधि यह है कि पत्थर को एक हाथ से पकड़ लें और रस्सी को सीधा रखते हुए पत्थर को थोड़ा एक तरफ ले जाएँ और छोड़ दें। अब किसी भी एक बिन्दु से गिनना शुरू कर दें। जैसे जब पत्थर मध्य स्थिति में हो तो गिनना शुरु करें। जब पत्थर फिर से उसी जगह पहुंचे तो एक दोलन हो गया। आम तौर पर इस प्रयोग को करते समय हम एक दोलन पूरा होने वाले समय को न नापकर 40-50 दोलन में लगे समय को नापते हैं और फिर औसत दोलन काल निकालते हैं।

आपके विचार में ऐसा क्यों करते हैं?
चलिए, आपने अपने दोलक का दोलन काल निकाल लिया। अब यह बताइए कि क्या करने से दोलन काल बढ़ेगा और क्या करने से दोलन काल घटेगा?
ध्यान दीजिए कि दोलक में कई चीज़ों में परिवर्तन किया जा सकता है। जैसे रस्सी को बदला जा सकता है, पत्थर अलग-अलग आकार के ले सकते हैं (गोल, चौकोर, चकती के आकार का वगैरह), पत्थर छोटा-बड़ा कर सकते हैं, रस्सी छोटी-बड़ी कर सकते हैं, पत्थर की जगह लोहे का छर्रा या कटोरी ले सकते हैं।
करके देखिए और बताइए कि दोलन काल किस बात पर या किन बातों पर निर्भर है।
सैद्धान्तिक दावों की जाँच
जब किसी परिघटना की व्याख्या के लिए कोई सिद्धान्त प्रस्तुत किया जाता है, तो वह सिद्धान्त न सिर्फ उस परिघटना की व्याख्या कर देता है बल्कि वह यथार्थ का एक मॉडल भी सामने रखता है। इस मॉडल के आधार पर कई और चीज़ों की भविष्यवाणी की जाती है। ये ऐसी चीज़ें होती हैं जिन्हें अब तक देखा नहीं गया है मगर यदि वह मॉडल सही है तो होनी चाहिए।

उदाहरण के लिए जब आइंस्टाइन ने सामान्य सापेक्षता का सिद्धान्त प्रस्तुत किया था तो इसने गुरुत्वाकर्षण की अधिक सटीक व्याख्या दी थी। गणनाओं से पता चलता था कि यदि सामान्य सापेक्षता का सिद्धान्त सही है तो किसी विशाल पिण्ड के समीप से गुज़रते प्रकाश को अपने मार्ग से विचलित होना चाहिए।
ब्रह्माण्ड में ऐसे विशाल पिण्ड सूर्य हैं (सारे तारे सूर्य ही तो हैं)। सामान्य सापेक्षता के अनुसार जब प्रकाश किसी सूर्य के पास से गुज़रे तो उसे मुड़ना चाहिए। इस बात की जाँच कैसे हो?

इस बात की जाँच के लिए एक सुन्दर प्रयोग सुझाया गया। सामान्य तौर पर तो हम सूरज की चमक के कारण उसके पीछे की ओर स्थित किसी तारे से आने वाले प्रकाश को देख नहीं सकते। मगर यह सोचा गया कि पूर्ण सूर्य ग्रहण के दौरान अवलोकन किया जाए। पूर्ण ग्रहण के दौरान सूर्य से आने वाला प्रकाश तो ओझल रहेगा। इस समय यदि कोई तारा सूर्य के पीछे की ओर स्थित हो, तो उससे उत्सर्जित प्रकाश सूर्य के प्रभाव से मुड़कर हम तक पहुँचना चाहिए। अर्थात् पूर्ण सूर्य ग्रहण के समय हमें सूर्य के पीछे स्थित तारा अपनी जगह से सरका हुआ दिखना चाहिए।

यह प्रयोग वास्तव में किया गया। 1919 में आर्थर स्टेनले एडिंग्टन यह प्रयोग करने के लिए खास तौर से उस स्थान पर पहुँचे जहाँ पूर्ण सूर्य ग्रहण होने वाला था। दूरबीन वगैरह लगाकर अवलोकन किया गया तो वास्तव में तारे से निकला प्रकाश मुड़ा था। प्रायोगिक त्रुटियों को ध्यान में रखते हुए प्रकाश ने आइंस्टाइन के सिद्धान्त के अनुरूप ही व्यवहार किया था।
इस प्रयोग से आइंस्टाइन के सिद्धान्त की विश्वसनीयता में वृद्धि हुई। विज्ञान के दर्शन के शब्दों में कहें तो सामान्य सापेक्षता सिद्धान्त की सत्य-सादृश्यता में वृद्धि हुई।

प्रयोग और संयोग
विज्ञान के बारे में सबसे प्रसिद्ध बात यह रही है कि विज्ञान की कई महत्वपूर्ण खोजें संयोगवश हुई हैं। कुछ हद तक यह सही भी है। प्रयोगों के सन्दर्भ में कई बार ऐसा हुआ है कि प्रयोग का मकसद कुछ और था, मगर कुछ ऐसे परिणाम प्राप्त हुए कि उन्होंने किसी अन्य परिघटना को रोशन कर दिया या किसी अन्य समस्या की ओर ध्यान आकर्षित कर दिया। यानी प्रयोग से कुछ अनपेक्षित परिणामों ने नई खोज का मार्ग प्रशस्त किया।

उदाहरण के लिए विलहेल्म कॉनरैड राँजेन के प्रयोग को देखिए। वे एक डिस्चार्ज्ड ट्यूब में विद्युत प्रवाहित करके पदार्थ की प्रकृति के बारे में कुछ निष्कर्ष निकालने के इच्छुक थे। हुआ यह कि डिस्चार्ज्ड ट्यूब पर तो काला कागज़ लिपटा हुआ था। यानी इसमें से रोशनी के बाहर निकलने की कोई उम्मीद नहीं थी। मगर राँजेन ने देखा कि पास में रखे एक फ्लोरेसेंट पर्दे पर चमक पैदा हुई। यानी प्रकाश उस पर्दे पर पहुँच रहा था। तो उन्होंने अपना मूल प्रयोग छोड़कर इस नई किस्म की रोशनी पर प्रयोग शुरू कर दिए जो काले कागज़ के पार जा सकती है। इन प्रयोगों में से एक्स-रे की खोज हुई।

यही स्थिति रदरफोर्ड के मशहूर प्रयोग में नज़र आती है। रदरफोर्ड यह देखना चाहते थे कि अल्फा कण पदार्थों के साथ कैसी अन्तर्क्रिया करते हैं। अल्फा कण धनावेशित कण होते हैं। तो उन्होंने गाइगर के साथ मिलकर एक प्रयोग तैयार किया जो अब विज्ञान के एक आदर्श प्रयोग के रूप में याद किया जाता है।

उन्होंने सोने का एक वर्क लिया था। इसकी मोटाई 0.00004 से.मी. थी। उनका इरादा यह था कि इस पर अल्फा कणों की बौछार करेंगे और देखेंगे कि उन कणों पर क्या असर होता है। दरअसल इसके ज़रिए वे भारी धातुओं (जिनमें से अल्फा कण निकलते हैं) के परमाणुओं के बारे में कुछ सुराग पाना चाहते थे। उन्होंने एक ऐसा जुगाड़ जमाया जिसमें भारी धातु के एक टुकड़े को सीसे के ब्लॉक में बन्द कर दिया जिसमें एक ही सुराख था। अल्फा कण इसी सुराख में से निकल सकते थे क्योंकि सीसे की मोटी परत अल्फा कणों को सोख लेती है।

ये अल्फा कण सोने की 0.00004 से.मी. मोटी झिल्ली से टकराते थे। उम्मीद थी कि ये उस परत को चीरते हुए निकल जाएँगे। तो सोने की झिल्ली के दूसरी तरफ उन्हें एक ऐसा जुगाड़ जमाना था कि जब अल्फा कण सोने के पर्दे में से दूसरी ओर निकलें तो उन्हें ‘देखा’ जा सके। रदरफोर्ड और गाइगर ने काफी प्रयोगों के बाद पाया कि ज़िंक सल्फाइड पुता एक पर्दा लगाया जाए तो हर बार अल्फा कण के टकराने पर सम्बन्धित बिन्दु पर एक चमक पैदा होती है। तो सोने के पर्दे के दूसरी ओर उन्होंने ज़िंक सल्फाइड का एक पर्दा लगा दिया।

इस पूरे उपकरण को एक अँधेरे कमरे में रखा गया और रदरफोर्ड व गाइगर घण्टों वहाँ बैठकर ज़िंक सल्फाइड पर अलग-अलग बिन्दुओं पर पैदा होने वाली चमक को रिकॉर्ड करते थे।

अन्तत: जो परिणाम प्राप्त हुए वे आशा के अनुरूप ही थे। सारे अल्फा कण ज़िंक सल्फाइड के पर्दे पर लगभग एक छोटे-से वृत्त के दायरे में ही पहुँचे थे। रदरफोर्ड को यही उम्मीद थी कि सोने के पर्दे में से गुज़रते वक्त अल्फा कण सोने के परमाणुओं से टक्करों के कारण थोड़े विचलित होंगे मगर विचलन ज़्यादा-से-ज़्यादा 1 डिग्री का होगा। और यही हुआ भी। मगर आपने रदरफोर्ड के इस प्रयोग का जो विवरण पाठ्य पुस्तकों में पढ़ा था, वह सम्भवत: ऐसा नहीं था।
वास्तव में जब रदरफोर्ड और गाइगर ने यह प्रयोग किया था तो परिणाम ऐसे ही थे। विज्ञान की कहानियाँ उतनी नाटकीय या रोचक नहीं होतीं जितना उन्हें बना दिया जाता है।
एक दिन गाइगर ने रदरफोर्ड को बताया कि अर्नेस्ट मार्सडेन नाम के एक शोध छात्र को एक प्रोजेक्ट करना है। रदरफोर्ड ने सुझाया कि “क्यों न मार्सडेन उसी प्रयोग को दोहराकर यह देखने की कोशिश करे कि कोई अल्फा कण ज़्यादा विचलित तो नहीं होता?”
जब मार्सडेन ने प्रयोग किया तो ज़िंक सल्फाइड का पर्दा सिर्फ सोने की झिल्ली के पीछे नहीं बल्कि चारों तरफ लगाया गया। मार्सडेन ने पाया कि कुछ कण (20,000 में से 1) 90 डिग्री से भी ज़्यादा कोण से विचलित होते हैं। इन परिणामों के बारे में रदरफोर्ड ने कभी कहा था, “यह मेरे जीवन की सबसे अविश्वसनीय घटना थी। यह तो लगभग ऐसा था कि आप एक 15 इंची हथगोला एक टिशू पेपर पर मारें और वह लौटकर आपको ठोंक दे।”
खैर, वे कितने ही चकराए हों मगर इस परिणाम का निहितार्थ समझने में देर नहीं की।
उनका निष्कर्ष था कि इन परिणामों की व्याख्या एक ही तरीके से की जा सकती है। आपको मानना होगा कि परमाणु का सारा धनावेश और द्रव्यमान बहुत थोड़ी-सी जगह में घनीभूत है। इसे उन्होंने केन्द्रक कहा। बस हमें इतना ही बताया जाता है। यह विज्ञान की एक रोमांटिक, संयोगवश खोजों की और अन्तर्दृष्टि पर आधारित छवि को पुष्ट करता है।

मगर रदरफोर्ड इतना ही कहते तो बात नहीं बनती। इस मान्यता को लेकर उन्होंने समीकरणें विकसित कीं जिनके आधार पर कुल अल्फा कणों में से किसी एक कोण से विचलित होने वाले कणों की संख्या का पता चल सकता था। इन समीकरणों से उन्होंने यह भविष्यवाणी की कि अल्फा कणों का विचलन सोने के वर्क की मोटाई के समानुपाती होगा और केन्द्रक पर उपस्थित आवेश के वर्ग के समानुपाती होगा। और तो और वे यह भी गणना कर पाए कि विचलन का कोण अल्फा कणों के वेग की चौथी घात के व्युत्क्रमानुपाती होगा।

गाइगर और मार्सडेन ने इन तीनों पूर्वानुमानों की जाँच प्रयोगों के माध्यम से की और इन्हें सही पाया।
इस सारी मशक्कत के बाद रदरफोर्ड इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि परमाणु का सारा धनावेश और द्रव्यमान उसके केन्द्र में घनीभूत है। इसे उन्होंने केन्द्रक नाम दिया। उन्होंने यह भी कहा कि परमाणु के कुल आयतन के मुकाबले केन्द्रक का आयतन नगण्य होता है।

नियमों की जाँच
कूलंब के नियम का नाम तो आपने सुना ही होगा। नियम कहता है कि दो विद्युत आवेशों के बीच लगने वाला बल उनके बीच की दूरी के वर्ग के व्युत्क्रमानुपाती होता है।
इसकी जाँच के लिए फ्रांसीसी वैज्ञानिक चार्ल्स-ऑगस्टीन डी कूलंब ने एक विशेष टॉर्शन तुला बनाई थी। इसकी मदद से जब दो आवेशों के बीच लगने वाले बल और उनके बीच की दूरी की तुलना की गई तो परिणाम बहुत सटीक नहीं थे।

आगे चलकर जोसेफ प्रिस्टले ने एक परोक्ष तरीका सुझाया। गणितीय गणनाओं से पता चला था कि यदि एक बन्द गोले के आसपास कितना भी विद्युतीय परिवर्तन किया जाए, इसका असर गोले के अन्दर नहीं होगा, बशर्ते कि व्युत्क्रम वर्ग का नियम सही हो।
जब इस प्रयोग को अत्यन्त संवेदी उपकरणों के साथ किया गया तो पता चला  कि  व्युत्क्रम  वर्ग  का  नियम  10-9 की शुद्धता तक सही है।

तो हमने देखा कि विज्ञान में प्रयोग कई मकसद से किए जाते हैं और कई तरह से किए जाते हैं। मगर हमारे स्कूलों में, कक्षाओं में, प्रयोगशालाओं में प्रयोगों का एक ही मसकद होता है - किसी स्थापित सिद्धान्त या नियम की सत्यता को परखना। सत्यापन के ये प्रयोग इस तरह रचे जाते हैं कि विद्यार्थी इन्हें बगैर सोचे-समझे करते हैं और निर्धारित उत्तर पाने की कोशिश करते हैं।

ऐसे प्रयोग करना भी अपने आप में रोचक है और इनमें भी सीखने को बहुत कुछ होता है, मगर प्रयोग की बात को इतने पर सीमित कर देना विज्ञान की विधि और सीखने की प्रक्रिया के साथ अन्याय है।


सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।