अंजु दास मानिकपुरी

मैंने संदर्भ अंक-101 में छपे लेख जलने पर धुआँ क्यों उठता है? में लेख का अन्त यह कहते हुए किया था कि इस पूरे अध्ययन के दौरान कुछ बातें जो उभर कर आईं, वे काफी उत्साहवर्धक थीं। इस पूरी प्रक्रिया में  सवाल करना, सवाल के उत्तर जानने के लिए अलग-अलग तरह से लेकिन समेकित प्रयास करना, प्रयोग के लिए अलग-अलग तरह से जुगाड़ बनाना, ऐसी क्रियाविधि सुझाना कि सोचे हुए विचार को वास्तव में करके देख सकें, क्रियाविधि के दौरान आई चुनौतियों को न्यून करने की भरसक कोशिश करना और इस दौरान फिर से नए सवाल उठना जैसी प्रक्रियाओं से गुज़रे थे। अन्त में, हम भले ही सटीक उत्तर तक नहीं पहँुचे पर उत्तर जानने के प्रयास में हम यही कह सकते हैं कि धुआँ अपूर्ण या आंशिक दहन का ही सह-उत्पाद है।
इस क्रम को आगे बढ़ाते हुए मैंने एक मशहूर विज्ञान शिक्षाविद् और लेखक से बात की। यहाँ पाठकों को यह बताना मुनासिब होगा कि पहला आलेख भी एक विज्ञान शिक्षाविद् और लेखिका की लगातार मदद और फीडबैक से ही सम्भव हो पाया था। विज्ञान शिक्षण में सीखने-सिखाने का सिलसिला मुझे इन विज्ञान शिक्षाविदों के सानिध्य में आकर ही मिला, नहीं तो मैं अपने विषय की विषयवस्तु के अलावा कुछ और सोचने में कई जटिलताओं और सीमाओं से घिर जाती थी।
तो मैं बता रही थी कि कैसे इस लेख को और आगे बढ़ाने का मन हुआ। मुझे कई और बिन्दु सुझाए गए, मुझसे कई और सवाल किए गए जो इस प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने के लिए मददगार थे। मसलन, तुमने ज्वलन ताप का कहीं ज़िक्र क्यों नहीं किया है? जलना पदार्थ की अवस्था और रासायनिक संघटन पर निर्भर करता है या नहीं करता? दहन के दौरान ईन्धन का विघटन होता है या नहीं होता, और अगर होता है तो कैसे होता है? अगर हमारे विचार प्रकाशित होते हैं या किसी भी माध्यम से दूसरों तक पहुँचते हैं, तो हमें और बेहतर करने या हमारे काम को व्यवस्थित करने में पाठकों से सुझाव के रूप में बड़ी मदद मिलती है। मैं इसी मंशा के साथ आगे बढ़ी, कुछ सम्बन्धित किताबें पढ़ीं तथा कुछ प्रयोग और करके देखे। लेख के बीच-बीच में, इनमें से कुछ प्रयोगों का ज़िक्र करूँगी जो जलने के दौरान पैदा होने वाले धुएँ को समझने में मददगार हैं।

प्रकाश और ऊष्मा यानी आग, दहन की प्रक्रिया के दिखाई देने वाले प्रभाव हैं। ये हवा में उपस्थित ऑक्सीजन और ईन्धन के बीच होने वाली क्रिया के परिणाम हैं। अब ध्यान देने वाली बात यह है कि ईन्धन चाहे किसी भी अवस्था में हो, आग तभी पकड़ेगा जब वह वाष्प अवस्था में आएगा। तो ईन्धन चाहे ठोस हो या द्रव, पहले तो वह वाष्प अवस्था में आएगा जिसमें निस्सन्देह कुछ समय व निश्चित तापमान लगेगा। और अगर ईन्धन गैस हुआ तो पहले ही वाष्प अवस्था में है। यही कारण है कि ज़्यादा वाष्पशील पदार्थ जल्दी-से जल उठते हैं।
लेकिन वाष्प अवस्था में आने के बाद क्या होता है? जब किसी रासायनिक परिवर्तन के दौरान अणु के परमाणु पुनर्व्यवस्थित होते हैं तो या तो ऊर्जा बाहर निकलती है या फिर अवशोषित होती है। कितनी ऊर्जा निकलेगी या कितनी अवशोषित होगी, यह मात्रा इस बात पर निर्भर करती है कि पदार्थ में किस तरह के रासायनिक बन्धन हैं और ये बन्धन टूटने और बनने में कितनी ऊर्जा लगती है या निकलती है।
दहन के लिए ईन्धन को उसके ज्वलन तापमान तक गर्म किया जाना चाहिए। एक बार दहन शु डिग्री हो जाए तो ईन्धन से ऊष्मा उत्पन्न होने लगती है जो आग को सम्भाले रखती है। इस उत्पन्न ऊष्मा की मात्रा से ही ईन्धन की दक्षता का निर्धारण होता है। एक इकाई ईन्धन को जलाने पर ऊष्मा की जो मात्रा उत्पन्न होती है उसे कैलोरी में मापा जाता है और प्राप्त मान को ‘कैलोरीफिक मान’ कहा जाता है। ज्वाला या लौ मूलत: वह उपयुक्त तापमान बनाए रखती है जो रासायनिक क्रिया के लिए ज़रूरी है। जब तक ईन्धन और ऑक्सीजन उपलब्ध रहते हैं, आग जलती रहती है।

पूर्व आलेख में उल्लेखित लोहे में जंग लगने के एक उदाहरण से समझते हैं कि हवा में उपस्थित ऑक्सीजन लोहे के परमाणु के साथ क्रिया करती है जिसे हम ऑक्सीकरण कहते हैं। इस प्रक्रिया में ऊर्जा बाहर तो निकलती है पर वह इतनी धीमे-धीमे निकलती है कि तापमान में अन्तर का पता नहीं चलता, क्योंकि जितनी भी ऊष्मा पैदा होती है उसे आसपास पर्यावरण में बिखरने के लिए पर्याप्त समय होता है। कुछ विशेष परिस्थिति में तेज़ी-से होने वाली ऑक्सीकरण की प्रक्रिया में पैदा होने वाली ऊष्मा यदि उतनी तेज़ी-से  नहीं  फैलती जितनी तेज़ी-से उत्पन्न हुई है तो हम ऑक्सीकरण की इस प्रक्रिया को दहन कहते हैं।
हमने पहले लेख में पूर्ण दहन का उल्लेख किया था। जब कोई पदार्थ पूर्ण दहन के साथ जलता है, तब  उसमें कोई भी अधजला पदार्थ नहीं होता, अर्थात् धुआँ नहीं होता है।
तो हमने देखा कि वास्तव में धुआँ एक तरह का अधजला ईन्धन होता है जो अपेक्षाकृत बड़े-बड़े कणों के रूप में कोलाइडी अवस्था में मौजूद रहता है, और एक अपारदर्शी पदार्थ के रूप में दिखता है। ये कण किसी सतह पर जमा हो जाते हैं और हमें सूट (soot) यानी कालिख के रूप में दिखते हैं।
पिछले आलेख में किए गए प्रयोग के आधार पर हम सोच रहे थे कि जलवाष्प और कार्बन-डाइऑक्साइड का निकलना धुएँ को सुनिश्चित करता है, पर क्या ये सच में धुएँ को बनाते हैं? या ये हवा के साथ घुल जाते हैं? बस, इसी उधेड़-बुन में मैंने फिर से प्रयोग किया और पाया कि दोनों पदार्थ, जलने के बाद बने हैं और आसानी-से हवा में घुल जाते हैं और कहीं जमा नहीं होते।

इस तरह मुझे यह विश्वास हो चला था कि प्रयोग के दौरान जलाए गए पदार्थ से सूट नहीं बनता और पदार्थ नीली ज्वाला के साथ जलता होगा। लेकिन जब मैंने नियंत्रित प्रयोग किया और जलने के दौरान निकलने वाले इस पदार्थ के रास्ते में काँच की स्लाइड रखी तो पाया कि उस पर कुछ पदार्थ तो जमा होते हैं, और अगर पदार्थ जमा हो रहे हैं, फिर तो सूट बन रहा है और इस दौरान धुआँ निकल रहा है। मतलब जलने की क्रिया में कार्बन-डाईऑक्साइड और जलवाष्प के अलावा भी काफी कुछ बन रहा है। तो मैं जिन प्रयोगों की बात कर रही थी, यहाँ उन्हीं का विस्तार से उल्लेख करती हूँ।
मैंने सबसे पहले लकड़ी को जलाया। हम जानते हैं कि लकड़ी के मुख्य अवयव जिससे मिलकर यह बनी हुई है, वो हैं पानी, पौधों में उपस्थित कुछ खनिज पदार्थ और कुछ कार्बनिक पदार्थ। थोड़ी सन्दर्भ सामग्री को खंगाला तो पाया कि ये कार्बनिक पदार्थ मुख्य रूप से सेल्यूलोज़ और लिग्निन नाम के कार्बोहाइड्रेट होते हैं। आइए, यहाँ पर पूर्ण और अपूर्ण दहन को रासायनिक समीकरण की मदद से समझने का प्रयास करते हैं।
पूर्ण दहन की स्थिति में सेल्यूलोज़ ऊष्मा पाकर पानी और कार्बन-डाइऑक्साइड बनाता है -
सेल्यूलोज़ + ऊष्मा =  पानी + कार्बन-डाइऑक्साइड
यह क्रिया एक चरण में नहीं होती। पहले सेल्यूलोज़ थोड़े छोटे अणुओं में टूटता है और फिर आगे ऑक्सीकरण होता है। इस तरह कार्बनिक पदार्थ ऊष्मा पाकर टूटते हैं, वाष्पित होते हैं और वाष्पित अवस्था में जलकर पानी और कार्बन-डाइऑक्साइड बनाते हैं। इसके साथ-साथ राख के कुछ हिस्से भी उड़ रहे थे। अब तो पक्का हो गया कि उन कार्बनिक पदार्थों का दहन होकर कार्बन-डाइऑक्साइड बन गई थी जो दिखाई नहीं देती। पक्का कहने के लिए निकलने वाले उत्पाद का परीक्षण करना था। लेकिन अपूर्ण दहन होने से रासायनिक अभिक्रिया में ठीक-ठीक क्या होता है, मैं नहीं जानती, मगर इतना तय है कि कई ऐसे पदार्थ बनते हैं जो हवा में नहीं घुल-मिलते और धुएँ के रूप में नज़र आते हैं।
तो पहले क्या धुआँ इसलिए बन रहा था क्योंकि पूर्ण दहन की स्थिति प्राप्त नहीं हुई थी?

ठोस का दहन
मैंने फिर प्रयोग किया और अब की बार मैंने कोयला लिया। कोयला एक ठोस ईन्धन है जिसमें कार्बन और नमी की कुछ मात्रा पाई जाती है। कुछ खनिज की मात्रा भी पाई जाती है। जब कोयला पूर्ण दहन के साथ जलता है तो धुआँ नहीं होता, वहीं अगर जलने के बाद कुछ अधजला पदार्थ बच जाए तो धुआँ बनता है। यही कारण था कि होशंगाबाद में हमें बहुत सारे पदार्थों को जलाने पर धुआँ मिल रहा था क्योंकि लगभग सब पदार्र्थों को जलाने के बाद कुछ अधजला पदार्थ रह जाता था, अर्थात् हम दहन के लिए ऐसी परिस्थिति ही उपलब्ध नहीं करा पा रहे थे जिससे ईन्धन का पूर्ण दहन हो सके।
तो अभी हमने ठोस ईन्धन के जलने की बात की। तरल की तरफ जाने से पहले ज्वलनशीलता की बात कर लेते हैं। ऊपर मैंने ज्वलन ताप का ज़िक्र किया है। दरअसल, पदार्थ के ज्वलनशील होने का निर्धारण उसके ज्वलन ताप से ही करते हैं। ज्वलन ताप वह न्यूनतम ताप होता है जिस पर कोई पदार्थ आग पकड़ता है।
हर पदार्थ का ज्वलन ताप अलग-अलग होता है इसलिए हर पदार्थ की ज्वलनशीलता अलग-अलग होती है। ज्वलन ताप से ही तय होता है कि कौन-सा पदार्थ कब आग पकड़ेगा अर्थात् उसे जलने के लिए कितनी ऊष्मा की ज़रूरत पड़ेगी। सारणी को देखकर यह समझा जा सकता है कि जहाँ कोयले को जलाने के लिए उच्च तापमान की ज़रूरत होती है, वहीं सफेद फॉस्फोरस थोड़ी-सी रगड़ से उत्पन्न ऊष्मा से भी जल सकता है। ईन्धन का चुनाव करते समय यह ध्यान रखना पड़ता है कि ईन्धन का न तो बहुत ज़्यादा ज्वलन ताप होना चाहिए, न ही बहुत कम। यदि ज्वलन ताप बहुत ज़्यादा हुआ तो आग पकड़ने में बहुत समय लगेगा, वहीं बहुत ही कम ज्वलन ताप रहा तो ईन्धन के रखरखाव में दिक्कत होगी, क्योंकि थोड़ी-सी चिंगारी से आग लग सकती है। ईन्धन का चुनाव उसकी कीमत, उसको जलाने के लिए ज़रूरी उपकरण वगैरह के आधार पर भी होता है।

तरल का दहन
अब उदाहरण लेते हैं तरल ईन्धन को जलाने का। अगर ईन्धन तरल हुआ तो सबसे पहले तो इसे वाष्प अवस्था में आना पड़ेगा ताकि इसे जलाया जा सके। न्यूनतम ताप जिस पर किसी तरल पदार्थ की वाष्प आग पकड़ ले, उसे फ्लैश-बिन्दु कहा जाता है क्योंकि जैसे ही तरल ईन्धन फ्लैश-बिन्दु प्राप्त करता है, एक तेज़ रोशनी युक्त चमक उत्पन्न होती है। फ्लैश-बिन्दु, किसी भी तरल पदार्थ के इस स्वभाव के निर्धारण में मदद करता है कि कौन-सा तरल ईन्धन दहनशील होगा और कौन-सा ज्वलनशील होगा? दहनशील और ज्वलनशील पदार्थ, सुनने में एक जैसे ही लगते हैं लेकिन इनमें थोड़ा फर्क है। दहनशील वे पदार्थ होते हैं जो आग पकड़ने में समय लेते हैं और आग पकड़ने के बाद आराम-से जलते हैं, जबकि ज्वलनशील पदार्थ वे होते हैं जो तुरन्त आग पकड़ते हैं। अगर हम फ्लैश-बिन्दु का सहारा लेते हुए बात करें तो पाएँगे कि ऐसे सारे तरल जिनका फ्लैश-बिन्दु 38 डिग्री सेल्सियस से कम हो, ज्वलनशील कहे जाते हैं जबकि ऐसे तरल ईन्धन जिनका फ्लैश-बिन्दु 38-70 डिग्री सेल्सियस के बीच हो अर्थात् जिनको ज्वलनशील वाष्प बनने के लिए ज़्यादा तापमान की ज़रूरत पड़ती है, उन्हें दहनशील   द्रव   कहते   हैं। एसीटेल्डिहाइड, ईथाइल क्लोराइड, पेट्रोल, ईथाइल ईथर और पेंटेन ऐसे पदार्थ हैं जो बहुत ही ज्वलनशील पदार्थ की श्रेणी में आते हैं। मिट्टी का तेल, तारपीन, एसीटिक एसिड और फीनॉल दहनशील पदार्थ हैं।

हर तरल पदार्थ का एक निश्चित वाष्प दाब होता है। वाष्प दाब के बारे में कभी और गहराई से अध्ययन करेंगे। अभी के लिए बस इतना समझ लेते हैं कि यदि किसी तरल पदार्थ को गरम करने पर कम वाष्प बनती है तो पदार्थ के जलने के लिए आवश्यक ज्वलन ताप नहीं मिल पाता, मतलब वह पदार्थ आग नहीं पकड़ेगा। यही कारण है कि उच्च वाष्प दाब वाले पदार्थ ज़्यादा ज्वलनशील होते हैं।

बुनसन बर्नर और सुनार की चिमनी

1852 में हीडलबर्ग विश्वविद्यालय (जर्मनी) ने रॉबर्ट बुनसन को नौकरी पर रखा था और उसे एक नया प्रयोगशाला भवन बनाने को कहा गया था। उन दिनों हीडलबर्ग शहर में कोल गैस से सड़क पर प्रकाश की व्यवस्था का काम चल रहा था। इसलिए विश्वविद्यालय में नई प्रयोगशाला का निर्माण करते समय बुनसन ने प्रयोगशाला में गैस के संचार के लिए लाइन बिछाई।
बस, यहीं से बुनसन को प्रयोगशाला के लिए लैंप बनाने का विचार सूझा था। एक ऐसा लैंप जिसमें आवश्यकतानुसार ज्वाला को तेज़ या मद्धम किया जा सके और ये भी ध्यान रहे कि इस दौरान लैंप बुझे भी नहीं। आपने सुनार के यहाँ चिमनी देखी होगी न, जिसका इस्तेमाल वे सोने को तपाने के लिए करते हैं। सुनार अपनी फूँक से हवा की उपलब्धता का नियंत्रण करते हैं।

हर रासायनिक अभिक्रिया की तरह आग शुरु होने का सम्बन्ध भी एक्टिवेशन एनर्जी से है। हो सकता है कोई पदार्थ जलने पर हमें काफी ऊष्मा दे, मगर जलने की क्रिया को शुरु करने के लिए उसे पहले कुछ ऊर्जा बाहर से देनी होती है। एक बार आग पकड़ ले, फिर तो यह ऊर्जा दहन की क्रिया से मिलती रहती है।
ये तो हुआ ठोस और तरल ईन्धन के बारे में। अब गैसीय ईन्धन के बारे में बात करते हैं। गैसीय ईन्धन जलाने पर बहुत ही जल्दी जलता है क्योंकि वो पहले ही वाष्प अवस्था में होता है और एक निश्चित ताप मिलते ही आग पकड़ लेता है। गैसीय ईन्धन के बेहतर जलने को बुनसन बर्नर के उदाहरण से आसानी-से समझा जा सकता है।

बुनसन बर्नर और दहन की प्रक्रिया
आम तौर पर रसायनों को गर्म करने के लिए स्कूल प्रयोगशालाओं में बुनसन बर्नर प्रयोग किया जाता है। इसमें ईन्धन के रूप में प्राकृतिक गैस मीथेन का इस्तेमाल किया जाता है जो एक प्रकार का हाइड्रोकार्बन है। वैसे आजकल बुनसन बर्नर में एलपीजी भी ईन्धन के रूप में इस्तेमाल होने लगी है। इस बर्नर में कुछ छेद होते हैं जो पूर्ण या अपूर्ण दहन के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। नीचे दिए चित्र में बुनसन बर्नर से प्राप्त ज्वाला चार प्रकार की दिखाई दे रही है। पहली स्थिति में छेद बन्द है, दूसरी स्थिति में छेद आधे से कम खुला है, तीसरी स्थिति में छेद आधा खुला है और चौथी स्थिति में छेद पूरा खुला है। इस तरह से पहले आलेख में लिखी इस बात को पुष्टि मिलती है कि पूर्ण दहन न होने पर धुआँ मिलता है। स्थिति 1, 2 और 3 में धुआँ है और उसकी मात्रा अलग-अलग है लेकिन स्थिति 4 में धुआँ बिलकुल भी नहीं है क्योंकि स्थिति 4 में छेद पूरा खुला है और ईन्धन को जलने के लिए पर्याप्त ऑक्सीजन मिल रही है जो दहन की प्रक्रिया को पूर्ण दहन की ओर अग्रसित करती है। इसे और सुनिश्चित करने के लिए मैंने अलग-अलग स्थिति में प्राप्त ज्वाला के ऊपर काँच की स्लाइड रखकर धुआँ इकट्ठा किया और पाया कि सबसे ज़्यादा काला सूट मुझे पहली स्थिति में प्राप्त हुआ जबकि चौथी स्थिति में बिलकुल भी कोई कालिख नहीं थी।

ऊपर उल्लेखित प्रयोगों को करने के बाद, कई लेख पढ़ने के बाद और अलग-अलग फोरम में चर्चा करने के बाद इस बात को और बल मिलता है कि निश्चित ही, धुआँ पूर्ण दहन का उत्पाद नहीं है अर्थात् जलने के साथ धुआँ इसलिए उठता है क्योंकि वहाँ पूर्ण दहन नहीं होता।


अंजु दास मानिकपुरी: अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, धमतरी में कार्यरत हैं। रसायन शास्त्र में पीएच.डी. की है।