कालू राम शर्मा

हाल ही में शिक्षकों के साथ बैठक में सजीव-निर्जीव पर बातचीत करने की योजना बनाई। दरअसल, शिक्षकों के स्वैच्छिक मंच पर शाम के वक्त सीखने-सिखाने पर चर्चा की शुरुआत लगभग दो साल पहले हुई। इस मंच के माध्यम से हम शिक्षा के विविध मसलों को उठाते हैं ताकि शिक्षकों की समझ को पुख्ता करने में मदद मिले और वे अपनी कक्षाओं में बच्चों के साथ सीखने-सिखाने की प्रक्रियाओं को बेहतरी से अंजाम दे सकें। चर्चा के लिए सजीव-निर्जीव विषय चुनने का एक प्रमुख आधार था कि यह प्राथमिक कक्षाओं के स्तर पर पर्यावरण अध्ययन में भी शामिल है।
चर्चा में आसपास के कई सारे उदाहरण सामने आए। कुछ गुणों की पहचान करते हुए कौन सजीव है और कौन निर्जीव, इसकी पहचान होने लगी। जल्द ही शिक्षकों की मदद से एक तालिका तैयार हो गई। इस तालिका में शिक्षक साथियों ने कई पेचीदा चीज़ों के नाम जुड़वाए जो इस चर्चा को आगे बढ़ा सके जैसे - पेन, कागज़, मोटरसाइकिल, कार, पृथ्वी, गाय, बैल, अण्डा, बीज, फूल, पत्ती... आदि।

तर्क कई तरह के थे - पेन चलता है। कागज़ उड़कर एक जगह से दूसरी जगह पर चला जाता है। अण्डे को क्या माना जाए? और फिर बीज? अधिकांश शिक्षक साथी अण्डे और बीज को लेकर उलझन में दिखाई दे रहे थे। वे मान रहे थे कि बीज निर्जीव है। जब आवश्यक परिस्थितियाँ मिलती हैं तो वह एक पौधे में तब्दील हो जाता है। इसी प्रकार से अण्डे के ऊपर भी जब मुर्गी या कोई पक्षी बैठता है तो उसमें से चूज़ा निकलता है जो सजीव होता है।
इस दौरान चर्चा हुई कि वास्तव में अण्डा श्वसन करता है। अण्डे के खोल में बारीक-बारीक छिद्र होते हैं जिनसे हवा अन्दर जाती है और भ्रूण तक ऑक्सीजन पहुँचती है।

बीज - सजीव या निर्जीव?
बीज में हालाँकि सजीवों के वे गुण सहजता से दिखाई नहीं देते जो अमूमन हमें अपने आसपास जीवधारियों में दिख जाते हैं। चर्चा की शुरुआत में  शिक्षकों की ओर से सजीवों के गुणधर्म मसलन चलना, भोजन ग्रहण करना, बोलना, साँस लेना, अण्डे-बच्चे पैदा करना, संवेदनशीलता इत्यादि बताए गए थे। बीजों में तो ये गुण दिखाई नहीं देते! फिर क्या किया जाए?
सबसे पहले हमने बीजों में सजीवों के गुणधर्म अपने अनुभवों के आधार पर खोजने की कोशिश की। एक शिक्षक ने बताया कि गाँवों में अनाज बखारी (गाँवों एवं खेतों में ज़्यादा मात्रा में अनाज रखने की जगह एवं व्यवस्था) में भरकर रखा जाता है व कुछ महीनों के बाद जब बखारी में से अनाज निकालने के लिए भीतर जाओ तो वहाँ काफी गर्मी महसूस होती है और साँस लेने में दिक्कत होती है।
चर्चा उपरान्त यह समझ बनी कि अगर बीजों में श्वसन की जाँच कर पाएँ तो मान सकते हैं कि वे सजीव हैं। इसलिए श्वसन को जाँचने के लिए कोई तरीका खोजा जाना ज़रूरी था।
मैंने कुछ रेफरेंस देखना शुरु किए तो मुझे जल्दी ही संदर्भ के अंक-6 में प्रकाशित किशोर पंवार का लेख बीजों में श्वसन मिल गया जिसमें बीजों में श्वसन को जाँचने का तरीका सुझाया गया था। हालाँकि, मैंने यह प्रयोग पहले भी किया था, पर इस बार मुझे कुछ नया सूझ रहा था।

वो प्रयोग और आगे का कदम
किशोर पंवार द्वारा सुझाए गए प्रयोग में एक परखनली में थोड़ा-सा चूने का पानी लेकर, उसमें एक रूई का फाहा हौले-से अटका देते हैं। यह ध्यान रखा जाता है कि रूई का फाहा चूने के पानी के स्तर से थोड़ा-सा ऊपर रहे, न उसे छुए और न ही बहुत ऊपर की ओर हो। फिर उसमें कुछ बीज रख दिए जाते हैं। बाद में देखने को मिलता है कि चूने का पानी दूधिया हो जाता है (चित्र-1)। इसी प्रकार से अन्य परखनली में फिनॉफ्थेलिन का गुलाबी सूचक रखकर भी प्रयोग सेट किया जाता है और वह भी रंगहीन हो जाता है। इस प्रयोग में एक दिलचस्प बात यह है कि चूँकि कार्बन-डाइऑक्साइड हवा की अपेक्षा भारी होती है इसलिए नीचे बैठती है और परखनली में जो सबसे नीचे पैंदे में चूने का पानी है, उसे दूधिया कर देती है।

विज्ञान ऐसे ही आगे बढ़ता है
बीजों में श्वसन जाँचने के लिए मैंने एक सरल-सा प्रयोग डिज़ाइन किया (चित्र-2)। 50 मिलीलीटर की पाँच-छह सीरिंज और कुछ सूखे बीज लिए। सीरिंज का पिस्टन निकालकर उसमें चना, मूँग, तिल्ली और मूँगफली के बीज डाल दिए और पिस्टन को फिट कर दिया। एक सीरिंज में एक ही तरह के बीज लिए गए थे। सीरिंज के मुँह पर जहाँ नीडिल लगाई जाती है, वहाँ मैंने निडिल निकालकर साइकिल की वॉल्व ट्यूब को फिट कर दिया और उसे ऊपर से खुला रखा। आप चाहें तो वॉल्व ट्यूब की बजाय मोटरसाइकिल की पेट्रोल वाली नली भी इस्तेमाल कर सकते हैं। इस नली को नीडिल में फिट करना आसान होता है। सीरिंज को पिस्टन के बल खड़ा कर दिया और इस सेटअप को लगभग चार घण्टे के लिए रखा रहने दिया।
बीज भरी सीरिंज को पिस्टन के बल खड़ा रखने का इसलिए सोचा क्योंकि बहुत साल पहले किए प्रयोग की वजह से दिमाग में यही बात थी कि कार्बन-डाइऑक्साइड गैस हवा की तुलना में भारी होती है। इसलिए अगर सीरिंज को पिस्टन के बल खड़ा कर दिया जाएगा तो ऊपर जो नीडिल वाला मुँह है, उससे होकर सारी कार्बन-डाइऑक्साइड निकलकर वातावरण में नहीं समा जाएगी।
कुछ घण्टे बाद सीरिंज को खड़ा रखते हुए वॉल्व ट्यूब या पेट्रोल की नली के खुले मुँह को चूने के पानी में डालकर पिस्टन को दबाया गया। ऐसा करने से सीरिंज के अन्दर की गैस चूने के पानी में प्रवाहित होती है। ऐसा करने से चूने का पानी दूधिया हो गया। इसी प्रकार सीरिंज के भीतर की गैस को फिनॉफ्थेलिन के गुलाबी घोल में प्रवाहित करने पर, वह रंगहीन हो गया।

प्रयोगों में तुलना का प्रावधान

क्या वाकई में बीज, फूल, पत्ती से भरी हुई सीरिंज के पिस्टन को दबाने पर ही चूने का पानी दूधिया होता है? कहीं ऐसा तो नहीं कि खाली सीरिंज की हवा भी चूने के पानी को दूधिया कर देती हो? इसलिए हमें प्रयोग डिज़ाइन करते समय कंट्रोल एक्सपेरिमेंट की व्यवस्था रखनी पड़ती है या तुलना का प्रावधान करना होता है। इसीलिए किसी एक सीरिंज में कंकड़ भरकर रखते हैं या एक सीरिंज को एकदम खाली रखते हैं। बाद में कंकड़ वाली या खाली सीरिंज की हवा या गैस को चूने के पानी में प्रवाहित करके देखते हैं कि चूने के पानी में कोई अन्तर आया अथवा नहीं।


इस प्रयोग से यह तो समझ आया कि बीज श्वसन करते हैं और कार्बन-डाइऑक्साइड मुक्त करते हैं। आम तौर पर कार्बन-डाइऑक्साइड गैस की यह आसान जाँच है कि वह चूने के पानी को दूधिया कर देती है। इसी तरह फिनॉफ्थेलिन का गुलाबी सूचक घोल रंगहीन हो जाता है।
इसी प्रयोग को हमने अंकुरित बीजों के साथ भी किया। अंकुरित बीजों को सीरिंज में भरकर रखा गया। यह देखने में आया कि अंकुरित बीजों में श्वसन की दर अधिक होती है। आप भी सूखे और अंकुरित बीजों के साथ यह प्रयोग करके देखिए।

क्या दही भी श्वसन करता है?
इसी तरह की एक और वर्कशॉप की तैयारी के दौरान मेरे साथी ने हँसते हुए कहा, “दही में भी बैक्टीरिया होते हैं। तो वो भी श्वसन करते होंगे?” दरअसल, मेरे साथी के कहने का आशय यह था कि इस तरह से तो दही में सजीवों के गुण दिखना चाहिए। मैंने कहा, “हाथ कंगन को आरसी क्या? करके देख लेते हैं।” तुरन्त ही दही की व्यवस्था की गई। दही को एक सीरिंज में भरकर रख दिया गया। एक घण्टे के बाद दही वाली सीरिंज के पिस्टन को दबाकर अन्दर की हवा को चूने के पानी में प्रवाहित किया। चूने का पानी दूधिया हो गया।
दही में मौजूद लैक्टोबैसिलस बैक्टीरिया के अलावा और भी प्रो बैक्टीरिया पाए जाते हैं जिनमें श्वसन होता है।2
फिर मैंने अन्य चीज़ों में श्वसन की जाँच करने की ठानी। मैंने अलग-अलग सीरिंज में फूलों की पंखुड़ियों को डालकर तीन-चार घंटे के लिए रख दिया। बाद में सीरिंज की गैस को चूने के पानी में प्रवाहित किया तो वह दूधिया हो गया।

पीपल की पत्तियों में
हम सजीवों में श्वसन की चर्चा कर रहे थे। उस दौरान श्वसन को लेकर यह सवाल भी आ ही गया कि क्या पीपल की पत्तियाँ रात में भी ऑक्सीजन छोड़ती हैं।3 यह एक आम मान्यता है कि पीपल दिन में तो ऑक्सीजन छोड़ता ही है, मगर रात में भी श्वसन के दौरान ऑक्सीजन छोड़ता है।

कार्बन-डाइऑक्साइड के गुण

आजकल विविध राज्यों में पढ़ाई जा रही विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों में कार्बन-डाइऑक्साइड की पहचान व गुणधर्म की जाँच सम्बन्धी प्रयोग व गतिविधियाँ दी होती हैं। ऐसी ही एक गतिविधि बाल वैज्ञानिक, कक्षा-7 की कार्य-पुस्तिका से:
एक गिलास में नींबू का रस लेकर, उसमें खाने का सोडा मिलाया। जब गैस बनने लगी तो उस गिलास में बनी गैस को वैसे ही हौले-से उड़ेला जैसे किसी द्रव को हम दूसरे गिलास या बर्तन में उड़ेलते हैं। दूसरे बर्तन में गैस को उड़ेलने के बाद, जब उसमें जलती हुई माचिस की तीली लेकर गया, तो तीली बुझ गई। इतना ही नहीं, उस दूसरे गिलास में उड़ेली गैस जब एक जलती मोमबत्ती पर उड़ेली गई तो वह बुझ गई। कार्बन-डाइऑक्साइड को इस तरह एक गिलास से दूसरे गिलास में उड़ेला जा सकता है, यह किस तरह सम्भव हो पा रहा है? आपका क्या अनुमान है?


पहले तो इस भ्रामक मान्यता पर बातचीत हुई, फिर सीरिंज वाले सेटअप को शिक्षकों के बीच रखा गया। शिक्षकों ने अपने-अपने समूह में पीपल की पत्तियों को सीरिंज में रखा। इस प्रयोग को शाम के समय सेट करके अँधेरे कक्ष में रख दिया गया। दूसरे दिन अलसुबह पीपल की पत्तियों वाली सीरिंज के अन्दर की हवा को चूने के पानी व फिनॉफ्थेलिन के गुलाबी सूचक घोल में प्रवाहित किया गया। चूने का पानी दूधिया हो गया और फिनॉफ्थेलिन का गुलाबी सूचक घोल रंगहीन हो गया।
इसी प्रयोग को दिन में भी किया गया। पीपल की पत्तियों को सीरिंज में भरकर, उसे काली पॉलीथीन से ढँक दिया गया ताकि उसे प्रकाश न मिले। लगभग चार घण्टे के बाद पीपल की पत्ती रखी हुई सीरिंज की हवा ने चूने के पानी को दूधिया कर दिया।

इस प्रकार शिक्षकों के स्वैच्छिक मंच पर हमने सजीव-निर्जीव के एक गुण - श्वसन पर कुछ प्रयोग किए, चर्चा की, अपने अनुभवों को साझा किया। हमारे शिक्षक साथियों को इस बात का एहसास हुआ कि ये प्रयोग एवं चर्चाएँ तो वे भी कक्षा में बच्चों के साथ करवा सकते हैं।
आप भी इस सरल-से प्रयोग को कर सकते हैं। तो देर किस बात की! प्रयोग कीजिए और अपने अनुभव ज़रूर लिखिएगा।


कालू राम शर्मा: अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, खरगोन में कार्यरत। स्कूली शिक्षा पर निरन्तर लेखन। फोटोग्राफी में दिलचस्पी।
सभी फोटो: कालू राम शर्मा