कालू राम शर्मा

बरसात अपने साथ कई सारी सौगात लेकर आती है। गर्मी की तपन से बचने के लिए जो जीव ज़मीन के अन्दर बिलों और गहरी दरारों में घुसे रहते हैं, वे बरसात की बौछार के साथ ही बाहर निकलने लगते हैं। कई सारे कीट-पतंगे अचानक ही हमारे आस-पास दिखाई देने लगते हैं। इन्हीं कीट-पतंगों में एक है, पतला-लम्बा-सा जीव गिंजाई। हालाँकि, गिंजाई कीट समूह का सदस्य नहीं है। कीटों में तीन जोड़ी टाँगें होती हैं तथा शरीर तीन भागों मे विभाजित होता है, वहीं गिंजाई की तो अनेक टाँगें होती हैं।

प्रकृति को जानने में थोड़ी-बहुत दिलचस्पी रखने वाला हर शख्स गिंजाई और इसके व्यवहार के बारे में ज़रूर जानता है। खेत-बगीचों और मैदानों में बेबाक, धीमी गति से रेंगते हुए खण्डित शरीर वाले जीव को जैसे ही छेड़ा कि यह जलेबी की माफिक गोल आकार में दुबक जाता है। अक्सर बच्चों को इस भोले-भाले जीव के साथ खेलते हुए देखा जा सकता है। कुछ बच्चे तो इसे अपनी जेब में भर लेते हैं। ज़ाहिर है कि यह काटता नहीं है, न ही कोई डरावनी शक्ल बनाता है। गिंजाई को छुआ जाए तो इसका शरीर कड़ा-चिकना और सूखा प्रतीत होता है।

बरसात के आगमन के साथ गिंजाई बहुतायत में दिखने लगती हैं और बरसात की विदाई के साथ ही ये ज़मीन के अन्दर घुसने की तैयारी करने लगती हैं। जैसे-जैसे हरियाली की चादर अपना रंग बदलने लगती है वैसे-वैसे गिंजाई भी अपना ठिकाना बदलने लगती हैं।
गिंजाई के कई नाम हैं। मध्यप्रदेश के मालवा-निमाड़ में इसे तेलन के नाम से जाना जाता है जबकि बुन्देलखण्ड में इसे गिंजाई ही कहा जाता है। अँग्रेज़ी में मिलिपीड इसके नाम को सार्थक करता है। गिंजाई का शरीर गोल-गोल छल्लेनुमा खण्डों में विभाजित होता है। अगर खण्डित शरीर वाले जन्तु को देखना हो तो गिंजाई एक उपयुक्त मिसाल है।

गहरा कत्थई रंग लिए गिंजाई पर जब धूप गिरती है तो ये चमक मारती है। वैसे कुछ किस्म की गिंजाई का रंग लाली लिए होता है। गिंजाई की कोई आठ हज़ार प्रजातियाँ हैं जो पूरे संसार में पाई जाती हैं। गिंजाई की अलग-अलग किस्मों की लम्बाई 2 मिलीमीटर से  28 सेंटीमीटर तक होती है। ज़ाहिर है कि इनमें छल्ले जैसे खण्डों की संख्या में भी बड़ा फर्क होता है। कम-से-कम ग्यारह खण्डों से लेकर सौ से भी ज़्यादा खण्ड हो सकते हैं। एक बात तो साफ है कि पूरे जीव-जगत पर नज़र डालें तो गिंजाई की तस्वीर एक ऐसे जीव के रूप में सामने आती है जिसमें सबसे ज़्यादा टाँगें होती हैं। गिंजाई के शरीर को ध्यान से देखें तो एक अनूठा पैटर्न देखने को मिलता है - शुरुआती खण्डों में एक जोड़ी टाँग होती है मगर बाकी के प्रत्येक खण्ड में दो जोड़ी टाँगें होती हैं। पिछले एक-दो खण्डों में टाँगों का अभाव पाया जाता है, वहीं सबसे पिछला हिस्सा कुछ-कुछ पुच्छखण्ड जैसा होता है। गिंजाई के जिन खण्डों में दो जोड़ी टाँगें होती हैं वे दरअसल, दो खण्ड थे जो आपस में मिलकर एक खण्ड बन गए।

गिंजाई को चलते हुए अवलोकन करना अपने आप में एक दिलचस्प घटना हो सकती है। यह खुद तो बड़े धीरे-धीरे चलती है मगर इसकी टाँगें तेज़ी से गति करती दिखती हैं। शायद इसकी इतनी सारी टाँगें ही इसकी गति को धीमा बनाती हैं!

गिंंजाई ज़्यादातर उन स्थानों पर अपनी रहने की जगह चुनती हैं जहाँ नमी हो और पत्तियाँ वगैरह सड़ रही होती हैं। दरअसल, इनके शरीर की बाहरी परत में क्यूटिकल या मोम की पर्त का अभाव होता है जिसके चलते इन्हें सदा ही शरीर में पानी की कमी का खतरा बना रहता है और इसीलिए ये अपना ज़्यादातर समय नम स्थानों में बिताना पसन्द करती हैं। अधिकांश गिंजाई शाकाहारी प्राणी हैं, जिसका मुख्य भोजन नरम पत्तियाँ और नीचे गिरकर सड़ रही पत्तियाँ, फल-फूल इत्यादि हैं।

गिंजाई के बारे में मुझे कई सारी बातें स्व-अवलोकनों से प्राप्त हुईं। कुछ गिंजाइयाँ एक-दूसरे के ऊपर सवारी करती दिखती हैं। बरसात के मौसम में गिंजाइयों के बारात-रूपी झुण्ड-के-झुण्ड एक लय और ताल के साथ यहाँ-वहाँ विचरते हुए देखे जा सकते हैं। दिलचस्प बात यह है कि गिंजाइयों का कारवाँ एक ही दिशा में आगे बढ़ रहा होता है।
मादा गिंजाई सड़ी-गली पत्तियों में अण्डे देती हैं। अण्डों की संख्या सौ तक हो सकती है। कुछ गिंजाई ज़मीन के अन्दर घोंसला बनाती हैं और उसमें अण्डे देती हैं। अण्डे सड़ी-गली पत्तियों से उत्सर्जित गर्मी पाकर फूटते हैं और बच्चे निकलते हैं। अण्डों से बच्चे निकलने में कुछ सप्ताह का समय लगता है।

आम तौर पर गिंजाई खतरों के सामने आते ही बचाव में अपने शरीर को छोटे गोले में तब्दील कर मुलायम पैरों को अन्दर सुरक्षित कर लेती हैं। एक तो इनकी चलने की रफ्तार बहुत धीमी होती है और दूसरा खतरे के समय काट पाने या डंक मारने की आदत के अभाव की वजह से गिंजाई की कुछ प्रजातियाँ एक ऐसे पदार्थ का स्त्राव करती हैं जो कुछ कीड़ों को मार सकता है। इस स्त्राव में नमक का अम्ल, आयोडीन और कुनैन होते हैं। एक जीवशास्त्री ने कुछ जन्तुओं को (जिनमें गिंजाई भी थी) एक जार में एकत्रित किया और पाया कि वे सभी जन्तु सायनाइड नामक ज़हर के कारण मृत पाए गए। यह सम्भावना है कि यह पदार्थ गिंजाई ने ही छोड़ा हो।

कनखजूरा और गिंजाई, दो ऐसे अजूबे हैं जिनके बारे में आम तौर पर बच्चों की पुस्तकों में ज़िक्र नहीं मिलता। मगर एक सार्थक कोशिश होशंगाबाद विज्ञान में हुई। मैंने देखा कि ‘जन्तुओं की दुनिया’ नामक पाठ में परिभ्रमण पर जाकर बच्चे गिंजाइयों का बारीकी से अवलोकन करते हैं और गिंजाई की टाँगों व खण्डों को गिनते हैं। यह गतिविधि बच्चों को अपने आस पास की दुनिया से जोड़ने में ‘मील का पत्थर’ कही जा सकती है।


कालू राम शर्मा: विज्ञान शिक्षण एवं फोटोग्राफी में रुचि। वर्तमान में अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन, उत्तराखण्ड में कार्यरत हैं। देहरादून में निवास।