एन. ऑस्बोर्न

किसी विषय विशेष में विशेषज्ञता प्राप्त व्यक्ति के लिए विशिष्ट भाषा व शब्दावली का इस्तेमाल करना स्वाभाविक होता है। इससे उस विशेष क्षेत्र में कार्य करने में आसानी होती है, लेकिन एक विषय विशेषज्ञ के लिए यह भी ज़रूरी है कि वह ‘वास्तविक’ दुनिया के साथ संवाद स्थापित करने की सामर्थ्य बनाए रखे और यदि वह सामर्थ्य खो गया है तो उसे वापस हासिल करने का प्रयास करे। वैज्ञानिक छवियाँ सभी वर्ग के लोगों, चाहें वे किसी भी उम्र के हों या उन्हें कितना भी अनुभव हो, को साथ लाने में मददगार होती हैं। ‘द साइंस, आर्ट एंड राइटिंग’ यानी ‘सॉ’ (SAW) मिश्रित पाठ्यक्रम की ऐसी पहल है जिसमें विज्ञान की छवियों से कुछ एडवेंचर्स की शुरुआत होती है। विज्ञान पर केन्द्रित विज्ञान, कला और लेखन का यह सम्मिश्रण दैनिक जीवन और ज्ञान प्राप्ति में विज्ञान को समाहित करने का एक सशक्त माध्यम है।

विज्ञान, कला और अन्य विषयों के बीच हाईस्कूल स्तर पर स्पष्ट विभाजन देखा जा सकता है, जहाँ अलग-अलग विषय पढ़ाने के लिए अलग-अलग शिक्षक होते हैं। हालाँकि, प्राथमिक स्कूल छोड़ने तक बच्चे जान जाते हैं कि उनका पाठ्यक्रम अलग-अलग विषयों में विभाजित है और उन्हें प्रत्येक विषय को एक-दूसरे से अलग समझना है। वयस्क होने और किसी विषय में विशेषज्ञता हासिल होने के बाद तो विभिन्न विषयों के बीच अन्तर्सम्बन्ध को पहचानने की हमारी क्षमता अक्सर और भी कम हो जाती है। हम कई शाखाओं में बँटे एक वृक्ष की सबसे छोटी शाखा बनकर रह जाते हैं। इससे भी अधिक विशेषज्ञता हासिल होने के बाद तो वृक्ष से कटकर ज़मीन पर गिरने की आशंका पैदा हो जाती है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि विशेषज्ञों को अपने विषय के उच्च मानकों को बनाकर रखना होगा ताकि वे अपना कार्य प्रभावी ढंग से कर सकें और इसके लिए विशिष्ट भाषा व शब्दों का इस्तेमाल भी करना होगा। लेकिन यदि वे गैर विशेषज्ञों के साथ बातचीत करने में असमर्थ हैं तो फिर एक विशेषज्ञ के रूप में समाज के लिए वे कितने मायने रखते हैं, इस बात पर सवालिया निशान लग जाएगा।

एक और विभाजन विषय के ज्ञाताओं और उच्च शिक्षा से वंचित लोगों के बीच है (यह विज्ञान और कला के बीच विभाजन की तुलना में कहीं अधिक चिन्ताजनक है)। यह बहुत ही निरादरपूर्ण होता है कि विद्वान लोग आम लोगों को समझ में न आने वाली और अहंकारपूर्ण भाषा में बातें ‘बताएँ’। बच्चे इस तरह से तो सीखना नहीं चाहेंगे। न ही हम चाहेंगे कि उन्हें इस तरह से पढ़ाया जाए।

खेलते वक्त बच्चे व्यक्तिगत एडवेंचर और जाँच-पड़ताल के ज़रिए अपने आस-पास की दुनिया का अन्वेषण करते हैं। ब्रिटेन और अन्य जगहों पर स्कूलों में तो बच्चे प्राय: बेंचों पर बैठकर तथ्यों को रटते हैं। उन्हें खुद करके या अपने अनुभवों से सीखने का मौका बहुत कम मिलता है। अपने अनुभवों से सीखना प्रभावी ज्ञान प्राप्ति का एक अहम हिस्सा होता है और इससे सीखने की प्रक्रिया पर स्वयं बच्चे का नियंत्रण रहता है। अपने हाथों से खुद करने में खेलना, सवाल करना, पड़ताल करना, प्रयोग करना, ज़ोखिम उठाने का कौशल आदि शामिल होते हैं। बच्चों में इनका विकास वयस्क अवस्था में पूर्ण क्षमता और रचनात्मकता का दोहन करने के लिए ज़रूरी है। कलाकारों, लेखकों और अन्य पेशेवरों में यदि ज़ोखिम उठाने और साहस दिखाने का माद्दा और विश्वास नहीं है तो वे अपने क्षेत्र में शायद ही कोई महत्वपूर्ण योगदान दे पाएँगे।

विभिन्न पाठ्यक्रमों की मिली-जुली पूरक गतिविधियों के माध्यम से पसन्दीदा विषय की पड़ताल करना विद्यार्थियों को जोड़ने का एक बहुत ही प्रभावी तरीका होता है। शिक्षकों पर पाठ्यक्रम को पूरा करने का ज़बरदस्त दबाव होता है। यह पाठ्यक्रम विभिन्न विषयों में इस तरह से बँटा होता है कि उससे जिज्ञासाएँ और रचनात्मकता दब जाती हैं। शिक्षकों को विभिन्न रुचियों, सीखने की शैलियों और ‘योग्यता’ वाले बच्चों की ज़रूरतों को भी पूरा करना होता है। यहाँ ‘योग्यता’ शब्द का उपयोग पारम्परिक शैक्षिक सोच के अर्थ में किया गया है। यदि किसी कार्य विशेष के प्रति बच्चों में रुचि जगाई जा सके और उनकी क्षमता पर बिठाई पहरेदारी को हटा लिया जाए तो आम तौर पर कमज़ोर माने जाने वाले बच्चे भीे बहुत अच्छे परिणाम दे सकते हैं। सीखने की प्रक्रिया के दौरान यदि बच्चों को अलग-अलग ढंग से सिखाया जाए तो उनके लिए सीखना कहीं अधिक सुगम हो जाएगा।

मैं एक जीव विज्ञानी हूँ और पौधों से प्राप्त प्राकृतिक उत्पादों में मुझे विशेषज्ञता हासिल है। मेरे शोध का विषय यह समझने की कोशिश करना है कि कैसे और क्यों अलग-अलग वनस्पतियाँ अलग-अलग तरह के प्राकृतिक उत्पाद पैदा करती हैं; जैसे खुशबू, रंग, फ्लेवर, औषधियाँ और व्यावसायिक महत्व के अन्य घटक जिन्हें हम वनस्पतियों की विभिन्न प्रजातियों में देखतेे हैं। मेरे माता-पिता, दोनों कला एवं मानविकी पृष्ठभूमि से हैं। मेरे पिता ने विक्टोरियाई लेखक और समालोचक वाल्टर पैटर पर प्रामाणिक पाठ लिखे हैं। एक युवा अँग्रेज़ी ग्रेजुएट के रूप में मेरी माँ कला व सौन्दर्य पर वाल्टर पैटर के लेखन के ज़रिए उनके कार्य के प्रति आकृष्ट हुईं और अन्तत: मेरे पिता से मिलीं। फिर मेरे पिता उनके स्नातकोत्तर शोध-प्रबन्ध के पर्यवेक्षक बन गए। लिहाज़ा, मैं स्वयं विशेषज्ञता का परिणाम हूँ।

वर्ष 2004 में मुझे ब्रिटेन की एक संस्था ‘नेस्टा’ (द नेशनल एंडौमेंट फॉर साइंस, टेक्नॉलॉजी एंड दी आर्ट्स) ने ‘ड्रीम टाइम फैलोशिप’ प्रदान की जिसके तहत मुझे युनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एंग्लिया के विश्व प्रसिद्ध ‘स्कूल ऑफ लिट्रेचर एंड क्रिएटिव राइटिंग’ में अध्ययन-अवकाश का मौका मिला। वहाँ मैंने एक साल तक कविताएँ लिखीं। इस गहन अनुभव ने मुझे विशेषज्ञता की प्रकृति के बारे में और इस विषय पर सोचने को प्रेरित किया कि क्या विज्ञान एवं कला वाकई अलग-अलग हैं जैसा कि सी.पी. स्नो ने 1956 में अपनी पुस्तक ‘दी टू कल्चर्स’ में प्रतिपादित किया है। अपने अनुभवों के आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँची कि विज्ञान और कला के बीच ऐसा कोई अन्तर नहीं है, बल्कि इन दोनों में कई बातें समान हैं। विज्ञान और कला में रचनात्मकता और श्रेष्ठता वास्तविक सूझबूझ यानी एकाग्रता, अवलोकन और बारीकियाँं नोट करने की क्षमता पर निर्भर करती हैं। इन दोनों में ही किसी समस्या को परिभाषित करने, उसकी खोजबीन करने, उसका सार निकालने और सबसे सम्भव सच को उजागर करने की क्षमता की ज़रूरत होती है। इस सच को फिर अन्य लोगों को बताया व उनके साथ साझा भी किया जाना चाहिए। यह मौखिक, लिखित या दृश्यों के माध्यम से किया जा सकता है। अवलोकन, खोजबीन और अभिव्यक्ति की प्रक्रिया विज्ञान या कला में अलग-अलग नहीं होती। ये तो सामान्य जीवन कौशल हैं। इस प्रकार की सूझबूझ (सत्य को पाने की विनम्र चाह) तभी आ सकती है, जब सत्य का अन्वेषण करने वाले व्यक्ति की अपने विषय के प्रति सच्ची लगन होती है और यह लगन अन्वेषण व समझने की भूख और अदम्य लालसा से ही पैदा होती है। ऐसी अनुभूति और प्रतिबद्धता से लैस व्यक्ति कहीं अधिक परिपूर्ण व सन्तोषप्रद ज़िन्दगी जिएगा, बनिस्बत उस व्यक्ति के जिसमें न तो रुचि है, न एकाग्रता है, न जिज्ञासा।

कविता लिखने के लिए विभिन्न रणनीतियों की छानबीन के दौरान मैंने पाया कि रचनात्मक लेखन के लिए वैज्ञानिक छवियाँ मुझे प्रेरणा दे रही हैं। इससे मैं इस बात की खोजबीन करने को प्रेरित हुआ कि क्या स्कूल में विज्ञान शिक्षा की गतिविधियों में ऐसी छवियाँ मददगार हो सकती हैं? और अन्तत: स्कूलों में विज्ञान शिक्षा के लिए मिश्रित पाठ्यक्रम के रूप में ‘साइंस,  आर्ट  एंड   राइटिंग’ (एस.ए.डब्ल्यू. - सॉ) का विकास किया। ‘सॉ’ मूलत: विज्ञान की ठोस बुनियाद पर टिका है। प्रत्येक ‘सॉ’ प्रोजेक्ट की एक वैज्ञानिक थीम होती है। प्रत्येक थीम के लिए दृश्य रूप में प्रभावी विज्ञान छवियाँ बहुत ही सावधानीपूर्वक चुनी जाती हैं। थीम और सहायक छवियाँं एडवेंचर की शुरुआती बिन्दु होती हैं। इसके तहत वैज्ञानिक प्रयोगों, कला और रचनात्मक लेखन के ज़रिए कोई अन्वेषण किया जाता है। एक केन्द्रीय वैज्ञानिक थीम के इर्द-गिर्द विज्ञान, कला और रचनात्मक लेखन के मिश्रण से दैनिक जीवन में विज्ञान को दमदार तरीके से उभारने और सीखने में मदद मिलती है। इससे विज्ञान और कला के बीच की दीवारें टूटती हैं और दोनों ही विषयों में उच्च मानक भी बने रहते हैं। इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि छवियों की केन्द्रीय भूमिका के साथ विभिन्न तरीकों से थीम के अन्वेषण से अलग-अलग क्षमता और अलग-अलग शैलियों वाले बच्चे भी सीखने के अपने रास्ते तलाश लेते हैं। सत्य अन्वेषण के राहियों को अपनी हर गतिविधि के लिए श्रेष्ठतम सच को पाने का प्रयास करने को प्रेरित किया जाता है और ऐसा करते हुए अपनी निष्ठा, कोशिशों और लगन के बल पर कई लोग उपलब्धियों की नई व्यक्तिगत ऊँचाइयों पर पहुँच जाएँगे। ‘सॉ’ प्रोजेक्ट को स्वयं शिक्षक भी चला सकते हैं। हालाँकि, अब तक जितने भी प्रोजेक्ट हाथ में लिए गए हैं, उनमें खाका तैयार करने व क्रियान्वयन में शिक्षकों के साथ वैज्ञानिक, कलाकार और रचनात्मक लेखक शामिल रहे हैं।

प्रक्रिया
वैज्ञानिक छवियों की क्षमता का आकलन चित्र-1 में दिखाई गई छवि से किया जा सकता है। यदि कोई अनजान पर्यवेक्षक इस छवि पर नज़र डाले और अपनी कल्पनाओं को ऊँची उड़ान भरने दे तो उससे कई शानदार विचार उभरेंगे। इस छवि के भीतर कई संसार बसे हुए हैं। चार से छह साल के बच्चों ने जब इस छवि को देखा तो इसमें उन्हें पानी के भीतर स्थित एक गुफा में व्हेल तैरती हुई नज़र आई और खड़ी चट्टान दिखाई दी जिसकी चोटी पर एक फानूस है (बॉक्स-1)। चित्र-2 एक पाँच वर्षीय बच्चे द्वारा बनाई गई चित्र आकृति है जिसे इसी छवि से प्रेरणा मिली है। इस बच्चे ने बगैर किसी की सहायता के स्पंज के टुकड़े से यह चित्र बनाया है। ये बच्चे वैज्ञानिक बनें या न बनें, लेकिन इतना तो तय है कि ये बहुत ही स्पष्ट प्रेक्षक हैं और बारीकियों को लेकर बहुत ही सजग हैं। उन्होंने जो कुछ देखा, वे उसकी व्याख्या बेहद प्रभावी ढंग से करने में भी सफल रहे हैं। चित्र-3 तंत्रिका कोशिका की छवि है जिसे हिस्टोकेमिकल स्टेनिंग के ज़रिए दृश्यांकित किया गया है। इस छवि को छोटे बच्चों के सामने पेश करना कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण लग सकता है, लेकिन यह देखकर आश्चर्य होता है कि बच्चों ने इसे किस खूबी के साथ ग्रहण किया (बॉक्स-2, चित्र-4)।

अगला तार्किक कदम विशिष्ट वैज्ञानिक थीम्स पर छवियों को व्यवस्थित ढंग से एकत्र करना है। उदाहरण के लिए, ‘बाह्य अन्तरिक्ष’ की थीम पर इन छवियों को शामिल किया जा सकता है: पोलेराइज़्ड लाइट माइक्रोस्कोपी द्वारा चन्द्रमा की चट्टानों की निकट से ली गई तस्वीर, अन्तरिक्ष से ली गई धरती की तस्वीर, शनि की वलय की तस्वीर, सूर्य की एक्स-रे तस्वीर इत्यादि।

छवियों का चयन ‘सॉ’ गतिविधियों की प्रकृति पर निर्भर करेगा। चन्द्रमा की चट्टानों की तस्वीर के साथ पृथ्वी और शनि की तस्वीरें स्केल के बारे में सोचने के अवसर प्रदान करती हैं। तस्वीरें हासिल करने के तरीकों पर भी चर्चा की जा सकती है। साइंस फोटो लाइब्रेरी (www.sciencephoto.com) वैज्ञानिक तस्वीरों का अच्छा स्रोत है। इस वेबसाइट पर बहुत शानदार सर्च इंजिन है जिससे चुनी हुई थीम पर कई तरह की तस्वीरें हासिल करने का मौका रहता है। उदाहरण के लिए यदि आप ‘प्रकाश संश्लेषण’ के लिए तस्वीरों की खोज कर रहे हैं तो आप ‘क्लोरोप्लास्ट’ पर जा सकते हैं और वहाँ से ‘स्टार्च ग्रेन’ की ओर और फिर इलेक्ट्रॉन ट्रांसपोर्ट चेन के आणविक मॉडल्स की ओर। सम्भावनाएँ अनन्त हैं। महत्वपूर्ण यह सुनिश्चित करना है कि तस्वीरें आश्चर्यजनक और जिज्ञासा उत्पन्न करने वाली हों और ऐसी चीज़ों का प्रतिनिधित्व करें जो असामान्य नज़र आती हों। मसलन, प्रिज़्म से विवर्तित (डिफ्रैक्टेड) प्रकाश की छवि इन्द्रधनुष की छवि से कहीं अधिक प्रभावी होगी क्योंकि इन्द्रधनुष तो बच्चे देखते ही हैं।

‘सॉ’ गतिविधियों की प्रकृति बच्चों की उम्र पर निर्भर करेगी। अभी ‘सॉ’ प्रोजेक्ट 4 से लेकर 15 साल तक के बच्चों के लिए चलाए जा रहे हैं। कोई कारण नहीं कि यही तरीका बड़े बच्चों और वयस्कों पर लागू न किया जा सके।

स्कूल प्रोजेक्ट बच्चों के छोटे समूहों या एक कक्षा के साथ चलाए जा सकते हैं। वे पूरे स्कूल के साथ भी व्यापक पैमाने पर संचालित किए जा सकते हैं। ‘बाहरी अन्तरिक्ष’ की थीम पर 11 से 13 साल की उम्र के बच्चों के साथ काम किया गया। इसके लिए स्कूल के खेल मैदान पर ग्रहों का प्रतिनिधित्व करने वाली चीज़ों (जैसे छोटे गोल पत्थर, टेनिस बॉल, फुटबॉल) से सौर प्रणाली का स्केल मॉडल बनाया गया। इस प्रोजेक्ट में अन्तरिक्ष से खींची गई पृथ्वी की तस्वीर को कविता के लिए माध्यम बनाया गया। बच्चों से यह कल्पना करने को कहा गया कि वे अन्तरिक्ष यात्री हैं और अपने अन्तरिक्ष यान में बैठे धरती की ओर देख रहे हैं। वे किस बात की कमी महसूस करते हैं? वे क्या अनुभव करते हैं? उन्हें एक-दो कविताएँ सुनाने के बाद अपनी कविता लिखने को कहा गया, जिसमें अन्तरिक्ष यात्री घर के सपने देखता है (देखें बॉक्स-3)। कला के सत्र में अच्छे प्रभाव के लिए चन्द्रमा की चट्टानों और ग्रहों की तस्वीरों का भी उपयोग किया गया। विभिन्न छवियों से प्रेरणा लेकर बच्चों ने मिलकर कोलाज भी बनाया।

‘सॉ’ प्रोजेक्ट तीन मुख्य क्षेत्रों विज्ञान, कला और लेखन पर आधारित है। लेखन प्राय: कविता के तौर पर होता है और कविताएँ स्पष्ट व संक्षिप्त होनी चाहिए। हालाँकि, ऐसा भी नियम नहीं है कि कविताएँ ही हों, गद्य भी हो सकता है। इस प्रोजेक्ट में अन्य साधनों का भी पूरक इस्तेमाल सम्भव है। लेखन के समय सूचना प्रौद्योगिकी, संगीत, नाटक, खेल, डिज़ाइन एवं प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल किया जा चुका है और ऐसे पूरक साधनों की सूची में लगातार इज़ाफा होता जा रहा है।

भले ही ‘सॉ’ प्रोजेक्ट के लिए चुनी गई थीम पर आधारित तस्वीरें शुरुआती बिन्दु होती हैं, लेकिन ऐसी कोई वजह नहीं है कि इस प्रोजेक्ट में अन्य वस्तुओं को शामिल नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए, मंडेस्ली फर्स्ट स्कूल (नॉरफॉक) के 4 से 8 साल की उम्र के 135 बच्चों के साथ समुद्र पर ‘सॉ’ प्रोजेक्ट माइक्रोस्कोप से ली गईं नमक के क्रिस्टल व समुद्री खरपतवार की तस्वीरों और एमोनाइट की प्रजातियों की एक्स-रे छवियों के साथ शु डिग्री हुआ। बाद में जब बच्चों ने समुद्र तट का भ्रमण किया तो वहाँ पाई गईं चीज़ों का इस्तेमाल करके उसे विस्तार दिया गया।

पहला ‘सॉ’ प्रोजेक्ट मार्च 2005 में शु डिग्री किया गया था। तब से ब्रिटेन के प्राइमरी और सेकण्डरी स्कूलों में करीब 60 प्रोजेक्ट शु डिग्री किए जा चुके हैं। इसके अलावा अमेरिका के  30 प्रारम्भिक स्कूलों में 30 प्रोजेक्ट संचालित किए जा रहे हैं। इसी तरह इटली के ट्यूरिन स्थित एक प्राइमरी स्कूल में सीपों व डायएटम्स पर प्रोजेक्ट शु डिग्री किया गया है। इन प्रोजेक्ट के मुख्य पहलुओं के बारे में जानकारी ‘सॉ  ट्रस्ट’   की   वेबसाइट (www.sawtrust.org) पर भी देखी जा सकती है। यहाँ बच्चों के कार्यों के उदाहरण भी देखे जा सकते हैं। पहले ‘सॉ’ प्रोजेक्ट में वैज्ञानिक थीम्स पर बच्चों द्वारा तैयार की गई अनेक कविताओं और चित्राकृतियों का संकलन उपलब्ध है।

‘सॉ’ को लेकर प्रतिक्रियाएँ काफी सकारात्मक रही हैं। हालाँकि, इन प्रोजेक्ट में शामिल होने वाले बच्चों पर इसका दीर्घकालीन असर क्या होगा, इस पर अभी कोई टिप्पणी करना जल्दबाज़ी होगी। अभी कई सवालों के जवाब बाकी हैं, जैसे कि क्या ‘सॉ’ प्रोजेक्ट में भाग ले चुके बच्चों की विज्ञान में रुचि या समझ बढ़ गई है? क्या वे कला और/या कविताओं को लेकर अधिक उत्साह दिखाते हैं और क्या कला व साहित्य में उनका स्तर बढ़ गया है? अलग-अलग क्षमता और सीखने की अलग-अलग शैली वाले बच्चों पर ‘सॉ’ प्रोजेक्ट का क्या असर पड़ा है? क्या रचनात्मकता, सीखने का आनन्द और आत्मविश्वास में इज़ाफा करने में ‘सॉ’ प्रोजेक्ट लाभदायक रहे हैं? क्या ‘सॉ’ प्रोजेक्ट में भागीदारी बाद में विषयों के चयन को प्रभावित करती है? ‘सॉ’ प्रोजेक्ट के क्रियान्वयन में लगे लोगों (जैसे शिक्षक, वैज्ञानिक, कलाकार और लेखक) के व्यक्तिगत एवं पेशेवर विकास पर पड़ने वाले असर का भी व्यापक विश्लेषण करने की ज़रूरत है। लेकिन एक बात साफ है कि जिन स्कूलों ने भी ‘सॉ’ प्रोजेक्ट में भाग लिया, वे अब आगे भी कुछ और चाहते हैं और कई स्कूलों ने तो अपने पहले प्रोजेक्ट के बाद ऐसे ही और भी प्रोजेक्ट संचालित किए हैं। शिक्षकों को इसमें काफी सम्भावनाएँ नज़र आई हैं और वे ऐसे प्रोजेक्ट के साथ काम करना चाहते हैं। सृजनशील शिक्षकों को महसूस हुआ है कि एक ही पाठ में बहु-पाठ्यक्रम ज़रूरतों की पूर्ति की जा सकती है। ‘सॉ’ के व्यापक प्रभावों के दीर्घकालीन मूल्यांकन के लिए इसे कई स्कूलों में लम्बे समय के लिए क्रियान्वित करना होगा और एक मज़बूत फ्रेमवर्क बनाना होगा।

‘सॉ’ का मकसद बच्चों को कॅरियर के रूप में विज्ञान को आत्मसात करने के लिए प्रेरित करना भर नहीं है। यह केवल विज्ञान शिक्षा की पहल नहीं है, हालाँकि, इस पर ऐसी मुहर लगाई जा सकती है। ‘सॉ’ अध्यापन व संवाद और शिक्षण व शैक्षणिक लक्ष्य के बीच फर्क का नाम है। यह आत्मविश्वास और सीखने व निष्कर्ष निकालने पर अपने नियंत्रण, रचनात्मकता, जुड़ाव और व्यक्तिगत उत्कृष्टता की बात करता है।

‘सॉ’ 21वीं सदी के नए पाठ्यक्रम से कैसे जुड़ता है? पाठ्यक्रम को अब व्यक्तिगत विकास के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है। अब उस पाठ्यक्रम पर ज़ोर दिया जाता है जो सम्पूर्ण ढंग से नियोजित ज्ञान प्राप्ति का अनुभव करवाता हो, न कि वह जो सिर्फ समयबद्ध पाठों तक सीमित हो। ‘सॉ’ के ज़रिए पूरे पाठ्यक्रम में महत्वपूर्ण पहलुओं को शामिल किया गया है। इनमें सामुदायिक भागीदारी व विशेषज्ञों का जुड़ाव, आनन्द व सामाजिक विकास, वास्तविक दुनिया से जुड़ना व प्रासंगिक ज्ञान, उद्यमिता व शिक्षा प्राप्ति के स्वतंत्र मौके, हस्तान्तरणीय मिश्रित पाठ्यक्रम कौशल, विशिष्ट व व्यक्तिगत शिक्षा प्राप्ति, रचनात्मक एवं समालोचक सोच, सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग व इंटरएक्टिव शिक्षा प्राप्ति, लचीलापन व कई तरह के तरीकों का इस्तेमाल और चुनौती व विस्तृत अवसर शामिल हैं। जहाँ तक सम्भव हो सके, बच्चों के साथ वयस्क की तरह व्यवहार करके हम उनके आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता को बढ़ा सकते हैं।

सलेम स्टेट कॉलेज (अमेरिका) में स्कूल ऑफ एजुकेशन की एक प्रशिक्षु शिक्षिका ने बताया कि ‘सॉ’ प्रोजेक्ट के शुरू होने से पहले तक उन्हें इस बात का एहसास नहीं था कि छोटे बच्चे कितने समर्थ होते हैं। 21वीं सदी के स्कूलों को ज्ञान प्राप्त करने वाले समुदाय के रूप में देखा जाता है जिनमें बच्चों से लेकर बड़े तक सभी साथ-साथ सीखते हैं। हर बच्चा, हर बड़ा व्यक्ति चीज़ों को अलग-अलग ढंग से देखता है। दोनों साथ मिलकर आपसी समझ-बूझ बना सकते हैं और इस तरह सत्य के और भी निकट पहुँच सकते हैं। इसके ज़रिए हम उस दुनिया के बारे में गहन ज्ञान विकसित करने और हर्षोल्लास की उम्मीद कर सकते हैं जिसमें हम रहते हैं और यह सीख सकते हैं कि इसे कैसे बेहतर ढंग से संरक्षित व विकसित किया जाए।

‘सॉ ट्रस्ट’
वर्ष 2005 में ‘नेस्टा ड्रीम फेलोशिप’ की समाप्ति के बाद मेरी किस्मत अच्छी रही कि मुझे ‘ब्रैंको वाइस फेलोशिप’ हासिल हो गई जिससे मैं ‘सॉ’ गतिविधियों को विकसित करने का काम जारी रख सकी। वर्ष 2006 में मैंने अपनी पहल के विकास के मकसद से ‘सॉ ट्रस्ट’ की स्थापना की। ‘सॉ ट्रस्ट’ अपनी गतिविधियों की फंडिंग के लिए स्कूलों, अनुदान व दान पर निर्भर करता है और अब तक मुख्य कार्यों के लिए (जैसे प्रशासनिक कार्य) उसके पास कर्मचारियों का कोई तंत्र नहीं है।

‘सॉ’ को आज़माएँ
पाठको, क्या आप एक वैज्ञानिक हैं? क्या आप ‘सॉ’ को आज़माना चाहेंगे? भले ही आप एस्ट्रोफिज़िक्स में काम न करते हों। भले ही ‘बाहरी अन्तरिक्ष’ आपके लिए मायने न रखता हो। लेकिन आप क्या करते हैं? और आप इसे कैसे अभिव्यक्त कर सकते हैं? अपने अनुसंधान क्षेत्र के बारे में सोचिए, ऐसी छवियाँ ढूँढ़िए जो दृश्यात्मक तौर पर प्रेरित करें और फिर किसी स्कूल से सम्पर्क कीजिए (शायद ऐसा स्कूल जहाँ आपका बच्चा या कोई रिश्तेदार पढ़ता हो)। स्कूल प्रबन्धकों से पूछें कि क्या वे ‘सॉ’ प्रोजेक्ट चलाना चाहेंगे। आप एक वैज्ञानिक हो सकते हैं, या शिक्षक हैं तो रचनात्मक कला पक्ष को लेकर अपना योगदान दे सकते हैं। या आप एक कवि, कलाकार या किसी भी ऐसे व्यक्ति के साथ कार्य कर सकते हैं जो आपकी दिलचस्प पहल के साथ चल सके। यदि आप ऐसा करते हैं तो मुझे भी इससे अवगत कराइए (या मुझे ईमेल करें: This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it. मैं दूसरे देशों में भी ‘सॉ’ प्रोजेक्ट के बारे में सुनना चाहूँगी और उसके कुछ उदाहरण ‘सॉ ट्रस्ट’ की वेबसाइट पर देना चाहूँगी।


एन. ऑस्बोर्न: जॉन इन्नेस सेंटर नारविक, यूके में एसोसिएट रिसर्च डायरेक्टर हैं। वैज्ञानिक शोध के क्षेत्र में 25 वर्षों का अनुभव है। इस दौरान इन्होंने शोध कर्ता वैज्ञानिक से लेकर वैज्ञानिक प्रबन्धन और नेतृत्व तक की ज़िम्मेदारियाँ सम्हाली हैं।  

अँग्रेज़ी से अनुवाद: जयजीत: स्वतंत्र रूप से अनुवाद करते हैं। भोपाल में निवास।
स्रोत फीचर्स, फरवरी 2010 से साभार।