माधव केलकर

एक शिक्षक के रूप में काम करते हुए कक्षा में पढ़ाने के साथ-साथ कक्षा में अनुशासन बनाए रखना भी शिक्षक की ज़िम्मेदारी होती है। अक्सर, शिक्षकों को बच्चों द्वारा अपने साथियों के बारे में की गई शिकायतों से भी निपटना पड़ता है। एक आम शिकायत आती है, “सर इसने मुझे गाली दी। या मैडम, इसने मुझे गाली दी तो मैंने इसके बाल खींच दिए।”
आप इन शिकायतों से कैसे निपटते हैं, इस बात पर बाद में आते हैं। पहले डॉ. नितिन जाधव के विद्यार्थी जीवन का अनुभव जान लेते हैं। इस अनुभव को उन्होंने पालक नीति पत्रिका (अंक दिसम्बर 2011) में लिखा था।

“... मेरी स्कूली पढ़ाई लक्ष्मण आपटे शाला में हुई। मैं कक्षा छठवीं या सातवीं में पढ़ता था। मैं पुलिस लाइन में रहता था। हमारी स्कूल में पुलिस लाइन के लड़कों से, बाकी बच्चे थोड़ा डरकर ही रहते थे। स्कूल में खेल का पीरियड एक -दूसरे से मार-पीट करने, बदला चुकाने जैसे काम के लिए अच्छा होता था।

एक बार मेरा एक सहपाठी - जो उसी शाला के एक शिक्षक का बेटा था - से पंगा हो गया। उसने किसी मामूली वजह पर मुझे गालियाँ दीं। मैंने खेल के पीरियड में उसकी जमकर धुनाई कर दी। मैंने सोचा वो जाकर अपने पिता से मेरी शिकायत करेगा। मैं उसके पिता का पसन्दीदा विद्यार्थी था, इसलिए ज़्यादा डर नहीं था।

मेरा सहपाठी इस मार-पीट के बाद सीधे प्रधान पाठक के पास गया और उनसे मेरी शिकायत कर दी। थोड़ी देर बाद प्रधान पाठक और सहपाठी को मेरी ओर आते देखकर मैं काँप उठा। बात इस हद तक पहुँचेगी, ऐसा मैंने सोचा नहीं था। मैं जाकर छुप गया लेकिन मेरे दोस्तों ने मुझे बाहर निकाल कर प्रधान पाठक के सामने खड़ा कर दिया।

प्रधान पाठक ने मुझसे मार-पीट की वजह पूछी। मैंने बताया कि सहपाठी ने मुझे गालियाँ दीं इसलिए मैंने उसकी ठुकाई की। प्रधान पाठक ने सभी बच्चों के सामने मुझसे कहा, ‘ठीक है, गालियाँ सुनकर तुम्हें गुस्सा आ गया। अब तुम मुझे वो गालियाँ दो जो इसने तुम्हें दीं थी। साथ ही, तुम्हें और जो भी गालियाँ मालूम हों वो भी तुम मुझे दो।’ यह सुनकर मेरा माथा चकरा गया। ये सब क्या करने के लिए कह रहे हैं, सर!!!!!

मुझे चुपचाप खड़ा देखकर सर बोले, ‘तुम मुझे गालियाँ बको।’ उन्होंने बाकी बच्चों को सम्बोधित कर कहा, ‘जब तक ये मुझे गालियाँ नहीं बकेगा, कोई भी यहाँ से घर नहीं जाएगा।’ यह सुनकर सभी विद्यार्थी सोच में पड़ गए। मैं सर को गालियाँ देने की बात सपने में भी नहीं सोच सकता था। वास्तव में गालियाँ देना क्या...मुँह से आवाज़ भी नहीं निकल रही थी।

ऐसे ही पन्द्रह-बीस मिनट और निकल गए। सर मेरे सामने शान्त मुद्रा में गालियाँ सुनने के लिए खड़े थे। मैं भी लाचार-सा महसूस कर रहा था, लेकिन यह बात समझ में आ गई थी कि सर को गालियाँ बके बिना छुटकारा नहीं है। मैंने एकदम निचले स्वर में दो-तीन साधारण-सी गालियाँ दे दीं। लेकिन सर को यह मंज़ूर नहीं था। वो बोले, ‘वही गालियाँ दो जो इस लड़के ने तुम्हें दी थीं।’
मैं अजीब ऊहा-पोह में फँस गया था। काफी हिम्मत जुटाकर मैंने प्रधान पाठक को न देखते हुए उन गालियों को दोहराया जो सहपाठी ने मुझे दी थीं। सर को गाली देने के बाद मैं अजीब-सा महसूस कर रहा था। सर ने मेरे कन्धे पर हाथ रखकर सभी की तरफ देखते हुए कहा, ‘तुमने मुझे गालियाँ दीं, इससे क्या मेरे शरीर में कोई सुराख हो गए? किसी की दी गालियों से खुद को परेशान क्यों करना? जब तुम मुझे गालियाँ दे रहे थे तो मैं एक ही बात मन में दोहरा रहा था कि ये सारी बातें मुझ पर लागू नहीं होतीं। किसी ने कुछ खराब कहा है तो उससे कितना बुरा मानना है, यह खुद को ही तय करना होता है।”

यह सब सुनकर मैं सर से लिपटकर रोने लगा। सर ने भी मेरी पीठ थपथपाई। सर का गूढ़ सन्देश मैं समझ चुका था।”