सरीसृपों (रेंगने वाले जंतुओं) में छिपकलियां प्रमुख हैं। इनकी लगभग 6000 प्रजातियां पाई जाती हैं। ये विश्व के सभी भागों में पाई जाती हैं, किंतु उष्णकटिबंधीय प्रदेशों में अधिक सामान्य हैं। भारत मेंे इनके 8 कुल हैं जिनकी लगभग 250 प्रजातियां पाई जाती हैं। अधिकांश स्थलीय होती हैं मगर वृक्षीय, बिल बनाने वाली यानी भूमिगत और जलीय छिपकलियां भी कम नहीं हैं।
छिपकलियों के रंग उनकी रक्षा में सहायक होते हैं। सामान्यत: उनकी खाल कंटीले शल्कों से ढंकी रहती हैं। खाल के नीचे हड्डियों की प्लेटें होती हैं। इनके अंग सामान्यत: पूर्ण रूप से विकसित होते हैं और चढ़ने वाली छिपकलियों के पैरों में चिपकने वाली गद्दियां होती हैं। अधिकांश छिपकलियां इच्छानुसार अपनी पूंछें तोड़ सकती हैं। टूट कर गिरी हुई पूंछ कुछ समय तक फुदकती रहती है, जिससे पीछा करने वाला उसको देखने में लग जाता है और छिपकली बच कर निकल भागती है।

अधिकांश छिपकलियां अंडे देती हैं। कुछ ऐसी भी प्रजातियां हैं जो बच्चे देती हैं। सामान्यतया छिपकलियां अपने अंडे धरती पर देती हैं और सेती हैं। किंतु उत्तरी गोलार्द्ध की कुछ छिपकलियां अपने अंडों को शरीर के अंदर ही सेती हैं और उनसे बच्चे पैदा होते हैं। किंतु बच्चे देने की यह प्रक्रिया स्तनधारी प्राणियों से नितांत भिन्न हैं, जिनमें भ्रूण गर्भाशय में विकसित हो कर शिशु का रूप धारण करके जन्म लेता है।
छिपकलियां सामान्यत: कीड़े-मकोड़े और अन्य छोटे प्राणियों का शिकार करती हैं। कुछ प्रजातियां पूरी तरह शाकाहारी होती हैं। मेक्सिको में पाई जाने वाली कुछ प्रजातियों को छोड़ कर शेष सभी अविषैली होती हैं। बहुत-सी जातियों का मांस खाया जाता है और ऐसा विश्वास है कि कुछ में औषधीय गुण होते हैं। लगभग 2 दर्जन प्रजातियों की खाल से सुंदर वस्त्र, जूते, स्लीपर और घरेलू वस्तुएं बनाई जाती हैं।
ऐगैमिड एशिया, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया में पाई जाने वाली छिपकलियां हैं, जिनमें सजावटी उपांग पाए जाते हैं, जैसे मुकुट और गले की थैलियां। उनमें रंग-बिरंगी रेखाकृतियां देखने को मिलती हैं। खाल पर हड्डियों की प्लेटें नहीं होतीं और दुम साधारणत: लंबी तो होती है, किंतु जल्दी टूट कर नहीं गिरती। इस कुल की भारत में पाई जाने वाली सबसे महत्वपूर्ण प्रतिनिधि छिपकलियां इस प्रकार हैं। ड्रेको प्रजाति की उड़ने वाली छिपकली जो वृक्षों पर रहती हैं। इनमें पंखों जैसी सुंदर रंगों वाली झिल्लियां रहती हैं जिनके सहारे ये एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर चली जाती हैं। पंख जैसे गले वाली छिपकली सिटाना पोंटिसेरिआना क्यूवियर क्रोधित होने पर अपने गले के उपांगों को इतनी तेज़ी से खोलती और बंद करती है कि चिंगारियां निकलने का आभास मिलता है।

यूरोमैट्रिक्स हार्डविकाई नाम की छिपकली को पाला जा सकता है। कहा जाता है कि कुछ आदिवासी इसको खाते हैं। इसकी वसा लेप के रूप में इस्तेमाल की जाती है। गड्ढों से शीत निष्क्रिय छिपकलियों को खोद कर निकाला जाता है और घोड़ों की औषधि में प्रयोग किया जाता है। माबूया कैरिनेटा प्रजाति की छिपकली प्राय: समस्त भारत में 2500 मीटर की ऊंचाई तक, खाली मकानों और ढीली चट्टानी भूमियों में रहती है। यह पेड़ों पर भी पाई जाती है। इस छिपकली से एक औषधीय तेल भी निकाला जाता है।
जलवायु परिवर्तन से छिपकलियों के विलुप्त होने का खतरा उत्पन्न हो गया है। जलवायु परिवर्तन के कारण विश्व के कुछ भागों में 12 प्रतिशत छिपकलियां पहले ही गायब हो चुकी हैं। एक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि यदि विश्व का तापमान बढ़ना जारी रहा तो 2080 तक छिपकलियों की कुल प्रजातियों में से 20 प्रतिशत विलुप्त हो सकती हैं।
गेको, इगुआना और गिरगिट जैसी छिपकलियों को अक्सर ठंडे खून वाला प्राणी माना जाता है। यानी उनके शरीर का तापमान बाहरी वातावरण के अनुसार बढ़ता और घटता रहता है। छिपकलियां अपने शरीर के तापमान को बढ़ाने के लिए धूप सेंकती हैं और जब उनके शरीर का तापमान ज़्यादा बढ़ जाता है तो छाया में चली जाती हैं।

वैज्ञानिकों का कहना है कि विश्व के कई भागों में तापमान इतना ज़्यादा हो गया है कि छिपकलियां पर्याप्त भोजन हासिल करने को भी बाहर नहीं निकल पाती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि वे कमज़ोर हो कर मर जाती हैं। इन छिपकलियों को गर्मी लेने के लिए धूप में निकलना ज़रूरी होता है। लेकिन गर्मी ज़्यादा होने के कारण उन्हें छाया में लौटना पड़ता है। एक निश्चित सीमा के बाद छिपकलियां अनुकूलित नहीं हो सकती हैं।
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि स्थानीय छिपकलियों की 40 प्रतिशत संख्या विलुप्त हो जाएगी और 2080 तक छिपकली की 20 प्रतिशत प्रजातियां गायब हो जाएंगी। वैज्ञानिकों ने मेक्सिको में 200 स्थानों पर छिपकलियों की लगभग 48 प्रजातियों का अध्ययन करके यह पता लगाया है कि 1975 से 1995 के बीच लगभग 12 प्रतिशत छिपकलियां विलुप्त हो चुकी थीं। हालांकि उनके प्राकृतिक आवास में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ था।
धूप में नीले रंग की छिपकलियों के शरीर के तापमान में बढ़ोतरी को दर्ज करने वाले एक उपकरण से पता चला कि स्थानीय तापमान इतना बढ़ गया है कि इनके लिए उसका सामना करना मुश्किल हो गया है। (स्रोत फीचर्स)