राफेल कर्रेरास् व गाय हैन्श
अनुवाद: विवेक मेहता [Hindi,PDF 344 KB]

कणों के संसार की शुरुआती झलकियाँ एक विशाल अनुसन्धान प्रयोगशाला के काम को समझने के माध्यम से

जेनीवा शहर के ठीक बाहर CERN(सर्न) नाम की एक विशाल यूरोपीय अनुसन्धान प्रयोगशाला है, जिसका कुछ हिस्सा स्विट्ज़रलैंड में आता है तो कुछ हिस्सा फ्रांस में। इस प्रयोगशाला का उद्देश्य है ‘कण भौतिकी’ का अध्ययन, जिसका असली मतलब है उस घटना का अध्ययन जब ऊर्जा पदार्थ में रूपान्तरित होती है।
यह प्रक्रिया जिन असाधारण परिस्थितियों में होती है उनका अध्ययन सम्भव है। और इन अध्ययनों के नतीजे हमें भौतिकी, खगोल भौतिकी (खगोलिय पिण्डों का विज्ञान व उनसे जुड़ी घटनाएँ) और विश्व विज्ञान (cosmology, यानी कि सृष्टि का उदय व उसका विकास) से जुड़े कई मूलभूत सवालों के हल खोजने में समर्थ बनाते हैं।
जिस तरह की तकनीकों का इस्तेमाल होता है व जैसे नतीजे वहाँ मिलते हैं उनको यहाँ विस्तार से बता पाना काफी जटिल है। लेकिन फिर भी,  इन गतिविधियों से जुड़े सिद्धान्तों को सरल तरीके से समझाया जा सकता है।

एक दिन में ही सूरज किसी तालाब  के पानी में ऊष्मा (आम भाषा के शब्द ‘गर्मी’ का वैज्ञानिक नामकरण) की एक विशाल मात्रा छोड़ता है। अगर ऊष्मा की इस मात्रा की तुलना किसी जलती हुई मोमबत्ती की लौ की ऊष्मा से की जाए तो सूरज के द्वारा तालाब के पानी में छोड़ी जाने वाली मात्रा कहीं ज़्यादा होगी।
लेकिन, क्या आप तालाब के पानी में एक अण्डा उबाल सकते हैं? चाहे कितनी ही देर एक अण्डे को तालाब के पानी में रखा जाए, उसे उबाला नहीं जा सकता। वहीं एक मोमबत्ती की लौ पर रखकर एक अण्डे को कुछ ही मिनटों में पकाया जा सकता है (चित्र-1)।
सूरज के द्वारा छोड़ी गई ऊष्मा की विशाल मात्रा तालाब की एक काफी बड़ी जलराशि द्वारा सोखी जाती है जिसके चलते तालाब के पानी में ऊष्मा की सघनता काफी कम होती है। वहीं दूसरी ओर मोमबत्ती में स्थिति एकदम उलट है। हालाँंकि किसी मोमबत्ती से उत्सर्जित होने वाली ऊष्मा की मात्रा काफी कम होती है लेकिन ये सारी ऊष्मा एक छोटी-सी जगह (मोमबत्ती की लौ) में ही संकेन्द्रित रहती है। और क्योंकि ये संकेन्द्रित ऊष्मा ही तापमान को बढ़ाती है, मोमबत्ती की मदद से अण्डे को पकाया जा सकता है। ऐसा भी नहीं है कि मोमबत्ती की लौ पर अण्डा एकदम बढ़िया से पक जाएगा लेकिन कुछ हद तक तो पक ही जाएगा, वहीं तालाब में कुछ भी नहीं होगा।

आइए, ऊष्मा की सघनता से जुड़ा एक और उदाहरण देख लें: चाकू-छुरी पर सान चढ़ाने वाले का। जब भी वह चाकू को तेज़ करने के लिए उसे पत्थर पर घिसता है तो धातु के कई सारे सूक्ष्म कण चाकू की धार से अलग होकर चिंगारी के रूप में उड़ते दिखाई देते हैं। ये चिंगारी बहुत ही कम समय के लिए होती है और देखते ही देखते गायब भी हो जाती है लेकिन इनका तापमान  तकरीबन  1000  डिग्री सेल्शियस के बराबर होता है। इतने ज़्यादा तापमान पर सभी वस्तुएँ प्रकाश उत्सर्जित करती हैं। लेकिन इस प्रकाश का कारण इनमें मौजूद ऊष्मा की मात्रा नहीं बल्कि ऊष्मा की सघनता होती है। एक चिंगारी में तो उतनी भी ऊष्मा नहीं होती कि उससे एक मटर का दाना पकाया जा सके।    
तो हमने देखा कि यह सघनता ही है जिसका महत्व है (बॉक्स-1 भी देखें)। अपने रोज़मर्रा के जीवन में ही ऐसी कई परिस्थितियाँ होती हैं, जिसमें चीज़ों की मात्रा की अपेक्षा उनकी सघनता कहीं ज़्यादा महत्व की होती है।

बॉक्स - 1

सवाल: सूरज की जितनी किरणें जो सीधे हाथी की पीठ पर पड़ रही हैं, वे टिनटिन के आवर्धक लैंस (magnifying lens) से होकर गुज़रने वाली किरणों से कहीं ज़्यादा हैं। फिर ऐसा क्यों है कि लेंस से होकर हाथी पर पड़ने वाली किरणों से उसकी त्वचा जलने लगती है और वहीं सीधी पड़ने वाली किरणों से उसे कुछ भी फर्क नहीं पड़ता?

जवाब: क्योंकि टिनटिन का आवर्धक लैंस उससे होकर गुज़रने वाली किरणों को हाथी की पीठ पर एक छोटी-सी जगह पर केन्द्रित कर देता है। जैसा कि आप चित्र में हाथी की प्रतिक्रिया से समझ ही सकते हैं कि ये सघन किरणें जिस तरह से हमें प्रभावित करती हैं, साधारण किरणें नहीं!...


उदाहरण के तौर पर अगर बीस लोगों को किसी खाने के टेबल पर बैठा दिया जाए तो परेशानी खड़ी होने में देर नहीं लगेगी (चित्र-2)। इस परिस्थिति में उनका व्यवहार उस स्थिति से एकदम अलग होगा जिसमें ये बीस व्यक्ति एक वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैले हुए हों। कुचले जाने के लिए ज़रूरी नहीं कि आप किसी बड़ी भारी भीड़ के बीच फँसे हों।

चलिए एक और उदाहरण लेते हैं।  आप शायद सोचते हों कि पानी की एक लीटर मात्रा काफी कम होती है। लेकिन अगर इतनी-सी मात्रा भी किसी तरह से एक छोटे-से गिलास में दबा (सम्पीड़ित कर) दी जाए तो एक खास तरह की बर्फ बन जाएगी जिसे 1000 डिग्री सेल्शियस तक बिना पिघलाए हुए गर्म किया जा सकेगा! इस प्रक्रिया में पानी की मात्रा तो उतनी ही रहेगी लेकिन उसके गुण में भारी बदलाव आ जाएगा।
उर्जा का सघन संकेन्द्रित रूप
चलिए, इसी सिद्धान्त को ऊष्मा (या ऊर्जा) की उस छोटी-सी मात्रा पर लगाकर देखते हैं जो चाकू को पत्थर पर घिसने से निकलने वाली चिंगारी में होती है। क्या होगा अगर ऊर्जा की इस छोटी-सी मात्रा को ऐसी जगह पर केन्द्रित कर दिया जाए (समेट दिया जाए) जो किसी अणु के आकार से भी लाखों-करोड़ों गुना छोटी हो? जिस उदाहरण का हमने हाल ही में ज़िक्र किया उससे तो हमें यह समझ आता है कि किसी चीज़ को केन्द्रित करने पर उसकी प्रकृति में मौलिक तौर पर बदलाव आ जाता है। आप कल्पना कर सकते हैं कि अगर हम ऊर्जा को एक निहायत ही छोटी जगह पर संकेन्द्रित कर दें तो कुछ असाधारण ही घटेगा...

... और यकीन जानिए, हमें निराश नहीं होना पड़ेगा। क्योंकि जब ऊर्जा की किसी मात्रा को एक छोटी-सी जगह में संकेन्द्रित कर दिया जाता है तो कुछ निराली, कुछ अविश्वसनीय, लगभग चमत्कारिक-सी घटना घटती है - चिंगारी की ऊर्जा पदार्थ में रूपान्तरित हो जाती है!  
- अरे इसका क्या मतलब हुआ? क्या आप कह रहे हैं कि ऊर्जा को पदार्थ में बदला जा सकता है?
हाँ! सिद्धान्तों ने यह प्रमाणित किया है और कई प्रयोगों से भी यह बात सच पाई गई है कि अब हमें पदार्थ को एक सघन संकेन्द्रित रूप में समझना चाहिए जिसमें कुछ स्थितियों में ऊर्जा होती है।
लेकिन इस प्रक्रिया का आम दिनचर्या में अवलोकन नहीं किया जा सकता। आज तक किसी ने भी ऊर्जा को साफ तौर पर दृश्य पदार्थ में रूपान्तरित होते नहीं देखा है। इसके तीन कारण हैं -
1. सामान्य परिस्थितियों में ऊर्जा इतने पर्याप्त रूप से संकेन्द्रित नहीं होती कि पदार्थ में रूपान्तरित हो सके। पदार्थ में बदलने के लिए ज़रूरी होगा कि ऊर्जा सामान्य परिस्थितियों की अपेक्षा हज़ारों-लाखों गुना ज़्यादा संकेन्द्रित हो।
2. वैसे भी किसी भी सूरत में मिलने वाले पदार्थ के कण इतने छोटे होते हैं कि नंगी आंखों से उन्हें नहीं देखा जा सकता।
3. इसके अलावा ये कण इतने कम समय के लिए ही अस्तित्व में रहते हैं कि इनका एक साथ आकर दिखने योग्य आकार ले सकने का मौका ही नहीं बनता। ऐसा इसलिए क्योंकि अमूमन ये सभी कण अपने बनने के साथ ही निहायत अस्थाई होते हैं। इनमें से ज़्यादातर या तो दोबारा ऊर्जा में बदल जाते हैं या टूटकर (विखण्डित होकर) ऐसे अन्य कणों को जन्म देते हैं जो आगे चलकर दोबारा से यही प्रक्रिया तब तक दोहराते हैं जब तक कि सिर्फ स्थाई कण बच न जाएँ (चित्र-3)।

- तो क्या ये बचे हुए स्थाई कण मिलकर पदार्थ का रूप ले सकते हैं?
पदार्थ की संरचना
- बिलकुल! हमारे आसपास दिखने वाली सभी चीज़ें जिन्हें हम ‘पदार्थ’ कहते हैं, जैसे कि खनिज, सब्ज़ियाँ और यहाँ तक कि जीवित-प्राणी, सभी स्थाई कणों से मिलकर ही बने हुए हैं। और-तो-और, सिर्फ तीन तरह के स्थाई कण ही दुनिया भर की चीज़ों व जीवों में व्याप्त विभिन्नताओं को अंजाम देने के लिए ज़रूरी हैं। खास बात यह है कि ये कण किस तरीके से आपस में एक साथ मिले हुए हैं। यह कुछ-कुछ मोर्स-कोड की तरह है जिसमें सिर्फ तीन तरह के सिग्नल, एक डॉट, एक डैश और एक खाली स्थान की सहायता से आप किसी भी तरह का सन्देश भेज सकते हैं।
जबसे सृष्टि की शुरुआत हुई है, ये स्थाई कण निरन्तर अलग-अलग तरीकों से मिलकर, बिखरकर और फिर से मिलकर सृष्टि में पाई जाने वाली असंख्य तरह की चीज़ों व जीवों को रूप देते रहे हैं।
- तो क्या इसका मतलब यह हुआ कि जिन कणों से मिलकर हमारा शरीर बना हुआ है वो काफी पुराने हैं?
- हाँ, ये कण तकरीबन 150 करोड़ साल पहले बने थे जब सृष्टि की शुरुआत हुई थी। ऐसा माना जाता है कि ये सब तब हुआ होगा जब ऊर्जा की एक विशाल मात्रा अचानक से असंख्य कणों में बदल गई थी। कई बदलावों व रूपान्तरण के बाद अन्तत: ये कण स्थाई हुए और हमारी सृष्टि व उसमें पाए जाने वाले तमाम तत्व बने।

प्रयोगशाला में ऊर्जा से पदार्थ
हम यह नहीं जानते कि इस विशाल ऊर्जा का स्रोत क्या था और न ही हमें यह पता है कि कैसे अचानक से इतनी ऊर्जा संकेन्द्रित हुई होगी। लेकिन विशिष्ट प्रयोगशालाओं में ये पूरी प्रक्रिया एक बहुत ही छोटे पैमाने पर कृत्रिम तौर पर की जा सकती है ताकि इसका अध्ययन कर इसे समझा जा सके। काफी बड़े उपकरण जिन्हें एक्सैलरेटर्स या त्वरक कहते हैं, की मदद से दो कणों को आपस में टकराकर, कुछ देर के लिए ही सही, ऊर्जा को पदार्थ में रूपान्तरित करने योग्य संकेन्द्रित किया जा सकता है...
- एक मिनट!... आप कह रहे हैं कि कुछ कणों या काफी छोटी चीज़ों को महज त्वरित कर (उनकी गति को लगातार बढ़ाकर) आप ऊर्जा को पर्याप्त तौर पर संकेन्द्रित कर सकते हैं। ये कैसे सम्भव है?
- जब भी किसी वस्तु को बहुत ज़्यादा रफ्तार से गतिमान किया जाता है तो ऐसे में उस वस्तु में एक प्रकार की ऊर्जा निहित होती है जिसे गतिज ऊर्जा कहते हैं। त्वरक भी एकदम यही काम करता है। इसमें कणों की गति को लगभग प्रकाश की गति तक बढ़ाया जाता है जिससे वो गतिज ऊर्जा अर्जित करते हैं। और क्योेंकि यह गतिज ऊर्जा एक छोटे-सी वस्तु (कण) में ही होती है इसी कारण से काफी संकेन्द्रित हो जाती है। ऐसे में जब एक कण दूसरे कण से टकराता है तो ऊर्जा मुक्त होकर पदार्थ में रूपान्तरित हो जाती है।
- लेकिन... कण तो शुरुआत से ही पदार्थ थे। आपने ऐसा तो कुछ भी नहीं बनाया जो पहले से नहीं था। प्रक्रिया में नया तो कुछ भी नहीं बना!
- यह समझना इतना भी सरल नहीं है। इसे आप इस तरह देख सकते हैं कि हमने इस प्रक्रिया में नया पदार्थ बनाया क्योंकि टकराव के बाद पदार्थ की मात्रा पहले से ज़्यादा थी (चित्र-4)!

- आपका मतलब क्या है?
- अच्छा, अब जो भी मैं कहने जा रहा हूँ उस पर अच्छे से ध्यान दीजिए। जो ऊर्जा गतिमान होने के चलते कण ने अर्जित की थी वो टकराव की स्थिति में कणों को मिलने वाले शॉक (झटके) के चलते मुक्त हो जाती है।
- मुक्त?
- हाँ! कल्पना करो कि तुम एक इमारत की छठी मंज़िल से नीचे गिर रहे हो। तुम गिरने की वजह से अर्जित की गई ऊर्जा का अनुभव नीचे टकराने के बाद ही कर पाओगे। नीचे गिरते हुए तुम्हें इसका अहसास नहीं होगा, लेकिन इसका मतलब हरगिज़ नहीं कि ऊर्जा है नहीं।
- ...हाँ, मैं समझ रहा हूँ।   
- तब तो तुम यह भी समझ पाओगे कि त्वरक में गतिमान कणों के साथ भी कुछ ऐसी ही स्थिति होती है। जब वे आपस में टकराते हैं तब ही उनमें उपस्थित गतिज ऊर्जा प्रकट होती है।
- अब मैं समझा।
- तो, ये वही ऊर्जा है जो मुक्त होने के बाद उन कई कणों में रूपान्तरित हो जाती है जोकि कुछ क्षण पहले अस्तित्व में ही नहीं थे।
- अहा, अब मैं समझ पा रहा हूँ।
- चलो एक सरल-सा उदाहरण लेते हैं जो कि बेतुका-सा तो लगता है लेकिन है हमारे काम का। हम कणों को झरबेर (स्ट्रॉबेरी) से बदल देते हैं (बॉक्स-2)। कल्पना करो कि दो झरबेर काफी तेज़ ऊर्जा के साथ एक-दूसरे से टकराएँ। उस एक क्षण में मुक्त होने वाली ऊर्जा इतनी ज़्यादा हो कि न केवल नई झरबेर बल्कि सेब, केले, अमरूद जैसे कई अन्य फल भी बन जाएँ... दूसरे शब्दों मे कहें तो टकराव के बाद ऐसा कुछ बनेगा जो पहले नहीं था।

बॉक्स - 2: झरबेर का उदाहरण

इस काल्पनिक टकराव की प्रक्रिया को समझने के लिए हम चित्र-4 की मदद लेते हैं। टकराव से पहले पदार्थ (झरबेर) की मात्रा कम थी और ऊर्जा (गतिज ऊर्जा) की मात्रा काफी ज़्यादा। टकराव की शुरुआती ऊर्जा का एक हिस्सा पदार्थ (नए फलों) में बदल गया। लेकिन कुछ हिस्सा इन नए व पुराने पदार्र्थों की गति के रूप में बचा भी रह गया। अगर टकराव के बाद सभी फलों की गति शून्य होती यानी कि सभी फल स्थिर होते तो हम यह कह सकते थे कि झरबेर की सारी  ऊर्जा  ‘पदार्थ’  में रूपान्तरित हो गई।    

सवाल: लेकिन क्या असल में दो झरबेरों के टकराने से नए फलों का बनना सम्भव है?
जवाब: जहाँं तक सिद्धान्तों की बात है तो ऐसा कर पाना निश्चित तौर पर सम्भव है। लेकिन वर्तमान में हमारी तकनीकी क्षमताएँ इतनी विकसित नहीं हैं कि हम झरबेरों को पर्याप्त गति दे पाएँ। इसलिए हम ऐसी वस्तुओं के साथ अपने प्रयोग करते हैं जोकि एक झरबेर से असंख्य गुना छोटी हों!


झरबेर के उदाहरण के बाद आइए कणों पर वापिस चलते हैं। अब तक की चर्चा के बाद हम सर्न के किसी प्रयोग की सामान्य रूपरेखा को समझने के लिए एक बेहतर स्थिति में हैं:
1. सामान्य पदार्र्थों में बहुतायत में पाए जाने वाले कणों (प्रोटॉन जैसे सूक्ष्माणु) को विद्युतीय व चुम्बकीय कणों से युक्त एक रिंग के आकार की बड़ी-सी मशीन में तेज़ी से घुमाते हुए लगातार उनकी रफ्तार बढ़ाई जाती है। त्वरक कहलाने वाली इन मशीनों का व्यास कई किलोमीटर तक हो सकता है। एक धागे के आखिर में बँधे हुए किसी पत्थर को घुमाए जाने की तरह ही आप किसी त्वरक में घूमते हुए कण की कल्पना कर सकते हैं।
2. कणों के द्वारा पर्याप्त गति पा लेने के बाद कुछ ऐसी व्यवस्था होती है जिससे दो कण आपस में टकराएँ जिसके चलते नए कण बनते हैं।
3. इसके बाद भौतिकशास्त्री संसूचक (detectors) की मदद से इस बात का पता लगाने की कोशिश करते हैं कि कण क्या करते हैं। डिटेक्टर्स से मिलने वाली जानकारी काफी सीमित होती है। इसलिए इन सारी जानकारियों  को  इकट्ठा  करके भौतिकशास्त्री शक्तिशाली कम्प्यूटर की मदद से एक तरह की पुलिसिया छानबीन करते हैं ताकि बेहतर ढंग से देखा जा सके कि आखिर कणों ने क्या किया।
4. इसके बाद जो कुछ करने को बचता है वो कुल मिलाकर यही है कि जो कुछ भी प्रयोग के दौरान हुआ उसकी समझ बनाने व व्याख्या करने की कोशिश की जाए।

बॉक्स - 3: नमूने के तौर पर प्रयोग-हॉल का एक नक्शा

चित्र में दिखाया गया वृत्तखण्ड (ॠ) क्कङग़् के छोटे सिंक्रोटॉन का हिस्सा है। इसके अन्दर दिखाई देने वाले छोटे-छोटे आयत कई सारे चुम्बकों को दर्शा रहे हैं। प्रोटॉन कण एक ऐसी ट्यूब में चक्कर लगाता है जिसमें से सारी हवा बाहर निकाली जा चुकी होती है। जिन दो स्थानों पर तीर का निशान है वहाँ ये कण एक धातु के टुकड़े से टकराते हैं और इस प्रक्रिया में उनकी ऊर्जा से अन्य कण बनते हैं। जिन कणों का हमें अध्ययन करना होता है उन्हें अलग कर खास ‘गलियारों’ में बढ़ा दिया जाता है, जहाँ उनके व्यवहार का अध्ययन डिटेक्टर्स (क़्) की मदद से किया जाता है।      


- तो इतना सब जानने के बाद हम कहाँ पहुँचे?
- हालाँकि, वास्तविक तौर पर यह बताना तो कभी भी आसान नहीं होता कि हमारे अनुसन्धान हमें किस दिशा में लेकर जाएँगे। लेकिन फिर भी हमारे अब तक के प्रयोगों से सृष्टि के संयोजन व उसके क्रमिक विकास, इसके मूलभूत घटकों (और एक तरीके से इसके सबसे बड़े घटकों) की संरचना, प्रकृति के मौलिक नियमों और यहाँ तक कि इन सवालों के बारे में हमारी समझ बेहतर हुई है कि आखिर क्यों किसी एक दिन यह सृष्टि खत्म हो सकती है।
(...जारी)



राफेल कर्रेरास् व गाय हैन्श: राफेल कर्रेरास् ने क्कङग़् के शैक्षिक विभाग में 1965 से तीस साल तक आउटरीच - विज्ञान को लोगों तक पहुँचाने का काम किया। उनके साप्ताहिक व मासिक व्याख्यान बहुत लोकप्रिय थे और इनमें आम जनता भी शामिल हुआ करती थी। वे खगोल भौतिकी से लेकर मनुष्य विज्ञान पर बात करते थे। इस लेख को अंग्रेज़ी में 1986 में उन्होंने गाय हैन्श के सहयोग से लिखा व डिज़ाइन किया। गाय हैन्श एक स्विस राजनयिक थे और उनकी पोस्टिंग क्कङग़् के सलाहकार के रूप में थी। इनका क्कङग़् के कई प्रकाशनों में योगदान रहा।
अनुवाद: विवेक मेहता: आई.आई.टी., कानपुर से मेकेनिकल इंजीनियरिंग में पीएच.डी. की है। एकलव्य के विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के साथ फैलोशिप पर हैं जिसके तहत वे हाईस्कूल की कक्षाओं के लिए गतिविधि आधारित मॉड्यूल तैयार कर रहे हैं। यह प्रयास, कनेक्ट्ड लर्निंग इनिशिएटिव, टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान के समर्थन से संचालित है।
चूँकि यह लेख सन् 1986 में लिखा गया था, कण भौतिकी के क्षेत्र में उसके बाद जो कुछ डिवेलपमेंट हुए हैं, उनके लिए संदर्भ के अंक-66 (नवम्बर-दिसम्बर, 2009) में प्रकाशित अजय शर्मा का लेख स्टैण्डर्ड मॉडल - हर चीज़ का एक सिद्धान्त ज़रूर देखें।