सौरभ रॉय[Hindi,PDF 209 KB]
उत्तराखण्ड  में  सतत  एवं  व्यापक  मूल्यांकन का पायलट कार्यक्रम 44 विद्यालयों के साथ लगभग ढाई साल तक चला। सतत एवं व्यापक मूल्यांकन के उद्देश्य के रूप में जिन मुख्य बातों का सबसे ज़्यादा ख्याल रखा गया वो थीं:
1. बाल केन्द्रित, नियमित, व्यापक और प्रभावशाली आकलन व्यवस्था को अपनाना।
2. बच्चों में तनाव को कम करते हुए  उन्हें रचनात्मक रूप से सीखने के अवसर उपलब्ध कराना।
3. कक्षा-कक्ष में आकलन की प्रक्रिया को बेहतर बनाने और सीखने का वातावरण निर्मित करने के साथ-साथ आकलन को एक सतत प्रक्रिया के रूप में अपनाना।
4. सीखे गए की बजाए सीखने के लिए आकलन पर ध्यान केन्द्रित करना।
इस पर काम करते हुए दो बिन्दुओं पर शिक्षकों के साथ लगातार बातचीत की गई। पहला, ‘कक्षा को विषयों की प्रकृति और उद्देश्यों को ध्यान में रखकर कैसे बेहतर रूप से संचालित किया जाए।’ और दूसरा, ‘कक्षा में जो काम हो रहा है और उस शिक्षण कार्य के दौरान बच्चे जो सीख रहे हैं इनके प्रमाण कैसे एकत्र किए जाएँ, और कैसे इनका दस्तावेज़ीकरण किया जाए।’
शिक्षकों के साथ इन चर्चाओं में यह कोशिश होती थी कि बच्चों के परिवेश और आसपास की बातचीत तथा परिवार के बीच बनी समझ को कक्षा में स्थान दिया जाए। इस सोच के पीछे इस समूह की यह मान्यता थी कि इससे बच्चों में आसपास के सामाजिक और भौतिक वातावरण तथा विभिन्न कार्यों से जुड़ने की क्षमता बढ़ती है।

इस प्रक्रिया में चर्चा के दौरान कई बार यह बात भी उभरी कि बच्चों को छोटे-छोटे समूहों में आपस में एक दूसरे के साथ अपनी समझ को साझा करने के मौके दिए जाएँ। समूह का यह  मानना  था  कि  बाल-केन्द्रित शिक्षाशास्त्र का अर्थ बच्चों के अनुभवों, उनके स्वरों और सक्रिय भागीदारी को प्राथमिकता देना है। यह इस समूह की राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 में उल्लेखित नज़रिए पर सहमति को दर्शाता है। इस सन्दर्भ में समूह ने यह तय किया कि इस प्रक्रिया में शामिल सभी शिक्षक साथी, बच्चों के सीखने पर बनी समझ को विषय की प्रकृति और उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए अपनी कक्षा में लागू करेंगे। साथ ही यह भी तय हुआ कि वे इसके प्रमाण अगली कार्यशालाओं में लेकर आएँगे ताकि यह जाना जा सके कि कैसे कोई शिक्षक साथी यह तय कर पा रहा है कि अमुक बच्चा सीखने के अमुक स्तर पर है।
शिक्षक साथियों के बीच पहले ही यह समझ बन चुकी थी कि एक अच्छी आकलन प्रणाली सीखने का अभिन्न अंग होती है और यह बच्चे, उनके अभिभावकों, शिक्षकों तथा शिक्षातंत्र को विवेचनात्मक और आलोचनात्मक रूप से देखने का नज़रिया बन सकती है।
इस प्रक्रिया में शामिल विद्यालयों के भ्रमण एवं अवलोकनों के दौरान कोशिश यह होती थी कि हम विद्यालयों में जाकर अपनी तरफ से कुछ न जोड़ें वरन वहाँ पर शिक्षक बिना किसी की मदद से किस तरह यह कार्य कर पा रहे हैं, इसे देखें और दर्ज करें। इसके पीछे यह मान्यता थी कि शिक्षकों का स्वयं पर विश्वास बढ़ेगा। इसके साथ ही इस बात का अन्देशा भी था कि वर्तमान परिदृश्य में जब कभी यह प्रक्रिया राज्य स्तर पर लागू होगी तो सभी शिक्षकों को सहयोग करना सम्भव नहीं हो पाएगा। प्रस्तुत लेख एक विद्यालय में शिक्षिका के द्वारा कक्षा शिक्षण और उसके दौरान हो रहे आकलन को आधार बनाकर लिखा गया है।

कक्षा कक्ष में
विद्यालय की कक्षा पाँच में कुल 27 बच्चे हैं जिसमें 17 बालिकाएँ हैं तथा 10 बालक। कक्षा में आने के बाद बच्चे अपनी बॉक्स फाइल से ‘मैंने जाना अपने आप’ नाम का एक प्रपत्र निकालकर उस पर मांगी गई जानकारी भरते हैं। इस प्रपत्र के कुछ खानों में समय और कुछ में सही अथवा गलत का निशान लगाना है। बच्चे इस प्रपत्र को स्वयं भर लेते हैं। इसमें बच्चे अपने सुबह उठने का समय लिखते हैं और साथ ही अपनी कई आदतों से सम्बन्धित खानों में सही या गलत का निशान लगाते हैं। ऐसा लगता है कि यह प्रपत्र भरना बच्चों की आदत में शुमार हो चुका है। शिक्षिका कक्षा पाँच में आज ‘बदली रसोई - बदला भोजन’ पर बातचीत कर रही हैं। उत्तराखण्ड के पाठ्यक्रम में भोजन के अन्तर्गत भोजन की विविधता, भोजन बनाने व खाने में बदलाव, भोजन का प्रारम्भ, भोजन की पौष्टिकता और कुपोषण को शामिल किया गया है। इस पाठ्य-पुस्तक में दी गई पाठ्यवस्तु को देखकर लगता है कि वह उपरोक्त को ध्यान में रखकर लिखी गई है।
शिक्षिका, “आपकी रसोई में क्या-क्या बनता है?”
बच्चे कुछ देर शान्त रहने के बाद ‘मैम मैं, मैम मैं’ बोलने लगते हैं। कुछ बच्चे कक्षा के पीछे मुझे बैठे हुए देख रहे हैं।

दो-दो और चार-चार के जोड़े
शिक्षिका: तुम्हारे घर की रसोई में क्या-क्या खाना बनता है, लिस्ट बनाओ और कॉपी में लिखो। कम-से-कम दस नाम होने चाहिए।
बच्चे अपनी कॉपियों में लिस्ट बनाने लगते हैं। लगभग 10 मिनट बाद शिक्षिका बच्चों को किसी एक अन्य बच्चे के साथ जोड़ा बनाने को कहती हैं।
शिक्षिका: अब ऐसा करो कि जिसके साथ अपना जोड़ा बनाया है उसकी कॉपी को देखो और उसने अगर कुछ ऐसा लिखा है जो तुम्हारी लिस्ट में नहीं है तो उसे भी लिख लो। अगर तुम्हारे दोस्त ने कोई खाने का नाम लिखा है और तुम्हें लगता है कि वह गलत है तो उसे सही कर देना।
बच्चे अपने दोस्तों (जोड़े के साथी) के साथ बैठकर उनकी कॉपी में लिखे भोजन की लिस्ट को देखकर अपनी लिस्ट से मिलान करते हैं। जो नाम उनकी लिस्ट में नहीं है उसे छाँटकर लिखते हैं। बच्चे लिखे गए नाम को सही करने के लिए बातचीत भी करते हैं। कक्षा में थोड़ा-बहुत शोर भी होता है, पर शिक्षिका कक्षा को कुछ भी नहीं कहती हैं। कुछ समय के बाद शिक्षिका बच्चों के दो समूह के पास जाती हैं। इन दोनों समूहों में एक-एक बच्चा अपनी लम्बाई और शारीरिक बनावट की वजह से अपेक्षाकृत अधिक उम्र का प्रतीत होता है। शिक्षिका उन बच्चों की कॉपियों को देखकर उन्हें मुस्कुराकर शाबाशी देती हैं। बाद में शिक्षिका से बात करने पर यह ज्ञात हुआ कि ये दोनों बच्चे विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की श्रेणी में आते हैं।
कुछ समय के पश्चात् शिक्षिका बच्चों को चार-चार बच्चों के जोड़े बनाने को कहती हैं। इस प्रक्रिया में दो-दो बच्चों के जोड़े आपस में मिलकर बैठ जाते हैं। तत्पश्चात् शिक्षिका बच्चों को अपने जोड़े में शामिल अन्य तीन बच्चों की कॉपियों को देखकर उन खाने की चीज़ों के नाम लिखने को कहती हैं जो उस बच्चे की अपनी कॉपी में पहले से नहीं लिखे हुए हैं। साथ ही शिक्षिका पुन: पहले का दिया हुआ निर्देश दोहराती हैं कि “अगर तुम्हारे दोस्त ने कोई खाने का नाम लिखा है और वह गलत है तो उसे सही कर देना।” शिक्षिका ऊपर की गई प्रक्रिया को ही फिर से दोहरा रही थीं, अन्तर बस इतना था कि पहले यह प्रक्रिया दो बच्चों के समूह में थी परन्तु अब चार बच्चों के समूह में। मैंने उनसे इसे दोहराने का कारण जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि वे बच्चों को समूह में कार्य करने के अधिक-से-अधिक मौके देना चाहती हैं। बात को आगे बढ़ाते हुए वे यह भी कहती हैं कि इस तरह के मौकेदेने से बच्चों में सीखना बेहतर होता है और वे आपस में एक-दूसरे का आकलन भी कर लेते हैं। अगर आप इन बच्चों से बात करें तो वे यह बता सकते हैं कि अमुक बच्चा लिख पाता है, पढ़ पाता है, वर्गीकरण कर पाता है आदि।

बोलना और लिखना
कुछ समय के बाद शिक्षिका बोर्ड के पास आती हैं और बच्चों को बोलती हैं कि “अब आप लोगों की लिस्ट में जो नाम हैं वे बोलिए और आपमें से ही कोई बोर्ड पर आकर लिखेगा।” बच्चे एक-एक करके घर की रसोई में बनी खाने की चीज़ों के नाम बताते हैं और उनके बीच में से ही कुछ बच्चे उठकर बोर्ड पर आकर उन्हें लिखते हैं। जब कुछ नाम आ गए तो बच्चों द्वारा बताए जाने वाले नाम रिपीट होने लगे। इस प्रक्रिया में जैसे ही नाम रिपीट होता बच्चे स्वयं ही कहते कि यह पहले आ चुका है इसलिए बोर्ड पर नहीं लिखा जाएगा। इस पर शिक्षिका ने यह कहा कि अब हम यह कोशिश करें कि जो भी नाम बताएँ वह रिपीट न हो। इस दौरान मैडम ने यह भी ध्यान दिया कि दो बच्चे जिन्हें वह विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की श्रेणी में मानती हैं, को भी उनके द्वारा लिखी गई चीज़ों के नाम बताने का अवसर मिले। इन बच्चों द्वारा जब नाम बताया गया तो 6 नाम रिपीट हुए पर शिक्षिका एवं कई सारे बच्चों ने कुछ भी नहीं कहा। अलबत्ता बाद में शिक्षिका ने उन्हें शाबाशी दी और बच्चों ने तालियाँ भी बजाईं। बोर्ड पर लगभग खाने के 138 नाम आए, उनमें से जो मैं लिख पाया वे नीचे दिए गए हैं:
चावल, दाल, रोटी, सब्ज़ी, फ्राइड राइस, छोला, स्पिं्रग रोल, चना, गुटके,    कचौड़ी, कढ़ी, हलवा, भटूरा, भुजिया, पापड़, गुड़ की खीर, खीर, पूड़ी, अण्डे, गुझिया, चाउमीन, चटनी, रायता, मीट, लस्सी, कटलेट, पराठा, भुट्टे की दाल,     मुर्गा, ढोकला, पास्ता, नमकीन, शहद, मछली, डुबका, मंचूरियन, लिंगड़ा, डोसा, पुलाव, फटवाणी, चेंस, लिट्टी-थोप्पा, झंगोरे की खीर, मक्का, चुडकाणी, चोखा, मँडुवा, भटवाणी बर्फी, सोयाबीन की बड़ी, समोसा, इडली, राजमा, गुलाब जामुन, कुलथ की दाल, पकोड़ा, सांभर, आर्से, बिरयानी, खरोड़ा, जलेबी, बर्गर, पोहा, कबाब, हरी सब्ज़ी, लडडू, मैकरोनी, पुआ, कीमा, चौलाई, मोमोज़, अचार, टिक्की, दही बड़ा, कस्टर्ड, केक, पनीर, आइसक्रीम, रसगुल्ला, घुघते, सरसों का साग, सालन, कोफ्ते, मनझोली, काफली।

जब कोई नया नाम आता तो बच्चे यह मिलाते कि यह नाम उनकी कॉपी में है या नहीं। अगर नहीं है तो वे अपनी कॉपी में दर्ज कर लेते। कई बार जब कोई नया नाम आता और बच्चों को नहीं पता होता कि वह क्या है तो बच्चे पूछते। इस पर मैडम ने कहा कि “अभी इसे लिख लेते हैं और बाद में इसके बारे में बात करेंगे।” बच्चे जिस भी नाम के बारे में पूछते, मैडम उसे अपने पास रखी एक डायरी में लिखती जातीं। इस तरह मैडम की डायरी में भी खाने की उन चीज़ों की लिस्ट बन गई जो बच्चे नहीं जानते थे। यह लिस्ट नीचे दी गई है:
स्प्रिंग रोल, गुटके, गुड़ की खीर, भट्टे की दाल, ढोकला, डुबका, मंचूरियन, पास्ता, चेंस, कुलथ की दाल, खरोडा, चौलाई, कस्टर्ड, घुघते, काफली, लिंगडा, लिट्टी, चोखा, थोप्पा, मंडुवा, सांभर, मैकरोनी, सालन, झंगोरे की खीर, आर्से, पुआ, कोफ्ते, फटवाणी, बिरयानी, कबाब, मनझोली।
लगभग डेढ़ घण्टे हो चुके थे तो शिक्षिका ने कहा, “अब इसके आगे कल करेंगे। तुम लोगों को लगता है तो खाने की लिस्ट के इन नामों को एक पन्ने में लिखकर अपनी ‘बॉक्स फाइल-2’ में लगा देना। इन खानों को राज्यों (उत्तराखण्ड, बिहार, पंजाब) के हिसाब से वर्गीकृत कर देना। चाहो तो भारतीय और चायनीज़ खानों के हिसाब से भी वर्गीकृत कर लेना। साथ ही कल इनमें (नीचे दी हुई चीज़ें) से कोई एक चीज़ तुम्हारे घर में कैसे बनती है के बारे में मम्मी या पापा से पूछकर लिखकर लाना।

- स्प्रिंग रोल
- गुटके
- गुड़ की खीर
- बिरयानी
- पुआ
- लिट्टी

अगला दिन - बच्चों से बातचीत
अगले दिन बच्चे किसी एक चीज़ के बारे में ‘वह कैसे बनता है’ लिखकर लाए थे। कक्षा में आते ही बच्चे अपनी बॉक्स फाइल में लगा ‘मैंने जाना अपने आपको’ नामक कागज़ पिछले दिन की तरह भरते हैं। शिक्षिका ने कुछ बच्चों को यह बताने का अवसर दिया कि वे क्या लिखकर लाए हैं। इसके साथ ही यह भी बात हुई कि यह खाना भारतीय है या चाइनीज़। भारतीय है तो पहाड़ का है या मैदान का, उत्तराखण्ड का है, बिहार का है या कहीं और का है इत्यादि। सबसे अन्त में गुड़ की खीर की बारी आई।
पूजा ने बताया, “दूध को पतीली में डालकर गैस पर रखते हैं और उसमें चावल डालकर उबालते हैं। इसके बाद जब चावल थोड़ा पक जाता है तो गुड़ को कूट कर उसमें डालते हैं। इसके बाद गुड़ की खीर बन जाती है।”
शिक्षिका: उबालने से पहले क्या करते हैं?
पूजा: गैस पर रखते हैं।
शिक्षिका: गैस पर रखने और उबालने के बीच में क्या करते हैं?
नसीम: गैस जलाते हैं।
शिक्षिका: गैस जलाने से क्या होता है।
नसीम: आग लग जाती है (कुछ बच्चे साथ में नसीम की हाँ में हाँ मिलाते हैं)।
शिक्षिका: उसके बाद क्या होता है?
रवि: चावल गरम हो जाता है।
शिक्षिका: अच्छा गैस कैसे जलाते हो?
नसीम: माचिस से।
कुछ बच्चे: लाइटर से।

शिक्षिका: अच्छा यह बताओ कि पहली बार आग कैसे लगी होगी?
बच्चे सोचने लगते हैं।
अली: मैम, बिजली से।
शिक्षिका: बिजली से कैसे?
अली: हमारे गाँव में बिजली गिरी थी तो मेरे खलिहान में आग लग गई थी।
शिक्षिका: खलिहान क्या होता है?
अली सोचते हुए: मैम, मेरे गाँव में वहाँ पर पुवरा (पुवाल) रखते हैं।
शिक्षिका: अच्छा, यह बताओ ये आग तो अपने से लग गई। अगर हमारे तुम्हारे जैसे लोग हों और आग लगानी हो तो उन्होंने आग कैसे लगाई होगी? तब तो माचिस और लाइटर भी नहीं थे।
बच्चे कुछ सोचने लगते हैं।
करतार: मैम, लोहे को लोहे से टकराओ तो चिंगारी निकलती है, उससे आग लगाई होगी। जब मेरे पापा लोहे में अपनी मशीन लगाते हैं तो उससे चिंगारी निकलती है।
शिक्षिका: बात तो ठीक है लेकिन उसमें भी बिजली का उपयोग होता है। तब तो न बिजली थी और न ही लोगों को लोहे की पहचान होगी।
अली: मैम, पत्थरों को टकराते हैं तो उससे भी चिंगारी निकलती है।
शिक्षिका: अच्छा! तो पहली बार आग पत्थरों को टकरा कर ही लगाई गई होगी।
रमा: ऐसे तो आदिमानव लोग आग लगाते थे। मेरी दीदी ने मुझे बताया था।
शिक्षिका: अच्छा ये आदिमानव कौन होते हैं?
रमा: जो लोग बहुत पहले से रहते हैं वे आदिमानव होते हैं।
शिक्षिका: तो आदिमानव दिखते कैसे हैं? कपड़े कैसे पहनते हैं? चलो अपनी कॉपियों में उनका एक चित्र बनाओ।

कक्षा में नाच-गाना
बच्चे अपनी कॉपियों में चित्र बनाने लगते हैं और शिक्षिका बच्चों की बॉक्स फाइल में लगी हुई खाने की चीज़ों की लिस्ट को देखकर अपनी टिप्पणियाँ लिखने लगती हैं। लगभग चार-पाँच कॉपियों को देखने के बाद वे बच्चों से पूछती हैं कि क्या काम हो गया है? तो बच्चे बोलते हैं, “नहीं मैम, अभी रंगना बाकी है।” बच्चे अपने काम में मगन हैं और मैम इसी बीच चार-पाँच बच्चों की बॉक्स फाइल को फिर से देखने लगती हैं। कुछ देर के बाद मैम बच्चों से कहती हैं, “चलो अपने इस चित्र को भी बॉक्स फाइल में लगा दो।” बच्चे स्वयं अपने चित्र को अपनी बॉक्स फाइल में लगाते हैं।
इसके बाद शिक्षिका बच्चों को ‘आदिमानवों को आग जलाने से क्या-क्या फायदे हुए होंगे’ पर घर से लिखकर लाने को कहती हैं। अपने इस काम में बच्चे मम्मी-पापा से पूछ सकते हैं -- शिक्षिका अपने निर्देश में यह भी कहती हैं।
अगले  दिन  बच्चे  ‘आग  से आदिमानव को क्या-क्या फायदे हुए होंगे’ पर लिखकर लाए। कक्षा में आते ही बच्चे अपनी बॉक्स फाइल में लगा ‘मैंने जाना अपने आपको’ पिछले दिनों की तरह भरते हैं। शिक्षिका ने कुछ बच्चों को यह बताने का अवसर दिया कि वे क्या लिखकर लाए हैं। इस पर बच्चों ने बताया कि “इससे अँधेरा दूर हो गया होगा, माँस पकाने पर अच्छा लगता होगा, जानवरों को दूर भगा पाते होंगे” आदि। इस दौरान शिक्षिका ने उन दो बच्चों को जिन्हें वे विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की श्रेणी में रखती थीं, को भी बताने का अवसर दिया। इसके बाद शिक्षिका ने यह कहा कि “आग लगाकर हम लोग खाना बनाते हैं। मैंने करतार के चित्र में देखा है कि आदिमानव लोग आग के इर्द-गिर्द नाच रहे हैं। तुम लोगों को क्या उस तरह का नाच आता है? चलो हम लोग गाना गाते हैं और नाचते हैं।” कक्षा में बहुत शोरगुल होने लगा। कुछ बच्चे जो बिहार से आए थे वे कहते हैं, “मैम हम गाएँगे और रमा नाचेगी।” बच्चे गाना गाने लगते हैं और कुछ बच्चे खड़े होकर नाचने लगते हैं। इस दौरान शिक्षिका भी एक गढ़वाली गाना गाती हैं।

आदिमानव के कपड़े-गहने
लगभग 20-25 मिनट तक इस गाने की प्रक्रिया के बाद शिक्षिका बच्चों से इस पर बातचीत शु डिग्री करती हैं कि आदिमानवों के गहने और कपड़े कैसे होंगे। अधिकतर बच्चों द्वारा पत्तों से बने कपड़े और पत्थरों से बने गहने के उत्तर पाकर शिक्षिका बच्चों को विद्यालय के आस-पास के पत्तों और पत्थरों से इन्हें बनाने को कहती हैं। बच्चे स्कूल के आसपास के पत्ते और पत्थर चुन लेते हैं और शिक्षिका के पास आकर उन्हें जोड़ने के लिए धागा और सुई माँगते हैं। इस पर शिक्षिका कहती हैं, “उस समय तो धागा और सुई नहीं हुआ करती थी, तो आदिमानव अपने कपड़े कैसे बनाते होंगे? सोचो और उनके कपड़े और गहने बनाकर लाओ। चाहो तो घर में दीदी, भइया या मम्मी-पापा की मदद भी ले सकते हो।” यह कहते हुए श्क्षििका आज की कक्षा यहीं  समाप्त करती हैं।
अगले दिन बच्चे पत्तियों को केले के रेशों, बाँस, सुतली, नीम के डण्ठल आदि से जोड़कर आदिमानवों के कपड़े बनाकर लाए थे। करतार तो यही पहनकर आया था।
बच्चे रोज़ की तरह ‘मैंने जाना अपने आपको’ भरते हैं। शिक्षिका ने बच्चों को उनके द्वारा बनाए कपड़े और गहने आगे आकर सभी को दिखाने को कहा। सभी बच्चे एक-एक करके आगे आते हैं और अपने द्वारा बनाए गए कपड़े तथा गहने दिखाते हैं। कक्षा में 9 बच्चे कुछ भी बनाकर नहीं लाए थे। शिक्षिका उनसे इसका कारण अलग से जाकर एक-एक करके पूछती हैं। इनमें से अधिकतर बच्चे इन्हें खुद नहीं बना पाए थे। दो बच्चे ऐसे थे जिनकी माँ नहीं थी और उनके पिताजी ने बनाने में उनकी कोई मदद नहीं की। शिक्षिका इस पर कहती हैं, “कोई बात नहीं, आज स्कूल के बाद तुम लोग कुछ देर रुकना। हम सब मिलकर इन्हें बनाएँगे।”
अब शिक्षिका कहती हैं, “अच्छा यह बताओ हमारी रसोई में बर्तन कौन-कौन-से हैं?” और शिक्षिका ने बर्तनों के साथ भी पहले की गई प्रक्रिया दोहराई।
शिक्षिका की टिप्पणियाँ और विचार
मैं चार दिन तक ही विद्यालय जा पाया। चौथे दिन विद्यालय के बाद शिक्षिका बच्चों की बॉक्स फाइल को देखकर अपनी डायरी में कुछ टिप्पणियाँ लिख रही थीं। मुझे उनकी टिप्पणियों को देखने का मौका भी मिला। उनकी कुछ टिप्पणियाँ निम्न थीं:
अली - कक्षा की बातचीत में शामिल होता है। उसे प्रश्न समझ में आते हैं और स्वयं पहल कर उसके उत्तर देने की कोशिश करता है। उसने लिखने के दौरान अपनी लिस्ट पर अन्य बच्चों से बातचीत भी की। लिखने के दौरान वह शब्दों को बुदबुदाकर पढ़ता भी है।
अपने चार के समूह में उसने कुछ शब्दों (खाने और बर्तनों के नाम) को सही से लिखने के लिए अपने दोस्तों से बात की। शब्द सही लिखे या गलत, इनमें अन्तर कर पाता है। आसपास की चीज़ों का अवलोकन कर उसकी सूची बना पाता है।
करतार - आसपास की चीज़ों का सूक्ष्म अवलोकन कर अन्य परिस्थितियों में अवलोकित कार्य अथवा चीज़ों का कहाँ उपयोग करना है यह भी बता पाता है। चित्रकला में काफी रुचि है। चित्रों और रंगों का संयोजन बेहतर है।

किसी भी नए कार्य में रचनात्मकता के साथ भाग लेता है और पहल करता है। झिझक नहीं है, जैसे आज आदिवासी के कपड़े पहनकर आना। सूची बनाने में कुछ कार्य करने की ज़रूरत है। शब्दों को लिखने में मात्राओं की गलतियाँ हैं।
मैंने शिक्षिका से पूछा कि इस पूरे काम का उद्देश्य क्या है। उन्होंने बताया कि “मेरी कक्षा में अलग-अलग परिवेश से आए बच्चे हैं। सबकी संस्कृति अलग है, पालन-पोषण अलग तरह से हुआ है। कुछ बच्चे पंजाब के हैं, कुछ झारखण्ड के, कुछ बिहार के, दो बच्चे बंगाली हैं और बाकी उत्तराखण्ड के हैं। कक्षा की यह विविधता शुरुआत में काफी दिक्कत देती थी पर काम करते-करते यह लगने लगा कि इस विविधता को ही कई जगहों पर अपनी ताकत के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। मैंने यह कोशिश की कि पाठ्यक्रम और पाठ्यवस्तु को लेकर उन विषयों की सूची बनाई जाए जहाँ यह विविधता कक्षा में पढ़ाने के दौरान मददगार हो। यह पाठ उनमें से एक है। इस पाठ को पढ़ाने के दौरान मेरी यह कोशिश होती है कि बच्चों को उनके अपने घर के भोजन से परिचित कराते हुए अलग-अलग राज्यों के भोजन की ओर बढ़ाया जाए और अलग-अलग तरह के भोजन के वर्गीकरण पर कुछ शुरुआती कार्य किया जाए। भोजन कैसे बनता है इस पर भी कुछ बातचीत की जाए और भोजन बनने की शुरुआत कैसे हुई, पर भी कुछ रोशनी डाली जाए। अभी यह प्रक्रिया कक्षा में दो दिन और चलेगी। अभी हम लोग आदिमानव और आग तक पहुँचे हैं, और आगे चलकर भोजन की पौष्टिकता और भोजन की कमी से होनी वाली दिक्कतों के बारे में भी बातचीत करेंगे।”

सतत और व्यापक मूल्यांकन
सतत और व्यापक मूल्यांकन पर काम करते हुए यह समझ बनी कि यह साल के अन्त में या पाठ के अन्त में होने वाला आकलन नहीं है वरन् इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण यह है कि कैसे बच्चों को सीखने की प्रक्रिया में शामिल कर सीखने के वातावरण को रचनात्मक बनाया जाए ताकि सीखना पहले की अपेक्षा सुलभ हो सके। उन्होंने आगे यह भी कहा कि बच्चे अलग-अलग राज्यों में कौन-कौन-सा खाना बनता है, समझ पाए हैं। वे खुद बच्चों के पूर्व-ज्ञान को कक्षा में स्थान दे पाईं हैं। शिक्षिका स्वयं भी यह मानती हैं कि वे भी इन चीज़ों को समझ रही हैं और सीख रही हैं इसलिए उन्हें लगता है कि जिन प्रक्रियाओं को वे कक्षा में कर रही हैं उन्हें और बेहतर तरीके से किया जा सकता है।
हमने शिक्षिका से पूछा कि वे ‘मैंने जाना अपने आपको’, ‘बॉक्स फाइल’ और ‘डायरी’ में लिखी इन टिप्पणियों का क्या करती हैं तो उन्होंने बताया कि हर महीने बच्चों की बॉक्स फाइल से ‘मैंने जाना अपने आपको’ प्रपत्र इकट्ठा कर उसका विश्लेषण किया जाता है। इस प्रपत्र में बच्चों के अन्दर कुछ आदतों को विकसित करने की कोशिश की जा रही है। हमारे अपने मन में बहुत सारे प्रश्न थे कि क्या इन आदतों (जो कि इस प्रपत्र में दी गई हैं) का चुनाव सही है भी कि नहीं। खैर इस पर हमने शिक्षिका से कोई बात नहीं की। हर दिन पाँच बच्चों की बॉक्स फाइल देखने की कोशिश होती है। कई बार यह नहीं भी हो पाता है। लेकिन प्रत्येक सप्ताह में सभी बच्चों की बॉक्स फाइल एक बार देख लें, ऐसी योजना है। कक्षा में बच्चों की सहभागिता, काम और बॉक्स फाइल में किए गए काम को ध्यान में रखकर डायरी में टिप्पणियाँ लिखी जाती हैं। और डायरी में लिखी गई टिप्पणियों की मदद से बच्चों के प्रगति पत्र में वर्ष में दो बार टिप्पणियाँ लिखी जाती हैं। डायरी की टिप्पणियों की मदद से सीसीई रजिस्टर को भरने में भी मदद मिलती है।
इस विद्यालय की तरह ही कई और विद्यालयों के शिक्षक-शिक्षिकाएँ भी अपनी कक्षाओं में सीसीई पर कार्य कर रहे हैं। इन शिक्षकों को सीसीई पर काम करने की एक दिशा मिल रही है। सतत एवं व्यापक मूल्यांकन की अवधारणा पर कार्य करने का मार्ग साफ हो रहा है। अब महत्वपूर्ण बात यह है कि राज्य भी राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रुपरेखा 2005 में वर्णित विद्यालयों के स्वरुप को सम्भव बनाने में अपने स्तर पर योगदान दे।


सौरभ रॉय: कैवल्य एजुकेशन फाउंडेशन (पिरामल फाउंडेशन फॉर एजुकेशन) दिल्ली के साथ काम कर रहे हैं।
सौरभ रॉय ने यह लेख अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, उत्तराखण्ड में काम करने के दौरान हुए अपने अनुभवों के आधार पर लिखा है।
सभी चित्र: हीरा धुर्वे: भोपाल की गंगा नगर बस्ती में रहते हैं। चित्रकला में गहरी रुचि। साथ ही ‘अदर थिएटर’ रंगमंच समूह से जुड़े हुए हैं। वर्तमान में रियाज़ अकेडमी, एकलव्य से इलस्ट्रेशन का कोर्स कर रहे हैं।